प्रश्नकर्ता: आख़िर इतना उपद्रव में करने में मज़ा क्यों आता है हम लोगों को?
आचार्य प्रशांत: ये तुम बताओ न कि तुम्हें उपद्रव में क्या मज़ा आता है।
प्र: आख़िर हम लोगों से भूल कहाँ हो रही है?
आचार्य: भूल ये हो रही है कि जब शान्ति मिलती है, तो उसका सम्मान नहीं करते। उसको इतनी क़ीमत नहीं देते कि उसके लिए बिक जाओ। जब शान्ति मिलती है तो उससे कहते हो, ‘अच्छा है, बढ़िया है कि तू मिल गयी, थोड़ी देर ठहर हम उपद्रव के अभी मज़े लेकर आते हैं।‘ और तुम सोचते हो कि तुम स्वेच्छा से जा रहे हो शोर की तरफ़। तुम्हें ये नहीं पता कि तुम शोर में प्रवेश करोगे, शोर तुम्हें सोख लेगा, खींच लेगा, बाँध लेगा और फिर तुम लौट नहीं पाओगे।
पानी में कूदना आसान है, बाहर आना उतना आसान नहीं होता न? पानी में कूद तो हर कोई सकता है, कोई-कोई ही है जो पानी में कूद जाए और फिर बाहर भी आ पाये। तुमको ये बात याद ही नहीं रहती या तुम इस बात को याद रखना ही नहीं चाहते। तुमको लगता है, कूद जाएँगे फिर आ ही जाएँगे किसी तरीक़े से वापस। और ये तुम्हें क्यों लगता है, क्योंकि परमात्मा में एक बहुत बुरा गुण है; निर्गुण में भी गुण है, वो भी बुरा और उसमें बुरा गुण ये है कि वो बहुत बचाता है।
तुम बीस बार कूदे हो पानी में और उसने बीस बार तुमको बचा लिया है। तुमने बीस बार आत्मघाती क़दम उठाये हैं। तुमने बीस बार ऐसे काम किये हैं जिनकी तुमको भरपूर सज़ा मिलनी चाहिए थी, पर उसने सज़ा या तो तुम्हें दी नहीं है या दी भी है, तो जितनी तुम्हें मिलनी चाहिए थी उससे बहुत-बहुत कम।
तो तुम कूद पड़ते हो पानी में और दो-चार मिनट छप-छप करने के बाद जब डूबने ही लगते हो तो पाते है कि एक अदृश्य हाथ उतरता है और तुमको बाहर खींच लेता है, और बच जाते हो तुम। जब बच जाते हो तो अगली बार के लिए पूरा सबक भी नहीं सीख पाते, तुम फिर वही ग़लती करते हो जो तुमने अतीत में करी थी।
तुम्हें नहीं आता है तैरना, गहरे पानियों के प्रति कोई दक्षता नहीं है तुम्हारी लेकिन तुम फिर पानी में कूदते हो। क्योंकि कहीं-न-कहीं तुम्हें भरोसा है कि वो इतना करुणावान है कि एक बार फिर आकर बचा ही लेगा। हमारी सारी गुस्ताख़ियों के बावजूद वो हमें न सिर्फ़ माफ़ कर देगा, बल्कि ख़ुद ही चला आएगा बचाने के लिए। तो तुम फिर कूद पड़ते हो।
प्र: इसका तो ये अर्थ हुआ कि हमारा वो उठाया गया क़दम सच्चा और प्रामाणिक नहीं रहा होगा?
आचार्य: यहाँ कुछ भी सच्चा और प्रामाणिक नहीं है, क़दम कहाँ से प्रामाणिक होगा? तुम ही प्रामाणिक नहीं हो। अगर सीखने के प्रति श्रद्धा होगी तो जब सिखाया जा रहा है सीखोगे न; या अपना प्रश्न लेकर कूद लगाओगे?
और अगर तुम अभी नहीं सुन पा रहे, तो तुम तब कैसे सुन पाओगे जब मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूँगा? बताओ, तुम तो तुम ही हो। तुम अभी नहीं सुन पा रहे, तो तुम क्या तब अचानक सुनना शुरू कर दोगे जब मैं तुम्हारा प्रश्न लूँगा?
पर समाज में हर गतिविधि बँटी हुई है न; दुनिया ने यही सिखाया है। जब तुम बच्चे थे, स्कूल जाते थे तो पीरियड (अवधि) लगा करते थे, याद है? तो अभी पीरियड लगा है गणित का, अब गणित के पीरियड में अंग्रेज़ी की बात नहीं होगी। अंग्रेज़ी की किताब?
