तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।४१।।
हे भरतवंशश्रेष्ठ अर्जुन! इसलिए इंद्रियों को संयत करके ज्ञान-विज्ञान का नाशक ये जो पापरूपी काम है, इसका परित्याग करो।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ४१
आचार्य प्रशांत: इकतालीसवें श्लोक में कह रहे हैं कि ‘अर्जुन, इसीलिए इंद्रियों को संयत करके, जो ज्ञान-विज्ञान का नाशक पापरुपी काम है, इसका परित्याग करो।‘ पाप का परित्याग करो, उसके बिना बात बनेगी नहीं।
अर्जुन का प्रश्न क्या था जिसके उत्तर में ये सब बातें हैं? वापस जाते हैं हम छत्तीसवें श्लोक पर, ‘हे कृष्ण! तो किसके द्वारा परिचालित होकर मनुष्य अनिच्छा होते हुए भी बलपूर्वक जैसे किसी के द्वारा संचालित होकर, पाप करता है?’ कामना। कृष्ण का एक शब्द में उत्तर है – कामना। कामना कराती है सारे पाप, और कामना ही पापों से मुक्ति दिलाती है, यदि वो कृष्ण-कामना हो।
हम क्यों कह रहे हैं कि कामना ही सब पापों से मुक्ति दिलाती है? क्योंकि बात जीव की हो रही है न और जीव तो प्रकृति का ही पुतला है। प्रकृति का ही दूसरा क्या नाम है? कामना। हमने क्या बोला था? ‘मैं’ माने काम। तो काम तो रहेगा ही वरना जीव नहीं हो सकता। तो करना क्या है फिर काम का? उसको कृष्ण की ओर मोड़ देना है।
एक ही चीज़ चाहिए और उसके प्यार में डूब गए हैं। हल्का-फुल्का प्रेम नहीं है हमारा, क्षुद्र की कामना नहीं है हमारी, बहुत गहरा प्रेम है हमको। तितर-बितर छितराया प्यार नहीं है कि ये माँग लिया, वो माँग लिया, जो दिखा वही अच्छा लग गया, कभी इसपर हाथ रख दिया, कभी उसपर निगाह कर ली; मतलब नहीं। एक से प्रेम है और उसका ऐसा कुछ गहरा ख़ुमार है, मद है – बहुत कम बेहतर शब्द हैं इससे, इसलिए इन शब्दों का प्रयोग करना पड़ रहा है; अन्यथा वो जो परम प्रेम है, वो वास्तव में नशे से बहुत आगे की बात है, पर फिर भी कह रहा हूँ, मद – तो वो एक चीज़ है जो जीवन में माँग ली है और अब वही ज़िंदगी बन गई है। टूट-फूट से अब कोई मतलब नहीं कि आधे इधर के और आधे उधर के।
एक गठन आ गया है, एक सौष्ठव आ गया है, एकरूपता आ गई है। कुछ ऐसा मिल गया है जो अपरिवर्तनीय हो गया है भीतर। बाहर का माहौल बदलता रहता है, भीतर एक ही धार है जो अटूट रहती है। जैसे एक ही धुन भीतर बजे जा रही हो, बाहर कुछ भी शोर-शराबा हो। जैसे ऐसे ही हेडफोन लगा लिया हो, तुम्हें क्या पता इधर-उधर क्या आवाज़ें आ रही हैं, तुम कृष्ण का हेडफोन लगा लो। हो रहा होगा बहुत कुछ दुनिया में, और ऐसा नहीं कि हमें उससे मतलब नहीं, हम उसको भी सुन रहे हैं। हेडफोन ऐसा है जो उसको भी सुनता है। उसको सुन रहे हैं तब भी कृष्ण को सुन रहे हैं; कृष्ण पहले हैं, दुनिया बाद में है।
