प्रश्नकर्ता: नमन, आचार्य जी। मुझे समस्या आती है वैराग्य को अपने पारिवारिक जीवन के साथ जीने में। जैसे भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य ने ज्ञानी होकर भी कुछ ग़लत निर्णय लिये, वैसे ही मैं भी स्वार्थी और असमर्थ हो जाता हूँ परिवार के सामने। परिवार के सामने सारा ज्ञान विलुप्त हो जाता है और अहंकार प्रबल। कृपया निवारण करें।
आचार्य प्रशांत: किस तल पर जवाब दूँ आपको एक?
क्या है परिवार? परिवार से मोह है आपको, ऐसा लगता है परिवार माने आस-पास के कुछ लोग, है न? माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी, भाई-बंधु, पत्नी, पति, बच्चे, नाती-पोते और तमाम रिश्तेदार — इसी का नाम परिवार है। मैंने तो बहुत बड़ा बना दिया, आमतौर पर जब आप कहते हैं ‘परिवार’, तो आपका आशय होता है सिर्फ़ अपने छोटे-से घोंसले से – पत्नी होगी, बच्चे होंगे, हद-से-हद एक-दो लोग और होंगे। ये जितने भी लोग हैं, जिनके सामने आप कह रहे हैं कि आप असहाय हो जाते हैं, जिनको आपने नाम दिया है 'परिवारियों' का, इन सब में साझी बात क्या है? ये आपसे कैसे जुड़े हुए हैं?
प्र: देह का संबंध।
आचार्य: देह का संबंध है। तो जब आप कहते हो कि आप परिवार को महत्व देते हो, तो वास्तव में आप किसको महत्व देते हो?
प्र: देह को।
आचार्य: दादा-दादी से क्या संबंध है मूलतः? ये बाद में कहना कि, "हमारी कोमल भावनाएँ जुड़ी हैं उनके साथ।" कोमल भावनाएँ बाद में जुड़ी हैं, प्राथमिक संबंध क्या था?
प्र: देह का।
आचार्य: देह का, उन्हीं की देह का अंश हो आप। ठीक है?
और अगर देह का रिश्ता न होता सर्वप्रथम, तो ये कोमल भावनाएँ भी जुड़तीं क्या? बोलो।
प्र: नहीं।
आचार्य: जितनी तुम कोमल भावनाएँ और मधुर स्मृतियाँ लिये हुए हो अपने परिवारजनों के साथ, इसका आधार क्या है? आधार है?
प्र: देह।
आचार्य: देह। ठीक है?
पति को बता दिया जाए कि पत्नी घर आएगी, पर देह का कोई रिश्ता नहीं बनने वाला, ब्याह होगा? बोलो।
प्र: नहीं।
आचार्य: कोमल भावनाएँ कहाँ गईं? ये तो सब बाद की बात है न? मैं इनकार नहीं कर रहा हूँ कि कोमल भावनाएँ इत्यादि-इत्यादि नहीं होती हैं, पर वो केंद्रीय नहीं हैं, प्राथमिक नहीं हैं।
पत्नी को बता दिया जाए कि पति ऐसा मिल रहा है जो देह का संबंध बनाने के क़ाबिल नहीं है, ब्याह होगा?
प्र: नहीं।
आचार्य: कानून तक उस ब्याह को अमान्य घोषित करने के लिए तैयार बैठा है, पत्नी को जा करके न्यायालय को बस यह बताना है कि पति नपुंसक है, न्यायालय कहता है, “ब्याह निरस्त, ख़त्म।” सिद्ध भर करना है कि ये...
“अरे! जाओ अपने-अपने रास्ते! ब्याह कैसा? जब देह से देह मिल ही नहीं सकती और जब संतान ही नहीं पैदा हो सकती तो ब्याह कैसा?”
समाज एक शब्द पकड़ता है, कानून में भी वो शब्द मौजूद है, बड़ा घटिया शब्द है, कोन्सुमेशन ऑफ़ मैरिज * । और ये शब्द मात्र सामाजिक नहीं है, कानून की किताबों में भी मौजूद है। * कोन्सुमेशन ऑफ़ मैरिज अर्थात् विवाह की पूर्णता। ’कोन्सुमेशन’ शब्द का अर्थ होता है कि जब कोई चीज़ अपनी पूर्णता को पा ले। कोन्सुमेशन ऑफ़ मैरिज किसको कहते हैं? जब पति-पत्नी दैहिक रूप से जुड़ जाएँ, जब देह का रिश्ता बन जाए; जब संभोग हो जाए तब माना जाता है कि अब मैरिज , अब विवाह कंज़ुमेटेड हुआ। नहीं तो उसको माना जाता है कि रिश्ता अभी अधूरा है, विवाह अभी हुआ ही नहीं पूरा, और ये बात कानून भी मानता है। तो सबको ख़बर है, पूरे ज़माने को ख़बर है, यहाँ तक कि कानून की किताबों को भी ख़बर है कि परिवार के केंद्र में जो रिश्ता बैठा है वो?
प्र: देह का है।
आचार्य: देह का है। जिसमें देहभाव जितना सघन होगा, जो जितना ज़्यादा देहाभिमानी होगा, वो इस ‘देह के परिवार' को उतना ज़्यादा महत्व देगा।
समझो बात को — परिवार से अध्यात्म कभी दुराव नहीं रखता, अध्यात्म तो कहता है, “वसुधैव कुटुंबकम्, पूरी वसुधा ही परिवार है मेरा।" तो ये झूठी बात है अगर कोई कहे कि अध्यात्म परिवार की ख़िलाफ़त करता है। नहीं, ऐसा नहीं है। अध्यात्म तुम्हारे झूठे तादात्म्य की, तुम्हारी झूठी पहचान की ख़िलाफ़त करता है, और तुम्हारी झूठी पहचान किसके साथ है?
प्र: देह के।
आचार्य: देह के साथ है।
तो अध्यात्म परिवार के ख़िलाफ़ नहीं है, अध्यात्म ‘देह से उठे परिवार' के ख़िलाफ़ है; क्योंकि जब तुम देह से उठे परिवार को ही अपना परिवार कहना शुरू कर देते हो तो नतीजा यह निकलता है कि बाकी सारा जगत तुम्हारे लिए अ-परिवार हो जाता है, तुम कहते हो, “मेरे अपने तो बस वही हैं जिनसे मेरा शरीर का संबंध हो।" और शरीर में भी, समझना, जब हम कहते हैं, ‘शरीर का संबंध’, तो ऐसा लगता है ज्यों आँखों का संबंध हो, ज्यों मस्तिष्क का संबंध हो, ज्यों हाथ का संबंध हो। परिवार के मूल में जननेन्द्रियों का संबंध है। तो परिवार माने कुछ ऐसे लोगों का समूह जहाँ लिंग का और योनि का नाता चल रहा है।
तो जो अपने-आपको जितना ज़्यादा लिंग समझेगा, वो उतना ज़्यादा ‘देह के परिवार' के प्रति आसक्त रहेगा। जो स्त्री अपने-आपको जितना ज़्यादा योनि मात्र समझेगी, वो उतना ज़्यादा ‘परिवार-परिवार’ चिल्लाएगी, और उसके परिवार का मतलब होगा वही दो-चार लोग, बस। और वो दो-चार लोग क्यों? क्योंकि इनसे मेरा जननेन्द्रियों का और गर्भ का रिश्ता है।
आपको बार-बार मेरी बात अखर रही होगी, आपको लग रहा होगा मैं कोई बहुत ही निष्ठुर, कठोर बात बोल रहा हूँ। आप बार-बार फिर उसी पुराने जुमले को ले करके आएँगे कि ‘कोमल भावनाएँ, मधुर स्मृतियाँ’, ‘कोमल भावनाएँ, मधुर स्मृतियाँ’। मैं आपकी कोमल भावनाओं और मधुर स्मृतियों का सम्मान करता हूँ।
गोलू छोटा-सा था और आपने सजा-वजाकर एक सुंदर-सा एल्बम बनाया उसका, और उस एल्बम के साथ आपकी बड़ी मीठी यादें जुड़ी हुई हैं। मैं उन यादों का सम्मान करता हूँ। मैं सिर्फ़ आपका ध्यान आकृष्ट कर रहा हूँ इस ओर कि दुनिया के हर बच्चे को आप गोलू नहीं बोलतीं, दुनिया के हर बच्चे को आप सजाती-सँवारती नहीं हैं। आपको बच्चा वही अच्छा लगता है बस जो आपके गर्भ से निकला हो, और गर्भ से बच्चा पैदा हुआ, उसके लिए आवश्यक है कि पहले संभोग हो, आपके गर्भ में वीर्य की बूँद पहुँचे, भ्रूण तैयार हो। इन सब बातों से फिर आपको प्राथमिक रूप से लगाव है।
गाते हैं कबीर भी, परिवार उनका भी है। परिवार से संतों को कभी कोई ऐतराज़ नहीं रहा है। ये जो देह को इतना महत्व दिया जाता है, इससे ऐतराज़ रहा है। गाते थे न तुम लोग कबीर का, “हमसा बड़ा कौन परिवारी।" गाओ ज़रा।
श्रोतागण: “हमसा कौन बड़ा परिवारी, दसों दिशा है दुनिया हमारी।"
आचार्य: “हमसा कौन बड़ा परिवारी, दसों दिशा है दुनिया हमारी।" ये संतों का परिवार है, इस परिवार का आधार क्या है?