प्र: बन्द।
आचार्य: एक पीरियड बन्द होते ही उस पीरियड की किताब बन्द, और अगली किताब निकाल दी जाती थी। और एक पीरियड का न पिछले से कोई ताल्लुक़ होता था न अगले से; तुम ज़िन्दगी वैसी ही जी रहे हो, तुम्हारे हिसाब से ये अध्यात्म का पीरियड चल रहा है, तो अभी तुमने अध्यात्म वाली किताब खोल रखी है और पीरियड बन्द होते ही तुम किताब बन्द कर दोगे।
इस पीरियड से पहले चल रही थी उपद्रव की किताब और इस पीरियड के बाद फिर चलेगी उपद्रव की किताब; अभी अध्यात्म की किताब खुली है क्योंकि तुम अच्छे बच्चे हो, स्कूल में पढ़ने आये हो, नहा-धोकर, कंघी-वंघी करके। अभी खोजूँगा तो टिफ़िन बॉक्स भी मिलेगा। बढ़िया धुले-धुलाये कपड़े पहनकर, टिफ़िन बॉक्स और बोतल लेकर आ गये हो कि अभी तो पढ़ेंगे। और मन कहीं-न-कहीं घड़ी भी देख रहा होगा, ‘पीरियड बढ़िया जा रहा है पर ख़त्म कब होगा?’
आत्मा से बड़ी दूरी है; आत्मा का अर्थ होता है विशुद्ध ‘मैं’। तुम ‘मैं’ ही हो, तुम वैसे ही हो जैसा तुम्हें दुनिया ने सिखाया है। तुम्हें वास्तव में ऐसा ही लगता है कि जैसे गणित, गणित के पीरियड में पढ़ी जाती है वैसे ही अध्यात्म भी बस अभी पढ़ा जाता है; आगे-पीछे नहीं पढ़ा जाता। तुम अच्छे बच्चे हो, गुड बॉयज़ एंड गुड गर्ल्स (अच्छे लड़के और अच्छी लड़कियाँ)। तुम बिलकुल वही कर रहे हो जो तुमको परिवार ने, समाज ने सिखाया है।
प्र: फिर भी हमको ऐसा क्यों नहीं लगता कि हम बेईमानी कर रहे हैं या बनियागिरी चल रही है हमारे साथ?
आचार्य: क्योंकि बेईमानी और ईमानदारी की तुम्हारी परिभाषाएँ भी उधार की हैं, तो तुम्हें कैसे लगेगा तुम बेईमानी कर रहे हो? बच्चे शोर मचा रहे हैं और टीचर आ गयी तो बिलकुल चुप होकर अनुशासित होकर के खड़े हो गये, क्या टीचर उनको दोष देगी?
कहेगी, ‘नहीं, ये तो बढ़िया बच्चे हैं, मेरे आते ही देखो कैसे अनुशासित होकर खड़े हो गये।‘ उनको कौन बताएगा कि ये तुमने सरासर बेईमानी करी है? तुम्हारी बेईमानी की परिभाषा स्कूली है, वही बचपन से चल रही है। तुममें इंटिग्रिटी (अखंडता) नहीं है, एक जैसे नहीं हो तुम। सिखाया गया था न बचपन से; कि घर में व्यवहार कैसा भी हो, जैसे ही बाहर वाले आयें, और तुम छोटे से हो बिलकुल अभी; जैसे ही बाहर वाले आयें, उनको तुरन्त हाथ जोड़कर के विनम्र और शालीन होकर बोलना, ‘अंकल जी नमस्ते।’ उससे पहले ही घर में बिलकुल धूम मचा रखी हो, पर बाहर वाले आये नहीं कि बोलना?
प्र: नमस्ते।
आचार्य: अब बाहर वालों को उतना ही तो दिखेगा जितना तुम उन्हें दिखा रहे हो; कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम घर में क्या कर रहे थे, बाहर वालों के सामने अगर तुम विनम्र और शालीन हो, तो सौ खून माफ़। यही सीखा है न बचपन से? तो तुमको देखो न, बेईमानी की परिभाषा भी क्या सिखायी गयी है – तुम्हें बताया ही नहीं गया कि ये सरासर बेईमानी कर दी तुमने। हमारे घर क्या हैं, बेईमानी का नमूना नहीं हैं? बैठक सबसे ज़्यादा सुसज्जित होती है, होती है न? क्या ये बेईमानी नहीं है?
