मनुष्य पशु नहीं है कि आप ज़बरदस्ती उसे किधर को भी धकेल दो। मनुष्य में परिवर्तन तभी आता है जब वो उसकी अनुमति दे। आप अगर बदलने को राज़ी ही नहीं हैं, तो आपके सामने कृष्ण भी खड़े हों तो आप नहीं बदलेंगे तो नहीं बदलेंगे।
ठीक तब जब कृष्ण गीता का उपदेश कर रहे हैं, कृष्ण सामने खड़े हैं न शकुनि के भी और दुर्योधन के भी, और न जाने कितने अन्य राजाओं के भी? कोई उत्सुकता भी दिखा रहा है कि क्या बात चल रही है? और सात सौ श्लोक हैं, तो बात ज़रा लंबी ही चली होगी। यहाँ कृष्ण दो टूक कह देते हैं, देखो अर्जुन सब लोग एक बराबर नहीं होते। बहुत सारे होते हैं जो अज्ञानी होते हैं, बुद्धिहीन होते हैं, कुछ उनका भी ख्याल कर लो। तुम जो कर रहे हो, सोचो उसका उन पर क्या असर पड़ेगा। कह रहे हैं, अर्जुन अगर तुमने कर्म त्याग दिया, तो उसका एक और व्यवहारिक, ज़मीनी परिणाम क्या होगा थोड़ा ध्यान दो। कह रहे हैं, उसका ये परिणाम होगा कि जो अकर्मण्य और आलसी, प्रमादी लोग हैं, जो दूसरों के पीछे-पीछे चलते हैं, वो कहेंगे कि जब बड़े-बड़े लोग ही, ज्ञानी लोग ही काम नहीं कर रहे हैं, तो हम क्यों करें?
अब हो सकता है कि तुमने कुछ विचार करके कहा हो कि मैं कर्म से अपने हाथ वापस खींच रहा हूँ, लेकिन वो लोग तो विचार भी नहीं करेंगे। उनके लिए तो यही खुशखबरी है कि जो ऊपर बैठा है, जो शीर्षस्थ है वो कर्म त्याग कर रहा है तो चलो हम भी त्याग कर देते हैं।
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