सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु। साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।
सुहृद् (दिल का अच्छा), मित्र और वैरी के प्रति उदासीन (अर्थात् निष्पक्ष, पक्षपातरहित), मध्यस्थ (द्वैत के दोनों सिरों में से कहीं भी स्थापित नहीं), द्वेष्य और बन्धुगणों में (शत्रुओं और मित्रों में), धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यंत श्रेष्ठ है।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक ९
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, समभाव रखते हुए अनंतता की तरफ कैसे आगे बढ़ें?
आचार्य प्रशांत: आपसे जो मित्रता दिखाते हैं आमतौर पर, क्यों दिखाते हैं? और आपसे जो शत्रुता दिखाते हैं, क्यों दिखाते हैं? अगर आप यह समझ लें तो आपको दोनों बिलकुल एक से दिखने लगेंगे, हँस पड़ेंगे आप।
अभी हम इसको पढ़ रहे हैं, मुझे गुरुग्रंथ साहिब जी की वाणी याद आ रही है। उसमें गुरु तेग बहादुर एक जगह कहते हैं, “हर्ष शोक व्यापे नहीं, बैरी मीत समान।” यह क्या बात है कि जहाँ बैरी-मीत समान हो जाता है।
जहाँ कृष्ण कह रहे हैं, “मित्र और वैरी, दोनों के प्रति उदासीन, जो द्वेष्य है अर्थात् जिससे द्वेष रखा जा सकता है, उसके प्रति भी वैसा ही जैसा अपने बन्धु-बांधुओं के प्रति, धर्मात्माओं और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यंत श्रेष्ठ है।” जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने ये क्यों कही है बात? मैं कह रहा हूँ कि आप समझो तो कि जो आपका दोस्त है, वह दोस्त क्यों है, जो आपका शत्रु है, वह शत्रु क्यों है। उसके बाद दोनों बिलकुल एक से दिखाई देंगे।
बंदर को अमरूद दिखाइए। क्या करेगा? आपकी ओर आएगा। कुत्ते को हड्डी दिखाइए। वह आपके सामने पूँछ हिलाएगा। यह क्या हो रहा है? यह प्रकृति के नियम का पालन हो रहा है। दोनों को आप कुछ ऐसा दे रहे हैं जो उनके देहवर्धन में सहायक होगा।
और प्रकृति क्या चाहती है? कि देह आगे बढ़ती रहे। आपकी देह समय में आगे बढ़ती रहे, यही प्रकृति का क़ायदा है। आगे ही ना बढ़ती रहे, कई गुना होकर विस्तार पाती रहे; आपकी कोशिकाएँ जगह-जगह फैलाती रहे, बनी रहे और विस्तार भी पाती रहे। यही प्रकृति की इच्छा है, और इस इच्छा को आप बड़ी आसानी से देख सकते हैं प्रकृति के अवलोकन के द्वारा। सिर्फ देखने की ज़रूरत है, साफ़ दिख जाएगा कि प्रकृति में और कुछ चल ही नहीं रहा, बस यही चल रहा है।
तो प्रकृति में कोई किसी का दोस्त क्यों बनता है? शरीर की ख़ातिर। कुत्ते को हड्डी दिखा दी, वह दुम हिला रहा है। कोई सुंदर स्त्री दिख गई, आपने उसके सामने दुम हिलानी शुरू कर दी। इच्छा दोनों ही मामलों में एक ही है। क्या? शरीर की। कुत्ता भी शरीर की ख़ातिर आपके सामने दुम हिला रहा है, आप भी शरीर की ख़ातिर किसी औरत के सामने दुम हिला रहे हो, है न?
