अक़्ल बड़ी कि भैंस? || पंचतंत्र पर (2018)

Acharya Prashant

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अक़्ल बड़ी कि भैंस? || पंचतंत्र पर (2018)

प्रश्नकर्ता: पहले ‘मोगली’ का चरित्र हुआ करता था, इसका मतलब वो हम लोगों से बेहतर था?

आचार्य प्रशांत: ये पूरा शिविर तुम्हारे लिए सार्थक हो गया अगर ये ख़्याल तुम्हें उठा है। तुम भूल जाना चार दिन क्या हुआ, अगर इस एक बात को भी तुम अपने साथ रख सको। मैं नहीं कह रहा कि तुमने जो बात कही है, वो सत्य है, लेकिन तुमने जो बात कही है, वो शुभ है। वो बात सत्य नहीं है, पर उस बात पर सत्य का आशीर्वाद है, उस बात को सत्य ने छुआ है। तुमने जो कहा, वो बात सत्य इत्यादि नहीं है। 'अहम् ब्रह्मास्मि' नहीं कह दिया तुमने जब तुम कह रहे हो कि “क्या मोगली हमसे बेहतर था?”

तो ये 'अहम् ब्रह्मास्मि' नहीं है, पर जो बात तुमने कही है, ये बड़ी नई है। तुम्हारे मन में अक्सर आती नहीं है। और जो कुछ भी नवीन है, समझ लो कि सच ने कहीं-न-कहीं उसे हौले से छुआ है, क्योंकि जिस चीज़ को सच ने छुआ नहीं होता, वो तो पुरानी ही होती है; मन के पुराने चक्कर। ये नई चीज़ निकली, इसे सच ने छुआ है।

तुम्हें ये बात स्पर्श कर जाए तो तुम ज़िंदगी वैसे जियोगे ही नहीं जैसे तुम जी रहे हो। और ये सारी बातें, ये सब आध्यात्मिक शिविर, ये चार दिन का आयोजन, ये सब व्यर्थ है न अगर ये सब करके तुम फिर वहीं चले जाओ जहाँ से तुम आए हो।

अगर हम नहीं पूछ पा रहे ईमानदारी से अपने-आपसे कि “हम जहाँ हैं, वहाँ क्यों है? मैं कर क्या रहा हूँ? ये दीवारें क्यों चाहिए? फ़ाइलें क्यों चाहिए? ये एक दिन और बिताया नौ से छह, ये मैं कर क्या रहा हूँ? ये मैं पिछले आधे घंटे से सोचे जा रहा हूँ, सोचे जा रहा हूँ, ये मैं क्या सोच रहा हूँ, ये क्या उधेड़बुन है?”

“और ये सब करके क्या मेरी बेहतरी है, तरक़्क़ी है? सौ पीढ़ी पहले भी मैंने यही करा था और उससे सौ पीढ़ी पहले भी मैं यही कर रहा था, और उससे सौ पीढ़ी पहले भी मैं यही कर रहा था। और जितना मैंने ये किया है, मैं उतना कमज़ोर होता गया हूँ। मेरा शरीर देखो कितना कमज़ोर है, मेरा मन देखो कितना कमज़ोर है—ये सब कमज़ोरियाँ कहाँ से आईं? ये सब कमज़ोरियाँ वही कर-करके आईं जो मैं ठीक इस वक़्त कर रहा हूँ।”

तो फिर तुम वैसे नहीं जी पाओगे जैसे तुम जी रहे हो; फिर तुम्हें कुछ बदलना पड़ेगा। और जो तुम्हें बदलना पड़ेगा, वो दूसरों को क्रान्तिकारी भले ही लगे, तुम्हें नहीं लगेगा। तुम जानोगे कि इसमें क्रान्ति की क्या बात है, ये तो सहज बात है। पानी में मक्खी गिरी है, उस पानी को अस्वीकार कर देना क्रांति नहीं कहलाती, सहजता कहलाती है। हाँ, जिन्हें मक्खी पीने की आदत हो, उनके लिए ये बड़ी क्रान्तिकारी घटना है, कि “अरे! मक्खी गिरा पानी फेंक दिया!” इसमें क्रांति क्या है? मत बेवक़ूफ़ बनो।

