सनातन धर्म के सामने सबसे बड़ा खतरा क्या? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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सनातन धर्म के सामने सबसे बड़ा खतरा क्या? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: सनातन धर्म जिसे हम हिंदू धर्म भी कह देते हैं, उसके सामने सबसे बड़ा ख़तरा क्या है?

आचार्य प्रशांत: देखो, व्यावहारिक रूप से, धर्म की बुनियाद होते हैं धर्मग्रंथ। आदर्श रूप से पूछोगे तो धर्म की बुनियाद होती है आत्मा। धर्म का मतलब होता है आत्मा के अनुसार चलना और आत्मा की ही तरफ़ चलना। आत्मा की पुकार पर चलना, आत्मा के कहे पर चलना और आत्मा की तरफ़ को ही चलना। पर वो आदर्शवाद है, आदर्शवाद क्यों है? क्योंकि मन को अगर आत्मा का पता ही होता तो उसे धर्म की फिर ज़रूरत क्यों पड़ती?

मन बहका हुआ है, मन आत्मा से दूर है तभी तो उसे धर्म चाहिए ना ताकि वो आत्मा — आत्मा माने सत्य, आत्मा माने शांति — ताकि वो आत्मा की तरफ़ जा सके। इसीलिए तो मन को धर्म की ज़रूरत है। इसीलिए धर्म के केंद्र पर होते हैं धर्म के जो सर्वोच्च ग्रंथ हैं वो। वो बताते हैं कि कैसे जीना है, जीवन किसका है, जीव की सच्चाई क्या है, मन किसको कहते है, विचार क्या है, भावनाएँ क्या हैं, सम्बंध क्या हैं। ये बताना काम है धर्मग्रंथों का और धर्म के केंद्र पर धर्मग्रंथ बैठे हैं, ठीक है?

तो जब तक किसी भी धर्म के अनुयायियों में अपने ग्रंथों के प्रति सम्मान रहेगा, झुकाव रहेगा और धर्मग्रंथों का ज्ञान रहेगा तब तक धर्म को ख़तरा नहीं हो सकता। अभी हालत बहुत गड़बड़ हो गयी है। बड़ी चिंता की बात है। मैं उपनिषदों पर दिनरात बोलता हूँ। हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हमारे कोर्स चलते हैं और उनके बारे में जब भी कोई सूचना बाहर जाती है या सत्रों से कोई उक्ति, कोई उद्धरण कहीं प्रकाशित होता है तो लोग पूछते हैं ये उपनिषद् क्या हैं, हम इन्हें कहाँ से पढ़ सकते हैं, कहाँ से खरीदें?

जिसको तुम आम हिंदू बोलते हो उसका अपने धर्म की केंद्रीय किताबों से कोई सम्बन्ध ही नहीं रह गया है और यही इस समय धर्म के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।

आपको अगर झूठमूठ के उग्र नारे लगाने हैं धर्म की रक्षा के लिए, तो आप कह सकते हैं कि आपके धर्म को किसी दूसरे धर्म से बहुत ज़्यादा ख़तरा है। सनातन धर्म में हिंदू धर्म को किसी दूसरे धर्म से बाद में होगा ख़तरा, पहला ख़तरा उसे हिन्दुओं से ही है। क्योंकि जिसको आप हिंदू बोलते हो वो नाम का हिंदू है। उससे पूछो, "तू कैसे है हिंदू?" तो उसके पास बस एक बात होगी बोलने के लिए, "मेरे माँ-बाप हिंदू हैं तो मैं भी हिंदू हूँ।" बोलें, "हिंदू होने का मतलब क्या है?" तो वो बोलेगा, "होली-दिवाली मना लेना, राखी बाँध लेना ये हिंदू होने का मतलब है।"

बोलो, "भई! धर्म है, धर्म के पीछे दर्शन होता है, कोई बात होती है, कोई जीवन दृष्टि होती है, वो क्या है तेरी? जिसको तू हिंदू धर्म बोलता है उसकी दृष्टि क्या है, दर्शन क्या है?" तो वो नहीं बता पाएगा, उसे पता ही नहीं। और ऐसा धर्म बहुत दूर तक नहीं जा सकता जिसके मानने वालों को उसकी किताबों का ही पता न हो। बहुत ज़ाहिर, एकदम स्पष्ट बात है।