तुम बाहर वालों को घर का ऐसा चेहरा दिखा रहे हो जो वास्तविक है नहीं। छोटे होते हो तभी माँ-बाप बता देते हैं, ‘बेटा, ये घर के कपड़े हैं और ये बाहर के कपड़े हैं।’ है न? ये बेईमानी नहीं है? ये देख नहीं रहे हो पीरियड ही तो बाँटे जा रहे हैं, ये घर के कपड़े हैं और घर वाले कपड़े थोड़े अगर पुराने हों, घिसे हों तो भी चलेगा, पर बाहर वाले कपड़े बढ़िया होंगे, बाहर वाले कपड़े अलग हैं, चमकदार हैं।
अभी तुम सबने बाहर वाले कपड़े पहन रखे हैं, और परमात्मा है भीतर की चीज़ – उसे तुम दिखा रहे हो बाहर वाले कपड़े, बात कैसे बनेगी? अभी भी व्यवहार के तल पर ही आध्यात्मिक हो। इसको एक आध्यात्मिक मौक़ा मानकर के धार्मिक जिज्ञासा कर रहे हो, ज़रा चुप बैठे हो।
घरों में पूजा होती थी तो याद है? एकदम नहलाकर-धुलाकर, चोटी बनाकर तुम्हें तैयार कर दिया जाता था – हो गयी तेल-कंघी, चोटी कर दी गयी है। पंडित जी के सामने अच्छा बच्चा बनकर खड़े होना है। और पंडित जी के सामने ख़ासतौर पर तुम अनुशासित रहते थे, पालथी मारकर बैठ जाते थे; अभी वो पंडित जी मैं हूँ।
सामने दो-चार भगवानों की मूर्तियाँ रख दी जाती थीं, देवी देवताओं की और तुमको बता दिया जाता था कि न, अभी कोई गड़बड़ मत करना। और तुम गड़बड़ नहीं करते थे, तुम गड़बड़ी करने के अपने सारे प्लान, अपनी सारी योजनाएँ दो घंटे आगे सरका देते थे। कहते थे, ‘गड़बड़ी तो पूरी होगी, पूजा के बाद। ये पंडित जी रवाना हो जाएँ फिर हम बताते हैं।’
तो वैसे ही अभी ये पंडित जी बैठे हैं और ये चल रही है पूजा और अभी ये बस पूजा पूरी हो, उसके बाद देखना – ‘खई के पान बनारस वाला’, क्यों भा? ‘छोरा गंगा किनारे वाला।’ तो ये तुम वही तो कर रहे हो जो तुमने दो साल, चार साल की उम्र से करा है, तुम्हारे पास आत्मा कहाँ है? तुम कहाँ हो? तुम वही सब दोहरा रहे हो अभी भी जो बचपन से करते आये हो।
वास्तव में जो बुरे बच्चे होते हैं छुटपन में, उनके लिए तो फिर भी कुछ सम्भावना होती है कि वो बड़े होकर आध्यात्मिक हो जाएँ। ये जो अच्छे बच्चे होते हैं, इनके लिए कोई सम्भावना नहीं होती। अपने बचपन की ओर ग़ौर से देखना, अगर तुम बचपन में अच्छे बच्चे थे जो दुनिया के सामने बिलकुल अच्छा बनकर रहता था और जिसे बहुत ख़राब लग जाता था, अगर उसे कुछ बुरा बोल दिया गया या उसकी स्कूल से कोई बुरी रिपोर्ट आ गयी। तो तुम्हारे लिए अध्यात्म में बहुत कम सम्भावना है क्योंकि तुमने बचपन में ही आत्मसात कर लिया है कि मुझे ज़िन्दगी को बाँटकर के जीना है।
जहाँ कहीं दूसरे देख रहे हों वहाँ मुझे एक व्यवहार करना है। ज़िन्दगी न हुई, टाइम टेबल (समय सारणी) हो गया, सब कटा-छँटा-बँटा। जब तक वो एकनिष्ठा नहीं होगी, जब तक जीवन एकरूप नहीं होगा, जब तक जीवन में इंटीग्रिटी नहीं होगी, तब तक कैसे बनेगी बात?
जैसे छोटे बच्चे बोलते हैं न, ‘मैथ्स वाली मैडम, पीटी वाले सर।’ तो वैसे ही तुम्हारे भीतर अभी भी वो बच्चा बैठा है, जो कह रहा है, ‘अध्यात्म वाले ए पी; अध्यात्म वाले आचार्य जी आ गये क्या? हाँ आ गये, ठीक है। तो अभी उनके सामने अध्यात्म की तरह बैठना है। अभी बाक़ी सारी किताबें बन्द बस्ते में, मौजूद हैं पर बस्ते में हैं। अभी यहाँ वाली किताब खोल दो।’
विभाजित जीवन जियोगे तो उस तक कैसे पहुँचोगे जो अविभाज्य है?