दुनिया को सुनें चाहे न सुनें, कृष्ण को पूरा सुनते रहते हैं अनवरत, वो नहीं रुकता। बाहर की कोई आवाज़ आ गई अगर तो देख लेते हैं कि उधर भी क्या मसला है, वो भी कर देंगे। अब जन्म लिया है, जीव हैं, तो बाहर का भी कुछ मसला है तो देख लेंगे, निपटा लेंगे। पर जो भी निपटाना है, उसे निपटाने से पहले हैं कृष्ण। जो भी निपटाना है, उसे निपटाना भी कृष्ण की आज्ञा अनुसार है। कृष्ण पहले हैं, कृष्ण मालिक हैं।
कृष्ण समझ रहे हो न? कृष्ण से आशय क्या है? कृष्ण से आशय है सत्य, मुक्ति; वो सबसे पहले है। उसको पहले रखकर के दुनिया के आगे के काम देखने हैं। दुनिया के काम कैसे देखने हैं, वो भी हम उन्हीं से पूछेंगे, 'आप बताइए दुनिया में ये तमाम तरह के काम हैं, इसमें से कौनसा काम देखें और कैसे देखें?' वो बता देते हैं, 'ये काम करने लायक है।' कौनसा काम करने लायक है? ‘पगले! जब तेरा पहला प्रेम मैं हूँ, तो वही काम करने लायक है न जो तुझे मुझ तक लेकर आए। वो काम कर, उन्हीं कामों को चुनना है।‘
तो कौन से काम नहीं चुनने हैं जीवन में? किस दिशा में कामना को नहीं बढ़ने देना है? ‘ऐसी कामना मत कर लेना जो तुझे मुझसे दूर ले जाती हो; अगर मुझसे प्रेम है। मुझसे प्रेम नहीं है, तो भी तू स्वतंत्र है। मैंने तो जितने जीव हैं, सबको इच्छा अनुसार चलने की स्वतंत्रता दे ही रखी है। कोई मुझे बिलकुल पीठ दिखा दे, मैंने तो ये स्वतंत्रता भी दे दी है। तुम्हें जिसको पूजना हो, जिसको चाहना हो, चाहो। मैं किसी को रोकने-टोकने नहीं आता, लेकिन यदि तुमको मुझसे प्रेम है तो मैं सलाह दिए दे रहा हूँ कि कामना वो चुनना जो मुझ तक लाती हो और ऐसी कामना से बचना जो मुझसे दूर ले जाएगी।‘
पहले ही सतर्क हो जाना, कामना बहुत बड़ा, विशाल वृक्ष बन सकती है। जब कामना का बीज नया-नया अंकुर फेंक रहा हो, छोटी-छोटी कोपलें, तभी सतर्क हो जाना। कहना ‘अगर अभी इसको नहीं उखाड़ दिया तो कितना बड़ा वट बन जाएगा कुछ हिसाब नहीं, दूर ले जाएगा फिर उनसे।‘ समझ में आ रही है बात?
एक ही पेड़ नहीं खड़ा होता। कामना छितराई हुई होती है न, तो कामना के बीज भी चारों तरफ़ छितराए हुए होते हैं। फिर वो एक पेड़ नहीं खड़ा होता, वो जंगल खड़ा होता है और वो शुरुआत सब ऐसे ही होती है। क्या? वो छोटे-छोटे, नन्हें, उसमें से पौधे निकल रहे हैं, पत्तियाँ फूट रहीं हैं; कुछ लगता ही नहीं कि खतरनाक हो रहा है। हो रहा है क्या? किसको लगेगा कुछ खतरनाक हो रहा है? लेकिन ये जो दिख रहा है, इतना विशाल वृक्ष, ये भी कभी क्या था? क्या था कभी? बीज ही था। सोचो इसने धरती से जब सिर ऐसे पहली बार उठाया होगा तो कितना नन्हा रहा होगा, किसी को लगेगा क्या कि खतरा है? नहीं लगता खतरा है। और जब तक तुम्हें पता चलता है कि खतरा है, तब तक वो ऐसा हो चुका होता है कि तुम कुछ अब करने लायक बचते नहीं। समझ में आ रही है बात?