अभी कहा सनातन धर्म फिर कहा हिंदू धर्म, उसी को वैदिक धर्म भी बोलते हो। ये कैसा वैदिक धर्म है जिसका पालन करने वालों के घरों में वेद पाए ही नहीं जाते? चलो पूरे-पूरे वेद तुम नहीं पढ़ पाते या आवश्यक नहीं समझते, कोई बात नहीं। पर वेदों के जो सबसे सारगर्भित अंश हैं, वेदों का जो उच्चतम दर्शन है, वो जिन अत्यंत लघु और संक्षिप्त किताबों में मिलता है उनको तो अपने घर ले आओ, उनको तो पढ़ लो। उनको पढ़े बिना, उनको जाने बिना तुम किस अधिकार से अपने आपको हिंदू बोलते हो? बोलो।

या बस ऐसे ही, "मैं हिंदू हूँ!" फिर तो कोई भी हिंदू है। कोई भी हो सकता है फिर हिंदू। लेकिन फिर उस शब्द का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा, बहुत खोखला हो जाएगा। कोई अर्थ होना चाहिए न?

अपनी जब आप पहचान बताते हो तो उस पहचान का कोई अर्थ होना चाहिए न? उदाहरण के लिए आप अगर कहते हो कि मैं वैज्ञानिक हूँ तो इसका मतलब आपको विज्ञान पता है। और कोई पहचान बताओ अपनी। आप कहते हो आप खिलाड़ी हो तो इसका मतलब आपको खेलना आता है। आप कहते हो कि, "मैं शेफ हूँ" इसका मतलब आपको रसोई चलानी आती है, खाना बनाना आता है, कोई विशेष बात है जो आपको पता है। वैसे ही जब आप कहते हो, "मैं हिंदू हूँ" तो मुझे बताओ आपको क्या पता है? कुछ समझ में आ रही है बात?

और ये तो छोड़ दो कि उपनिषद् नहीं पढ़े हैं आम हिंदू ने, अब तो हालत ये है कि जो पीढ़ी निकलकर आ रही है इसे रामायण-महाभारत का भी कुछ पता नहीं। रामायण-महाभारत का महत्व उपनिषदों जितना नहीं हो सकता। उनमें संस्कृति ज़्यादा है दर्शन कम है लेकिन संस्कृति की भी अपनी कुछ महत्ता है। तो आजकल के जो छोटे बच्चे हैं उनको रामायण महाभारत भी नहीं पता, उपनिषद् कहाँ से पता होंगे?

और रही उपनिषद् की बात तो वो तो ढूँढे ही नहीं मिलते। लोग पूछ रहे हैं, "कहाँ से मिलें, कहाँ से मिलें?" फिर हम उन्हें बताते हैं कि कुछ उपनिषद् और उन पर पूरी-पूरी व्याख्या, आ जाओ भाई, हमारी वेबसाइट पर है, हमारी ऐप पर है। वहाँ वो आते हैं तो उन्होंने जीवन में कभी उपनिषद् पढे नहीं होते हैं, तो पहली बार तो उनको समझ में ही नहीं आता कि ये क्या है। और कईयों को बड़ी सुखद हैरानी होती है। वो बोलते हैं हमें तो लगता था कि धर्म में सब इधर-उधर की, जंतर-मंतर की ही बातें होती हैं। उपनिषद् तो बड़े सीधे, सटीक और वैज्ञानिक हैं। हमें बड़ा अच्छा लग रहा है पढ़कर। तुम्हें अच्छा लग रहा है पढ़कर के, ये तो देखो आज तक क्यों नहीं पढ़े। ये है सबसे बड़ा ख़तरा।

एक पूरी धारणा ही बनती जा रही है कि इन ऊँची किताबों का धर्म में कोई ख़ास महत्व नहीं है। एक कल्ट (पंथ) ही निकल कर आ रहा है जो कह रहा है कि पढ़ने की ज़रूरत क्या है। तो जब पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, कोई केंद्रीय बात समझने की ज़रूरत नहीं है तो फिर तो सब अपनी-अपनी चलाएँ न?