प्रेमचन्द की एक कहानी है, एक रियासत थी छोटी-मोटी, उसके संचालक को, उसके मालिक को अपने लिए एक बहुत अच्छे प्रबन्धक की तलाश थी, मैनेजर की। तो मालिक ने विज्ञापन दिया कि मुझे तलाश है एक बहुत अच्छे मैनेजर की। तो बहुत सारे आवेदन आये, देश भर से आये। काम ऊँचा था, तनख़्वाह भी ऊँची थी। अब पता कैसे चले कि इसमें से योग्य आवेदक कौन है, तो नियोक्ता ने एक बढ़िया तरीक़ा चुना, उसने हॉकी का मैच रखवा दिया। जितने आवेदक थे उनसे कहा, ‘हॉकी खेलो।’ टीमें बाँट दीं।
कहानी आगे बढ़ती है, मैच हुआ बढ़िया, और मैच में एक उम्दा खिलाड़ी था उसको चोट भी लग गयी, वो लॅंगड़ा-लॅंगड़ाकर चल रहा है। और जहाँ तक मुझे याद है, इसके आगे कहानी ये रुख लेती है कि सारे खिलाड़ी खेलने के बाद मैच की बातें करते, कोई जश्न मनाता, कोई ज़रा निराश।
जब लौटने लगे, तो उनको लौटते देख रहा था सड़क किनारे पड़ा एक बूढ़ा भिखारी। और हिन्दुस्तान की सड़कें, सड़कों किनारे कोई बूढ़ा भिखारी पड़ा हो, ये कोई ताज़्जुब की बात नहीं होती, नयी बात नहीं होती। अब ये सब बड़े पढ़े-लिखे लोग थे, इन्होंने एक रियासत के प्रबन्धक के ओहदे के लिए आवेदन दिया था, तो ये सब अपना बातचीत करते झुंड में निकलते जाएँ। जिसको चोट लगी थी, वो लँगड़ाता हुआ ज़रा धीरे-धीरे, पीछे-पीछे आ रहा था।
भिखारी सबको पुकार रहा था, ‘आ जाओ, कुछ दे दो, मदद चाहिए।’ सब निकल गये सामने से। ये आख़िरी आया भिखारी के पास, पूछता है, ‘क्या चाहिए बाबा?’ बहुत ठीक-ठीक मुझे याद नहीं, तो ये आख़िरी जाता है और मदद दे देता है जब बाक़ी सब उस ग़रीब की उपेक्षा करके आगे बढ़ गये होते हैं, ठीक।
अगले दिन इस पूरी प्रक्रिया का परिणाम घोषित होना होता है, और परिणाम समझ ही गये होगे अब तक कि क्या आया। जिस उम्मीदवार को चोट लगी थी, और फिर जिसने मदद करी वो चुना गया।
बात को समझना, अधिकांश लाभार्थी, आवेदक ये सोच रहे थे कि फ़ैसला होगा हॉकी के मैच के आधार पर। तो घंटे, सवा घंटे का हॉकी का मैच, उन्होंने उसमें पूरी जान लगा दी। उन्होंने कहा, ‘बस, चयनकर्ता इस हॉकी के मैच को देख रहे हैं और जिसको अच्छा खेलता देखेंगे उसको चुन लेंगे।’
और जैसे ही हॉकी का मैच ख़त्म हुआ वो दोबारा अपनी रॉ में आ गये; जैसे सदा रहा करते थे वैसे हो गये। असली चुनाव हुआ, चयन की असली प्रक्रिया चली मैच के बाद। ये देखा गया कि अपने सामान्य जीवन में भी कौन है जिसमें करुणा है।
मैच तो पीरियड था, पीरियड में तुम क्या कर रहे हो क्या फ़र्क पड़ता है, हटाओ! मैच ऐसे ही था जैसे अभी तुम इस नाव पर बैठे हो, कोई फ़र्क नहीं पड़ता अगर तुम अभी मुझे बहुत ध्यान से सुन भी लो, तुम्हें लग रहा है कि अभी ये जो दो घंटे हैं, यही बहुत क़ीमती हैं। तुम वही भूल कर रहे हो जो मैच खेलने वालों ने करी थी, उन्होंने मैच में पूरी जान लगा दी थी।
तुम भी अभी पूरी जान लगा रहे हो, लेकिन मैच खेलने के बाद वो सारे परीक्षार्थी भी दोबारा अपनी रॉ में आ गये थे और इस पीरियड के पूरे होने के बाद तुम भी वैसे ही हो जाओगे, जैसे तुम सदा रहते हो। और परमात्मा तो कोई ग़रीब, भिखारी, कि बूढ़ा किसान बनकर तुम्हारी परीक्षा ले ही रहा है, वो तो ये देख रहा है कि अभी इस नाव से उतरने से पहले तुम कैसे थे, और इस नाव से उतरने के बाद तुम कैसे हो। याद रखना फ़ैसला मैच के बाद हुआ, मैच में नहीं। मैच में तो सभी आ गये थे अपनी-अपनी योग्यता दिखाने।
इसको कहते हैं, बेस्ट फुट फॉरवर्ड (सबसे अच्छा पैर आगे)। मैच में तो सभी आ गये थे एक अपना नकली चेहरा दिखाने, अभी तुम जो चेहरा दिखा रहे हो वो नकली ही है। बात समझ में आ रही है कि क्यों फँसे हुए हो, लाभ क्यों नहीं होता?