सीनियर्स (वरिष्ठों) को भलीभाँति पता होता था कि जूनियर (कनिष्ठ) जब चाहे रैगिंग करवाने से मना कर सकता है, और सीनियर हँसते थे, कहते थे, “देखो, कितना बुद्धू है! चाहे तो अभी मना कर दे कि मैं रैगिंग बर्दाश्त नहीं करूँगा।” ठीक वैसे ही तुम जिन पचड़ों में फँसे हुए हो, तुम्हें फँसा देख करके कोई है जो बहुत हँस रहा है। वो कह रहा है, “तुम चाहो तो तत्काल मना कर दो कि मैं ये बर्दाश्त नहीं करूँगा,” और तुम बर्दाश्त किए जा रहे हो स्वेच्छा से।

बड़ा एक मनोरंजक काम होता था। परेशान करने के लिए ये जितने फच्चे होते थे, इनको सुबह साढ़े चार बजे दौड़ाया जाता था, बेतहाशा। और ये सब मोटे-मोटे आते थे घरों से, जेईई की तैयारी करते थे तो बिलकुल फूले-फूले आते थे। बैठ करके इन्होंने बस पढ़ाई करी होती थी, तो ऐसे ही गोल-गोल घर से निकलकर आते थे, थोड़ी-थोड़ी दाढ़ी-मूँछ। तो इनको दौड़ाया जाए और ये बिलकुल परेशान। रात में देर तक जगाया जाए एक बजे, दो बजे तक और साढ़े चार बजे उठा दिया जाए कि “चलो, दौड़ो।”

और इन्हीं फच्चों को ज़िम्मेदारी दी जाए कि ठीक साढ़े चार बजे तुम आ करके ये तीन सीनियर हैं, इनको जगा देना, ये तुम्हें दौड़ाएँगे। तो ये फच्चे ख़ुद कतार बाँध करके सीनियर के द्वार पर खड़े होते थे, बहुत आदरपूर्वक खटखटाते थे, "सर, सर, हमें दौड़ाइए," ठीक वैसे, जैसे तुम सुबह एकदम नौ बजे पहुँच जाओगे, “सर, हमें दौड़ाइए न।”

जो तुम्हारा शोषण कर रहा है, उसे ये भी ज़रूरत नहीं है कि तुम्हें पछियाए, कि वो अपनी ऊर्जा व्यय करे तुम्हारा शिकार करने में; कुछ नहीं, तुम ख़ुद ही पहुँच जाते हो।

देखो तो तुम्हारे मन में ये सब कचरा कहाँ से आया है, एक बार सोचो तो। एक तो बुद्धि दोधारी तलवार, और ऊपर से तमाम तरह की अब सामाजिक मान्यताएँ और। तो ये तलवार अब दोधारी भी नहीं है, एक ही धार है अब इसमें जो तुम्हीं पर चलती है, और किसी पर नहीं चलती है।

तुम अपने लिए बढ़िया-से-बढ़िया नौकरी खोजते हो न? बुद्धि लगाते हो। कितने खुश हो जाते हो! “मैंने पा ली ये नौकरी, उसने नहीं पाई।” तुम अपने लिए बढ़िया-से-बढ़िया लड़की या लड़का खोजते हो न?

माया को ज़रूरत थोड़े ही पड़ती है कि तुम्हें दौड़ाए, तुम्हें रगड़े और फिर पकड़ करके तुम्हें बंधक बनाए; तुम ख़ुद ही उत्सुक हो। तुम पिक्चरें देखते हो और उसमें जहाँ वो गुलाबी आँखें दिखीं, तुम कहते हो, “हमें भी चाहिए, हमें भी चाहिए न।” और न मिले ये सब चीज़ें तो तुम परेशान हो जाते हो, फिर तुम बुद्धि और दौड़ाते हो कि कैसे पाएँ। वो बुद्धि है जिसकी मालकिन कामना है। ये भ्रष्टबुद्धि है।

भ्रष्टबुद्धि की परिभाषा समझ गए?

