प्रश्नकर्ता: आचार्य जी मैं बीएड की प्रशिक्षु हूं अभी और मैं इंटर्नशिप पे एक स्कूल में गई हुई हूं। तो उस स्कूल में सभी जो विद्यार्थी हैं वो लड़के हैं। तो जब भी हम उन्हें मेनली पढ़ाने जाते हैं तो या तो वो गंदे कमेंट करते हैं या फिर अश्लील जैसे गाने गाते हैं, सीटी बजाते हैं। ये क्लास के अंदर भी होता है और बाहर भी। मैंने इस बारे में अपने टीचर से भी बात की थी तो उन्होंने वहां के वाइस प्रिंसिपल से मेरी बात कराई। वाइस प्रिंसिपल ने कोई एक्शन तो नहीं लिया। उन्होंने उल्टा मुझसे ही कह दिया कि आप ही नहीं कर पा रही हैं। आप ही के साथ ऐसा हो रहा है। आप ही टैकल नहीं कर पा रही हैं इस चीज को। बाकी के साथ तो नहीं हो रहा है।
तो इस बारे में यह बात चली तो बच्चों के साथ कोई एक्शन नहीं लिया गया। उसके बाद वहीं के एक टीचर ने मुझे छेड़ने की कोशिश की। फिर जब मैंने मना किया तो उन्होंने कहा आपकी मानसिकता ही खराब है। आप ऐसा सोच रही हैं। अब मुझे समझ में नहीं आ रहा मैं इसमें करूं क्या? क्योंकि कोई एक्शन नहीं लिया जा रहा। ना टीचर ले रहे हैं ना कोई लड़की साथ देने को तैयार है। तो इस बारे में आप मार्गदर्शन कीजिए। क्या कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: देखो टैक्टिकल लेवल पर मतलब जो ठोस कर्म है उसके तल पर क्या करना है, यह बता पाने के लिए तो मुझे इस केस का एक-एक डिटेल विवरण पता हो तो मैं बता पाऊंगा। फिर मैं यह भी जानना चाहूंगा कि आपको इस जॉब की कितनी जरूरत है। यहां से आमदनी कितनी है और क्या कोई वैकल्पिक नौकरी उपलब्ध है आपको। यह सब बातें मुझे पता होनी चाहिए। नहीं तो अगर मेरा पहला उत्तर यह भी हो सकता है कि छोड़ दो इसको अभी लात मार दो जाके दूसरी जॉब ज्वाइन कर लो। लेकिन वो मैं तब बोलूं जब दूसरी जॉब या तो आसानी से मिल सकती हो या आपको अभी उपलब्ध हो। तो मुझे वो सब डिटेल्स अगर पता हो तो ही मैं आपको कोई ठोस सलाह दे सकता हूं। पर मुझे वो वो डिटेल्स पता है नहीं। तो मैं क्या बताऊं? इसी तरह मैं यह भी नहीं जानता कि आपको अभी रुपए पैसे की जरूरत कितनी रहती है और इस नौकरी के माध्यम से आपको कितना मिलता है मुझे वह भी अभी नहीं पता। आपके ऊपर जिम्मेदारियां वगैरह कितनी है मैं वह भी नहीं जानता। तो मैं आपको कोई बिल्कुल एक्शनेबल बात नहीं बोल पाऊंगा।
लेकिन इतना जरूर बोलूंगा कि प्रतिकूल हालात में अपने आप को झुकने नहीं देने का ना बड़ा गजब स्वाद होता है। दुनिया जब चाहती हो कि आप दुनिया ही जैसे हो जाएं। दुनिया के ही तौरतरीकों के आगे सर झुका दें। उस समय आप अपनेपन पर डटे रह उसका आनंद अलग होता है। जो चीज आप जानती ही हैं कि गलत है उसको मत करिए स्वीकार। अगर नौकरी नहीं भी छोड़ सकती हैं और वहां आपको किसी कारणवश लगे ही रहना है तो भी हर तरीके से अपना विरोध जताती रहिए। और भूलिए नहीं कि यह कोई आपके साथ घट रही विशिष्ट घटना नहीं है। यह एक व्यापक बात है जिसमें हमारे समाज की स्थिति, शिक्षा, संस्कार सब पता चलते हैं। तो अगर हमें इस चीज से सचमुच लोहा लेना है तो समस्या की जड़ पर ही आघात करना होगा।
