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मैनूं कौण पछाणे, मैं कुछ हो गयी होर नी

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संतसरिता (बाबा बुल्लेशाह के भजन)
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3 घंटे 37 मिनट
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मैनूं कौण पछाणे, मैं कुछ हो गयी होर नी हादी मैनूं सबक पढ़ाया, उत्थे होर न आया जाया मुतलिक जात जमाल विखाया, वहदत पाया ज़ोर नी मैनूं कौण पछाणे, मैं कुछ हो गयी होर नी _बाबा बुल्लेशाह

एक-एक बात जो हम अपने बारे में जानते हैं और दूसरों के बारे में जानते हैं, वो बात है ही नहीं, वो भ्रम मात्र है। वो हमने कहीं आगे-पीछे से कुछ उठा लिया है। जो उठा लिया है, वो बिना तुक का है और बिना तुक का होने के साथ-साथ वो दुख का है। जो भी हमने अपना नाम-पता उठा लिया है, पहली बात तो उसमें कोई नहीं तुक है और उसमें बहुत सारा दुख है।

दूसरे को हम क्या जानेंगे, हम स्वयं को ही नहीं जानते। तो फिर आत्मज्ञान के साथ क्या होता है? “मैनूं कौन पछाणे।” ‘मुझे कोई कैसे पहचानेगा?’ वे मुझे जानते थे मात्र मेरे बन्धनों के माध्यम से। आत्मज्ञान का अर्थ होता है मुक्ति, आज़ादी। प्रकृति में सुख तलाशने से आज़ादी। अज्ञान के बन्धनों से आज़ादी। दिक्क़त बस ये आती है कि जो अपने बन्धन खोता है, साथ-ही-साथ वो अपनी पहचानें भी खो देता है। क्योंकि बन्धन ही तो पहचान है। बन्धन ही तो पहचान है न?

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