बीसवें श्लोक में उदाहरण देते हैं। कहते हैं कि राजा जनक आदि अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जो कि जीवनभर कर्मरत रहे और मुक्ति को पाया। इसलिए, अर्जुन, तुम्हें भी अपने नहीं बल्कि संसार के कल्याण को चाहते हुए कर्म करना चाहिए।
भीतर जब तक कर्ता मौजूद है, वो कुछ करे तो भी कर्म होगा, और न करना भी कर्म है। और अधर्म इसलिए है क्योंकि उस कर्ता को शांति तक और मुक्ति तक सिर्फ़ निष्कामकर्म ही ले जा सकता है। तो कर्ता अगर ऐसा विचार कर रहा है कि कर्म नहीं करूँगा तो माने वो मुक्ति तक जाने की इच्छा ही छोड़ रहा है।
अध्यात्म तो आलसी को भी कर्मनिष्ठ बना दे। कृष्ण की पूरी सीख ही यही है – रुकना मत, चलते जाना, बढ़ते जाना, लड़ते जाना। तुम्हारा काम है बढ़ते रहना, लड़ते रहना। युद्ध सही रखो और परिणाम की परवाह करो मत।
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