प्र: लेकिन ये नकली चेहरा ही तो असलियत है?
आचार्य: उसको अभी थोड़ा और ईमानदार होकर बोलो कि वो नकली चेहरा नकली है ही नहीं। नकली पानी पीकर प्यास तो नहीं बुझेगी न? जो बार-बार नकली को असली बोले, वो फिर प्यास की शिकायत भी न करे। तुम्हें पूरा हक़ है कि तुम अपने जीवन की हर नकली चीज़ को असली का नाम दे दो, पर उसके बाद शिकायत करने मत आना कि जीवन रूखा-सूखा और सूना है। और अगर शिकायत करने आ रहे हो तो फिर नकली को असली क्यों बोल रहे हो बार-बार?
प्र: लेकिन ऐसा भी डर लगा रहता है कि अगर हम अपने असली फॉर्म में, रियल फॉर्म में आ जाएँ, तो मैडम तो हमें क्लास से निकाल देंगी फिर। और उसमें सुरक्षा का भी भाव बना रहता है।
आचार्य: तुम्हें ये पता ही नहीं है न तुम किसकी क्लास में हो, जैसे इंजीनियरिंग कॉलेज में फर्स्ट ईयर के लड़के।
आईआईटी में था मैं, आईआईटी के पहले सैमेस्टर की बात है। नया-नया प्रवेश लिया सन पिचानवे में, तब रैगिंग (दुर्व्यवहार) ज़ोरों पर हुआ करती थी और वहाँ जितने घुसे थे, सब दो साल कड़ी मेहनत करके घुसे थे। कड़ी मेहनत उन्होंने करी थी संस्थान में प्रवेश के लिए। कड़ी मेहनत उन्होंने करी थी ताकि वहाँ की पढ़ाई पढ़ सकें। कड़ी मेहनत करी थी ताकि आईआईटी की क्लास में उपस्थित हो सकें, अटेंड कर सकें।
और वहाँ पहुँचा मैं और मैं देख रहा हूँ कि इनकी क्लास तो कोई और लगा रहा है, और ये अपनी क्लास लगवा भी रहे हैं! मुझे समझ में नहीं आया, मैंने कहा, ‘यार, दो साल मेहनत करी, जेई की परीक्षा पास करी। इसलिए करी थी न कि विश्व विख्यात प्रोफ़ेसर हमें पढ़ाऍंगे और हम उनके सामने बैठेंगे? यहाँ तो कोई और ही है जो हमारे सिर पर सवार है! सिर पर सवार है वो कौन? अठारह साल का छोरा। हम फर्स्ट ईयर (प्रथम वर्ष) वाले, वो सेकंड ईयर (द्वितीय वर्ष) वाले और वो सिर पर चढ़कर बैठे हुए हैं, वो क्लास भी ले रहे हैं।
और जितनी भद्दी, जितनी व्यर्थ और जितनी अश्लील और जितनी उपद्रवी क्लास हो सकती है, वो ले रहे हैं। हम भूल जाते हैं न कि हम किसकी क्लास में हैं, हमें याद ही नहीं रहता, हम किसी को भी अपना टीचर बना लेते हैं।
आईआईटी में घुसकर जो लड़का अपनी रैगिंग दे रहा है स्वेच्छा से, क्या उसको ये याद है कि उसने जो किया किसके लिए किया और उसका असली शिक्षक कौन है? क्या उसको याद है? न, वो घुसा नहीं है कैंपस में कि उसको लगने लगा है कि ये जो हमारे छोटे-मोटे सीनियर (वरिष्ठ) हैं यही तो माई-बाप हैं। तुम इन सीनियरों के लिए आये थे आईआईटी में, इनका क्या लेना-देना तुमसे? ये तुम्हें पढ़ाऍंगे? इनकी ख़ातिर तुमने जेई क्लियर (उत्तीर्ण) किया? पर वो जो कुछ भी करे जा रहे हैं, उसको बर्दाश्त किया जा रहा है।
हम भूल ही जाते हैं न कि हमारा असली मालिक कौन है, कोई भी हमारा मालिक बन जाता है और हम उसको मालिक बनवा भी लेते हैं। ख़ासतौर पर जो हमारा मालिक बन रहा हो अगर उसकी मालकियत सौ-पचास दूसरों ने भी स्वीकार कर ली हो, तो फिर तो हमें कोई शक ही नहीं रह जाता कि कुछ ग़लत हो रहा है।
सीनियर प्रभु खड़े हुए हैं और फ़च्चा बिलकुल मथा जा रहा है, दुह दिया गया है बिलकुल। और फ़च्चे कह रहे हैं, ‘ये तो बड़ा सौभाग्य है हमारा कि श्री सीनियर देव ने हम पर हाथ रखा, जहाँ भी रखा हो, ॐ श्री सीनियराय नमः।‘
