जो मनुष्य श्रद्धायुक्त तथा ईर्ष्यारहित होकर मेरे इस मत का सदा अनुष्ठान करते हैं वे भी कर्म बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।3.31
अभी तक श्रीकृष्ण ने तीसरे अध्याय में जितनी बातें बतायी हैं, उन बातों का आप पालन कर पायें, समझ लीजिए, उसकी एक शर्त दे रहे हैं आज।
क्या है पहली शर्त?
श्रद्धालु होना चाहिए।
दूसरी?
असूया नहीं होनी चाहिए। श्रद्धा होनी चाहिए, असूया नहीं होनी चाहिए।
श्रद्धा का क्या अर्थ होता है?
परिणाम नहीं सोचूँगा।
असूया का क्या अर्थ होता है?
औक़ात में रहूँगा।
दोनों के लिए ही क्या आवश्यक है?
आत्मज्ञान।
पूरा श्लोक कह रहा है — श्रद्धा, निष्कामता, कर्मफल से मुक्ति और अनसूया, इनको एक तल का जानिएगा। और इन चारों में से कोई भी एक बाक़ी तीन के अभाव में हो नहीं सकता। अष्टावक्र जी भी कहते हैं ‘श्रधस्व तात् श्रधस्व’। श्रद्धा रखिए आगे बढ़िए, सब कुछ यहाँ नहीं जान पाएंगे। कोर्स पर जाएं और सीखें आचार्य प्रशांत से।
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