श्रोता: प्रेम।
आचार्य: संत ख़ुद बताते हैं।
दसों दिशा दुनिया तब होती है जब, जैसा कबीर कहते हैं, कि क्षमा नारी होती है, विवेक भाई होता है, सत्य पिता होते हैं, शील बहन होती है — अब पूरी दुनिया तुम्हारा परिवार है। कबीर के परिवार का आधार फिर क्या हुआ जब कबीर कहते हैं, “हमसे बड़ा कौन परिवारी, दसों दिशा है दुनिया हमारी”? कबीर के परिवार का आधार क्या हुआ? शील, करुणा, सत्य, विवेक, क्षमा। और हमारे परिवार का आधार क्या है?
श्रोता: देह।
आचार्य: लिंग और योनि। देह भी पूरी मत बोलो। हाथ नहीं हैं हमारे परिवारों का आधार, ना आँख है, ना कान हैं। वास्तव में वासना जब छाती है तब तो आँख, कान, सब बंद हो जाते हैं। वासना जब छाती है तब तो समूची देह ही एक विशाल लिंग बन जाती है; ना आँख बचती है, ना कान बचता है, मस्तिष्क तो बचता ही नहीं, पूरे शरीर में लिंग मात्र बचता है। ये हमारे परिवार का आधार है।
तो जब तक आप स्वयं को नहीं जानते, आपको सज़ा ये मिलती रहेगी कि आप व्यर्थ की चीज़ों से आसक्त रहेंगे। समझो — आप यदि अपने-आपको आत्मस्वरूप नहीं जानते तो आपको अपने-आपको क्या मानना पड़ेगा? देह। और जो अपने-आपको देह मानेगा, उसे फिर देह से संबंधित सभी चीज़ों से भी आबद्ध होना पड़ेगा।
तुम्हें अपनी देह से बड़ा मोह है, तो फिर तुम्हें कलाई के कंगन से भी मोह होगा, क्योंकि मुझे सर्वप्रथम किससे मोह है? कलाई से। कलाई से मोह है तो कंगन भी चाहिए न सुंदर-सुंदर फिर? देह से बड़ा मोह है तो फिर इस देह के लिए एक सुंदर घर भी चाहिए। घर में कौन रहती है? आत्मा तो रहती नहीं, घर में कौन रहता है? देह रहती है। तो फिर जिन्हें देह से बहुत मोह होता है, वो उस देह के लिए जीवन भर लगा देते हैं एक घर खड़ा करने में। लाखों-करोड़ों के कर्ज़ उठाएँगे, बीसों साल तक किश्त चुकाएँगे, किसके लिए?
प्र: देह के लिए।
आचार्य: देह के लिए घर खड़ा किया जा रहा है। ख़ुद बेघर हैं, देह को घर दे रहे हैं!
तुम्हारा घर तो एक है, कबीर कह नहीं रहे, “सत्य पिता हमारे।” सत्य का जो घर है, वो तुम्हारा असली घर है। तुम तो बेघर ही रह गए, देह को घर देते रह गए; और उसके लिए कितना उपद्रव! फिर देह संबंधित जितनी चीज़ें होंगी, उसमें फँसे रहोगे। स्वाद किसको चाहिए? देह को चाहिए। तमाम तरह के आराम और भोग किसको चाहिए? देह को चाहिए। देते रहो देह को।
देहाभिमानी होने की सज़ा तुम्हें पल-पल मिलती है, और सज़ा यही भर नहीं है कि चार-पाँच लोग जिनको तुम परिवार कहते हो, तुम उनसे आसक्त रहोगे, तुम अपने कपड़ों से भी आसक्त रहोगे, घर से आसक्त रहोगे, गाड़ी से आसक्त रहोगे, जूते-चप्पल से आसक्त रहोगे, क्योंकि वो सब किसके हैं? देह के हैं। उम्र को लेकर डरे-डरे रहोगे, मृत्यु का भय सताता रहेगा, क्योंकि जहाँ देह है वहाँ?
श्रोता: मृत्यु।
आचार्य: मृत्यु है। आत्मा की तो मृत्यु होती नहीं, और देह प्रतिपल मृत्यु की ओर ही अग्रसर। देह मान लिया तुमने अपने-आपको तो अब मौत से घबराते भागते रहो।
तो जिसको ये बीमारी लगी हो कि उसे परिवार का मोह इतना ज़्यादा है कि अध्यात्म कुछ समझ में नहीं आता, या कि अध्यात्म कोरा ज्ञान बनकर रह जाता है जब परिवार की आसक्ति खड़ी होती है, तो मैं उससे कह रहा हूँ कि तुम्हें एक ही बीमारी नहीं सताएगी, तुम्हारी बीमारियाँ अनंत हैं, प्रतिपल हैं, हर तल पर हैं।
तुमने तो सिर्फ़ एक बीमारी का उद्घाटन किया, एक राज़ खोला, और एक राज़ क्या है? कि सारा ज्ञान परिवार के सामने विलुप्त हो जाता है। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि, ना, अगर तुमको ये परिवार वाली बीमारी लगी हुई है तो तुम्हें समस्या एक नहीं होगी, तुम्हें समस्या पचास होंगी, तुम्हारा प्रतिपल समस्या में ही बीत रहा होगा। शायद तुम अपनी सारी समस्याओं का साझा सूत्र नहीं देख पाए, शायद तुमको यह लगता है कि तुम्हारी सारी समस्याएँ अलग-अलग हैं। नहीं, देह से जुड़ाव कितनी समस्याओं को जन्म देता है, तुम्हें अभी कल्पना भी नहीं है शायद। और वो समस्याएँ अलग नहीं होतीं, वो सब एक होती हैं। बात समझ रहे हो?
जो देह से जुड़ा हुआ है, उसको ये ख़ौफ़ ना खाता हो कि “मेरा क्या होगा?” ऐसा हो नहीं सकता। तो ये दोनों ख़ौफ़ एक हैं, “परिवार का क्या होगा?” और “मेरा क्या होगा?” दोनों ही डरों में साझी बात क्या है? देह। देह की बस्ती है हमारी। आईने में इस थोपड़े को देख करके कभी बिजली कौंधती ही नहीं कि इस आदमी को मैं जानता भी हूँ क्या। जहाँ ये शक्ल देखी नहीं, तहाँ तुरंत कहने लग गए, “मैं, मैं, मैं, ये तो मैं हूँ।" कभी यकायक जिज्ञासा उठती ही नहीं, “ये मैं हूँ तो रोज़ कैसे बदल जाता हूँ?”
कोई आज कहे कि महेश है और कल हो जाए सुरेश, तो उसका कोई भरोसा है? तुम उसका भरोसा नहीं करोगे क्योंकि वो चौबीस घण्टे में बदल गया है, और अगर कोई चौबीस महीने में बदलता हो तो उसका भरोसा कर लोगे? बदल तो वो भी रहा है न? महेश अगर सिद्ध धोखेबाज है तो चौबीस घण्टे में ही बदल जाएगा। तुम्हारा भी बदलाव लगातार है, पर वो चौबीस महीने में पता चलता है। तो तुम फिर कैसे भरोसे के काबिल हो गए? देह तुम्हारी कैसे भरोसे के काबिल हो गई?