जब लोग आते हैं कई बार कहते हैं हमारे परिवार में हमारी यह दुर्दशा है, यह हो रहा है, वो हो रहा है। हमारे बच्चे बिगड़ रहे हैं उदाहरण के लिए आपके यहां भी जो छात्र हैं, बच्चे हैं, बिगड़े हुए हैं। कई बार वैसे भी लोग आते हैं, मां-बाप आते कहते हैं, हमारे बच्चे बिगड़ रहे हैं। मैं कहता हूं एक तो उसका तात्कालिक उपचार है कि बच्चे के साथ ऐसे ऐसे करो तो क्या पता उसको सद्बुद्धि आए। लेकिन अगर तुम्हें उसका असली उपचार करना है तो उस जगह के खिलाफ लड़ो जहां से सबको बिगाड़ा जा रहा है। वो कौन सी जगह है जहां से सबकी बुद्धि, मन, चेतना खराब करने वाली ताकतें काम कर रही हैं। उसको समझो और उसके खिलाफ मोर्चा लो। वही काम हम यहां संस्था में करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन वो दिखाई नहीं देता।
अगर आपको कोई छेड़ रहा हो लड़का और मैं आकर के वहीं पर सशरीर उस लड़के को रोक दूं और उसको भगा दूं तो आपको लगेगा आचार्य जी ने मदद करी। लेकिन अगर मैं ऐसा माहौल पैदा कर रहा हूं कि जिसमें यह छेड़ाछाड़ी की घटनाएं घटे ही कम तो बात उतनी साफ-साफ पता नहीं चलती। ऐसा लगता नहीं कि कुछ हुआ। लेकिन असली महत्व का काम तो यही है कि सारी बदतमीजियां मन से पैदा होती हैं और मन को ही साफ करना पड़ेगा। लेकिन इस प्रक्रिया में समय लग सकता है। तो जो टैक्टिकल एक्शन होता है, जो तत्काल करना होता है, वो चीज यह नहीं होती। वो आप आपको कोई पांच लोग आ रहे हैं और आपकी ओर जरा गड़बड़ इरादों से बढ़ रहे हैं तो आप उस वक्त पर उनका मन शुद्ध करने का उपक्रम नहीं कर सकती हैं कि तो वो पांच आपकी ओर आ रहे हैं और आप कहें कि आओ मैं तुमको भजन सुनाऊंगी तो उससे बात बनेगी नहीं तो उस वक्त तो यही है कि चिल्लाना हो तो चिल्लाओ चांटा मारना हो तो चांटा मारो और दिखाई दे कि ये ज्यादा ही है चार पांच है चांटा मारने से होगा नहीं तो पुलिस को फोन मिलाओ, पुलिस ना आती हो तो भाग जाओ फिर तो यही सब है।
वह तो सिचुएशनल अवेयरनेस की फिर बात होती है कि इस समय पर क्या करा जा सकता है। वहां पे फिर आदर्शों से काम नहीं चलता है। वहां तो फिर जिस तरीके से जान बचानी है बचाओ। और अगर उस जगह को छोड़ने का विकल्प मौजूद हो तो जल्दी से जल्दी छोड़ भी दो। मुझसे पूछोगे तो मैं तो यही कहूंगा कि हम एक एक हायर ऑर्डर प्लेस से पूरे समाज को ही साफ करने का काम कर रहे हैं। मेरे देखे तो वही समाधान है क्योंकि सिर्फ आपके साथ ही बदतमीजी या छेड़छाड़ नहीं हो रही है ना। तमाम लड़कियों के साथ हो रही है बच्चों के साथ हो रही है।
और दुर्व्यवहार ऐसा नहीं कि सिर्फ महिलाओं के साथ हो रहा है। पुरुषों के साथ भी कई तरह के दुर्व्यवहार चल रहे हैं। जिनको अपनी अकल नहीं है वो लोग सबके साथ हिंसक होते हैं। स्त्री हो, पुरुष हो, बच्चे हो, बूढ़े हो सबके साथ। तो उसको ठीक करने का काम कर रहे हैं। लेकिन एक काम जो आपको नहीं करना है वह मैं आपको बता ही देता हूं। झुकिएगा मत। जो आपकी बात नहीं सुन रहे उनके जैसा मत बन जाइएगा। भले ही आपको दिखाई दे कि आपके रेजिस्टेंस से, आपके विरोध से कोई फर्क नहीं पड़ रहा लेकिन आप अपना विरोध कायम रखिएगा। भले ही मैं और कुछ ना कर पाऊं, लेकिन मैं तुम्हारे जैसी तो नहीं बनूंगी। यह बात पक्की रहे। ठीक है?
