जीवन के हर मुद्दे को समस्या मत बना लेना || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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जीवन के हर मुद्दे को समस्या मत बना लेना || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मुझे कई बार अजीब-सी स्थिति अनुभव होती है, उस समय मन में कोई हलचल या बेचैनी इत्यादि नहीं होती है, साँस भी तब बहुत स्थिर और लयबद्ध हो जाती है, दिल की धड़कनें स्पष्ट अनुभव होती हैं और उस समय बस पड़े रहना अच्छा लगता है। कुछ समय बिताने के बाद जब उठते हैं, चलते-फिरते हैं तो थकान तो नहीं लगती है, पर फिर भी भारीपन लगता है, सन्नाटा जैसा छाया रहता है।

यह कोई समस्या नहीं है, मेरे पास कोई उलझाव भी नहीं है। एक दुर्घटना ने मुझे सत्तर प्रतिशत विकलांगता दी है, इस कारण शारीरिक गतिविधियाँ सीमित हो गयी हैं। प्रतिदिन नौकरी के बाद परिवार के साथ ही जीवन हँसी-ख़ुशी और ध्यान आदि में गुज़रता है। आजकल यह ज़रूर हो रहा है कि ज़्यादा बोलने का मन नहीं होता, अकेले बैठे रहना ही अच्छा लगता है।

आचार्य जी, ये क्या है? क्या मैं उदासीनता की ओर बढ़ रहा हूँ?

आचार्य प्रशांत: आपने जितनी बातें लिखी हैं, उसमें से एक बात ही विशेष महत्व की है, और वो बात यह है कि आप जिस दौर से गुज़र रहे हैं, आपको जो बीच-बीच में, यदाकदा अनुभव होते हैं, वो कोई समस्या नहीं हैं।

जीव का संयोग कुछ ऐसा होता है कि वो समस्याओं में ही पैदा होता है, समस्याओं में ही जीता है और समस्याओं में ही उसकी जान जाती है। तो जब कभी-कभार अनुग्रहवश, अनुकंपावश ऐसा हो भी जाता है कि उसे शांत जीवन की झलक मिलती है, समस्याएँ सारी थम जाती हैं, तो वो इस अनुभव को—जोकि वास्तव में अनुभव है ही नहीं, वो वास्तव में अनुभव का अभाव है—तो वो इस अनुभव को भी नयी समस्या बना लेता है।

जिन्हें क्रोध आता है, उन्हें समस्या यह है कि वो क्रोधी हैं। जिन्हें क्रोध नहीं आता, वो मेरे पास यह समस्या लेकर आ जाते हैं कि “क्या हममें कर्मठता की और पौरुष की कमी है? लोग कहते हैं कि तुम कैसे मर्द हो जो तुम्हें क्रोध नहीं आता।”

जो बेचैन रहते हैं, वो मेरे पास यह कहकर आते हैं कि, "हमें बड़ी बेचैनी है।" जो बेचैन नहीं रहते, वो आते हैं और कहते हैं कि, "हमारी समस्या यह है कि हमारे पास जीवन में कोई प्रेरणा नहीं है, हमें किसी चीज़ की ललक नहीं अनुभव होती, हम दूसरों की तरह मोटिवेटेड (प्रेरित) नहीं अनुभव करते।"

तो समस्या तो समस्या है ही, कई बार हमें लगता है कि समस्या का अभाव समस्या से ज़्यादा बड़ी समस्या है। जब तक आदमी के पास बहुत कुछ होता है करने को, तो वो कहता है, "क्या बताएँ, ज़िंदगी बड़ी ख़स्ताहाल है। दम लेने की फ़ुर्सत नहीं है।" और जब आदमी के पास करने को कुछ नहीं होता, तो वो आता है और कहता है, "क्या बताएँ, बड़ा सूनापन है, रिक्तता है। ऐसा लगता है कि हम बड़े नकारे हैं, अकर्मण्य हैं। दुनिया में सबके पास धंधे हैं, व्यवसाय हैं, कर्तव्य हैं, हमारे पास करने को कुछ नहीं।"