और जो देह से जुड़ा हुआ है, उसे देह संबंधित एक दूसरी विपदा का भी सामना करना पड़ता है, उस दूसरी विपदा का नाम है मन। तन और मन एक हैं। जो देह से जुड़ा हुआ है, वो फिर देह से जितने रस-रसायन लगातार निर्मित और उत्सर्जित हो रहे हैं, उनसे भी जुड़ा रहेगा। स्त्री को स्त्री किसने बनाया? देह ने ही तो बनाया। फिर तुम बाद में बोलते हो, ‘औरत का मन’। पुरुष को पुरुष किसने बनाया? देह ने ही तो बनाया। फिर तुम बाद में कहते हो, ‘पुरुष का मन’। अरे! वो मन क्या है? तुम्हारी तमाम ग्रंथियों से जो रसायन उलीचे जा रहे हैं तुम्हारे खून में, उनके अतिरिक्त मन कुछ है? कोई भावना उठती है तुम्हारे भीतर जब तक भीतर कोई रासायनिक प्रक्रिया ना हो? और रसायन माने देह। जिसको तुम कहते हो, ‘मेरी भावना’, ‘मेरा प्रेम’, ‘मेरा क्रोध’, ‘मेरी दया’, जो भी तुम्हारे विचार, तुम्हारे जज़्बात हैं, वो सब-के-सब तो रसायनों के खेल हैं।
वैज्ञानिकों से पूछो, वो तुम्हारे हर मनोभाव के लिए एक रसायन बता देंगे, और वो रसायन आवश्यक नहीं है कि शरीर में भीतर से ही उत्सर्जित हो, वो बाहर से भी तुम्हें दिया जा सकता है; तुम्हें एक गोली दी जा सकती है, तुम्हें एक इंजेक्शन दिया जा सकता है। ये बड़ी अजीब बात है, अभी एक इंजेक्शन लगा दिया जाएगा, जा करके माँ के पाँव पकड़कर रोने लगोगे, “माँ-माँ, माँ-माँ”, तुममें वत्स-भाव जाग जाएगा, तुम बेटे हो जाओगे। एक दूसरा इंजेक्शन दिया जा सकता है तुम्हें, तुम अभी बिलकुल आग बबूले हो जाओ, लाल-पीले हो जाओ, मुँह से लपटें निकलने लगें, और गुस्से में किसी को भी मारने पहुँच जाओ, और तुम बोलोगे, “ये मेरी भावना है।” तुम्हारी भावना है?
और परिवार की बात करते हो, अभी एक इंजेक्शन दिया जा सकता है कि तुम्हारा परिवार और बढ़ जाए। कामवासना कोई आंतरिक चीज़ होती है क्या? एक इंजेक्शन लगेगा और जैसे कोई पागल सांड हो, उन्मत्त, कामोन्मत्त, और गाय के पीछे भागता हो, ऐसे भागोगे स्त्रियों के पीछे। और यही हाल स्त्रियों के लिए भी है, उनके भी शरीर में जब रसायन दौड़ने लगते हैं तो वो भी फिर उन्मत्त होने लगती हैं। ये तो तुमने ख़ूब देखा ही है, सड़क के जानवरों में देखा होगा, उनके मौसम आते हैं, वो मौसम आया नहीं कि नर-मादा बिलकुल व्याकुल हो जाते हैं मिलने के लिए। फिर उनका भी वंश बढ़ेगा, उनका भी परिवार आएगा। ये है देह का खेल।
ये तुम्हें पसंद आ रही हैं बातें सब सुनने में? बोलो। ये सब बातें बड़ी गरिमामयी, बड़ी शोभनीय लग रही हैं? ऐसी है देह, कि जिसकी चर्चा भी करो अगर ज़बान से तो ऐसा लगे कि कुछ मैला हो गया। और लगे रहते हो, लगे रहते हो, "मेरा बेटा, मेरी बेटी।" क्या है?
जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो बड़ी भर्त्सना के साथ बोल दिया है। कई बार तो लगता है कि इतना कड़वा बोलने की क्या ज़रूरत थी, पर साफ़ बोल दिया उन्होंने, उन्होंने कहा कि पिता और माता का रज जब मिलता है तो उससे संतान तैयार होती है, इसीलिए संतान भी मल-मूत्र के ही समान है। मैं नहीं कह रहा हूँ तुमसे कि तुम उनकी बात से सहमत हो जाओ, पर जिन्होंने कहा है, उनका इशारा पूरी तरह तो व्यर्थ नहीं होगा न, कुछ तो वो तुमको समझाना चाह रहे होंगे। मत करो स्वीकार उनकी बात को, पर एक बार ज़रा सद्भावना के साथ उनकी बात सुन तो लो कि वो क्यों कह रहे हैं।
वो कह रहे हैं, “जैसे तुम शरीर से मल-मूत्र इत्यादि उत्सर्जित करते रहते हो, उन्हीं द्वारों से तुम एक दिन संतान भी पैदा कर देते हो। तो इस देह का मल-मूत्र से ज़्यादा क्या महत्व है! क्योंकि उन्हीं द्वारों से ये देह भी एक दिन सामने आ जाती है। स्त्रियों का मासिक समय होता है, और उस समय तुम ख़ूब बात करते हो, हाइजीन , हाइजीन , सफ़ाई इत्यादि। जिस नवजात को तुम बहुत प्यार करते हो, वो और क्या है? स्त्री के गर्भ से जिस प्रकार रक्त बहता है, उसी प्रकार एक दिन एक शिशु भी पा जाते हो तुम। रक्त बहता है तो तुम कहते हो, “गंदा, गंदा”, और शिशु पा जाते हो तो कहते हो, “वाह! क्या अनुपम वरदान है।”
मैं जितनी बातें बोल रहा हूँ, मैं ख़ुद भी इनसे पूर्णतया सहमत नहीं हूँ, पर अतिशयोक्ति में जाकर बात इसीलिए करनी पड़ रही है क्योंकि तुमने एक दूसरी अतिशयोक्ति पाल रखी है। मैं जो बोल रहा हूँ, निश्चित रूप से वो एक अति है, पर उस अति का सहारा मुझे इसलिए लेना पड़ रहा है क्योंकि तुम दूसरी अति पर अटके हुए हो। तुमने देह को परमात्मा का ही दर्जा दे दिया है, और यहाँ तक कि तुम ये संस्कार भी अब पाल चुके हो कि ये जो देह के माँ-बाप हैं, इनको तुम कहने लग जाते हो कि यही भगवान हैं, यही गुरु हैं। ये क्या मज़ाक है?
स्त्रियाँ पतियों को परमेश्वर बोल रही हैं, तुम पगला गई हो? तुम संभोग के लिए राज़ी न होतीं, ये परमेश्वर तुम्हें घर ही न लेकर आते। ये कौन-से परमात्मा हैं जिसकी रुचि बस बाजा बजाने में है? हमें तो पता था कि परमात्मा का नाम मौन है, ये कौन-सा परमात्मा है जो गाने-बजाने में इतना यकीन रखता है? बजाए ही जा रहा है। अरे भाई, तुम्हारा और उसका एक रिश्ता है, जाँघों के बीच का, और उस रिश्ते के बाद के सभी रिश्ते हैं सारे। और वो पहला रिश्ता ना बने, तो मैं फिर कह रहा हूँ, जाँच लेना, मैं जानता हूँ कि मेरी बात सुनने में अच्छी नहीं लग रही होगी, पर जाँच लेना, वो पहला रिश्ता ना बना होता तो और रिश्ते नहीं बन पाते। ये बाकी सारे रिश्ते — आँखों के रिश्ते, हाथों के रिश्ते, उँगलियों के रिश्ते, जुल्फ़ों के रिश्ते, मन के रिश्ते, ये सब धरे-के-धरे रह जाते अगर जाँघों वाला रिश्ता न बना होता। और तुम उसको परमेश्वर बता रही हो? तुमने देह को परमात्मा के समतुल्य रख दिया?
