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यज्ञ का प्रसाद और पापों से मुक्ति

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 13 पर आधारित
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2 घंटे 36 मिनट
हिन्दी
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सहयोग राशि: ₹199 ₹500
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परिचय
लाभ
संरचना

क्या आपके मन में भी ऐसे द्वंद चलते है?
कितना अपनो के लिए बचाऊँ या दूसरे को कितना दूँ?
क्या अध्यात्म में सब कुछ देश पड़ता है या 2 घंटे के सत्संग से बात बन जाती है?
अपने लिए कितना रखना है, इसके विषय में श्रीकृष्ण कहते हैं तेरहवें श्लोक में।

''यज्ञ से जो बच जाए, उसको प्रसाद रूप से खाने वाला सज्जन पापों से मुक्त हो जाता है। लेकिन जो लोग अपने लिए ही खाते हैं, वो पाप को ही खाते हैं।''

पाप क्या है?
तुम्हारे पास जो कुछ था, उसको सही जगह पर लगाने की जगह तुमने उसका व्यक्तिगत उपयोग कर डाला, यही पाप है। देवता को खिलाने की जगह तुम ख़ुद खा गए, यही पाप है।

यज्ञ क्या है?
निष्काम कर्म माने यज्ञ है, जीवन को यज्ञ की तरह जियो। जो आवश्यक है वो करो, उसके बाद भी अगर कुछ बच जाए तो उसको प्रसाद मान लो, कि ‘चलो, अब मिल गया है, इसको ठुकराएँगे नहीं, संयोगवश मिल गया है। हमारी इच्छा नहीं थी कि ये मिले, पर मिल गया है तो चलो भोग लेंगे। कुछ नहीं मिला, तो तृप्त हैं; कुछ मिल गया, तो ठीक है। लेकिन एक बात निश्चित है, हमारे पास जो कुछ भी है, उस पर पहला अधिकार देवता का होगा।‘

जो इनका अर्थ समझ गया वो जीवन के एक भी पल में कोई ग़लत कदम नहीं बढ़ा सकता, कर्म ग़लत या निर्णय ग़लत नहीं कर सकता।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

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