तुमने अपनी ज़िंदगी में जो इकट्ठा किया है, सब ‘सून' है। अब 'सून' को सूना मानो चाहे शून्य मानो—असल में दोनों एक ही धातु से निकलते हैं। जिसे तुम कहते हो न ‘सूनापन’, वह शून्य से ही आता है। तुमने ज़िंदगी में जो कुछ इकट्ठा किया है, वह 'सून' है, वह शून्य है। वह तुम्हें सूनापन ही दे जाएगा। उसकी कोई कीमत नहीं है। और तुम बहुत सारे शून्य इकट्ठा करके बैठ गए हो। शून्य माने वह जो मूल्यहीन है। शून्य माने क्या? जिसकी कोई कीमत नहीं। तुम ज़िंदगी में बहुत कुछ ऐसा इकट्ठा करके बैठ गए हो।
वह सब हटाना नहीं है। तुलसी विधि दे रहे हैं जीवन जीने की। वह सब हटाओ नहीं जो इकट्ठा किया है। जो इकट्ठा किया है, ठीक है, उसमें अंक जोड़ दो – ‘एक' जोड़ दो।
उस एक को जोड़ दो अपने सारे शून्यों में, तुम अरबपति हो जाओगे। और उस एक के बिना तुम्हारे शून्य सिर्फ झबार हैं; बोझ, ढोते फिरो; जैसे खाली घड़े, बिना पानी के। वह तुम्हारी प्यास तो नहीं ही बुझाएँगे, तुम्हारा बोझ और बनेंगे। गोल-गोल शून्य; गोल-गोल घड़े, सूखे-सूखे।
शून्यों को बचाने की कोशिश में ‘एक’ को गवाँ बैठे तो क्या किया? और तुम करते यही हो। अपने संसार को बचाने की कोशिश में भगवान को गवाँ बैठते हो। भगवान को गँवाते ही तुम इसीलिए हो क्योंकि इतने शून्य इकट्ठा कर लेते हो कि वह ‘एक' कहीं नज़र नहीं आता।
मीठा है, बहुत मीठा है:
“राम नाम को अंक है, सब साधन हैं सून। अंक गए कुछ हाथ नहिं, अंक रहे दस गून।।"
संसार तुम्हें जो कुछ दे रहा है, वह सब साधन है, साध्य नहीं। साध्य ‘एक’ है। साध्य माने? जिसको पाने से सिद्धि है। जिसको पाने की कोशिश सार्थक और जायज़ है, वह साध्य। जिसे साधा जा सकता है, जिसकी तरफ प्रयत्न किया जा सकता है, सो साध्य। बाकी सब साधन।
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