बहुत साहस और प्रेम से भरा भजन है – मैं बेकैद, मैं बेकैद, न रोगी न बैद्य। एक दम स्पष्ट चेतावनी जैसे दी जा रही हो कि इस संसार में मैं तुमपर जरा सा भी आश्रित नहीं हूँ। बाबा बुल्लेशाह साफ साफ घोषणा कर देते हैं कि यह द्वैत का चक्कर और खेल तुम्हें मुबारक। हम तो अब वहाँ से बात कर रहे हैं, वहाँ स्थित हो चुके हैं जहाँ अब सारी पहचान मिट चुकी है।
तुम जात पात में उलझे रहना। तुम कौन हो यह जानने के लिए भी तुम समाज से पूछा करते हो और ऊँचे नीचे का खेल खेलते हो। बुल्लेशाह की तो जात ही बेपरवाही की है।
तुम जितने सुख कल्पनाओं में बुनते हो , तुम्हारे सुख तो पूरे हो भी नहीं पाते। हम तो आनंद में गाते और जीते हैं। बाबा बुल्लेशाह का भजन आघात है कुरीतियों पर, अंधविश्वास पर, पाखंड पर, लोकधर्म पर। सीखिए उनसे जीवन जीने की कला आचार्य प्रशांत संग।
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