तो इसलिए अर्जुन, इंद्रियों को वशीभूत करके ज्ञान-विज्ञान के नाशक पाप का – माने कौनसे पाप का? अर्जुन ने यहाँ पूछा था, ‘क्या पाप है?’ तो कौनसे पाप की यहाँ बात हो रही है? काम – त्याग करो। 'इंद्रियों को वशीभूत करके ज्ञान-विज्ञान के नाशक इस काम का त्याग करो।' इंद्रियों को ही क्यों कहा कि वशीभूत करो? हमने तो अभी सुना था कि काम के तीन आश्रय स्थल हैं। कौन-कौनसे? इंद्रियाँ, मन और बुद्धि। तो इंद्रियों को ही क्यों कहा कि रोको? क्योंकि ज़्यादा आसान है और ज़्यादा व्यावहारिक है। मन को रोक नहीं सकते। क्यों नहीं रोक सकते? हमने क्या कहा था, मन क्या है? अहम् के आसपास का सारा माहौल, जिसमें चीज़ें आ रहीं हैं, जा रहीं हैं, ये हो रहा है, वो हो रहा। ये पूरा संसार, यही मन है। ठीक है? कैसे रोकोगे? तुम हो तो संसार तो रहेगा-ही-रहेगा।
बुद्धि काम करना तभी शुरू करती है जब पहले एक लक्ष्य तय हो जाए। जब लक्ष्य तय हो जाता है तो बुद्धि उसकी ओर जाने का उपाय खोजती है, रास्ता खोजती है। इंद्रियाँ हैं जो ऐसे विषयों को तुम तक ले आती हैं कि तुम उन्हें लक्ष्य बना लेते हो। नहीं तो संसार में ऐसा भी बहुत कुछ है जो व्यक्ति को चेतना दे सकता है, शुद्धता दे सकता है, पूर्णता दे सकता है। लेकिन इंद्रियाँ ऐसी नालायक हैं कि आप तक लेकर ही वही आ रहीं हैं जो आपको और अचेतन करेगा, और नशे में गिराएगा। तो इसलिए इंद्रिय-निग्रह पर इतना ज़ोर दिया गया है अध्यात्म में।
देखो कि तुम्हारी आँखें, तुम्हारे कदम बढ़ किधर को रहे हैं, बहुत सतर्क रहो। एक बार आँखों ने उसको देख लिया और कदम उस तक पहुँच गए, उसके बाद बुद्धि तो अपनेआप सक्रिय हो जाएगी कि अब इसको पाऊँ कैसे और उठाऊँ कैसे। आरंभ ही मत होने दो। जो देखने लायक नहीं है, आँखों को क्यों अनुमति देते हो उसे देखने की? हम अनुमति ही नहीं देते, हम तो आँखों को वहाँ तक लेकर के जाते हैं अपने कदमों से। जो सुनने लायक नहीं है, कानों को क्यों अनुमति देते हो कि उसको सुनें?
सब देख लेना, सब सुन लेना जब कृष्ण जैसे हो जाना, तब कुछ भी वर्जित नहीं रहेगा। अभी अपनी हालत को देखो। और तुम कहो, ‘नहीं, हम इंद्रिय-संयम नहीं करेंगे, हम तो मन संयम करेंगे।‘ कृष्ण यहाँ इंद्रिय-संयम की बात कर रहे हैं। तुम कहो, ‘इंद्रिय-संयम नहीं करेंगे, मन-संयम करेंगे। हम तो ऐसे हो जाएँगे कि कुछ भी रहे, कैसा भी रहे, मन संयमित रहेगा।‘ कृष्ण जानते हैं भलीभाँति। उन्होंने एक नहीं, हज़ारों अर्जुन देखे हैं। उन्हें मालूम है कि ऐसा कर नहीं पाओगे। मन तुम्हारा रुकेगा नहीं, इंद्रियाँ एक बार अगर बहक गयीं तो। तो कह रहे हैं, बात शुरू ही मत होने दो। इतनी ठोकरें खा चुके हो, एक और खाने में तुम्हारी क्या इतनी रुची है?
