रैगिंग रोज़ाना, ज़िन्दगी भर || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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रैगिंग रोज़ाना, ज़िन्दगी भर || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: इस जीवनकाल में न जाने किसके-किसके हाथों लूट रहे हो और भूल ही गये हो कि असली बाप कौन है, यहाँ किसी के हाथों लुटने की, यहाँ किसी से दबने की ज़रूरत है क्या, बताओ? और उसने (परमात्मा ने) पूरी व्यवस्था बना रखी है कि अगर तुम न पसन्द करो लुटना, तो बस बता देना तुम्हें लुटने की कोई ज़रूरत नहीं है।

एंटी रैगिंग स्क्वाड (दुर्व्यवहार रोधक दस्ता) होते हैं, तुम्हें बस जाकर एक बार बताना है कि यहाँ पर हमारे साथ दुर्व्यवहार हो रहा है। लेकिन तुम स्वेच्छा से चुनाव करे हो कि हमें तो बेइज़्ज़त होकर ही जीना है। क्यों? क्योंकि तुम अपने असली बाप को भूल गये, असली मालिक को भूल गये।

तो असली मालिक ने सहायता के लिए जो हाथ बढ़ा भी रखा है, तुम्हें वो दिखाई नहीं देता, तुम उसे स्वीकार नहीं करते। अगर कोई छात्र ये तय कर ले कि उसे रैगिंग नहीं करवानी, तो क्या हो सकती है उसकी? पुलिस से लेकर के संस्थान के प्रशासन तक, प्रबन्धन तक सब आ जाऍंगे उसकी मदद को कि नहीं आ जाएँगे; बोलो?

तो रैगिंग करवाना, सब सेकंड ईयर (द्वितीय वर्ष) के छोरों को अपना बाप बना लेना एक चुनाव ही है न, ये चुनाव किया तुमने। तुम ये चुनाव न करते तो तुम्हें बे-आबरू भी नहीं होना पड़ता न; पर ये चुनाव उन्होंने किया, आदमी वो चुनाव जीवन भर करता है।

प्रश्नकर्ता: किसी-न-किसी अर्थ में तो रोज़ हम यही कर रहे हैं?

आचार्य: रोज़ यही कर रहे हो, तुम ऐसों के सामने लुट रहे हो, पिट रहे हो जिनके सामने लुटने-पिटने की ज़रूरत नहीं। और उनके सामने तुम्हें इसलिए लुटना-पिटना पड़ रहा है, क्योंकि तुम अपने बाप के नहीं हो जो तुम्हारा असली सहायक है, जो तुम्हारा असली पिता है, तुम उसकी इज़्ज़त ही नहीं करते। इसीलिए फिर दुनिया के सामने डरे-डरे घूमते हो, कोई भी चीज़ तुम्हें डरा जाती है। अभी यहाँ से एक मछली उछल पड़े, देखना पाँच-सात बद-बदाकर गिरोगे। और इतनी बड़ी कोई मछली, वो भी पानी से बाहर, पानी से बाहर मछली उसमें क्या बल?

पर बद-बदाकर गिरोगे, ‘अरे रे रे! मछली आ गयी, मछली आ गयी!

हर चीज़ तो तुम्हें डराये रहती है, इसीलिए डराये रहती है। जो उसकी कद्र नहीं करेगा, जो उसका असली सहायक है, जो वास्तव में तुम्हारा है; तुम उसकी इज़्ज़त नहीं करोगे, नतीजा ये होगा कि तुम्हें दुनिया भर से डर-डरकर जीना पड़ेगा। अपने जीवन को ग़ौर से देखो, उसमें डर कितना है, अगर तुम हर छोटी-छोटी चीज़ से डर जाते हो, तो कारण एक ही है, तुममें उसके प्रति प्रेम और सम्मान नहीं है जो तुम्हारा अपना है। तो सज़ा तुम्हें फिर ये मिलती है कि डर-डरके जियो, जियो डर-डरके।

और वास्तव में जिन्होंने रैगिंग झेली है या उसको क़रीब से देखा है, उन्हें ये पता होगा कि फ़च्चे की चेतना में ये जो फर्स्ट ईयर (प्रथम वर्ष) का छात्र होता है जिसे हॉस्टल की भाषा में कहा जाता है फ़च्चा!

उस फ़च्चे की चेतना में सीनियर के अलावा कुछ रहता ही नहीं है। सीनियर उसको इतना आक्रान्त कर देता है, सीनियर उसके ज़ेहन पर ऐसा चढ़कर बैठ जाता है कि सीनियर जो कहेगा, वो करेगा। और याद रखना हम बेवकूफ़ लोगों की बात नहीं कर रहे हैं, हम देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों की बात कर रहे हैं और ये देश भर के सर्वश्रेष्ठ संस्थान नहीं हैं, इनमें प्रवेश लेना दुनिया में सबसे कठिन काम है, ये दुनिया की सबसे कठिन प्रवेश परीक्षाऍं हैं।

और यही चीज़ क़रीब-क़रीब आइआइएम में देखने को मिलती थी। वहाँ मामला इतना वलगर नहीं था, अश्लील नहीं था, वहाँ चीज़ ज़रा सुसंस्कृत तरीक़े से करी जाती थी, पर डराने का ये काम वहाँ भी होता है।