अब कुछ याद नहीं कि तुम दो साल किसके लिए इतनी साधना कर रहे थे, उतनी पढ़ाई तुमने क्यों करी और तपस्या ही होती है कम-से-कम, तब तो हुआ करती थी तपस्या, आज से पच्चीस साल पहले। अब पता नहीं क्या होती है। बड़ी तपस्या होती थी, दो साल तपस्या करी और उसके बाद अपनी लगाम सौंप दी छोरामल को। और छोरामल कौन है? जिनकी अभी दाढ़ी-मूँछ भी आयी नहीं ठीक से। और कई बार तो जो फ़च्चा होता था उसकी उम्र सीनियरमल से ज़्यादा होती थी।
बड़े अजीब दृश्य देखने को मिलते थे, एक पाँच फ़िट चार इंच का सीनियर बिलकुल अभी-अभी बिल से निकला है और फ़च्चा है छः फ़िट का, और ये जो छः फ़िट का है ये अपने तीसरे प्रयास में आईआईटी में प्रवेश लेकर के आया है, तो इसकी उम्र भी सीनियरमल से ज़्यादा है। और ये सीनियर उसको मुँह ऊपर को उठाकर के घुड़की दे रहा है। बोल रहा है, ‘फ़च्चे, सुपरमैन बनकर दिखा’, सुपरमैन समझते हो? जींस के ऊपर चड्ढी पहननी होती थी। (श्रोता हॅंसते हुए)
और ये छः फ़िट का हाथी सुपरमैन बनकर घूम रहा है उसके पीछे-पीछे वो वामनदेव, श्री वामनाय नमः, और ये सब चल रहा है। अजीब!
‘बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे’, मैं देखूँ; मैंने कहा, ‘चल क्या रहा है? एक कुत्ता बनकर घूम रहा है, उसके गले में पट्टा डाल दिया गया है और सीनियर उसको टहलाने निकला है, सड़क पर। कि मैं अपने डॉगी को सू-सू कराने ले जा रहा हूँ।
ये मैं बात कर रहा हूँ उनकी जिनको तुम कहते हो देश के सबसे तीक्ष्णबुद्धि छात्र हैं, वो ये सब जलालत बर्दाश्त करते थे।
हम भूल ही जाते हैं न कि हमारे सिर पर वास्तव में हाथ किसका है, हम भूल जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि आईआईटी में आये हो अगर तो वहाँ की व्यवस्था के चलते आये हो, सीनियर के चलते नहीं आये हो। सीनियर न तुम्हें प्रवेश दिला सकता है, न तुम्हारा प्रवेश निरस्त करवा सकता है। उससे कोई लेना ही देना नहीं और लेना-देना होता भी नहीं था।
रैगिंग के एक-दो महीने न जाने किसके-किसके तलवे चाट लेते थे, और दो महीने बाद जिसके तलवे चाटे उसका पता भी नहीं कि वो कौन था, कि बगल वाले हॉस्टल का माली आकर के रैगिंग लेकर के चला गया। एक हॉस्टल का फ़च्चा दूसरे हॉस्टल की रैगिंग लेकर के चला गया। पता ही नहीं है कौन, जो ही सामने आ रहा है उसी के सामने नंगे हैं। दो महीने न जाने किसके-किसके सामने बे-आबरू हुए। इतना तो होता कि जिन-जिन ने इज़्ज़त लूटी वो बाद में आकर अपना परिचय तो दे जाते कि हम भी थे। पता भी नहीं चलता कहाँ-कहाँ लुटकर आये।
ऐसे ही हम हैं, दो महीना अर्थात् ये जीवनकाल है। इस जीवनकाल में न जाने किसके-किसके हाथों लूट रहे हो और भूल ही गये हो कि असली बाप कौन है, यहाँ किसी के हाथों लुटने की, यहाँ किसी से दबने की ज़रूरत है क्या, बताओ? और उसने (परमात्मा ने) पूरी व्यवस्था बना रखी है कि अगर तुम न पसन्द करो लुटना, तो बस बता देना तुम्हें लुटने की कोई ज़रूरत नहीं है।
एंटी रैगिंग स्क्वाड (दुर्व्यवहार रोधक दस्ता) होते हैं, तुम्हें बस जाकर एक बार बताना है कि यहाँ पर हमारे साथ दुर्व्यवहार हो रहा है। लेकिन तुम स्वेच्छा से चुनाव करे हो कि हमें तो बेइज़्ज़त होकर ही जीना है। क्यों? क्योंकि तुम अपने असली बाप को भूल गये, असली मालिक को भूल गये।
तो असली मालिक ने सहायता के लिए जो हाथ बढ़ा भी रखा है, तुम्हें वो दिखाई नहीं देता, तुम उसे स्वीकार नहीं करते। अगर कोई छात्र ये तय कर ले कि उसे रैगिंग नहीं करवानी, तो क्या हो सकती है उसकी? पुलिस से लेकर के संस्थान के प्रशासन तक, प्रबन्धन तक सब आ जाऍंगे उसकी मदद को कि नहीं आ जाएँगे; बोलो?
