अष्टावक्र जी तो कहते हैं इस श्लोक में अभी ‘निर्वेद’ हो जाओ, ‘अव्रति’ हो जाओ। तुम अभी बंधनों से मुक्त हो सकते हो। अगर आपने पिछले सत्र देखे होंगे तो आप अहं की पुरानी कहानी भी आप जानते होंगे। अहं चलता है अपने हिसाब से ऐसा मेरा हिसाब है। अहं के पास ढर्रे होते हैं वही बोलता है ‘मैं’।
इस ‘मैं’ का इलाज ही अध्यात्म है। अब इलाज करना है तो ग्रंथों की तरफ तो आना होगा और व्रत यानी की संकल्प भी चाहिए होगा। तो फिर:
क्यों अष्टावक्र जी निर्वेद और अव्रति होने की सलाह दे रहे हैं? क्यों बोल रहे हैं यही तुम्हारे बंधन हैं और इनसे मुक्त होना है?
वेद बना है विद् धातु से जिसका मतलब होता है जानना। ज्ञान मुक्ति में सहायक है लेकिन भक्ति यानि भोग में नहीं। याद करिए, आपको अब तक जो भी पता है, (ज्ञान है) उसने आपको मुसीबतों में डाला है या बचाया है?
आप पाएंगे कि ज्ञान ने हालत बुरी ही की है। इसलिए मुनि जी का रहे हैं ज्ञान सर का बोझ है त्याग दो इसे।
फिर अव्रति होने को क्यों बोल रहे?
यह जानिए सेशन देखकर। आचार्य जी न सिर्फ आपको अष्टावक्र गीता का श्लोक पढाएंगे बल्कि आपको इस सत्र में दुर्गसप्तशाति का वेदांतिक अर्थ भी बताएंगे।
दुर्गसप्तशाति जानते हैं? यह मार्कण्डे पुराण का हिस्सा है। दशेहरा में आप जो माँ दुर्गा और महिषासुर की कहानी सुनते हैं वह इसी पुराण से आई है। हम दुर्गसप्तशति का पहला चरित्र पढ़ेंगे जहाँ मधु कैटभ दो राक्षस महाकाली से लड़ेंगे। आइए समझें, पढ़ें और बाँटे।
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