और फिर जब वो नासमझ बच्चे पैदा होते हैं तो तुम उनके सामने खड़े हो जाते हो कि “बाप भगवान है और माँ भगवती है। चल, बेटा, आज्ञा का पालन कर और पाँव छू।" और फिर इस किस्से को तुम नाम देते हो, “मेरा सुंदर परिवार। न जुदा होंगे हम, कभी ख़ुशी, कभी गम।“ बिलकुल बज उठी न धुन? (श्रोतागण हँसते हैं)
आ गए न आँखों में आँसू? देह का ऐसे ही है, वो जल्दी से गीली हो जाती है, और परिवार बढ़ जाता है फिर। तुमने अपना छोटा-सा कुनबा बना करके अगर बड़ा पुण्य किया है तो उसी को तुम अपना मंदिर बताते हो। लोग हैं, वो अपने घर को कहते हैं कि मंदिर है हमारा, ये तुमने बड़ी अनूठी बात कर दी! तो फिर अभी-अभी एक मौलवी जी का बड़ा नाम हुआ, वो तिरानवे की उमर में दिवंगत हुए, और कुछ सौ-डेढ़ सौ उनकी बीवियाँ थीं और दो-चार सौ उनके बच्चे थे। अभी-अभी आयी है दो-चार दिन पहले ख़बर। तो तुम्हारा फिर अगर छोटा-सा मंदिर है, तो मौलवी साहब का तो पूरा तीरथ था।
अब लगे हुए हो, लगे हुए हो, ‘अर्धांगिनी’। कैसे-कैसे तुमने नाम गढ़ लिए हैं, अर्धांगिनी कैसे हो गई भाई तुम्हारी वो? 'माय बेटर हाफ़’ * । मैं कहता हूँ, “थम!” एक-दो बार ऐसों को पकड़ा है, बस ये है कि फिर वो नज़र नहीं आते, उस दिन रिश्ता ही टूट जाता है, क्योंकि उनको वो * बेटर हाफ़ वाला बनाकर रखना है। और मैं कुछ करता नहीं—मैं तो हूँ ही मासूम, मुझ जैसा नादान कोई मिलेगा नहीं—मैं तो दो-चार भोले-भाले सवाल पूछ लेता हूँ, और उसके बाद फिर वो मिलते नहीं। मैं पूछता हूँ, “बस ये बता दे कि ये बेटर हाफ़ क्या चीज़ होती है, ये अर्धांगिनी का क्या खेल रचा लिया।”
एक सज्जन मिले, वो अर्धनारीश्वर की तस्वीर लेकर घूम रहे थे। वो विदेश के हैं, स्कॉटलैंड के थे, वहीं पैदा हुए, वहीं के हैं। वो ऋषिकेश आया करते हैं, तो वो दिखाएँ कि ये देखिए, “ लुक, आचार्य, दिस इज़ व्हाट रियली टचेस मी अबाउट इंडिया (देखिए, आचार्य जी, यही चीज़ है जो भारत के बारे में मुझे वास्तव में छू जाती है)।” मैंने कहा, “तू रुक पहले। तेरी तस्वीर ही गलत है।”
शिव-शक्ति आधे-आधे नहीं हैं; शक्ति मात्र हैं और शक्ति के हृदय को शिव कहा जाता है, शक्ति के केंद्र को शिव कहा जाता है। ऐसा थोड़े ही है कि तुमने आधे शंकर, आधी पार्वती बना दी, ये तुमने क्या नमूना खड़ा कर दिया है! ये जो तुम बना रहे हो, और बेच रहे हो और पूजा कर रहे हो, ये वास्तव में शिव का अपमान है, शक्ति का भी अपमान है। अगर तुमने वास्तव में शिव को समझा होता तो तुम शिव को और शक्ति को कभी इस तरह से निरूपित नहीं कर सकते थे। शक्ति मात्र हैं, जगत शक्ति का प्रसार है, जगत शक्ति का नृत्य है और शक्ति के निराकार केंद्र का नाम है शिव।
आदमी की पूरी ज़िंदगी इसी झंझट में निकल जाती है, क्यों? क्योंकि समय काटने के लिए कुछ तो चाहिए न? और एक बार तुम इस पारिवारिक झंझट में पड़ गए, उसके बाद तुम कभी ये नहीं कहोगे कि “समय कैसे काटें?” उसके बाद कम-से-कम ज़िंदगी से एक शिकायत हमेशा के लिए मिट जाएगी कि समय अधिक रहता है, कि दिन काटे नहीं कटता। जिनको ये समस्या हो कि दिन काटे नहीं कटता, उनको बस ये छोटी-सी सलाह है, “जाओ, शादी कर लो।“ अब ऐसे चक्कर में फँसोगे कि दस जन्म कम पड़ेंगे। तभी तो जब वो फेरे लिये जाते हैं तो कहा जाता है, ‘सात जन्म’। वो बात तुम समझे नहीं क्यों कही जाती है सात जन्म, क्योंकि अब जो चक्कर शुरू होने वाले हैं वो एक जन्म में सिमटने से रहे।
तुम्हीं थोड़े ही बहुत उत्पादक हो, तुम्हीं थोड़े ही बहुत उर्वर हो; तुम उत्पादक हो, तुम्हारी बीवी उर्वर है, तो तुम कुछ पैदा करोगे। जिनको पैदा करोगे, वो भी तो उत्पादक और उर्वर हैं, उन्हें भी तो अपनी कहानियाँ चलानी हैं। अब कहानी-पर-कहानी, दे कहानी, ले कहानी, एक कहानी से चार कहानियाँ; अब सुलटाते रहो कहानियों को। जब तक तुम्हें लगेगा, बीस-पच्चीस-पैंतीस साल बाद कि तुम्हारे जो दो-चार बच्चे थे, वो किसी तरीके से निपटे, तो तब तक तुम पाओगे कि दस और पैदा कर चुके हैं। और अगर तुम्हारा देह का रिश्ता अपने बेटे से है, तो ऐसा हो नहीं सकता कि तुम्हारा देह का रिश्ता पोते से न हो; जो आदमी बेटे से आसक्त है, वो पोते से भी आसक्त होगा। तो जिस तरीके से अब बेटे के साथ लगाए बीस-चालीस साल, अब पोते के साथ भी लगाओ, फिर परपोते के साथ लगाओ।
आज तुम लोग महाभारत की बात कर रहे थे। देखा न भीष्म को, वो और क्या करते रहे? कौरवों के, पांडवों के वंश पर वंश आते रहे, वो खड़े हुए, बस उनकी तीमारदारी कर रहे हैं, सेवा करे जा रहे हैं, रुकने के नहीं। उनका अपना कुछ नहीं, भोग दूसरे रहे हैं, और वो सदा के लिए खड़े हो गए हैं, सेवक। इच्छामृत्यु का उनको वरदान है, मर ही नहीं सकते, शाश्वत सेवा करनी है। हस्तिनापुर के सिंहासन के आगे हाथ जोड़े खड़ा है कि “अब भाई, जो भी आता जाएगा, उसकी सेवा करता जाऊँगा।" सात जन्म भी कम हैं, ये चक्कर कभी नहीं पूरा होने का। भला हुआ जो कृष्ण ने मुक्ति दिला दी भीष्म को, नहीं तो उन्हें मुक्ति कभी मिलने की नहीं थी।
वो चाहते थे कि हस्तिनापुर का सिंहासन निरापद हो जाए, वो निरापद कभी होता ही नहीं; क्योंकि परिवार नाम की संस्था का ही दूसरा नाम आपदा है, एक नहीं, पचास महाभारत हो जाएँ तो भी ये झगड़े निपटने के नहीं। भला हुआ जो भीष्म तर गए युद्ध के बीच में ही, क्योंकि अगर वो इंतज़ार करते कि युद्ध निपट जाए तो युद्ध कभी नहीं निपटने का था, उन्होंने बीच में ही कह दिया, “बेटा..।" और मैं तुम्हें बता देता हूँ, इतनी ज़ोर की उनको चोट लगी नहीं थी। अर्जुन ही था, उसने सँभालकर मारा था, धीरे-से, बहुत सारे नहीं मारे थे। बाणों की शैय्या इत्यादि तो बाद में तैयार करी थी कि पितामह लेटेंगे, बाणों का तकिया भी बाद में तैयार किया था कि पितामह लेटेंगे; मारा तो आहिस्ता-से एक ही बाण था।
भीष्म ने कहा, “देखो, अर्जुन, हमारे तुम्हारे बीच की बात, बहाना मिल गया है मुझे अब रवानगी का, यही मौका है कि मैं निकल जाऊँ, नहीं तो फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुम जीतते हो या दुर्योधन जीतता है। मेरा यही काम है? तुम्हारे बच्चों की नैपियाँ बदलता रहूँ? बच्चे तुमने भी पैदा कर रखे हैं, बच्चे कौरवों ने भी पैदा कर रखे हैं, और उधर तो सौ हैं।”
एक-से-एक धृतराष्ट्र होते हैं, उन्हें और कोई काम ही नहीं। और जो अंधा हो गया, वो और करेगा क्या? मानवता ही पूरी अंधी है, आठ सौ करोड़ और कहाँ से आ गए? इस आठ सौ करोड़ में और धृतराष्ट्र के सौ बच्चों में समानता देख लेना। बोले, “बेटा, यही मौका है, तू घोषित कर दे कि पितामह गए, और अब तुझे जिससे लड़ना हो लड़। मैं हटूँगा तो कर्ण अपना रहेगा, मेरे कारण कर्ण भी नहीं आ पाता था। तू इन सबके साथ सुलझा और मुझे अब ज़रा युद्धस्थल से थोड़ी दूर ले जा करके लिटा दे। मैं सूर्य के उत्तरायण में जाने की प्रतीक्षा करूँगा और उस दिन विदा ले लूँगा।"
तुम उस आदमी की बेबसी समझो। तुम्हें जानना हो कि परिवार क्या कर देता है तो भीष्म की ओर देखो, और वो ऐसा आदमी है जिसने स्वयं तो शादी भी नहीं की, तब भी उसकी दुर्दशा देखो। अगर तुम थोड़ा गणित लगाओ और जोड़ो कि महाभारत के युद्ध के समय भीष्म की आयु क्या रही होगी तो तुम भौंचक्के रह जाओगे। महाभारत के युद्ध के समय भीष्म की आयु कम-से-कम पिच्चासी वर्ष की है और दूसरे आकलनों के मुताबिक उनकी आयु हो सकता है सौ वर्ष से ज़्यादा की भी हो। ये कर देता है परिवार, पिच्चासी साल, नब्बे साल, सौ साल के आदमी को भी छोड़ता नहीं है। चल रही है चक्की, “चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय।” बात समझ में आ रही है?