और आपको अपनी चलाने की पूरी छूट है पर फिर आप ये मत कहिए कि आप जो कर रहे हैं उसका वैदिक धर्म से कोई सम्बन्ध है। आप फिर सीधे बोलिए न कि मैं अपना अलग कल्ट चला रहा हूँ। और ये हिंदू धर्म के लिए बड़े ख़तरे की बात है कि उसमें कुछ भी केंद्रीय बचेगा नहीं, अगर सब अपना अलग-अलग कल्ट चलाते रहे।

एक डिसजॉइंट (टूटा हुआ) और केओटिक मास (अव्यवस्थित भीड़) बनकर रह जाना है सनातन धर्म को। डिसजॉइंट समझते हो? खण्डित, टुकड़ा-टुकड़ा, फ्रैगमेंटिड। कि यहाँ वाला अपनी बात कह रहा है, यहाँ वाला अपनी बात कह रहा है, वहाँ वाला अपनी बात कह रहा है। कोई केंद्रीय समानता, कोई केंद्रीय तत्व है ही नहीं।

देखो, विविधता का मैं सम्मान करता हूँ और विविधता का स्वागत है लेकिन विविधता के केंद्र पर किसी एक चीज़ के लिए तो सहमति होनी चाहिए न, कहीं तो एकत्व होने चाहिए न? उपनिषद् वैसे भी बड़ी खुली दृष्टि रखते हैं, वो विविधता को खत्म नहीं कर देंगे, वो विचार को संकीर्ण नहीं कर देंगे। संकुचित नहीं कर देंगे कि नहीं आप खुला मत सोचिए। आप बेशक खुला सोचिए लेकिन सोच का मतलब क्या है और सोचने वाला कौन है? विचार हो, विचारक हो, भावना हो, कर्म हो, कर्ता हो, इनके अर्थ क्या हैं? ये तो समझना पड़ेगा न? ये नहीं समझ पाओगे, जब तक तुम इन किताबों की ओर नहीं आते।

इन किताबों की ओर आए बिना हर आदमी अपना मम्बो-जम्बो चलाएगा और बोलेगा ये तो धर्म की बात है, तो वो फिर झूठ बोल रहा है। और झूठ ही नहीं बोल रहा है, खतरनाक काम कर रहा है। और उसकी पूरी आजादी है, मैं कह रहा हूँ, अपना मम्बो-जम्बो चलाने की। चलाओ, लेकिन उसको ये मत बोलो कि ये हिंदू धर्म है। ये हिंदू धर्म नहीं है फिर। तुममें फिर इतनी हिम्मत होनी चाहिए, तुम जो कर रहे हो, सीधे बोलो, मैं तो अपना एक नया व्यक्तिगत कल्ट (धर्म-सम्प्रदाय) चला रहा हूँ।

और ये कल्ट खूब चल रहे हैं। बहुत ख़तरे की बात है कि आम सनातनियों का इन कल्ट्स में यकीन बढ़ता ही जा रहा है। कोई इस बाबा का अनुयायी है, कोई फलाने गुरूदेव का भक्त है। और ये जितने बाबे हैं और गुरूदेव हैं इन सबमें एक साझी बात है। इनमें से अधिकांश कह रहे हैं, "किताबें मत पढ़ना, हमारी सुनो बच्चा, हम तुम्हें बताएँगे। जो हम पिलाएँ पीते रहो, जो हम चखाएँ चखते रहो, किताबें मत पढ़ना।"

इतना डर क्यों है किताबों से? कहीं ऐसा तो नहीं जिसने वो किताब पढ़ली वो फिर तुम्हारी बात सुनेगा नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो किताब अगर पढ़ली तो तुम्हारी पोलपट्टी खुल जाएगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम झूठे हो इसीलिए तुम्हें डर है कि लोग कहीं सच्ची किताबें न पढ़ लें?