परिवार होता है, और बड़ा परिवार होता है, सगे-संबंधी होते हैं तो समस्याएँ होती हैं, कहते हैं कि, "फलाना जान खाता है, नात-रिश्तेदार जीने नहीं देते, बीवी ख़ून पीती है।" और यही सब जब नहीं होते, तो आ करके रोते हैं, "बड़ा सूना जीवन है। हमें पूछने वाला तो कोई है ही नहीं, आचार्य जी। 'आगे नाथ न पीछे पगहा, ओखे नाम न रोवे गदहा'। क्या धन्यभागी होते हैं वो जिनकी घर पर कोई प्रतीक्षा करता है! अरे! हम मरें या जिएँ, ज़माने को फ़र्क़ ही नहीं पड़ता।"

तुम्हें चाहिए क्या?

एक बात बड़े पते की लिखी। उसी बात को मूल्य दीजिएगा और उस पर अडिग रहिएगा कि आपको समयचक्र के रुक जाने का जो अनुभव होता है, जिसे मैंने कहा कि वो वास्तव में सामान्य जैसा अनुभव है ही नहीं, वो बिलकुल कोई समस्या नहीं है। उसके प्रति बिलकुल कोई रवैया ना रखें, कोई नज़रिया ना रखें, उसे कोई नाम ना दें। और यदि उसके प्रति कोई भावना रखनी भी है तो मात्र यही भावना रखें कि, "जो है, बड़ा शुभ है, मैं अनुगृहीत हुआ।"

ऐसा ना हो कि परमात्मा द्वार खटखटाता हो और हम उसके प्रति संशय से ऐसे भरे हों कि वो बेचारा प्रतीक्षा ही करता रह जाए। ऐसा ना हो कि हमें लगातार कड़वे अनुभव ही झेलने की ऐसी आदत लगी हो कि अब जब सत्य और परम मूल्यवान भी उतरता हो हमारे आँगन में, तो हमें यही लगे कि कोई चोर कूदा है। आपके साथ जो स्वतः ही हो रहा है, उस तक पहुँचने के लिए बहुत लोगों को अथक साधना करनी पड़ती है। आपका सौभाग्य है कि आपको बिन माँगे मोती मिल रहा है।

और क्यों मिल रहा है बिन माँगे मोती?

शायद उसका कारण भी यही है कि जिस दुर्घटना ने, जिस संसार ने, जिस संयोग ने आपको विकलांगता दी, उसके होते हुए भी आप नकारात्मकता से, विद्वेष से और शिकायत से नहीं भर गए। आपने लिखा है कि आप नौकरी करते हैं, घर आते हैं, ध्यान करते हैं, दो-चार हँसी-ख़ुशी की बातें करते हैं और ऐसे जीवन बिता रहे हैं; ये सुंदर बात है।

अधिकांश लोग जिनके साथ कोई दुर्घटना घट जाती है, वो जीवन के प्रति बड़ी कड़वाहट से भर जाते हैं। उनके लिए हँसना मुश्किल हो जाता है, वो लगातार शिकायत ही करते रहते हैं कि, "मेरे साथ बुरा हो गया, मेरे साथ बुरा हो गया!" आपको जो दुर्घटना मिली, कदाचित वो आपकी परीक्षा थी। आप उस परीक्षा में शायद सफल हो रहे हैं।

शांति के जो अपूर्व पल आपको नसीब हो रहे हैं, वो परीक्षा में सफल होने का पुरस्कार है आपका। उस पुरस्कार को अनुग्रहपूर्वक ग्रहण करें, उदासीनता इत्यादि का नाम ना दें। जब ऊँचे-से-ऊँचा अपने पास आता हो, तो उसे अपने प्रेम के अलावा, अपने आँसुओं के अलावा और अपने समर्पण के अलावा ना कुछ देते हैं, ना कुछ कहते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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