पिछले कोर्स में हमने जाना कि इंद्रियों को संयत करना लाभकारी है लेकिन वह भी आखिरी बात नहीं है। संयत इंद्रिय का मतलब यह नहीं होता कि वह डरा डरा हुआ घूम रहा है कि कहीं कोई ग़लत विचार न आ जाए।
फिर प्रश्न आता है– तब क्या करें? यह खेल, यह माजरा है क्या?
खेल सारा इसी सवाल का है कि मालिक कौन है? अब सुनिए, श्रीकृष्ण कहते हैं कि अहम् प्रकृति के क्षेत्र में जी भर के यात्रा कर सकता है जब मालिक आत्मा है।
समझते हैं, अध्यात्म पलायन नहीं है, अध्यात्म संसार से ऐसा रिश्ता रखने की कला है जिसमें आप मूर्ख ना बनें। नहीं तो संसार मूर्ख बहुत बनाता है। जो जगत है, इसमें जो कुछ है उसका उपभोग तो करोगे ही – ये प्राकृतिक व्यवस्था है। नहीं मिला तो रो नहीं रहे हैं, और मिल गया तो डर नहीं रहे हैं, कि ‘अरे! हमें मिल गया है, हमने कोई अपराध तो नहीं कर दिया?’ नहीं था तो नहीं था, है तो है। उसके होने में जैसा भाव रख रहे हैं, उसके खोने में भी वैसा ही भाव रखेंगे।
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