इन्हीं आँखों ने न जाने कितनी बार तुम्हें रुलाया है। आँखें थोड़े ही रोती हैं, तुम्हें रुलाती हैं। हम सोचते हैं, आँखें रो रहीं हैं, नहीं; आँखें करतूतें ऐसी करती हैं कि तुम्हें रोना पड़ता है। इन्हीं आँखों के रुलाए इतने रोए हो तुम, इतने आसूँ झरे हैं, फिर क्यों इधर-उधर देखते, तमाशा बटोरते रहते हो? जिधर तमाशा है, उधर से दूर हो जाओ। उत्सुकता की क्या बात है? वो तमाशा कोई पहली बार देख रहे हो कि कहोगे कि अभी उत्सुकता है कि क्या हो रहा है? उसी तमाशे में तुम कितनी बार तो बंदर बन चुके हो, उस नाटक के कितनी बार तुम पात्र रह चुके हो, उत्सुकता अभी मिटी नहीं क्या? अब और क्या देखना चाहते हो बार-बार?
कोई ऐसा हो जो बहुत ईमानदारी से दावा करे कि ‘नहीं आज तक कुछ नहीं देखा, पहली बार देखना है‘, तो चलो उसको फिर शर्तों के साथ कुछ अनुमति दी भी जा सकती है कि जा थोड़ा-सा अनुभव कर ले। आपने क्या ऐसा है जो अनुभव नहीं करा? आपके लिए क्या जानना देखना अभी शेष रह गया है? उसके बाद भी मन को संयमित नहीं रख पाओगे, इंद्रियों को ही संयमित रखो। और रही बात बुद्धि की, उसको तो जो लक्ष्य दे दोगे, वो उसी तक पहुँचने के लिए कोई बड़ा तिकड़मी उपाय खोज ही लेगी। बुद्धि का काम ही यही है, ‘बताओ क्या करना है? मैं करके दिखाऊँगी!’
एक बार तुमने मन बना लिया कि कोई चीज़ पानी है फिर पाने का उपाय दूर बचता है क्या? वो तो बुद्धि का काम है, तो बुद्धि तो हट ही गई। और इंद्रिय और मन में, मन को रोकना ज़्यादा मुश्किल है, इंद्रियों को रोकना अपेक्षतया सरल है। तो कृष्ण कह रहे हैं, इंद्रिय-संयम। इंद्रिय-संयम मात्र निषेधात्मक ही नहीं होता, सकारात्मक भी होता है। उसमें सिर्फ़ यही नहीं शामिल है कि क्या नहीं देखना है, क्या नहीं सुनना है, कहाँ नहीं बैठना है; उसमें ये भी सम्मलित है कि निश्चितरूप से किसको रोज़ देखना है।
भक्त इसीलिए रोज़ अपनी शुरुआत करता है, भगवान का चेहरा देखकर, मूर्ति के सामने सिर झुकाकर, ये भी इंद्रिय-संयम है। क्योंकि प्राकृतिक रूप से तो देखो सुबह उठते ही तुम्हारी इच्छा होगी नहीं कि तुम कृष्ण का चेहरा देखो। यहाँ पर मेरा कृष्ण से आशय है कृष्ण का मानवीय चेहरा, अवतार चेहरा। किसका मन होता है? सुबह उठते ही कोई भी पशु किधर को भागता है? वो भागता है कि ‘देखूँ, कामनाओं का कहाँ पर इंतज़ाम हो जाएगा? इच्छाओं की पूर्ति, भोजन वगैहरा कहाँ हो जाएगा?’ यही सब, तुम काम-धंधे की तरफ़ भागते हो, नहीं? इंद्रिय-संयम का अर्थ है – सुबह उठते ही सबसे पहले कृष्ण की ओर भागो।
बड़ी परंपरा रही है, लोगों ने इसका पालन भी करा है। कहते हैं कि दिन वैसा ही बीतेगा, सुबह उठते ही सबसे पहले जिसका चेहरा देख लिया हो, वैसा ही बीतेगा। तो लोगों ने बड़ी सावधानियाँ बरतीं, वो सोते समय अपने कमरे में चारों ओर ऐसे मूर्ति लगा देते थे या कुछ लिख देते थे या प्रतीक लगा देते थे। जैसे ही आँख खुले तो यही दिखना चाहिए। और सूर्य को अर्ध्य करने की भी जो पूरी प्रथा है उसमें भी यह भाव निहित है। सुबह उठते ही सूर्य को देखो, पूरा दिन प्रकाशित बीतेगा।