डर क्यों जाते हो? डर इसीलिए जाते हो क्योंकि बाप पर भरोसा नहीं है, बाप से कोई नाता नहीं। भूल गये हो कि इस दुनिया में, दुनिया वालों के मत्थे नहीं आये हो, बाप के मत्थे आये हो। साँस तुम्हारी इसलिए नहीं चल रही कि समाज है? साँस तुम्हारी इसलिए चल रही है क्योंकि परमात्मा है। भूल जाते हो। जब भूल जाते हो तो फिर दुनिया के आश्रित हो जाते हो, फिर दुनिया के आगे नाक रगड़ते हो, दुनिया के आगे डरे-डरे रहते हो।

रैगिंग करवा रहे हो और क्या कर रहे हो? आम आदमी की ज़िन्दगी और क्या है, अस्सी साल की रैगिंग। वहाँ तो दो महीने में रैगिंग ख़त्म हो गयी थी, फ्रेशर्स पार्टी (प्रथम वर्ष के छात्रों का स्वागत) हो गयी थी, तुम्हारी तो फ्रेशर्स पार्टी चिता पर ही होती है, उसी दिन रैगिंग ख़त्म होती है।

मणिकर्णिका क्या है? फ्रेशर्स वेलकम (प्रथम वर्ष के छात्रों का स्वागत) अब फ्रेशर्स पार्टी हुई है, अब रैगिंग ख़त्म होगी।

नहीं तो जीवन भर रैगिंग ही तो हुई है। यहाँ तो तुम्हें सबने ही सताया है। छोटे हों, बड़े हों, अपने हों, पराये हों, पक्षी हो, मछली हो। गाय, कुत्ता, कुछ भी, घर का हो, पड़ोस का हो सबने सताया है। रैगिंग ही तो चल रही है और क्या चल रहा है?

और ये रैगिंग वाले काम नहीं आऍंगे न। कबीर साहब इतना समझा गये कि जब ज़रूरत पड़ेगी तो ये काम नहीं आऍंगे। और होता भी वही था, अभी बताया तो – रैगिंग ख़त्म हुई, उसके बाद जिन-जिनके आगे तुम्हारे कपड़े उतरे थे, वो कहीं नज़र नहीं आते थे फिर। और नज़र आते भी थे तो आँख चुराकर निकल जाते, उन्होंने तो मज़े ले लिये।

कुछ बिगड़ जाता उस फ़च्चे का अगर वो अपनी रैगिंग न करवाता? जल्दी बताओ।

श्रोता: नहीं।

आचार्य: कुछ नहीं बिगड़ता न? वैसे ही तुम्हारा भी कुछ नहीं बिगड़ेगा अगर तुम इस दुनिया के सामने अपनी रैगिंग न करवाओ। कुछ नहीं बिगड़ेगा पर तुम डरे हुए हो इसलिए अपनी रैगिंग करवाये जाते हो, करवाये जाते हो, रोज़ करवाते हो।

और डरे इसलिए हो; चौथी, पाँचवी, आठवीं बार बोल रहा हूँ क्योंकि बेवफ़ाई बहुत है तुममें और बदतमीज़ी बहुत है।

श्रोता: रैगिंग करवा-करवाकर आ गयी बदतमीज़ी।

आचार्य: उल्टा है, पहले बेवफ़ाई आती है फिर तुम्हारी रैगिंग होती है, नहीं तो रैगिंग शुरू ही न हो।

प्र: आचार्य जी, ये जो डर है, ये निकल जाएगा तो रैगिंग बन्द हो जाएगी?

आचार्य: उल्टा है न, जब तुम्हें सर्वप्रथम ये याद रहेगा कि किसके मत्थे इस दुनिया में हो, तब तो डर निकलेगा न। रैगिंग करवाना, डरे रहना ये सब एक बात है, इन सब बातों का मूल कारण तो समझो। मूल कारण ये है कि जो याद रहना चाहिए उसको भुला देते हो, उसको भुला देते हो और ये रट लेते हो, बिलकुल ज़ेहन में बसा लेते हो कि दुनिया ही सबकुछ है और अगर दुनिया के हिसाब से, दुनिया के इशारों पर नहीं चले तो बड़ा नुक़सान हो जाएगा।

तुम फ़च्चे से बात करके देखो, उसको बोलो, ‘अरे! तू क्या कर रहा है, क्यों सीनियर के सामने नाक रगड़ता है?’ तो कहेगा, ‘बड़ा नुक़सान हो जाएगा।’ उससे पूछो, ‘क्या नुक़सान हो जाएगा?’ तो वो साफ़-साफ़ बता नहीं पाएगा, पर उसके भीतर एक धुँधला सा भय है जो बैठा हुआ है। उस भय का कोई नाम नहीं, उस भी का कोई चेहरा नहीं। उससे तुम कहो कि साफ़-साफ़ बताओ अगर रैगिंग नहीं करवाओगे तो क्या नुक़सान हो जाएगा? तो वो बता नहीं पाएगा। कुछ इधर-उधर की दो-चार बातें करेगा, व्यर्थ की बातें करेगा। उसे नहीं साफ़ पता है कि रैगिंग क्यों नहीं करवानी, पर वो करवाये जा रहा है, करवाये जा रहा है, अकारण करवा रहा है।

भय की यही बात है, तुम उसका कारण खोजने निकलोगे तो नहीं पाओगे, पर वो है। वृत्ति है न वो, वृति का कोई कारण तो होता नहीं। वो तो बस होती है, तुम हो इसलिए वृत्ति है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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