तो रैगिंग करवाना, सब सेकंड ईयर (द्वितीय वर्ष) के छोरों को अपना बाप बना लेना एक चुनाव ही है न, ये चुनाव किया तुमने। तुम ये चुनाव न करते तो तुम्हें बे-आबरू भी नहीं होना पड़ता न; पर ये चुनाव उन्होंने किया, आदमी वो चुनाव जीवन भर करता है।
प्र: किसी-न-किसी अर्थ में तो रोज़ हम यही कर रहे हैं?
आचार्य: रोज़ यही कर रहे हो, तुम ऐसों के सामने लुट रहे हो, पिट रहे हो जिनके सामने लुटने-पिटने की ज़रूरत नहीं। और उनके सामने तुम्हें इसलिए लुटना-पिटना पड़ रहा है, क्योंकि तुम अपने बाप के नहीं हो जो तुम्हारा असली सहायक है, जो तुम्हारा असली पिता है, तुम उसकी इज़्ज़त ही नहीं करते। इसीलिए फिर दुनिया के सामने डरे-डरे घूमते हो, कोई भी चीज़ तुम्हें डरा जाती है। अभी यहाँ से एक मछली उछल पड़े, देखना पाँच-सात बद-बदाकर गिरोगे। और इतनी बड़ी कोई मछली, वो भी पानी से बाहर, पानी से बाहर मछली उसमें क्या बल?
पर बद-बदाकर गिरोगे, ‘अरे रे रे! मछली आ गयी, मछली आ गयी!
हर चीज़ तो तुम्हें डराये रहती है, इसीलिए डराये रहती है। जो उसकी कद्र नहीं करेगा, जो उसका असली सहायक है, जो वास्तव में तुम्हारा है; तुम उसकी इज़्ज़त नहीं करोगे, नतीजा ये होगा कि तुम्हें दुनिया भर से डर-डरकर जीना पड़ेगा। अपने जीवन को ग़ौर से देखो, उसमें डर कितना है, अगर तुम हर छोटी-छोटी चीज़ से डर जाते हो, तो कारण एक ही है, तुममें उसके प्रति प्रेम और सम्मान नहीं है जो तुम्हारा अपना है। तो सज़ा तुम्हें फिर ये मिलती है कि डर-डरके जियो, जियो डर-डरके।
और वास्तव में जिन्होंने रैगिंग झेली है या उसको क़रीब से देखा है, उन्हें ये पता होगा कि फ़च्चे की चेतना में ये जो फर्स्ट ईयर (प्रथम वर्ष) का छात्र होता है जिसे हॉस्टल की भाषा में कहा जाता है फ़च्चा!
उस फ़च्चे की चेतना में सीनियर के अलावा कुछ रहता ही नहीं है। सीनियर उसको इतना आक्रान्त कर देता है, सीनियर उसके ज़ेहन पर ऐसा चढ़कर बैठ जाता है कि सीनियर जो कहेगा, वो करेगा। और याद रखना हम बेवकूफ़ लोगों की बात नहीं कर रहे हैं, हम देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों की बात कर रहे हैं और ये देश भर के सर्वश्रेष्ठ संस्थान नहीं हैं, इनमें प्रवेश लेना दुनिया में सबसे कठिन काम है, ये दुनिया की सबसे कठिन प्रवेश परीक्षाऍं हैं।
और यही चीज़ क़रीब-क़रीब आईआईएम में देखने को मिलती थी। वहाँ मामला इतना वलगर नहीं था, अश्लील नहीं था, वहाँ चीज़ ज़रा सुसंस्कृत तरीक़े से करी जाती थी, पर डराने का ये काम वहाँ भी होता है।
डर क्यों जाते हो? डर इसीलिए जाते हो क्योंकि बाप पर भरोसा नहीं है, बाप से कोई नाता नहीं। भूल गये हो कि इस दुनिया में, दुनिया वालों के मत्थे नहीं आये हो, बाप के मत्थे आये हो। साँस तुम्हारी इसलिए नहीं चल रही कि समाज है? साँस तुम्हारी इसलिए चल रही है क्योंकि परमात्मा है। भूल जाते हो। जब भूल जाते हो तो फिर दुनिया के आश्रित हो जाते हो, फिर दुनिया के आगे नाक रगड़ते हो, दुनिया के आगे डरे-डरे रहते हो।
रैगिंग करवा रहे हो और क्या कर रहे हो? आम आदमी की ज़िन्दगी और क्या है, अस्सी साल की रैगिंग। वहाँ तो दो महीने में रैगिंग ख़त्म हो गयी थी, फ्रेशर्स पार्टी (प्रथम वर्ष के छात्रों का स्वागत) हो गयी थी, तुम्हारी तो फ्रेशर्स पार्टी चिता पर ही होती है, उसी दिन रैगिंग ख़त्म होती है।
मणिकर्णिका क्या है? फ्रेशर्स वेलकम (प्रथम वर्ष के छात्रों का स्वागत) अब फ्रेशर्स पार्टी हुई है, अब रैगिंग ख़त्म होगी।
नहीं तो जीवन भर रैगिंग ही तो हुई है। यहाँ तो तुम्हें सबने ही सताया है। छोटे हों, बड़े हों, अपने हों, पराये हों, पक्षी हो, मछली हो। गाय, कुत्ता, कुछ भी, घर का हो, पड़ोस का हो सबने सताया है। रैगिंग ही तो चल रही है और क्या चल रहा है?
