'प्रकृति के तत्वों से मोह नहीं, सत्य से प्रेम रखना है।‘ – ये है आत्मज्ञान का उपदेश। सर्वप्रथम, श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी में दीक्षित करते हैं। उद्देश्य स्पष्ट है? जो सबसे ऊँची बात हो सकती है, अगर उसी से बात बन जाए, तो क्या बात है! तो सर्वप्रथम हम पाते हैं आत्मज्ञान का उपदेश। लेकिन प्रतीत होता है कि आत्मज्ञान भर से अर्जुन की गहरी वृत्ति पिघलती नहीं। तो अड़तीसवें श्लोक में आत्मज्ञान सम्बन्धी उपदेश का समापन करते हुए कहते हैं कि – सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय को एक मानकर, तुम युद्ध के लिए तत्पर हो जाओ। यही तुम्हारे लिए कर्तव्य कर्म है, सम्यक कर्म है – यहाँ पर आत्मज्ञान सम्बन्धी बात का समापन होता है। अब श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम होना सीखा रहे हैं।
निष्काम कर्मयोग में आप इस दुनिया से, संसार से कुछ चाह ही नहीं रहे होते। यहाँ अगर कुछ चाहा होता तो कर्म का दो प्रकार से अंत हो सकता था। पहला – जिसकी कामना है, वो प्राप्त हो जाए तो भी कर्म का अंत हो जाता है। दूसरा – जिसकी कामना है, उसका ही अंत हो जाए तो भी कर्म का अंत हो जाता है। परंतु जब सत्य के प्रार्थी होते हैं आप, तो कर्म का कोई अंत नहीं होता, या आप कह सकते हैं कि कर्म अनंत हो जाता है, या कर्म अनंत को लक्ष्य करके किया जाता है। कर्म का कोई क्षुद्र विषय नहीं होता। किसी छोटी कामना के वशीभूत कर्म नहीं किया जाता। और कर्म ना करने से होने वाला पाप भी नहीं होता।
इस कोर्स में आचार्य प्रशांत संग हम निष्काम कर्म के महत्व को समझ पाएंँगे।
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