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निराशी, निर्मम, विगतज्वर, युद्धस्व अर्जुन

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 29–35 पर आधारित
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2 घंटे 4 मिनट
हिन्दी
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परिचय
लाभ
संरचना

आशा छोड़ दो, क्या मिलेगा क्या नहीं मिलेगा। निराश हो जाओ, निर्मम हो जाओ, विगतज्वर हो जाओ, बस लड़ो। युद्धास्व युद्धस्व युद्धस्व! बस लड़ो!

विगतज्वर माने- जो कामनाओं का ताप है, ज्वर है, उसको पीछे छोड़ो। ये जो भीतर भविष्य को लेकर के और अपनी सुरक्षा को लेकर के पुलक उठती रहती है, उसको छोड़ो। ज्वर से आगे निकल जाओ। 'निराशी निर्मम विगतज्वर युद्धस्व।'

निर्मम माने? कुछ सोचोगे तुम्हारा है तो डर जाओगे, तो लड़ोगे कैसे? कुछ अगर तुम्हारा है, युद्ध में छिन जाएगा, ऐसी कल्पना उठेगी। जो अपना कुछ मानता है, वो जीवन के सही युद्ध में बहुत आगे तक लड़ नहीं पाएगा। जो तुम्हारे सामने है प्रतिद्वंद्वी, वो भी तुम्हारे कमज़ोरियों को बखूबी समझता है। वो भी इसी टोह में है कि, तुम किससे तार बांधे हुए हो? कौन-सी चीज़ को अपना मानते हो? जो कुछ भी तुम अपना मानते हो, वही तुम्हारी कमज़ोरी है। क्योंकि वहीं पर चोट करके तुमको नियंत्रित किया जाएगा, दास बनाया जाएगा।

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