श्रीकृष्ण को भी वही भाषा का प्रयोग करना पड़ता है जिस भाषा का प्रयोग हम पहले से करते आ रहे हैं। हम यह इसलिए करते हैं क्योंकि अहंकार को चोट लगती है मानने में की कृष्ण तो हमारे जैसे ही हैं। भला श्रीकृष्ण और मुझमें क्या अंतर। इसलिए गीता का शाब्दिक अर्थ बिना वेदांत के छत्रछाया में कर देते हैं और यह महापाप है।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने विद्या और विनय की बात की है। उपनिषद् कहते हैं संसार का ज्ञान होना अविद्या है और अहंकार का ज्ञान होना विद्या है। दुनिया के बारे में तो हम खूब जानते हैं और चतुराई भी दिखाते हैं लेकिन अपना कुछ भी ज्ञात नहीं होता। अविद्या तो खूब है लेकिन विद्या का हमें कुछ भी पता नहीं है।
कैसे जानें क्या है विद्या? कौन है जो विद्या लेने योग्य है? कैसे प्राप्त हो आत्मज्ञान?
इन सब का उत्तर श्रीकृष्ण ने दिया है इस श्लोक में।
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