और दुश्मनी कैसे होती है? जिस औरत के सामने दुम हिला रहे थे, उससे बड़ी याचना करी, बड़ी भीख माँगी देह की, और वह मानी नहीं तो उसके दुश्मन बन गए। सुना नहीं है कि ऐसे मामलों में क्या होता है? फ़िर बलात्कार की कोशिश हो रही है, या उसके मुँह पर तेज़ाब फेंक दिया या उसको खरी-खोटी सुना दी।
अभी थोड़ी देर पहले तो वह बहुत प्यारी लग रही थी, क्योंकि उससे शरीर का लाभ होने की आशा थी। और जहाँ वह आशा मिटी, वह कैसी लगने लगी? बहुत बुरी, वह दुश्मन बन गई। तो दुश्मनी भी किस आधार पर हो रही है? शरीर के आधार पर हो रही है।
कुत्ते को हड्डी दिखा रहे थे, पीछे-पीछे आ रहा था दुम हिलाता हुआ और हड्डी दिखाते ही रहे, हड्डी दी नहीं, थोड़ी देर सब्र रखकर कुत्ता क्या करेगा? आप पर हमला करके हड्डी छीन लेगा। थोड़ी देर पहले तो बहुत प्यारा था, पीछे-पीछे चल रहा था, आपके पाँव में लोट रहा था हड्डी देखकर। पर हड्डी आपने दी नहीं तो कोई भरोसा नहीं, हमला ही कर दे आप पर। हड्डी चाहिए भाई उसे। तो दुश्मनी का भी आधार क्या है? शरीर।
जानने वालों ने यही समझाया है हमें। यही श्रीकृष्ण ज्ञान दे रहे हैं यहाँ पर कि तुम्हारे मित्र हों, चाहे शत्रु हों, दोनों जुड़े तुमसे सांसारिक और शारीरिक तल पर ही हैं। तुम उनमें क्या भेद करते हो, दोनों एक समान हैं। आज का मित्र कल का शत्रु है। तुम्हारा ऐसा कोई दुश्मन है जिससे तुम कभी सम्बंधित ना रहे हो पहले? बोलो। सबसे घने दुश्मन वही बनते हैं न जो पहले कभी प्यारे थे? प्यारे थे तो कभी उनसे उम्मीदें थीं, और जब उन्होंने उम्मीदें नहीं पूरी करी तो वे क्या बन गए? दुश्मन बन गए।
महाभारत की लड़ाई भी किनके बीच में हो रही है? अनजाने अपरिचितों के बीच में? किनके बीच में हो रही है? भाइयों के बीच में हो रही है। साथ-साथ खेले, खाए, बड़े हुए, पर एक पक्ष की आशाएँ दूसरा पक्ष पूरा नहीं कर रहा और दूसरे पक्ष की आशाएँ पहला पक्ष नहीं पूरा कर रहा। और दोनों की आशाएँ हैं किससे सम्बंधित? शरीर से, पदार्थ से, भोग से।
दोनों ही पक्षों को सिंहासन चाहिए, दोनों ही पक्षों को रुत्बा चाहिए, दोनों ही पक्षों को ज़मीन चाहिए, दोनों ही पक्षों को द्रौपदी भी चाहिए थी। और एक ही चीज़ दो लोगों को तो मिल नहीं सकती एक साथ, तो अब दोनों में क्या होगी? दुश्मनी।
द्रौपदी को भी कुंती ने कहा कि पाँचों एक साथ पति बना लो। पाँचों ने एक साथ उसे पत्नी ना बनाया होता तो पांडवों में भी आपस में दुश्मनी हो जाती। मामला शरीर का है।
शरीर के तल पर ही हमारी दोस्तियाँ हैं। शरीर के तल पर ही हमारी दुश्मनियाँ हैं। क्या रखा है दोस्ती में? क्या रखा है दुश्मनी में? जो तुम्हारा दोस्त भी है, वह अधिक-से-अधिक तुमको क्या दे देगा? कुछ जो संसार का है, कुछ जो देह के लिए है। संसार तभी तक है न जब तक देह है? संसार माने पदार्थ। और पहला पदार्थ आदमी की देह है।
जितने भी पदार्थों का तुम ग्रहण करते हो, भोग करते हो, किसके लिए करते हो? देह के लिए ही करते हो न? देह ना हो तो किसी भी पदार्थ का भोग कर सकते हो क्या? देह ना हो तो बड़ी-से-बड़ी गाड़ी में बैठेगा कौन? देह ना हो तो महँगे-से-महँगा कपड़ा पहनेगा कौन? गाड़ी में क्या जाकर बैठती है? देह। कपड़ा किस पर पहनते हो? देह पर। सब सुख-सुविधाएँ किसके लिए हैं? देह के लिए हैं।
हाँ, देह स्थूल भी होती है, सूक्ष्म भी होती है। स्थूल देह माँगती है खाना-पानी और सूक्ष्म देह माँगती है पद-प्रतिष्ठा, सम्मान। पर ले-देकर सारा काम है तो देह के लिए ही।
