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श्रीराम और उनके गुरु वसिष्ठ के बीच हुई वेदांत-चर्चा पर आधारित
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परिचय
लाभ
संरचना

यह कोर्स योगवासिष्ठ ग्रंथ पर आधारित है। जैसे बिना भगवद्गीता को समझे आप श्रीकृष्ण को पूरी तरह नहीं जान सकते, वैसे ही बिना योगवासिष्ठ को समझे आप श्रीराम को पूरी तरह नहीं जान सकते।

हम ने हमेशा से श्रीराम को हर रूप में सम्पन्न देखा है। उन्हें परमात्मा का अवतार जाना है। उनके अपने माता-पिता के प्रति आदर, सीता माँ के प्रति प्रेम व समर्पण, अधर्म का नाश और एक सुंदर रामराज्य की स्थापना करने जैसे कृत्यों को हमेशा से आदर्श माना है।

लेकिन क्या आप जानते हैं जिन गुणवान श्रीराम की महिमा गाते हुए हज़ारों साल बाद भी हम थके नहीं:

युवा अवस्था में उनका जीवन कैसा था?

वह कौनसी शिक्षा थी जिसने उन्हें सम्पन्न बनाया था?

वह कौन से ऋषियों का सान्निध्य था जिसको पा कर वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये गए?

क्या उनके मन में भी हमारे जैसे प्रश्न उठते थे? और जब इन प्रश्नों से वह चिंतित होते, तो कौन उनका समाधान करता था?

अर्थात् श्रीराम ने किससे सीखा था?

योगवासिष्ठ आपको श्रीराम के आरम्भिक वर्षों से अवगत करवाता है। यह ग्रंथ आपको उनके जीवनदर्शन के बारे में बताता है जो 15-16 वर्ष की उम्र से ही उनके मन-मंदिर में जड़े जमाने लगा था उनके गुरु महर्षि वसिष्ठ की छाया में।

पर यह महर्षि वसिष्ठ कौन हैं?

महर्षि वसिष्ठ सप्तऋषियों में से एक हैं। उन्हें ऋगवेद के सातवें मंडल (भाग) के मुख्य लेखक के रूप में श्रेय दिया जाता है। साथ ही, आदि शंकराचार्य ने तो उन्हें वेदांत का पहला मर्मदर्शी या दार्शनिक तक कहा है। रामायण काल में वह राजा दशरथ के राजकुल गुरु हुआ करते थे।

श्रीराम और महर्षि वसिष्ठ के बीच हुए संवाद को ही संकलित कर महर्षि वाल्मीकि ने योगवासिष्ठ ग्रंथ की रचना की है। महाभारत के बाद यह संस्कृत का सबसे बड़ा ग्रंथ है। इसे वेदांत दर्शन का प्रथम ग्रंथ भी माना जाता है, इतना ही नहीं कम-से-कम सुप्रसिद्ध 108 उपनिषदों में से 17 ऐसे उपनिषद् हैं जो आंशिक या पूर्ण रूप से योगवासिष्ठ से लिए गए हैं।

शायद अब आप समझ ही गए होंगे कि क्यों यह ग्रंथ इतना महत्वपूर्ण है और क्यों आचार्य जी ने इसके दर्शन व सार को हमारे लिए आसान बनाने हेतु इस पर चर्चा की है।

श्रीराम की कथा जानने के बाद और भी ज़रूरी है कि आप उनके जीवन-दर्शन को जाने और वास्तव में उनके निकट आएँ।

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