प्रश्नकर्ता: जी। सर मेनली जो इसी बारे में है क्योंकि बाकी लड़कियों के साथ भी हो रहा है लेकिन वो कुछ बोल नहीं रही है तो ऐसा लग रहा है कि उनके साथ कुछ नहीं हो रहा है सिर्फ मैं ही कह रही हूं मेरे ही साथ हो रहा है।
आचार्य प्रशांत: आप कहती रहिए, आप कहती रहिए। मैं जब आईएम से निकला था तो किसी ने पूछा था कि आपके लिए यहां सबसे बड़ी उपलब्धि क्या रही, अचीवमेंट क्या रही? वो लोग शायद ईयर बुक में लिखना चाहते थे। मैंने कहा सबसे बड़ी ये रही कि आई डिडट अलाउ मसेल्फ टू बी कोऑप्टेड। वहां का जो सिस्टम था ना वो चाहता था आपको एक तरह का आकार दे देना, वो आपके मन को कॉलोनाइज करना चाहता है। वह क्या है सब के सब यहां आए हो तो यू हैव टू थिंक इन दिस पर्टिकुलर वे एंड फ्रॉम दिस पर्टिकुलर सेंटर। मैंने कहा मेरी मेरी यहां जीत यह है कि मैं अपनी निजता बरकरार रख पाया। मैंने सिस्टम को अपने ऊपर चढ़ने नहीं दिया। ऐसा नहीं कि मैंने सिस्टम बदल दिया पर सिस्टम मेरे ऊपर चढ़ा नहीं और मेरे लिए यह पर्याप्त है।
अभी हम जयपुर गए थे। वहां पर कोई कार्यक्रम था तो वहां से जब लौट रहे थे ना, मैं गाड़ी में पिछली सीट पर बैठा था तो अरावली वाली पहाड़ियां थी और उस दिन बादल छाए हुए थे थोड़ा-उधर, बारिश वारिश हो रही थी। तो वहां पेड़ बहुत नहीं होते। तो मैंने एक जगह पर देखा एक लंबा चौड़ा क्षेत्र था। उस में बस एक पेड़ खड़ा हुआ था। बस एक पेड़, एक पेड़ पेड़ के आगे पीछे कुछ भी नहीं। फसलें भी नहीं, घास भी नहीं, कुछ भी नहीं। थोड़ी बहुत घास रही होगी। और हवा जोर से बह रही थी। खूब जोर से हवा बह रही थी। ठीक है? थोड़ा इसको मन में चित्रित करो।
एक अकेला पेड़ खड़ा हुआ है। कोई और पेड़ नहीं दिखाई दे रहा। नजर में कुछ नहीं आ रहा। सब खाली है। एकदम सुनसान बंजर जैसा। एक पेड़ खड़ा हुआ है। और हवा बह रही है। और जब जोर से हवा बह रही थी तो उसकी शाखें, उसकी पत्तियां सब ऐसे हो रही थी जैसे आदमी के बाल उड़े ना हवा आती है तो बाल पीछे को उड़ते हैं ना तो वैसे उसकी पत्तियां भी पीछे को उड़ रही थी उसकी शाखे भी ऐसे पीछे को थोड़ा मुड़ रही थी। पर वो ऐसे खड़ा हुआ जैसे कोई छाती ताने खड़ा हो। अकेला खड़ा है और हवाएं आ रही हैं। मैंने उसको देखा मुश्किल से 5 सेकंड को देखा होगा। गाड़ी आगे बढ़ गई। बात समझ में आ रही है? कोई और नहीं है। अकेले खड़े हैं और हवाएं तेज हैं। पर जगह नहीं छोड़ेंगे। हवाओं को रोक नहीं सकते पर उखड़ना भी हमें स्वीकार नहीं है।
