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श्री कृष्ण के ह्रदय में अर्जुन के लिए इतना स्नेह क्यों? || महाभारत पर (2018)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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श्री कृष्ण के ह्रदय में अर्जुन के लिए इतना स्नेह क्यों? || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। श्रीकृष्ण को अर्जुन से विशेष प्रेम था। अर्जुन के लिए श्रीकृष्ण ने भीष्म के विरुद्ध भी अस्त्र उठा लिये थे, तब जबकि उन्होंने युद्ध में अस्त्र न उठाने का वचन दिया था। सूर्य को सुदर्शन चक्र से छुपाकर कुछ देर के लिए सूर्यास्त जैसा वातावरण भी कर लिया था। कृष्ण का ऐसा प्रेम अन्य योद्धाओं के प्रति नहीं दिखता। अर्जुन में ऐसी क्या विशेषता थी कि उन्हें श्रीकृष्ण का इतना स्नेह मिला?

आचार्य प्रशांत: अर्जुन की विशेषता यह थी कि अर्जुन के पास सवाल थे, उसमें आत्मविश्वास ज़रा कम था, अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ, अर्जुन को ज़रा अनिश्चितता दिखी, अर्जुन को संदेह उठा, अर्जुन में जिज्ञासा उठी।

आओ, चलो कुरुक्षेत्र चलते हैं। पहला दिन है, आमने-सामने सेनाएँ डटी हुई हैं। मुझे बताओ कोई दिख रहा है तुम्हें जो संशय में हो? कोई दिख रहा है तुम्हें जो कहता हो कि, "मुझे नहीं मालूम है कि मुझे क्या करना चाहिए"? कोई है जो अनुभव कर रहा हो कि वो नासमझ है और अज्ञानी है? कोई है जो पशोपेश में फँसा हुआ हो?

सब बड़े आत्मविश्वास में हैं। सबको पक्का भरोसा है कि उनको धर्म का ज्ञान है ही।

दुर्योधन से पूछोगे अगर, तो दुर्योधन कहेगा, "मेरा धर्म ये है कि जो राज्य मैंने पा लिया है, पकड़ लिया है, द्यूत में जीत लिया है, उसको अब मैं जाने न दूँ।" वो कृष्ण से कहता है कि "सुई की नोक पर जितनी मिट्टी आ सकती है, उतनी भूमि भी मैं पांडवों को नहीं दूँगा क्योंकि पूरा राज्य ही मेरा है। जीत तो लिया मैंने, मैं क्यों दूँ?"

और दुर्योधन की नज़र में दुर्योधन पूरी तरह धार्मिक है। दुर्योधन कह रहा है, "एक बात बताओ, भाई, बँटवारा हुआ था बाकायदा। आधा राज्य मिला था कौरवों को और आधा राज्य मिला था पांडवों को। फिर पांडव आए और जुआ खेला, और अपना सारा राज्य वो हार गए। और सारा राज्य किसको दे गए? दुर्योधन को। अब तुम सारा राज्य जब हार चुके हो, तो अब तुम किस बिनाह पर राज्य वापस माँगने आए हो?" दुर्योधन कह रहा कि "मुझे बिलकुल पता है कि धर्म क्या है। जीता हुआ नहीं लौटाया जाता, यही धर्म है। जो वस्तु जिसकी है, उस पर उसका हक़ है, यही मेरा धर्म है।" दुर्योधन को कोई संशय नहीं।

आओ भीष्म की ओर चलें। भीष्म को कोई संशय है? भीष्म कह रहे हैं कि, "मैंने, अरे, बहुत पहले वचन दिया था कि हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति मेरी निष्ठा है। जो भी कोई उस सिंहासन पर बैठेगा, मैं उसका सहयोगी हुआ, सहायक हुआ, कह लो कि नौकर हुआ। तो मुझे मेरा धर्म बिलकुल पता है। क्या है मेरा धर्म? जो भी कोई हस्तिनापुर का राजा है, मुझे उसके साथ रहना है। और हस्तिनापुर का वर्तमान शासक कौन है? धृतराष्ट्र।"

पांडव कौन हैं? बाहरी लोग। इन्हें तो कहा गया था कि जाओ वन में जियो, फिर अज्ञातवास पूरा करो। और अब ये बाहरी लोग क्या कर रहे हैं? ये सेना इकट्ठी करके हस्तिनापुर पर आक्रमण कर रहे हैं। तो भीष्म कहते हैं, "मुझे मेरा धर्म बिलकुल पता है। बाहरी सेनाओं ने मेरे राज्य पर आक्रमण कर दिया है। और अगर बाहरी सेनाओं ने मेरे राज्य पर आक्रमण किया है तो मेरा क्या धर्म है? कि मैं उनके ख़िलाफ़ लड़ूँ।" तो भीष्म भी बिलकुल आश्वस्त खड़े हुए हैं, “हमें सब पता है।”

इतने सैनिक हैं, वो सब अपना-अपना धर्म जानते हैं। वो कहते हैं, "हम जिसकी रोटी खाते हैं, उसकी सेवा करते हैं।" द्रोणाचार्य, कृपाचार्य उनका कथन भी कुछ ऐसा ही है कि, "इतने दिनों जब हमने राज्य का नमक खाया तो अब अगर राज्य पर आक्रमण हुआ है तो हमें तो राज्य की ओर से ही लड़ना पड़ेगा।"

कर्ण की तरफ़ चलो। पहले दिन वह रणभूमि पर मौजूद नहीं है, पर वो जहाँ भी है, चलो उसकी तरफ़ चलते हैं। उसको भी कोई संशय नहीं है। वो कह रहा है, "मुझे भी मेरा धर्म पता है। क्या है मेरा धर्म? कि जिस दुर्योधन ने मेरी मदद की, जिस दुर्योधन ने मुझे उठाकर सिंहासन पर बैठा दिया, जिस दुर्योधन ने मुझे सहोदर का दर्जा दिया, जिस दुर्योधन के कारण मेरा मान-सम्मान है, मुझे तो उस दुर्योधन का ही साथ देना है, यही मेरा धर्म है।"

