अर्जुन का प्रश्न है श्रीकृष्ण से कि क्या करूंँ समझ नहीं आ रहा है? ’क्या करूंँ’ बन जात है कर्म और समझ नहीं आ रहा है बन जाता है 'ज्ञान'।
ज्ञान है यह जानना कि आत्मा की ओर बढ़ते जाना है। और कर्म है सतत चुनाव जो आत्मा तक जानें में सहायक हो। तो बात तो सीधी है मगर क्या बात सच में इतनी सीधी है?
आइए जानते हैं।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण इन चार के बारे में समझाएंगे – विषय, इन्द्रियांँ, मन और बुद्धि। प्रकृति में तो गुण धर्म होते हैं। विषय, इंद्रियांँ यह दोनों ही प्रकृति हैं, कोई पाप नहीं हो गया अगर आपकी इंद्रियांँ लगातार प्राकृतिक विषयों से चिपकी हुई हैं। कोई पाप नहीं हो गया अगर मन में भय, लोभ और ईर्ष्या के ख्याल आ गए। पाप तब हो गया जब आपने प्रकृति के गुण धर्म को अपना बोलना आरंभ कर दिया, पाप तब हो गया जब आपने बोल दिया कि यह इन्द्रियांँ भी मेरी है, देखना वाला विषय भी मेरा है, और देखने से मन में भावनाएंँ उठ रही हैं वह भी मेरी हैं।
अगर आपने यह सब स्वीकार कर लिया तो याद रखिएगा आपकी बुद्धि भी वैसा ही तर्क रच लेगी जो आपको प्रकृति के बहाव में बहा ले जाए क्योंकि बुद्धि तो अहम् की छाया मात्र है।
तो क्या करें कि स्थितप्रज्ञ हो जाएंँ? यही प्रश्न है अर्जुन का। इसी प्रश्न के उत्तर को हम और गहराई से समझेंगे इस गीता के कोर्स में।
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