तो दोस्त तुम्हें अधिक-से-अधिक क्या दे देगा? कुछ ऐसा जो पदार्थगत है, कुछ सांसारिक सुख दे देगा। दुश्मन तुमसे अधिक-से-अधिक क्या छीन लेगा? कुछ ऐसा जो पदार्थगत है, कोई सांसारिक सुख।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि दोनों ही व्यर्थ हैं। एक तुम्हें व्यर्थ की चीज़ दे सकता है, दूसरा तुमसे व्यर्थ की चीज़ छीन सकता है। अरे, तुम कहाँ फँस गए? तुम इन दोनों को एक ही मानो। इन दोनों में भेद करो ही मत। तुम यह कह ही मत देना कि मित्र शत्रु से बेहतर है।
नशेड़ियों के मुहल्ले में जी रहे हो तुम। कोई तुम पर बहुत खुश होगा तो आकर तुम्हें क्या दे जाएगा? एक बोतल शराब की। यह मित्र कहलाएगा। यह यारों का यार है। यह बहुत खुश हुआ तो आ करके तुमको एक बोतल थमा गया। और कोई बहुत बड़ा दुश्मन होगा तुम्हारा तो वह क्या करेगा? वह बोतल छीन ले जाएगा।
कृष्ण कह रहे हैं कि तुम दोस्त को दोस्त और दुश्मन को दुश्मन मानों ही मत। यह मूर्खों का इलाका है। यहाँ जो तुम्हें कुछ देगा, वह भी चीज़ नशे की होगी। जो तुमसे कुछ छीनेगा, वह भी नशेड़ी है, वह भी नशे की ही सामग्री छीन रहा है। इनमें कुछ नहीं रखा है। ‘बैरी मीत समान।’
तो फ़िर मित्र किसको मानें, और शत्रु किसको मानें? यह बात भी गीता ही स्पष्ट कर देती है। अर्जुन का एक ही मित्र है – कृष्ण। कृष्ण के अलाव किसी को मित्र मानना मत। कौन काम आ रहा है अर्जुन के? युधिष्ठिर या भीम? या द्रौपदी? या कृष्ण? बोलो, कौन काम आ रहा है?
श्रोतागण: कृष्ण।
आचार्य: तो एक ही मित्र है तुम्हारा जो तुम्हें बोध दे सके, जो तुम्हें मुक्ति दे सके—जो मुक्ति दे सके सो मित्र। जो बोतल दे दे, वह नहीं मित्र। और दुनिया में जो मित्र बनते हैं, वह तो सब वही बनते हैं जो तुम्हें बोतल ही देंगे। और बोतलें कई किस्म की होती हैं। सुरक्षा भी बोतल है एक, कि कोई जब पास होता है तो तुम बड़ा सुरक्षित अनुभव करते हो, वह भी नशे की ही बात है। समर्थन भी एक बोतल ही है। कोई पास होता है तो तुम्हें लगता है तुम्हारा अकेलापन मिट रहा है, यह भी नशे की ही बात है।
दुनिया के दोस्त भी व्यर्थ और दुश्मन भी। एक ही मित्र है तुम्हारा, वही जो अर्जुन का हुआ, नाम है श्रीकृष्ण। मित्र मानो या तो निराकार सत्य को या उस साकार जीव को जो तुम्हें निराकार तक ले जा सके। और कोई तुम्हारा मित्र नहीं। बाकी जिनको भी तुमने मित्र माना है, वे शत्रु समान ही हैं।
जब भी दिखाई दे कि कोई बहुत प्यारा हुआ जा रहा है तो अपने-आप से पूछ लेना कि “यह मुझे दे क्या रहा है?” जो तुम्हें कृष्ण देता हो, वह तो ठीक है। पर कितने लोग हैं तुम्हारे जीवन में वास्तव में जो तुम्हें कृष्ण देते हैं, बताना? और प्यारे तो बहुत हैं। तो फ़िर वे तुम्हें दे क्या रहे हैं? कोई हड्डी दे रहा होगा, कोई बोतल दे रहा होगा।
प्यारा उसी को मानना जो तुम्हें कृष्ण दे जाए। जो बोतल देते हों हाथ में, उन्हें प्यारा नहीं कहते, वे दुश्मन हैं।
ना यह कह देना कि अमुक ने मेरी सहायता की तो मेरा मित्र है। सहायता की सिर्फ एक परिभाषा है, क्या? किसको मानो कि सहायक हुआ तुम्हारा? जो तुम्हें मुक्ति दे दे। सहायता सिर्फ एक है – तुम्हारी आँखें खुल जाएँ, यही तुम्हारी सहायता हुई। तुम्हारे मन का अंधेरा मिटे, यह सहायता हुई। बाकी जितनी बातों को हम सहायता मानते हैं, वो कोई सहायता नहीं।