जो बुद्धि कामना द्वारा संचालित है, वो बुद्धि कितनी भी तीक्ष्ण क्यों न हो, है भ्रष्ट ही; बल्कि जितनी तीक्ष्ण है, उतनी ख़तरनाक है, क्योंकि संचालित कामना से हो रही है।

प्र२: भगत सिंह में कामना नहीं थी, फिर वो ख़ुद को नास्तिक क्यों कहते हैं?

आचार्य: उनके कहने से वो एथीस्ट (नास्तिक) नहीं हो गए न। जो कोई अपने से ज़्यादा बड़े किसी लक्ष्य की ओर जा रहा है, वो आस्तिक ही नहीं है, वो भक्त है।

भगत सिंह इस अर्थ में नास्तिक थे कि वो तुम्हारे द्वारा माने गए भगवान को नहीं मानते थे। तुम जिस भगवान को मानते हो, भगत सिंह उसको नहीं मानते थे; उसको तो कोई भी ध्यानी आदमी नहीं मानेगा। कोई पगला ही होगा जो उस भगवान को मानेगा जिसको आमजन मानते हैं। तुम जाओगे अष्टावक्र के पास या कबीर के पास, तो वो भी तुम्हारे उस भगवान को नहीं मानेंगे जिसको तुम मानते हो।

उपनिषद् साफ़-साफ़ चेताते हैं कि ब्रह्म तुम उसको जानना जिसका विचार नहीं किया जा सकता, न कि उसको जिसकी आमजन पूजा करते हैं। बड़ी सुंदर पंक्ति है, मेरे मन पर छप गई थी, "तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते" – केन उपनिषद। “जिसको आँखें नहीं देख सकती, जिसको कान नहीं सुन सकते, मन जिसका चिंतन नहीं कर सकता, वाणी जिसका वर्णन नहीं कर सकती, सिर्फ़ उसको ब्रह्म मानना; उसको नहीं जिसकी आमजन उपासना करते हैं।”

आम लोग जिसको ‘भगवान-भगवान’ कह रहे हैं, वो कुछ नहीं है, वो मन की फ़ैंटसी (कल्पना) है। ब्रह्म दुःख नहीं देता, न सुख देता है। इसीलिए तो उस भगवान को वो ठुकरा रहे हैं न जिसको तुम दुःख-सुख देने वाला मानते हो।

परमात्मा और भगवान एक नहीं होते, भाई। हम जिसकी बात कर रहे हैं, वो ब्रह्म है। ब्रह्म द्वारा संचालित बुद्धि एक है। भगवान तो आपका खिलौना है। हम उसकी बात नहीं कर रहे हैं। भगवान तो आपने गढ़ा है, आपका खिलौना है। उसको अस्वीकार करना तो बहुत ज़रूरी है।

कबीर साहब के पास जाओगे तो वो कहेंगे कि "देवन से कुत्ता भला।" भगत सिंह तो इतना ही बोल गए थे कि "मैं भगवान को, देवताओं को नहीं मानता," कबीर साहब तो बोल गए, "देवन से कुत्ता भला।" और कहते थे कि पत्थर से भली है चक्की, "पीस खाए संसार।" जिस पत्थर की तुम उपासना करते हो, उससे तुम्हें क्या मिला आज तक? उससे भली तो चक्की है जिसका पीसा संसार खाता है।

तो भगत सिंह कोई पहले नहीं थे जिन्होंने भगवान को और तुम्हारे इन सब देवी-देवता इत्यादि की मान्यताओं को अस्वीकृत किया हो, बुद्ध से लेकर कबीर साहब तक जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने अस्वीकार ही किया है। सबसे पहले तो स्वयं उपनिषदों ने अस्वीकार किया है; अभी मैंने तुम्हें ये श्लोक बताया।

विचार जब भी करो, डरकर मत करो, ज़रा एक व्यापक बुद्धि लेकर करो, ज़रा सरल तरीके से पूछो कि “मुझे छोटी-छोटी बातों में नहीं फँसना है। एक बात बता दो, मैं हूँ, ये मेरा जन्म है, मुझे इसका क्या करना है?” संभावना है कि फिर बुद्धि उत्तर ठीक देगी। अब ये बुद्धि कामनाप्रेरित नहीं है।