बहुत बड़ा परिवार हो तुम्हारा, तुमसे बड़ा कुटुंब किसी का न हो, सब तुम्हारे हों, दुनिया के एक-एक प्राणी को तुम सहोदर ही मानो। सुंदर शब्द है सहोदर, और सहोदर का मतलब ये नहीं जो एक ही स्त्री के उदर से पैदा हुए हों; सहोदर का अर्थ होता है कि हम सब एक ही माँ की संतान हैं, बड़ी माँ। सब सहोदर हैं तुम्हारे। तुमने कैसे अपने-आपको कह दिया कि मेरा ब्याह नहीं हो रहा और मैं बड़ी अकेली अनुभव करती हूँ?
और ख़ासतौर पर स्त्रियों के साथ यह समस्या है, तीस-पैंतीस पार हुईं नहीं कि उनको अकेलापन सताने लग जाता है। ये अकेलापन इत्यादि कुछ नहीं है, ये गर्भ बोल रहा है, ये तुम्हारे शरीर में बहते तमाम रस और रसायन बोल रहे हैं। कभी कह मत देना कि तुम अकेले हो या अकेली हो, दुनिया है पूरी तुम्हारी; और दुनिया के नर-नारी और बच्चे ही नहीं हैं तुम्हारे, तमाम जो जीव-जंतु हैं, ये सब भी तुम्हारे ही हैं, परिवार है तुम्हारा। तुममें अगर ज़रा-भी सद्बुद्धि होगी तो तुम कहोगे, “जिसका इतना बड़ा परिवार हो, उसे क्या हक़ है ये कहने का कि वो अकेला है?”
पर देखो, फिर वही देह संबंधित अहंकार, तुम कहते हो, “नहीं, ये परिवार बहुत बड़ा है, वो बात ठीक है आपकी, आचार्य जी, लेकिन मुझे तो वो परिवार चाहिए न जो सिर्फ़ मेरा हो। बहुत लोग मुझे प्रेम करते हों, वो बात ठीक है आपकी, आचार्य जी, पर मुझे तो कोई ऐसा चाहिए न जो सिर्फ़ मुझसे प्रेम करता हो।” अब तुम पर दया की जाए या चमाट दिया जाए? दोनों ही उठते हैं आचार्य जी को, हाथ उठता है तो कभी आशीर्वाद देने का मन करता है और कभी…। (तमाचे का इशारा करते हुए)
और जिसको देखो, वही ये भावना लेकर घूम रहा है, “कोई तो हो जो सिर्फ़ हमारा हो।" ये जो तुम हवा ले रहे हो नथुनों से अंदर, ये सिर्फ़ तुम्हारी है? बनवाओ कहीं से अपने लिए प्राइवेट (व्यक्तिगत) हवा। ये आसमान सिर्फ़ तुम्हारा है? तुम्हारा क्या सिर्फ़ तुम्हारा है? तुम्हारे शरीर की एक-एक कोशिका पूरे पृथ्वी की ही नहीं, पूरे विश्व की है।
अभी बड़ा रोचक प्रयोग हुआ। हम लोग रेस की बात करते हैं न, रेस समझते हो? क्या? नस्ल, जात। तो अलग-अलग रेसेज के लोग लिये गए, भारत के लिये गए, चीन के लिये गए, अफ्रीका के लिये गए, अमेरिका के लिये गए, किसी को कैरेबियन से ले लिया, किसी को लैटिन अमेरिका से ले लिया, और फिर पता किया गया कि इन सबके वंशज कहाँ के हैं। डी.एन.ए. ले करके परीक्षण किये गए, और जानते हो क्या निकला? हम-सब सब जगहों के हैं। हममें से कोई ऐसा नहीं जो भारत का ही हो पूरे तरीके से; क्योंकि आदमी बहुत पुराना है। नदी बहुत दूर से आ रही है, बीच में उसमें न जाने क्या-क्या मिला है, तुम जान भी नहीं पाओगे। जो गोरा समझता हो कि वो सिर्फ़ गोरा है, वो भ्रम में है, उसके शरीर में काला भी बैठा हुआ है। जो काला समझता हो कि वो सिर्फ़ काला है, वो भी भ्रम में है, उसके शरीर में गोरा भी बैठा हुआ हो। अरब वाला अगर सोचता है कि सिर्फ़ अरब का है, तो अपने-आपको बहला रहा है, उसके शरीर में चीनी भी बैठा हुआ है।
हम-सब सब जगह के हैं, तुम बताओ कि विशेषतया तुम्हारा क्या है। तुम्हारा तो शरीर भी तुम्हारा विशेषतया नहीं है, तो तुम क्यों माँगते हो कोई प्रेमी या प्रेमिका जो सिर्फ़ तुम्हारा हो? तुम्हारा तो शरीर भी सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है। और आत्मा, वो तो होती ही है निर्वैयक्तिक, इंपर्सनल , वो तुम्हारी कैसे हो गई? न शरीर तुम्हारा है, न आत्मा तुम्हारी है, न परमात्मा तुम्हारा है, तो फिर ये तुमने कहाँ से नई माँग रख दी कि मेरा पति सिर्फ़ मेरा हो, मेरी पत्नी सिर्फ़ मेरी हो? बताओ, बताओ।
इन सारे प्रश्नों के मूल में एक प्रश्न है, “तुम हो कौन?” और जिसने उस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है, वो जीवन भर उलझा-उलझा घूमेगा, क्योंकि वो ‘मैं’ और ‘मेरे’ की भ्रामक परिभाषाओं को लेकर अपना संसार रचता रहेगा, झूठा ‘मैं’, झूठा ‘मेरा’। जब ख़ुद को ही नहीं जानते, तो जो चीज़ें तुम्हारी नहीं हैं, उनको ही ‘अपना’ कहते रहोगे।
मुक्ति स्वभाव है तुम्हारा, क्यों एक छोटे-से घेरे में अपने-आपको कैद करते हो? देने वाले ने जब तुम्हें सारे जहान की सल्तनत दी है, तुम क्यों दो-हज़ार स्क्वेयर (वर्ग) फ़ीट में अपने-आपको बाँधे हुए हो? देने वाले ने तुमको दुनिया का बादशाह बनाया है, और तुम बोलते हो *टू बी.एच.के.*। समझ रहे हो बात को?