जैसी व्यवस्था है हो सकता है अभी हम उसको ना बदल सकते हो। शायद हमारे विरोध से कोई साकार परिवर्तन होता हमें दिखाई भी ना दे। लेकिन फिर भी हम विरोध करते रहेंगे। दिख रहा है हमें कि हमारा विरोध कोई फल नहीं ला रहा लेकिन फिर भी हमारा विरोध कायम रहेगा। इससे क्या होता है? इससे यह होता है कि जब परिस्थितियां थोड़ी अनुकूल होती है ना तो आप पाते हो कि आप में एक जबरदस्त ठोस सशक्त केंद्र बन चुका है। और जैसे ही परिस्थितियां अनुकूल हुई अब आप बहुत कुछ कर जाते हो। बहुत कुछ।
जैसे कि जब बारिश होती है तो जो पेड़ गर्मी में झुलस के मर नहीं गया बस खड़ा रहा। जब बारिश होती है तो उस का क्या होता है? एकदम हरिया जाता है। है ना? वैसे ही। जब कुछ और नहीं कर सकते तब भी डटे रहो। जब आगे नहीं बढ़ सकते तो कम से कम पीछे मत हटो, खड़े रहो। आप चित्रकारी करती हो तो उस पेड़ का चित्र बनाइएगा और कहिएगा यह।
लोग पूछते हैं ना आचार्य जी के गुरु कौन है? मैं तो ऐसे ही सीखता हूं। गाड़ी में बैठा हूं। बाहर देखता रहता हूं और बस जिंदगी सिखाती जाती है। हां, नियत मेरी यह रहती है कि मैं पेड़ से भी सीख लूंगा। समझ रहे हैं बात को? आप हताश मत होइएगा। अभी हो सकता है आपको अपने विरोध का कोई फल आता दिखाई ना दे लेकिन स्थितियां बदलती हैं। आप मजबूती अपने भीतर पैदा करिए। वो मजबूती सही समय पर रंग दिखाती है फिर। ठीक है।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। सर छोटी चीजें जो होती है उनको हम जगत में पा ले तो कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन बड़ी चीज को जगत में पाने जाओगे तो लात खाओगे बड़ी चीज हमेशा भीतर ही होती है। लेकिन हम छोटी चीज को जाने अनजाने इसलिए पाने भागते हैं क्योंकि बड़ी उसके माध्यम से बड़ी चीज मिल जाए। तो क्या हमें छोटी चीज को पाना चाहिए भी कि नहीं?
आचार्य प्रशांत: छोटी चीज को छोटी चीज को छोटे की जगह देकर पालो। उससे बड़ी उम्मीदें मत रख लेना। उदाहरण के लिए खाना है एक चीज हमें चाहिए शरीर की आवश्यकता है वह, ठीक है? खाना पेट भर देगा इसलिए जाके दुकान से खाना खरीद लो पर खाना अगर इसलिए खरीदोगे कि खाना जिंदगी भर देगा तो जिंदगी तो नहीं भरेगी तोंद भर जाएगी। मुक्ति नहीं मिलेगी इतना बड़ा घड़ा मिल जाएगा मटकी मिल जाएगी। समझ में आ रही है बात?
छोटी चीज को जानो कि छोटी है और उसको छोटे ही उद्देश्य के लिए खरीदो। जो लोग खाने को खाने के लिए खाते हैं उनका स्वास्थ्य बनता है। जो लोग खाने को जिंदगी को भरने के लिए खाते हैं कि जिंदगी में बड़ी अभी तन्हाई है, यह है समस्या है, खाएं उनको मटका मिलता है। छोटी चीज तो हमें चाहिए पर छोटे उद्देश्य के लिए चाहिए ना। छोटी चीज से बड़ी उम्मीदें नहीं पालते। खाना पेट भर देगा ये उम्मीद बिल्कुल जायज है। खाना जिंदगी भर देगा। ये उम्मीद बड़ी गड़बड़ है। हम छोटी चीजों से बड़ी उम्मीदें कर लेते हैं। ये बात गड़बड़ है। छोटी चीज से छोटी उम्मीद रखो। कोई समस्या नहीं है। समझ में आई है बात या बस अबाक हो?