और ये रैगिंग वाले काम नहीं आऍंगे न। कबीर साहब इतना समझा गये कि जब ज़रूरत पड़ेगी तो ये काम नहीं आऍंगे। और होता भी वही था, अभी बताया तो – रैगिंग ख़त्म हुई, उसके बाद जिन-जिनके आगे तुम्हारे कपड़े उतरे थे, वो कहीं नज़र नहीं आते थे फिर। और नज़र आते भी थे तो आँख चुराकर निकल जाते, उन्होंने तो मज़े ले लिये।
कुछ बिगड़ जाता उस फ़च्चे का अगर वो अपनी रैगिंग न करवाता? जल्दी बताओ।
श्रोता: नहीं।
आचार्य: कुछ नहीं बिगड़ता न? वैसे ही तुम्हारा भी कुछ नहीं बिगड़ेगा अगर तुम इस दुनिया के सामने अपनी रैगिंग न करवाओ। कुछ नहीं बिगड़ेगा पर तुम डरे हुए हो इसलिए अपनी रैगिंग करवाये जाते हो, करवाये जाते हो, रोज़ करवाते हो।
और डरे इसलिए हो; चौथी, पाँचवी, आठवीं बार बोल रहा हूँ क्योंकि बेवफ़ाई बहुत है तुममें और बदतमीज़ी बहुत है।
श्रोता: रैगिंग करवा-करवाकर आ गयी बदतमीज़ी।
आचार्य: उल्टा है, पहले बेवफ़ाई आती है फिर तुम्हारी रैगिंग होती है, नहीं तो रैगिंग शुरू ही न हो।
प्र: आचार्य जी, ये जो डर है, ये निकल जाएगा तो रैगिंग बन्द हो जाएगी?
आचार्य: उल्टा है न, जब तुम्हें सर्वप्रथम ये याद रहेगा कि किसके मत्थे इस दुनिया में हो, तब तो डर निकलेगा न। रैगिंग करवाना, डरे रहना ये सब एक बात है, इन सब बातों का मूल कारण तो समझो। मूल कारण ये है कि जो याद रहना चाहिए उसको भुला देते हो, उसको भुला देते हो और ये रट लेते हो, बिलकुल ज़ेहन में बसा लेते हो कि दुनिया ही सबकुछ है और अगर दुनिया के हिसाब से, दुनिया के इशारों पर नहीं चले तो बड़ा नुक़सान हो जाएगा।
तुम फ़च्चे से बात करके देखो, उसको बोलो, ‘अरे! तू क्या कर रहा है, क्यों सीनियर के सामने नाक रगड़ता है?’ तो कहेगा, ‘बड़ा नुक़सान हो जाएगा।’ उससे पूछो, ‘क्या नुक़सान हो जाएगा?’ तो वो साफ़-साफ़ बता नहीं पाएगा, पर उसके भीतर एक धुँधला सा भय है जो बैठा हुआ है। उस भय का कोई नाम नहीं, उस भी का कोई चेहरा नहीं। उससे तुम कहो कि साफ़-साफ़ बताओ अगर रैगिंग नहीं करवाओगे तो क्या नुक़सान हो जाएगा? तो वो बता नहीं पाएगा। कुछ इधर-उधर की दो-चार बातें करेगा, व्यर्थ की बातें करेगा। उसे नहीं साफ़ पता है कि रैगिंग क्यों नहीं करवानी, पर वो करवाये जा रहा है, करवाये जा रहा है, अकारण करवा रहा है।
भय की यही बात है, तुम उसका कारण खोजने निकलोगे तो नहीं पाओगे, पर वो है। वृत्ति है न वो, वृति का कोई कारण तो होता नहीं। वो तो बस होती है, तुम हो इसलिए वृत्ति है।