देह जितना मानोगे अपने-आपको, उतना लफड़ों-पचड़ों में फँसोगे। देह को परमात्मा नहीं चाहिए। जो ये प्रश्न भी पूछा गया है, ये देह नहीं पूछेगी। देह को तो कोई गरिमा भी नहीं चाहिए, देह को बोध नहीं चाहिए; देह को बस ये चाहिए कि वो कायम रहे, वो स्वयं भी कायम रहे और अपने बाद भी उसकी श्रृंखला चलती रहे। दो ही चीज़ें माँगता है शरीर – अपने लिए भोजन और आराम, और प्रजनन, ताकि जब देह न रहे, तब भी देह बनी रहे। इन दो चीज़ों के अलावा देह कुछ नहीं माँगती।
अब बताओ देह बनकर जीना है? देह बनकर जीना है तो फेंक दो सारी किताबें, किताब माँगती है क्या देह? और देह बनकर जीना है तो हटाओ प्रेम, क्योंकि देह के तल पर प्रेम का भी कोई अस्तित्व नहीं होता। और देह बनकर ही जीना है तो हटाओ फिर आज़ादी भी, क्योंकि देह इतनी घटिया चीज़ है कि उसे आज़ादी भी नहीं चाहिए।
मैं छोटा था तो मुझे भ्रम होता था, मुझे लगता था कि ये बेचारे जो जानवर पकड़ लिये जाते हैं, ये दुःख के कारण जल्दी ही प्राण त्याग देते होंगे। मुझे लगता था कि चिड़ियाघर इत्यादि में या कि कैद में जो जानवर रख दिये जाते हैं, इनकी आयु बहुत नहीं होती होगी। मेरा भ्रम टूट गया, मुझे पता चला कि जो जानवर कैद में होते हैं, वो ज़्यादा जीते हैं, क्योंकि देह को मुक्ति चाहिए ही नहीं। और जानवर वही है, पशु वही है जो देह के पाश में बँधा हुआ है; जो देह के पाश में बँधा हुआ है, उसका नाम पशु।
देह कहती है, “मेरे गले में पट्टा डाल लो, बस मुझे खाना देते जाओ, खाना देते जाओ।” देह को आज़ादी नहीं चाहिए, देह को खाना चाहिए। चिड़ियाघर के जानवर ज़्यादा जीते हैं, क्योंकि उनकी देह को पोषण मिलता है, सुरक्षा मिलती है। घरों के पालतू पशु ज़्यादा जीते हैं, जंगल के पशु कम जीते हैं; क्योंकि देह आज़ादी माँग ही नहीं रही, देह कह रही है, “गले में पट्टा डाल लो। खाना दोगे न?”
देह बनकर जीना चाहते हो? बोलो। देह का मतलब होता है कि बस भोजन आता रहे और दूसरा — लिंग, जननेंद्रियाँ।
प्र२: आचार्य जी, शरीर से फिर मन उठता है, मन बाकी चीज़ें माँगता है, फ्रीडम (आज़ादी) भी माँगता है।
आचार्य: तो इसका अर्थ यह है कि बाकी चीज़ें भी जो मन माँग रहा है—अगर हम सिर्फ़ मन की बात करें—वो सब कुछ मूलतया यही हैं।
उदाहरण के लिए, मन अगर गाड़ी की माँग कर रहा है, तो ऐसा तो नहीं कि वो किसी लड़की को प्रभावित करने के लिए गाड़ी माँग रहा हो? और लड़की को क्यों प्रभावित करने के लिए गाड़ी चाहिए? ताकि सेक्स मिल सके, और क्या? तो लगेगा तो यह कि ये साहब बड़े कर्मठ कर्मचारी हैं, बहुत मेहनत कर रहे हैं, और मेहनत ये इसलिए कर रहे हैं ताकि ये जल्दी ही एक गाड़ी खरीद सकें। और जब कोई कहता है कि “मैं गाड़ी खरीदना चाहता हूँ,” तो हम कहते हैं, “ये तो अच्छी बात है।" पर वो गाड़ी भी खरीदी इसीलिए जा रही है ताकि किसी को प्रभावित किया जा सके। यही तो वजह है न कि दिल्ली के ऑटो-एक्सपो में जाओ कभी, वहाँ हर गाड़ी के बगल में? (उँगली से दो का इशारा करते हुए)
श्रोता: *मॉडल*।
आचार्य: दो लड़कियाँ खड़ी होती हैं। गाड़ी के साथ संदेश दिया जा रहा है, “ये वाली गाड़ी होगी तो ऐसी मिलेगी।” (श्रोतागण हँसते हैं)
प्र२: और जो बाकी किसी को किताब पढ़ने का मन होता है, कहानियाँ पढ़ने का मन करता है?
आचार्य: वो इसलिए करता है क्योंकि मात्र देह हो ही नहीं तुम।
देह का बस चले तो सारे उपनिषदों में आग लगा दे। इसीलिए देखते नहीं हो, जैसे ही यहाँ से उपनिषद् फूटने शुरू होते हैं, तुम्हारी देह सोनी शुरू हो जाती है? देह का बस चले तो सारे बोध-साहित्य में आग लगा दे। देह चाहती ही नहीं है कि तुम्हारे कान में ऋषियों के और कबीरों के वचन पड़ें; देह चाहती है कि जैसे ही किसी कबीर के बोल तुम्हारे कान में आना शुरू हों, तुम तत्काल सो जाओ, क्योंकि सोओगे नहीं तो वो सब कर नहीं पाओगे जो देह तुमसे करवाना चाहती है। और देह तुम्हें पशु बनाकर छोड़ना चाहती है, या कह दो पशु ही बनाकर रखना चाहती है।
जो आदमी भजनों में सोता हो, सत्संगों में सोता हो, उसकी एक बात पक्की होगी, उसे भोजन से बहुत प्यार होगा। देह उसकी और चाहती क्या है? खाना। और दूसरा, वो लड़कियों के पीछे बहुत भागता होगा। क्योंकि देह की यही तो दो बातें कहीं हमने, उसको क्या चाहिए? भोजन, आराम और सेक्स * । तो ये वो आदमी होगा जो भोजन की ख़ातिर कुछ भी कर सकता है, ये वो आदमी है जो कभी भी सो सकता है बेहोश की तरह, सारे काम-धाम छोड़कर, धर्म छोड़कर सो जाएगा। और तीसरी चीज़, ये वो आदमी होगा जिसे * सेक्स बहुत चाहिए।
देह की अपनी एक कहानी है, देह का अपना एक बहाव है, देह के अपने उद्देश्य हैं। और देह के उद्देश्य तुम्हारे उद्देश्यों से मेल नहीं खाते, इस बात को समझो। तुम चाहते हो मुक्ति, और देह चाहती है बंधन; क्यों देह बनकर जीना चाहते हो तुम? तुम चाहते हो प्रेम, और देह चाहती है सेक्स ; क्यों देह बन कर जीना चाहते हो तुम? तुम चाहते हो ज्ञान, और देह चाहती है अंधकार; क्यों देह बने रहना चाहते हो? बोलो।
तुम्हारे हित में नहीं है देहभाव, इसीलिए हर साधक को, हर तपस्वी को पहली और आख़िरी लड़ाई अपने ख़िलाफ़ लड़नी पड़ती है; और अपने से क्या आशय है? देह के ख़िलाफ़। इसीलिए साधना में शरीर का इतना महत्व है। कभी कोई साधक शरीर को सुखा डालता है, देखा है? वो कहता है, “कम खाऊँगा, कम खाऊँगा।" कभी कोई तमाम तरह के योगाभ्यास करता है। कभी तुम पढ़ते हो पुराणों में कि अमुक ऋषि ने नदी किनारे खड़े हो करके एक टाँग पर तपस्या की। इन सबका संबंध किससे है?
