पिछले श्लोक में हमने देखा कि श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म में अकर्म को देखना और अकर्म में कर्म को देखना सिखा रहे हैं। श्री कृष्ण बता रहे हैं कि अगर तुम ऐसे देख पा रहे हो तो ही मुक्त हो। जो मुक्त है उसकी पहचान ये है कि वो करता कुछ नहीं है लेकिन साथ में कृष्ण ने ये जोड़ दिया है कि वो कर्म में विशेष रुप से प्रवृत्त रहता है। माने देखोगे तो लगेगा बहुत कुछ कर रहा है, विशेष रूप से बहुत कुछ करता रहता है। और जबकि न उसे कर्म चाहिए, न कर्मफल चाहिए, न आसक्ति है, तृप्ति उसकी नित्य है और वो निराश्रय है। आगे वो कुछ माँग नहीं रहा लेकिन उसके बाद भी वो कर्म में विशेष रूप से सक्रिय है।
इस बार कृष्ण 19वें श्लोक में बता रहे हैं कि पंडित कहलाने का अधिकारी कौन है? क्या ज्ञान से कर्म भस्म हो जाते हैं?
20 वें श्लोक में श्रीकृष्ण फिर से अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म और उसके फल में आसक्ति छोड़कर सदा तृप्त रहकर निराश्रय होकर कर्म में विशेष रुप से प्रवृत्त होने पर भी कुछ नहीं करता। ये किसकी पहचान है? अकर्ता की। जो मुक्त है, उसकी पहचान है।
पर मुक्त आदमी क्यों कर्म में इतना विशेष रूप से सक्रिय पाया जाता है जानेंगे सभी प्रश्नों के उत्तर इस कोर्स में।
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