इसलिए कुछ लोगों नें ऐसा कर लिया कि घर में जो उन्हें सबसे प्रिय होता था उसको ज़िम्मेदारी दे देते थे कि तुम सुबह आकर हमको उठाओगे ताकि जैसे ही आँख खुले सामने तुम्हारा चेहरा देखें। ये सब इंद्रिय-संयम है। सुबह उठते ही कृष्ण का चेहरा देखो, अपने-आपको इस तरह का प्रशिक्षण दे दो कि हाथ अपनेआप बढ़ जाया करें। गीता रखी है, अपनेआप हाथ बढ़ गए, प्रशिक्षण देने की बात है।
गाड़ी में बैठे हो, तुम्हारे सामने कुछ सुनने का अवसर है, अपने-आपको ऐसा प्रशिक्षण दे दो कि अपनेआप जो सही शब्द हैं उनको ही सुनो। कानों में सही संगीत ही जाना चाहिए। टाँगें हैं, इनको प्रशिक्षण दो न कि सही जगह जाकर बैठें, सही व्यक्ति के सामने बैठें। शरीर को बताओ कि सही आसन में बैठना है। किसके सामने कैसे बैठना है, इसकी मर्यादा आनी चाहिए। कहाँ पर शरीर की गति कैसी होनी चाहिए, मुद्रा कैसी होनी चाहिए, ये सब इंद्रिय-संयम में आता है, और ये बहुत आवश्यक है।
क्योंकि इंद्रिय-संयम नहीं है तो चोट सीधे मन पर पड़ेगी और मन नहीं झेल पाएगा। इंद्रियाँ एक बार मन तक चोट करने वाला मसाला लेकर आ गईं तो उसके बाद मन नहीं झेल पाता। कम-से-कम हम जैसे हैं, साधारण आदमी, हमारा मन नहीं झेल पाएगा। होंगे कोई अद्भुत-विलक्षण लोग, जिनका कर लेता हो ऐसा, आपका तो नहीं झेल पाएगा। तो अपनेआप को, अपनी इंद्रियों को, नकारात्मक-सकारात्मक दोनों तरह का प्रशिक्षण दे करके रखो। ये असली सांस्कृतिक बात होती है। संस्कृति का असली अर्थ यही है – जानना। कहाँ झुक जाना है, कहाँ खड़े रह जाना है, कैसे खाना है, किसको देखना है, कहाँ बैठना है, कहाँ नहीं बैठना है, किस क्षण तत्काल कौनसा कर्म कर ही देना चाहिए, ये सब इंद्रिय-संयम में आता है।
इंद्रिय-संयम आवश्यक है क्योंकि जो प्राकृतिक आवेग होता है वो आपको उल्टी ही दिशा में ले जाता है और वो तुरंत उठता है। वो एक प्रतिक्रिया की तरह होता है किसी भी क्षण में। कोई घटना घट रही है, भीतर से तुरंत एक प्राकृतिक प्रतिक्रिया आ जाती है और आपने अगर अपने-आपको प्रकृति के विरुद्ध जाने का, प्रकृति से ऊपर का कर्म करने का प्रशिक्षण नहीं दे रखा है, तो फिर आप वही कर जाओगे जो प्रकृति आपसे प्रतिक्रियात्मक तौर पर करवा देना चाहती है।
बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी है कि उनको बचपन से ही सही संयम करना सिखाया जाए। नहीं तो वो अपनी प्राकृतिक प्रतिक्रियाओं को ही आत्मिक कर्म समझ लेंगे। वो कहेंगे, 'मुझे ऐसा लगता है, तो मैंने ऐसा किया। कहीं पर चिल्लाने का मन कर रहा है, मैं चिल्ला दिया।' वो तुम नहीं चिल्ला दिए, वो भीतर का जानवर है जो भौंक दिया। तुमको पता भी नहीं लगा, तुमको लगा कि ‘ये तो मेरी निजता की अभिव्यक्ति थी। ये तो ऐसी चीज़ थी जो मैं स्वयं करना चाहता था और मैंने उसको अभिव्यक्त कर दिया’ – तुमने नहीं अभिव्यक्त किया है। समझ में आ रही है बात?