जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।
यह बाबा बुल्लेशाह जी के भजन की पहली दो पंक्तियाँ हैं। बेसुर, बेताल इस आशय में है कि सुर और ताल भी ढर्रे होते हैं, मानवकृत पैटर्न्स (ढर्रे) होते हैं, हमने रचे हैं, हमारे द्वारा निर्धारित हैं इस अर्थ में। सुर, लय, राग, ताल और वो सबकुछ जो इंसान और इंसानी समाज का है, उसकी फ़िक्र अगर करते रह गये और दुनिया और दिमाग द्वारा निर्धारित रास्तों पर, ढर्रों पर, नियमों-निर्देशों पर अगर चलते रह गये तो इश्क़ तो भूल जाओ।
बाबा बुल्लेशाह बता रहे हैं कि इश्क़ मुक्ति की घोषणा है। इश्क़ दुनिया की किसी चीज़ के मोह में पड़ने को नहीं कहते। कोई वस्तु, कोई व्यक्ति आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाए, इसको इश्क़ नहीं कहते। आपकी चेतना कहे, 'मेरे लिए मुक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं', इसको इश्क़ कहते है।
बाबा बुल्लेशाह के भजन आपको नाचने और गानें पर विवश कर देंगे। क्रांतिकारी जैसी दहाड़ और प्रेमी जैसा पागलपन यह दोनों आपको इनके भजनों में मिल जाएगी।
लाभ
अपने ढर्रों को चुनौती देने में सफलता मिलेगी संतों के इश्क़ का वास्तविक अर्थ जा पाएंगे बेफ़िक्र और बेपरवाही इस भजन से सीख पाएंगे अपने जीवन में किस से सलाह लेनी है यह समझ पाएंगे
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