खोपड़ा अगर चलाना भी हो तो ये सवाल पूछा करो, “एक जन्म है मेरा, गिनती के कुछ साल हैं, इनका क्या करूँ?” सारी छोटी-छोटी बातें अपने-आप विदा हो जाएँगी, सारी छोटी-छोटी बातों के उत्तर अपने-आप सामने आ जाएँगे, ये बड़ा सवाल अगर पूछो बार-बार। ये बड़ा सवाल पूछो, “एक जन्म है, इसका करना क्या है?”

फ़िल्मी कहानी जीनी है? एनआरआई (अनिवासी भारतीय) राजकुमार, स्विट्ज़रलैंड में गाड़ी, शिफॉन की साड़ी, ऊँचा, लम्बा, गोरा—कैसे? ऐसे। “बड़ा आकर्षक लगा। क्या उसकी ज़ुल्फ़ें उड़ती है! क्या आवाज़ है! गोरा-गोरा है, गेहूँ जैसा, दूध जैसा।”

और गेहूँ और दूध ज़रूरी है। इस चर्चा में हमें उन्हें नहीं छोड़ना चाहिए। हमारे यहाँ तो रंग के लिए भी यही दो विशेषण प्रयोग होते हैं, गेहुआँ और दूधिया। दूधिया रंग, अहाहा! और दूधिया न हो तो कम-से-कम गेहुआँ तो होना चाहिए, भाई। गोरा रंग, अहाहा! और लम्बाई हो तो फिर तो कुछ पूछो मत।

वो उत्तेजना क्या तुम्हारा जन्म सार्थक कर पाएगी? कितनी देर उत्तेजित रह लोगे? कितनी देर? तुम्हें अगर पंद्रह मिनट भी गुदगुदी कर दी गई तो मर जाओगे। जब कोई तुम्हें गुदगुदी करता है, टिकलिंग , तो एक-दो मिनट हो तो हँसी आती है, आती है कि नहीं? और पंद्रह मिनट हो गई तो? मर जाओगे या नहीं? तुम पंद्रह मिनट की भी उत्तेजना बर्दाश्त नहीं कर सकते। अपने सब उत्तेजक क्षणों के बारे में सोचो, कितनी देर चलते हैं? और पीछे क्या छोड़ जाते हैं? अवसाद, गंदगी, निराशा, ख़ालीपन।

तुम किन चीज़ों को क्या क़ीमत दे रहे हो, ख़्याल क्यों नहीं करते? डर-कामना, डर-कामना, डर-कामना। और कोई हँस रहा है कि ये तब डरा हुआ है जब इसे डरने की कोई ज़रूरत ही नहीं है, ये तब बँधा हुआ है जब इसके सारे बंधन खुले हुए हैं।

सारे बंधन खुले हैं इसके और ये बँधा हुआ है, ऐसे जानवर का नाम है इंसान। भैंस बाँधने के लिए कम-से-कम तुम्हें रस्सी चाहिए, आदमी वो भैंस है जो बिना रस्सी के बँधा हुआ है। आदमी वो भैंस है जिसे भैंस ने बिना रस्सी के बाँध रखा है।

तुम हो और तुम्हारे घर में भैंस है, भैंस को बाँधने के लिए कम-से-कम रस्सी की ज़रूरत पड़ती है, और भैंस ने तुम्हें बाँध रखा है बिना रस्सी के! बोलो, “अक़्ल बड़ी कि भैंस?”

भैंस।

भैंस की रस्सी खोल दो तो…?

भग जाएगी।

आदमी की रस्सी खोल दो तो…?

तुम्हें गाली देगा।

“अक़्ल बड़ी कि भैंस?” बोलो।

भैंस।

भैंस की रस्सी खोल दो तो भैंस एक बार तुम्हारी ओर कातर नज़रों से देखेगी, दुआ देगी और भगेगी ज़ोर से। आदमी की रस्सी खोल दो तो बहुत मारेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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