तो दुर्योधन को भी अपना धर्म पता है, कर्ण को भी अपना धर्म पता है। सौ कौरव हैं, सबको अपना धर्म पता है; “बड़े भैया जो कह रहे हैं, मानना है।”

पांडवों की तरफ़ आओ, युधिष्ठिर तो धर्मराज ही हैं। उनको धर्म कैसे नहीं पता होगा? उनको तो भलीभाँति धर्म पता है। भीम खड़े हुए हैं, उन्हें धर्म पता है। कह रहे हैं, "पहले तो राज्य वापस लेना है और फिर मेरी पाँचाली, उसका अपमान किया था इस दु:शासन ने। इसकी छाती फोड़नी है और ख़ून लेकर जाना है और पाँचाली के बाल धोने हैं। यही धर्म है मेरा।" भीम को भी अपना धर्म पता है।

नकुल, सहदेव, वो तो चुन्नू-मुन्नू। वो कह रहे हैं, “तीन ये बड़े-बड़े भारी-भरकम भैया लोग जो कर रहे हैं, वही धर्म है। भीम हैं, अर्जुन हैं, युधिष्ठिर हैं, वो जो भी करते हों, उनका अनुगमन करो, यही धर्म है।”

इस पूरी भीड़ में सिर्फ़ एक है जो कह रहा है, "मैं नहीं जानता।" कौन है वो? अर्जुन। वो परेशान हो गया है, और कोई परेशान नहीं है। बाकी सब आत्मविश्वास से भरपूर हैं। उसके हाथ-पाँव काँप रहे हैं, वो कह रहा है, "मुझे नहीं मालूम कि इस स्थिति में मुझे करना क्या चाहिए।"

वास्तव में अर्जुन पूछ रहा है, "मैं हूँ कौन, मैं नहीं जानता। अगर मैं क्षत्रिय-मात्र हूँ, तो मेरा कर्तव्य है लड़ना। और अगर मैं भाई हूँ, तो मेरा कर्तव्य है न लड़ना। अगर मैं इंसान हूँ तो मेरा कर्तव्य है कि ख़ून-ख़च्चर, रक्तपात को बचाऊँ। मैं हूँ कौन?"

अकेला अर्जुन है जो कर्तव्य से ज़्यादा क़ीमत दे रहा है धर्म को। बाकी सबने तो कर्तव्य को ही धर्म मान रखा है और उनके कर्तव्य में, याद रखना, सत्य के लिए कोई जगह नहीं है। कर्ण के कर्तव्य में दुर्योधन के लिए जगह है, सत्य के लिए नहीं। भीष्म के कर्तव्य में सिंहासन के प्रति निष्ठा के लिए जगह है, सत्य के लिए नहीं। बाकी सबने तो कर्तव्य को ही धर्म बना रखा है।

अर्जुन अकेला है जो कह रहा है कि “मुझे बताओ कि क्या इन कर्तव्य के पार भी कुछ है?” दूसरे शब्दों में कहें तो अर्जुन सत्य का प्रार्थी हो रहा है इसलिए अर्जुन विशेष है। इसीलिए गीता उतरी सिर्फ़ अर्जुन पर, क्योंकि और किसी ने सवाल पूछा ही नहीं। अर्जुन अकेला था जो कहता है, "कृष्ण, रथ को ऐसी जगह ले चलिए जहाँ से मैं दोनों सेनाओं को देख पाऊँ।" और किसी ने यह प्रश्न नहीं करा, और किसी को यह कौतूहल नहीं उतरा, और किसी को विस्मय नहीं हुआ। कोई व्याकुल नहीं हुआ, कोई किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं हुआ। और फिर अर्जुन कृष्ण से प्रश्न-पर-प्रश्न करे जा रहा है, करे जा रहा है, करे जा रहा है। इसलिए ख़ास है अर्जुन। और इसलिए कृष्ण का विशेष स्नेह है अर्जुन पर।

जो लोग सत्य के प्रार्थी होंगे, उन्हें मिल जाएगा श्रीकृष्ण जैसा कोई। और जो लोग कहेंगे कि, "हमें तो सब कुछ पहले से ही पता है", श्रीकृष्ण उनके बहुत निकट भी होंगे तो उन्हें नज़र नहीं आएँगे।

कृष्ण जब अर्जुन को गीता प्रदान कर रहे थे, लाखों लोग आस-पास थे। किसी ने ज़रूरत नहीं समझी कि, "हम भी जाएँ और हाथ जोड़कर ज़मीन पर बैठ जाएँ।" बिलकुल आवश्यकता ही नहीं थी। उनको तो बल्कि यह लग रहा होगा कि यह क्या समय बर्बाद किया जा रहा है। लड़ाई शुरू होने वाली है और ये बीच में क्या सत्संग चलने लगा! प्रवचन दे रहे हो, उपदेश है, क्या है ये?

सत्य के प्रति जिज्ञासा होनी चाहिए, सवाल होने चाहिए, अपने-आप पर भरोसा ज़रा कम होना चाहिए। पूछना चाहिए, “जिस राह चल रहा हूँ, वो राह ठीक है क्या? क्या उचित है मेरे लिए?” जब तुम्हारे पास सत्य के प्रति उत्कंठा होती है तो फिर सत्य अपने-आप ही किसी रूप में मदद के लिए तुम्हारे लिए आ जाता है। फिर गीता उतरती है तुम्हारे ऊपर।

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