यदि जीवनमुक्त होते अर्जुन और जीवनमुक्तों का ही समाज होता, कौरवों से फिर किसी को कोई खतरा नहीं होता, फिर महाभारत के युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं थी। अभी युद्ध की आवश्यकता है, अभी एक विशेष कारण है कि स्वयं कृष्ण इस युद्ध में सम्मिलित हैं। अभी स्थिति ये है कि अहम् दोराहे पर खड़ा है, जहाँ से एक रास्ता धर्म का है जो उसे आत्मा की ओर ले जाएगा और दूसरी दिशा अधर्म की है, कौरवों की है, जो उसे और ज़्यादा लालच की ओर, कुटिलता की ओर, हिंसा की ओर, विनाश की ओर ले जाएगी। इस बिंदु पर सभी खड़े हुए हैं। अर्जुन भी खड़े हैं, हस्तिनापुर की समस्त प्रजा खड़ी है और इतने सारे जो भारत भर के राजा, योध्या एकत्रित हैं, वो सब भी वहाँ खड़े हैं। इन सबके हित में यही है कि कौरव हारे; स्वयं कौरवों के हित में भी यही है कि वे हारें। इसलिए युद्ध आवश्यक है। ये युद्ध इसलिए नहीं लड़ा जा रहा कि एक ओर अहम् है और एक ओर आत्मा है, नहीं। अहम् की ही अहम् से लड़ाई है। हाँ, अहम् का एक पक्ष आत्मामुखी है। अहम् का दूसरा पक्ष आत्मा से विमुख है, आत्मा की ओर पीठ करे हुए है।
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