एक बात स्पष्ट है: अगर ग्रंथों की वैसे ही उपेक्षा और अनादर होता रहा जैसे अभी हो रहा है तो सनातन धर्म को और, और, और ज़्यादा कमजोर होने से कोई नहीं बचा सकता।

देखो, धर्म संस्कृति नहीं होता। आप ईसाईयत को ले लीजिए, दुनियाभर में फैली हुई है। अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग संस्कृति है। आप अफ्रीका के किसी ईसाई को ले लीजिए, ठीक है, आप यूरोप के किसी ईसाई को ले लीजिए, संस्कृति बिलकुल अलग-अलग है, पर बाइबल में दोनों का विश्वास अटूट और अखंड होगा। तो धर्म संस्कृति नहीं होता।

अभी बार-बार धर्म के नाम पर ऐसे बात की जाती है जैसे धर्म संस्कृति हो। धर्म को कल्चर बना दिया है कि “इन अवर कल्चर दिस काइंड ऑफ थिंग्स हैप्पन " (हमारी संस्कृति में इस तरह की चीजें होती हैं)। अरे कल्चर तो आते-जाते रहते हैं, बदलते रहते हैं, कल्चर से क्या होता है, धर्म बिलकुल दूसरी बात है।

संस्कृति तो समय की मोहताज होती है, सत्य समय का मोहताज नहीं होता। लेकिन हिंदुइज्म अब धर्म की जगह संस्कृति ज़्यादा बन गया है। कि माने, हिंदू कौन? जो फलाने तरीक़े से व्यवहार करता हो, जिसके फलाने तरीक़े के संस्कार हों वो हिंदू है। ये बहुत-बहुत ख़तरे की बात है।

आपने धर्म को संस्कृति बनाकर धर्म को बहुत नीचे गिरा दिया। संस्कृति को धर्म के पीछे चलना चाहिए, धर्म संस्कृति के पीछे-पीछे नहीं चल सकता। संस्कृति को धर्म का अनुगमन करना होगा, बात समझ रहे हो?

जो चीज़ जरूरी है, संस्कृति वैसी बन जाए। यहाँ उल्टा खेल चल रहा है। धर्म से लोगों को वंचित रखा जा रहा है और कल्चर को प्रमोट किया जा रहा है। बार-बार बोला जाएगा कि भारत के कल्चर में तो ऐसा होता था और लोगों को लगता है जो कल्चर में हो रहा है वही तो धर्म है। तो लोग पुराने कल्चर को पकड़ने की ओर दौड़ रहे हैं बार-बार। सोचते हैं कि धार्मिक होने का तो यही मतलब है कि पुराना कल्चर पकड़े रहो।

धर्म के नाम पर क्या चल रहा है? कि पुरानी संस्कृति पकड़े रहो। तो अगर उदाहरण के लिए किसी को अपने-आपको धर्मगुरु बताना है तो वो क्या करेगा? वो आज से छह-सौ साल पहले जैसे कपड़े पहने जाते थे या छह-हजार साल पहले, वो वैसे कपड़े पहन के आ जाएगा। कहेगा, "देखो, मैं पुराना कल्चर फॉलो कर रहा हूँ न, इससे सिद्ध होता है मैं धार्मिक आदमी हूँ।"

धर्म का तो मतलब है कि समय की परवाह मत करना। धर्म तो कालातीत होता है। धर्म कैसे समय के किसी बिंदु पर जाकर अटक गया, कि देखो धर्म का मतलब है कि दसवीं शताब्दी में भारत जैसा चलता था तुम भी आज वैसा ही चलो। तो दसवीं शताब्दी में जैसे कपड़े पहने जाते थे तुम भी आज वैसे ही पहनो। ये बात धर्म की नहीं है, ये तो अधर्म है। धर्म तो टाइम इंडिपेंडेंट (समय पर निर्भर न करने वाला) होता है, बिओंड टाइम (समय के पार) होता है।

जहाँ ये कोशिश की जा रही हो कि टाइम (समय) के किसी बिंदु का सम्बन्ध ही धर्म के साथ जोड़ दिया जाए, कि दसवीं शताब्दी में जो हो रहा था वो शुद्ध हिंदू धर्म था। और आज तुम अगर उसका पालन कर रहे हो तो तुम अच्छे हिंदू हो गए। उस समय पर जैसे-जैसे चलता था काम, वैसे ही आज भी चलाओ अगर तुम, तो अच्छे हिंदू हो गए। तो ये बात धर्म की थोड़े ही है, ये तो पागलपन की बात है।

और जो ये कर रहा है उसको ये पूरी सांत्वना मिल जाती है, छूट मिल जाती है कि, "भई, मैं तो हिंदू कल्चर का पालन कर रहा हूँ न तो फिर मुझे क्या ज़रूरत पड़ी है उपनिषदों को पढ़ने की, कि दत्तात्रेय को पढ़ने की, कि अष्टावक्र को पढ़ने की, कृष्ण को पढ़ने की, ज़रूरत क्या पड़ी है?"

