वास्तविकता ये है कि यथार्थ में प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न शरीर और इन्द्रियों के द्वारा ही संसार के सब काम होते हैं। लेकिन अहंकार से अन्धा मनुष्य सोचता है ‘मैंने किया’। 3.27
पशुओं के शरीर का मतलब होता है उनकी कर्मेन्द्रियाँ, कुछ हद तक ज्ञानेन्द्रियाँ, ठीक है? और मनुष्य जब शरीर बोले तो उससे आप आशय लीजिए मन। और मनुष्य का मन उठता है उसके मस्तिष्क से। तो पशुओं का शरीर उनसे यही दो-चार काम कराता है — खाना, सोना, भागना, यही सब। मनुष्य का मस्तिष्क उसमें महत्वाकांक्षा डालता है और ऐसी-ऐसी कामनाएँ डालता है जो पशुओं को कभी आती नहीं।
तुम देह हो, तुम ये हो, तुम वो हो। कृष्ण कह रहे हैं, ‘झूठे हैं ये, झूठे हैं। ये सब नहीं हो तुम, ये नहीं हो। मत सुनना शरीर की, मत समझना समाज, संयोग की। शरीर का गुण है लहर मारना और संयोगों का तो काम है कभी कुछ भी हो जाएगा। ये सब झूठे हैं, ये फँसा रहे हैं तुमको।
जब भी मन में कर्ताभाव तेजी से उठे अपने आप से सवाल करें–
ये जो आपने अभी अभी क्रोध, लालच, ईष्या का भाव उठा यह कहाँ से आया?
तुझे क्या मिला? ये सब जो हुआ इसमें तुझे क्या मिला?
क्या प्रकृति के गुणों से आगे भी मैं कुछ हूँ? अगर गुणों के आधीन हूँ तो कर्ताभाव इतना प्रचंड क्यों?
क्या मेरे द्वारा किया गया कोई भी कर्म प्रकृति के गुणों से सच में अलग होता है?
बहुत कुछ समझेंगे और जानेंगे इस श्लोक के बारे में। प्रश्न तो आपकी जिज्ञासा के लिए थे और उत्तर तो आप आचार्य जी से ही पाएंगे।
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