श्रोता: देह से है।
आचार्य: देह से है, कि देह तो नहीं चाहती है कि तुम एक टाँग पर खड़े हो, पर तुम खड़े हो, तो तुम कह रहे हो, “देह, मैं तेरे ख़िलाफ़ जाऊँगा, तू जो नहीं चाहती, मैं वही करूँगा। तू चाहती है कि मैं सोऊँ, मैं जगूँगा।“
सूफ़ी रात-रात भर जागकर इबादत करते हैं। देह कह रही है, “तू सो,” और फ़कीर कह रहा है, “मैं जगूँगा, क्योंकि देह, तेरे इरादे अलग हैं और मेरा मंसूबा अलग है। तेरा-मेरा कोई साम्य नहीं है, मैं तेरे कहने पर चलने लग गया तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा।" बात समझ में आ रही है?
जिसमें देहभाव जितना प्रबल होगा, वो उतना ज़्यादा अंतर करेगा अपनी औलाद में और पड़ोसी की औलाद में। वो कहेगा, “ये मेरी औलाद है न, क्योंकि ये मेरे वीर्य से आयी है, ये ज़्यादा कीमती है।" औलाद को कीमती बताकर वो किसको कीमती बता रहा है?
श्रोता: देह को।
आचार्य: अपनी देह को ही तो कीमती बता रहा है।
तो जब देखो कि कोई बाप बिलकुल लोटा जा रहा है अपने बेटे पर, “मेरा मुन्ना, मेरा लाडला,” तो समझ लो कि ये अपने वीर्य की बहुत कदर करता है, वीर्यवादी है। मुझे ऐतराज़ नहीं है कि अगर कोई वयस्क किसी बच्चे को गले लगाए और उसे लाड़ दिखाए, पर मैं कह रहा हूँ कि तुम सिर्फ़ उसी बच्चे को लाड़ क्यों दिखा रहे हो जो तुम्हारे वीर्य से आया? पड़ोस के बच्चे में और सड़क के बच्चे में तुम्हें दुर्गंध आती है क्या? तुम्हें बस वही बच्चा प्यारा है जो तुम्हारे लिंग से निकला हो? इसका मतलब तुम्हें बच्चे से प्यार नहीं है, क्योंकि बच्चे, बच्चे तो सब एक होते हैं। तुम्हें अगर बच्चे से ही प्यार होता, तो सड़क पर भिखारी का जो बच्चा है, तुम्हें उससे भी प्यार होता। तुम्हें बच्चे से प्यार नहीं है; तुम्हें अपने लिंग से, अपने वीर्य से, अपनी देह से प्यार है। बड़े घटिया आदमी हो तुम! तुम बच्चे के नाम पर अपनी ही देह को पूज रहे हो।
मैं जो बातें कह रहा हूँ, वो बहुत लोगों को आहत कर रही होगी। मैं हाथ जोड़कर उनसे कह रहा हूँ, “आहत करने के लिए नहीं कह रहा हूँ ये सारी बातें। आपको चोट लग रही हो तो दुःख है मुझे, लेकिन और कोई उपाय नहीं है। हम पुराने अँधेरों में इतने डूबे हुए हैं कि कभी-कभार चोट करनी पड़ती है।“
हाथ मानती हो अपने-आपको? हाथ में हथकड़ियाँ लग जाएँगी। हाथ तो तैयार बैठे हैं न, “आओ, हथकड़ी लगाओ।“ आत्मा में लग सकती है हथकड़ी? तो बताओ फिर कौन बंधक बनाएगा उसे जो देह नहीं है? और जिसने कह दिया, “मैं देह हूँ,” उसके हाथ तुरंत उपस्थित हो गए बंधने के लिए; अब बहुत कुछ किया जा सकता है तुम्हारे साथ, तुम्हें चोट पहुँचाई जा सकती है, क्योंकि देह तो सदा तैयार है न चोट खाने के लिए? एक छोटा-सा तिनका उड़ता हुआ आए, तुम्हारी आँख में पड़ जाए, लग गई चोट। तो जो अपने-आपको देह मानेगा, वो जीवन भर चोटिल रहेगा, क्योंकि देह को तो लगातार चोट पड़ती ही रहती है। और आवश्यक नहीं है कि कोई तिनका आए, कोई गाली भी तो आ सकती है; लग गई चोट तुमको।
तन और मन को एक ही जानना। जिसको तुम मन कहते हो, ये बात मैं दोहरा रहा हूँ, वो भी तन की वृत्तियों से और तन के रसायनों से ही उठा है, इसीलिए तो तन के अतिरिक्त मन का कोई अस्तित्व नहीं होता। तिनका आया तो चोट लग गई, गाली आई तो चोट लग गई; जो अपने-आपको तन मानेगा, वो जीवन भर घाव में जिएगा, उससे मवाद गिरता रहेगा, वो पस में सड़ेगा, बात-बात में तो उसे चोट लगेगी। जिन्हें चोट बहुत लगती हो, जो जल्दी-जल्दी घायल हो जाते हों, वो जान लें कि उन्हें शरीर से बहुत अनुराग है। मृत्यु का भय, चोट, लगातार संशय, ये सब उपहार मिलते हैं उनको जो देह बनकर जीते हैं। चाहिए ऐसे उपहार?
क्या रिश्ता होना चाहिए फिर आदमी का देह के साथ? देह को सांयोगिक मानो, क्या मानो? सांयोगिक, केंद्रीय नहीं। कि जैसे चलते-फिरते कोई मिल गया और अब वो तुम्हारे साथ चल रहा है, जैसे ट्रेन के डिब्बे में कोई मिल गया हो—देह ऐसा संयोग है; कुछ देर रहेगी तुम्हारे साथ, जैसे ट्रेन का सहयात्री रहता है कुछ देर तुम्हारे साथ, और किसी भी मुकाम पर इस देह को डिब्बे से उतर जाना है। सहयात्री, सहयात्री होता है सिर्फ़, वो तुम्हारी मंज़िल तो नहीं बन सकता न। क्या बोलोगे तुम ऐसे आदमी को जिसने हमसफ़र को ही मंज़िल बना लिया हो? देह हमसफ़र है, वो भी थोड़ी देर की, मंज़िल नहीं है। ये है देह के साथ उचित रिश्ता, “तू थोड़ी देर के लिए मेरे साथ है, हमारी यात्रा तो अनंत है।”
और हम वो हैं जिसने कभी कोई यात्रा करी नहीं। चूँकि हम कभी कोई यात्रा करते नहीं, इसीलिए कहने वाले ये भी कह देते हैं कि हमारी यात्रा अंतहीन है। और देह, उसकी यात्रा तो सीमित होती है, कभी पाँच साल चलती है, कभी बीस साल चलती है, बहुत हुआ तो अस्सी-नब्बे साल चलेगी। अलग-अलग तरह की ट्रेन होती हैं न? मेट्रो होती है, थोड़ी दूर की और हिमसागर एक्सप्रेस है, ये नब्बे साल की देह है। पर ट्रेन कोई भी हो, दो बातें पक्की हैं, कभी चढ़ोगे और कभी उतरोगे। देह ऐसी ही है। क्या तुम उसके मोह में पड़ गए जो बस संयोगवश तुम्हारे डिब्बे में आकर बैठ गया था! और डिब्बे में ही तुमने ब्याह रचा लिया, डिब्बे में ही तुमने ख़ानदान खड़ा कर लिया, और फिर जब सहयात्री उतरने लगा तो तुम रोने लगे, बोले, “ये क्या हुआ! मेरा तो घरौंदा टूटा।“ पगले! उसका टिकट नहीं देखा था पहले? अपना भी नहीं देखा था। तुमने तो बड़े अरमान बैठा लिए थे, तुम्हारे मन में तो कहानियाँ-ही-कहानियाँ; और कोई कहानी पूरी होती नहीं। दिखा दो मुझे एक आदमी जो अपनी कहानियाँ पूरी करके मरा हो।