और बताता हूँ बहुत बड़ा ख़तरा हिंदू धर्म के सामने: एक मुहावरा चल गया है कि अरे किताबों में क्या है वहाँ तो खोखले और थोथे शब्द हैं, असली ज्ञान तो भीतर है, बच्चा ध्यान करो। गीता उठाकर के कचरे में डाल दो, बच्चा ध्यान करो और असली ज्ञान भीतर से निकलेगा। मेरे पास शब्द नहीं हैं इस प्रकार की मूर्खता का उत्तर देने के लिए वाकई, कि, "बच्चा ध्यान करो, गीता छू मत देना, असली ज्ञान तो तुम्हारे भीतर से निकल जाएगा!" तुम्हारे भीतर जानते नहीं हो क्या है? मल, मवाद, मूर्खता।

अभी कुछ दिनों पहले एक सज्जन का संदेश आया था कि, "अरे! कृष्ण भी तो एक व्यक्ति ही थे। क्या भरोसा है, कि उन्होंने जो बातें बोलीं वो ठीक हैं? हम कृष्ण से आगे क्यों नहीं निकल सकते? हम कृष्ण से बेहतर क्यों नहीं सोच सकते?" अच्छा हुआ इन्होंने संदेश ही भेजा था।

अच्छा हुआ कि महामारी के चलते आजकल लोगों का मेरे सामने बैठना वर्जित है। नहीं तो महाराज मेरे सामने बैठकर बताते कि मैं कृष्ण से ऊपर का हूँ, कृष्ण एक इंसान ही तो थे, मैं उनसे ऊपर की बात करूँगा, तो मैं उनको बिलकुल ऊपर ही रखता बात करने के लिए। बात करते-करते ऊपर पहुँचाता।

मैं आपकी संभावना से इंकार नहीं कर रहा हूँ। निश्चित रूप से आपमें कृष्ण जैसी संभावना हो सकती है लेकिन अपने यथार्थ को तो देखो पहले। संभावना तो ठीक है। संभावना रूप में तो हम सब सत्य मात्र हैं, परम ब्रह्म हैं लेकिन उस संभावना से क्या होता है, अपनी ज़िंदगी को तो देखो। देखो जी कैसे रहे हो, अपनी हस्ती को देखो, उसके बाद तुम कह रहे हो, "मैं कृष्ण से आगे निकल जाऊँगा!"

पहले तुम वो तो समझ लो जो कृष्ण ने कहा है, आगे निकलने की बात तो बहुत बाद की है। पर अनादर! गीता के प्रति अनादर, सब ग्रंथों के प्रति अनादर। और ये अनादर फैलाने में सबसे आगे हैं आजकल के जितने व्यवसायी और पेशेवर गुरु लोग हैं। क्योंकि इनका धंधा चलेगा नहीं अगर तुम्हें गीता समझ में आ गयी, इतना बताए देता हूँ।

ये सिर्फ उस दिन तक चल सकते हैं जिस दिन तक तुम कृष्ण से दूर हो। जिस दिन तुमको कृष्ण और अष्टावक्र समझ में आने लग गए, गुरु महाराज का धंधा तुरंत बंद हो जाएगा क्योंकि तुम्हें दिख जाएगा कि ये गुरु महाराज एक नंबर के ठग हैं। गुरु महाराज तो मौज करके निकल लेंगे, उनका तो काम था जीवन का सुख भोगना। तुम्हें खूब बेवकूफ बनाया उन्होंने, जीवन में खूब सुख भोगा। दस-बीस-चालीस साल और जीएँगे अपना, निकल लेंगे, मज़े मारेंगे।

रोज तुम्हें बुद्धू बनाकर के वापस जाते हैं और पेट हिला-हिलाकर खूब हँसते हैं कि आज फिर पूरे हिंदुस्तान को बेवकूफ बनाया मैंने। वो निकल लेंगे, रह जाएँगे पीछे धर्म के खण्डित और दूषित अवशेष। उनका तो कुछ नहीं, उन्होंने तो मज़े मार लिए, लेकिन नुकसान वो धर्म का बहुत बड़ा कर जाएँगे और कर गये हैं। ये है सबसे बड़ा ख़तरा। समझ में आ रही है बात?