फिजिकल फुलफिलमेंट और साइकोलॉजिकल फुलफिलमेंट अलग-अलग बातें हैं। फिजिकल में फाइनेंशियल भी आ गया। वह सब अलग-अलग बातें हैं। साइकोलॉजिकल फुलफिलमेंट नहीं मिल पाएगा। मैं साइकोलॉजिकल बोल रहा हूं और अगर उसको सटीक बोलना है तो बोलो स्पिरिचुअल, स्पिरिचुअल फुलफिलमेंट। फिजिकल फुलफिलमेंट चाहिए होता है ले लो। किसको नहीं चाहिए ले लो खाना चाहिए होता है नहाना चाहिए होता है नींद चाहिए होती है कपड़ा चाहिए होता है ले लो। फाइनेंसियल फुलफिलमेंट भी चाहिए होता है किसको नहीं चाहिए कपड़ा कहां से मिलेगा अगर पैसा ही नहीं होगा तो? चश्मा आप पहने हो कैसे कैसे होगा नहीं होगा तो? ये सामने मेरे लैपटॉप रखा है, कैमरा रखा है। ये सारी बातें कैसे होंगी? अगर पैसा नहीं होगा तो ले लो फाइनेंसियल फुलफिलमेंट। उसकी अपनी एक जगह है। लेकिन तुम यह सोचो कि पैसे से साइकोलॉजिकल फुलफिलमेंट मिल जाएगा, मानसिक पूर्णता मिल जाएगी तो यह नहीं होने वाला।
दुनिया में समस्या यह है कि लोग छोटी चीज से बड़ी जरूरत को पूरा करना चाहते हैं। हैं। वो सोचते हैं कि पैसे के माध्यम से मैं जिंदगी को पूरा कर लूंगा कि मैं पैसे से पूर्णता खरीद लूंगा। पैसे से पूर्णता नहीं खरीद पाओगे। लेकिन बहुत सारी चीजें हैं जो तुम पैसे से खरीद सकते हो उनको बेशक खरीदो। लेकिन उनको जब खरीदो तो कभी यह उम्मीद मत कर लेना कि उनसे पूर्णता मिल जाएगी। और जब ये उम्मीद नहीं रहती ना कि पैसा पूर्णता दे देगा तो आदमी अंधों की तरह पैसे के पीछे नहीं भागता फिर। हमारी सबकी सीमित जरूरतें हैं। पैसा चाहिए होता है। पर उतना भी नहीं जितना लोगों की कामनाएं होती हैं हवस होती है। लोग बिलियन बिलियन डॉलर रख के बैठे हुए हैं और उनके पास जिंदगी का कोई उद्देश्य नहीं है। उनसे पूछो तूने कमाया क्यों? कोई उत्तर नहीं है। उत्तर यह है कि उन्हें लग रहा है कि और कमाऊंगा तो शायद भीतर की बेचैनी मिट जाए। खोखलापन भर जाए वो भरेगा नहीं कभी डायमेंशनल डिफरेंस है ना
हम आप यहां जमीन पर कितना भी दौड़ लो आकाश पर थोड़ी पहुंच जाओगे? बहुत ज्यादा पैसा कमाने वाला सोच रहा है कि जमीन पर ज्यादा दौडूंगा तो आकाश पहुंच जाऊंगा। पैसा कितना भी इकट्ठा कर लो आकाश नहीं मिल जाएगा उससे। हां कई बार जमीन पर कुछ जगहें चाहिए होती हैं कुछ चीजें चाहिए होती हैं तो जमीन पर दौड़ के वह जगह मिल जाएंगी वह चीजें मिलंगी। वह ठीक है। वहां तक ठीक है। वह अध्यात्म भी बड़ा गड़बड़ है जो कहता है कि पैसा तो त्याज्य वस्तु है और पाप है और हाथ का मैल है। हाथ का मैल-वैल नहीं होता है। मेहनत से कमाया जाता है। और उसकी कुछ वाजिब उपयोगिता भी होती है। जहां तक उसकी एक वाजिब उपयोगिता है। पैसा जिंदगी में रखो। लेकिन एक बिंदु आता है और वो जल्दी आ जाता है। तुम्हें दिखाई देता है कि अब मुझे जो चाहिए वो पैसे से नहीं मिल सकता। अब उसके बाद अंधाधुंध पैसा कमाने से कुछ नहीं होगा। तो इतना कमाओ भी कि अपने काम चल सके। कहीं हाथ ना फैलाना पड़े। लेकिन उसके ज्यादा कमाने की कोशिश व्यर्थ है।