कहानी सदा अधूरी रह जाती है; पिक्चर चल रही होती है, तुमको मध्यांतर में ही बाहर फेंक दिया जाता है। अजीब बात है! बैठे सुन रहे हो कहानी, और कहानी नहीं पूरी हुई, तुम्हें बीच में ही उठाकर रख दिया गया, “चलो बाहर। वो भैंसे पर कोई लेने आया है तुमको। काला-कलूटा सा है, गदा लिए हुए है, काफ़ी आउटडेटेड (तिथिबाह्य) है, पर मानता नहीं, लेने आ गया।” और तुम कह रहे हो, “हमारी तो कहानी चल रही है, हमारी निजी कहानी, शो चल रहा है।” शो का क्या नाम है? “मेरा परिवार। स्वर्ग से सुंदर, सपनों से प्यारा है अपना घर-द्वार, मेरा परिवार।" और वो शो नहीं पूरा होने का, वो भैंसे वाला तुमको पिलियन राइडर बनाएगा, वो भी बिना हेलमेट के।
एक दफ़े मैंने कहा था, लोगों ने पोस्ट और बना दिया, “तुम्हारे जीवन पर जो हक़ पूरा दिखाते हैं, वो मौत के वक़्त कहाँ छुप जाते हैं?” जब तक तो जी रहे हो, कहते हो, “परिवार के आगे बेबस हो जाता हूँ।“ हाँ, जी रहे हो तो ये परिवार तुम्हारी ज़िंदगी पर पूरा हक़ दिखा रहा है, “अब ये करो, अब वो करो, यहाँ जाओ, इतने बजे घर वापस आ जाओ, ये बैठो, वहाँ खाओ, ऐसा करो, वैसा करो।” जब मरोगे तो ये सब साथ जाएँगे तुम्हारे? तब ये क्यों छुप जाएँगे? अभी तो ये इतना हक़ दिखाते हैं जैसे कितने सगे हों तुम्हारे, मौत के समय भी ये सगे रहेंगे तुम्हारे? बोलो।
“तेरह दिन तक तिरिया रोवे, छह माह तक माता,” कबीर हैं, “उड़ जाएगा हंस अकेला,” और फिर तेरह दिन तक स्त्री रोएगी तुम्हारी और छह माह तक माता रोएगी, बस बात ख़त्म। और जब तक जी रहे हो, तब तक ये खून पिए हुए हैं तुम्हारा कि “तुम्हीं तो हमारे सब कुछ हो और हम ही तुम्हारे सब-कुछ हैं, हमारे ही लिए जियो।" और इनके कारण तुमने राम को भुला दिया, “कुल करनी के कारणे, ठिग ही रह गयो राम।“
इस झूठे खेल में तुमने जीवन का असली उद्देश्य भुला दिया; और फिर दिल ख़ूब टूटता है तुम्हारा। बच्चों पर ज़िंदगी कुर्बान किए जा रहे हो, जिस पर ज़िंदगी कुर्बान करोगे, फिर उससे कुछ वसूली भी माँगोगे। वसूली मिलती नहीं, तब रोते हो, कहते हो, “ज़िंदगी व्यर्थ गई, और ये बच्चे बड़े एहसान फरामोश निकले।“ तुमसे किसने कहा था कि अपनी ज़िंदगी उन पर लुटाओ? और अब तुम चाहते हो वो अपनी ज़िंदगी तुम पर लुटाएँ, जो भूल तुमने करी, उसी को वो दोहराएँ। और वो न दोहराएँ तुम्हारी भूल, तो तुम कहते हो, “इनसे ज़्यादा कृतघ्न कोई है नहीं। हमने अपनी ज़िंदगी इन पर लगा दी, और ये अपनी ज़िंदगी बर्बाद ही नहीं कर रहा है। अरे, बाप से तो सीखो, बाप ने पूरी ज़िंदगी व्यर्थ की है, तू कैसा बेटा है जो ज़िंदगी बर्बाद नहीं कर रहा?” फिर तुम्हारे भीतर बड़ी शिकायत उठती है।
बाप सपूत को कभी माफ़ नहीं कर सकता, इस बात को अच्छे से याद रखना। एक-से-एक कपूतों की माफ़ी है, सपूत की कोई माफ़ी नहीं है। बेटा बिलकुल ही नालायक, बल्कि कहो कि हरामखोर भी निकल जाए तो भी बाप कहेगा, “नहीं, नहीं, कोई बात नहीं, अभी बच्चा है। पैंतालीस का ही तो हुआ है, सुधर जाएगा। नन्हा-सा तो है। ‘मम्मा-मम्मा’ करके आता है, माँ का आँचल पकड़ लेता है। सिर्फ़ पैंतालीस का है, कोई बात नहीं।" पर बेटा अगर सपूत निकल गया, बेटा अगर बुद्ध निकल गया, तो बाप उसे माफ़ नहीं करने वाला।
तमाम कहानियाँ हैं, कौन जाने, पर एक कहानी कहती है कि बुद्ध पहुँचे थे जब अपने घर वापस—और वो बुद्ध हैं अब, सिद्धार्थ गौतम नहीं—बाप ने तमाम शिकायतें कीं, उलाहना पर उलाहना, कोई तो कहता है कि थप्पड़ ही जड़ दिया था। इतना तो नहीं किया होगा, लेकिन ताने ज़रूर मारे होंगे। और बुद्ध भौंचक्के खड़े, बुद्ध बाप से कह रहे हैं, “तुम्हें पता भी है वापस कौन आया है? तुम्हें पता भी है कि मैं कौन हूँ? तुम्हें पता भी है कि जो गया था घर छोड़कर, महल छोड़कर, वो नहीं वापस आया है?”
पर बाप ऐसे बात कर रहा है, “अरे! तू ही बेवकूफ़ निकला। देख, उधर देख, वो पड़ोस के राज्य वाले को देख, उसके तीन बच्चे भी हो गए, तू ही रह गया बस। अब तक तो तू चक्रवर्ती सम्राट बन गया होता, ज्योतिषियों ने बोला था। तुझे चक्रवर्ती बनना था, ऑपर्चुनिटी रह गई, तेरा करियर ख़राब हो रहा है, बता रहा हूँ तुझको।" और फिर वो गए बीवी के पास, और बीवी बोल रही है, “प्रियवर! ऐसा क्या मिल गया जंगल में जो महल में न मिलता?” और बुद्ध निरुत्तर खड़े, बोल रहे, “इसको जवाब कौन दे?”
बड़ी सुंदर, लंबी कविता है, द लाइट ऑफ एशिया , पढ़ना, बुद्ध के ऊपर है। उनमें यही कह रही है वो यशोधरा कि “प्रियवर! यदि सत्य सर्वत्र है तो जंगल में ही क्यों खोजा, मेरे बिस्तर पर क्यों नहीं? वो तो सब जगह मिलता है न?”
अजीब बात है, सबकी माफ़ी है, बुद्धों की माफ़ी नहीं है, क्योंकि बुद्ध देह से ऊपर उठ गया। और ख़ासतौर पर बुद्ध का परिवार बुद्ध को कभी नहीं माफ़ कर पाएगा; क्योंकि बुद्ध का होना ही परिवार के मुँह पर तमाचा है।
अच्छा लग रहा है ज़्यादा या बुरा लग रहा है ज़्यादा?
श्रोता: अच्छा।
आचार्य: पक्का?
श्रोता: हाँ।
आचार्य: फिर ठीक है।
थोड़ा-थोड़ा बुरा लग रहा है न? अब ये बेईमानी की बात नहीं।
श्रोता: सच में नहीं लग रहा है।
आचार्य: थोड़ा बोलो कि बुरा लग रहा है, लेकिन अच्छा ज़्यादा लग रहा है।
श्रोता: नहीं, मुझे बुरा लग ही नहीं रहा है।
आचार्य: अरे! तो फिर तुमने कुछ सुना ही नहीं, फिर तो मेरे सारे बाण व्यर्थ गए। मैं इतनी कोशिश कर रहा हूँ कि तुम्हें कुछ बुरा लगे। जब हमारा हाल हमारे सामने उघेड़ कर रख दिया जाए, तो बुरा लगना चाहिए; हमारी दशा ऐसी है निश्चित रूप से कि हमें बुरा लगना चाहिए। हाँ, भीतर कुछ और भी रहे जो कि बुरा तो लग रहा है, लेकिन उस बुराई से ज़्यादा कहीं अच्छाई है, ये भी हमें दिख रहा है।
जाओ, बड़ा परिवार बनाओ, बड़ा परिवार। नन्हा-सा घोंसला, राई भर बिल मत बनाओ; संसार तुम्हारा है, बड़ा घर बनाओ।