होली-दिवाली मनाने से या हिंदू नाम रख लेने से तुम हिंदू नहीं हो जाते। कुछ जानोगे, कुछ लिखोगे, कुछ पढ़ोगे? कौनसा ईसाई है जो कहता है कि बाइबिल पढ़ने की क्या ज़रूरत है? कौनसा मुसलमान है जो कहता है क़ुरआन पढ़ने की क्या ज़रूरत है? कम-से-कम इतना तो सीखो। तुम ही बड़े होशियार हो जो कह रहे हो कि “अरे, उपनिषद् पढ़ने की क्या ज़रूरत है; बाबाजी हैं न, बाबाजी चरणामृत पिलाएँगे; गुरूदेव विल टेल्, गुरूदेव हिमसेल्फ् विल टेल् (क्या करना है क्या नहीं, गुरुदेव बताएँगे)।" योर गुरुदेव इज़ ब्लडी रास्कल, स्काउंड्रल, वॉट् विल ही टेल्? (तुम्हारे गुरुदेव दुष्ट और बेईमान हैं, वो क्या बताएँगे?)

न जाने कहाँ से ये प्रथा शुरू हुई है! वाट्सऐप पढ़ लेंगे, पैम्फ़्लेट पढ़ लेंगे, इरॉटिका (कामुक किताबें) पढ़ लेंगे, पोर्न (अश्लीलता) पढ़ लेंगे, गीता नहीं पढ़ेंगे। और ऐसा नहीं है कि गीता इसलिए नहीं पढ़ी क्योंकि समय नहीं था। ये तो प्रिन्सिपल की बात है, सिद्धांत की बात है कि गीता नहीं पढ़नी क्योंकि गीता पढ़ी नहीं कि मन करप्ट (भ्रष्ट) हो जाएगा। गीता पढ़ी नहीं कि मन दूषित हो जाएगा।

गीता तो सिर्फ झूठ के लिए ख़तरा होती है। गीता किसके लिए ख़तरा है? झूठ के लिए। और तुम कह रहे हो, "गीता मैं अगर पढ़ूँगा तो मेरा मन खराब हो जाएगा।" तो इसका क्या मतलब है तुम क्या हो? झूठ। लेकिन समय कुछ ऐसा है कि कोई भी बात तुम बिलकुल अकड़ के बोल दो, बिलकुल दंभ के साथ, छाती चौड़ी करके तो लोग दब जाते हैं। और लोग दब भी इसीलिए जाते हैं क्योंकि उन्होंने खुद कुछ नहीं पढ़ा। तो आप बिलकुल शान से खड़े होकर के बोलते हो कि नहीं, मैं अगर गीता पढूँगा न तो मेरे मन पर ज़रा बुरा असर पड़ सकता है इसीलिए मैं गीता नहीं पढ़ता। और लोग आपको जूता मारने की जगह आपको गुरुजी घोषित कर देते हैं।

प्रकाश से तो अँधेरा ही घबराता है, नहीं? ज्ञान से तो अज्ञान ही घबराता है। और गीता से तो कोई महा अधर्मी होगा वही दूर भागेगा।

घर-घर में संतों की वाणी होनी चाहिए, कबीरसाखी ग्रंथ होना चाहिए, उपनिषद्-संग्रह होने चाहिए, श्रीमद्भगवद्गीता होनी चाहिए, अष्टावक्र गीता होनी चाहिए। तुमसे कोई नहीं कह रहा है कि तुम अंधा अनुकरण करो इन ग्रंथों का, पर कम-से-कम पढ़ो तो सही। वरना समझाओ, कि पढ़ने में तुम्हें क्या आपत्ति है? नहीं, पढेंगे ही नहीं!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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