अध्यात्म जैसे पूरी खोज में लगा हुआ है कि मैं कौन और मेरा क्या? और जितनी बार यह पूछोगे उत्तर आएगा पराया क्या? और जितना खोजोगे उतना परायापन ही सामने आएगा।
पुरानी कामनाओं पर चलने में इसलिए हित नहीं है क्योंकि वह पराई हैं। वह हमारी है ही नहीं। भीतर जब आप पुरानी कामना से खाली हो जाते हो तो बाहर आप किसी ऊंँचे लक्ष्य के लिए जीने लगते हो। मात्र कर्मसंन्यास से बात नहीं बनेगी क्योंकि मन खाली जगह बर्दाश्त नहीं कर पाता और जिस तरह के हम है खाली जगह को हम गंदगी से ही भरेंगे। इसलिए बड़ी सावधानीपूर्वक सही कर्म का चुनाव करना पड़ता है और फिर उसे डूब के करना पड़ता है।
कर्मत्याग और कर्मसंन्यास में क्या भेद है? श्री कृष्ण ने क्यों कहा कि कर्मत्याग की अपेक्षा कर्मयोग बेहतर है? आत्मज्ञान से कर्मसंन्यास कैसे आता है?
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