इसी बात को ज्ञानी लोग कैसे बोल गए? उन्होंने साहब उन्होंने बिल्कुल नहीं कहा कि एकदम मत कमाओ। उन्होंने कहा नहीं इतना तो जरूर कमाओ कि कुछ जरूरी काम है वह हो। लेकिन कहा उसके आगे कमाना जीवन बर्बाद करने वाली बात है क्योंकि कमाने में समय लगता है श्रम लगता है ना, जीवन लगता है पैसा कमाने में जो पैसा तुम्हारे उपयोग का ही नहीं है उसको कमाने में तुमने जो जीवन लगाया श्रम लगाया वो जीवन की बर्बादी हो गया। इतना दीजिए जामे कुटुंब समा ये वाजिब जरूरत है अब बच्चा पैदा करके बैठे हो तो उसे स्कूल तो भेजना पड़ेगा।
साहिब इतना दीजिए जामे कुटुंब समाए। अब कुटुंब पैदा करा है तो उसकी जरूरत तो पूरी करोगे तो इतना तो कमाओ। और मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाए तो इतना तो कमाना पड़ेगा। लेकिन इससे ज्यादा कमाओगे तो पागल हो जाओगे। इतना जरूर कमाना पर इससे ज्यादा मत कमाना। समझ रहे हो बात को? दो तरह के विक्षिप्त होते हैं। एक जो कमाए ही जा रहे हैं और दूसरे जो पाखंडी होकर कह रहे हैं कि पैसा तो….
प्रश्नकर्ता: माया है।
आचार्य प्रशांत: है ना? मैल है। हाथ का पाप है। माया है। पैसा ना पाप है ना पुण्य है ना मैल है ना मुक्ति है। जिंदगी की छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक उपयोगी चीज है। वो छोटी चीजें आप ले आइए पैसे से। दुनिया में वह सब छोटी जरूरतें आपकी पूरी हो जाएंगी और उन्हें करना भी पड़ता है। क्या नंबर है आपके चश्मे का?
प्रश्नकर्ता: थ्री।
आचार्य प्रशांत: थ्री। सोचो चश्मा टूट जाए और जेब में फूटी कौड़ी नहीं है तो क्या होगा?
प्रश्नकर्ता: कुछ दिखेगा नहीं।
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं दिखेगा। हां। तो ये वो जरूरतें हैं जिनमें पैसा आवश्यक है। ठीक है? लेकिन पैसा अंधाधुंध खर्च करके भी अगर मुक्ति खरीदना चाहोगे, सत्य खरीदना चाहोगे, प्रेम खरीदना चाहोगे तो नहीं मिलेगा। हमें पता होना चाहिए कहां तक पैसा उपयोगी है और उसके बाद पैसा उपयोगी नहीं है। ना पैसे का अपमान करना ना उसके पीछे अंधाधुंध भागना दोनों ही बातें गलत है।
पैसे की बात हम क्यों कर रहे हैं? क्योंकि पैसा मटेरियल को खरीदता है। और दुनिया क्या चीज है, मटेरियल चीज है। आपने कहा ना छोटी जरूरतें दुनिया में पूरी हो जाती हैं। तो दुनिया माने पदार्थ मटेरियल जिसका रिश्ता पैसे से है।