आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
यज्ञ का असली अर्थ समझो || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
28 मिनट
509 बार पढ़ा गया

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: | तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर || ३, ९ ||

यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है, इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है, उससे जन्म-मृत्युरूपी बँधन उत्पन्न होता है। अतः हे कुन्तीपुत्र! उस यज्ञ की पूर्ति के लिए संग दोष से मुक्त रहकर भली-भाँति कर्म का आचरण कर। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ९

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आपने एक वीडियो में निराकार की उपासना के विषय में समझाया है कि निराकार की उपासना वास्तव में हो ही नहीं सकती क्योंकि निराकार की उपासना के लिए कहना पड़ेगा कि कोई उपासक भी है। और जो उपासक उपासना कर रहा है, वो तो स्वयं को साकार ही जानता है। तो निराकार उपासना कैसे करेगा वो, जब उपासना स्वयं रूप और आकार माँगती है?

श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है, उससे जन्म-मृत्युरूपी बँधन पैदा होता है। कृपया समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: जो पहली बात कही आपने कि श्रीकृष्ण यज्ञ उपासना पर बहुत ज़ोर दे रहे हैं, लेकिन निराकार की उपासना कठिन, अपितु असंभव होती है। तो इन दोनों बातों में आपस में समायोजन कैसे हो?

यज्ञ क्या है? आपके दूसरे प्रश्न से शुरू करते हैं, पहले का भी समाधान हो जाएगा। यज्ञ क्या है?

यज्ञ का अर्थ है - सम्यक कर्म, शुभ कर्म।

कई अर्थों में 'यज्ञ' शब्द प्रयोग होता है, सब अर्थ एक ही ओर संकेत करते हैं। यज्ञ कहता है दान, यज्ञ कहता है आहुति और यज्ञ कहता है शुभ कर्म। चाहे जो भी अर्थ करें इस शब्द का, संकेत एक ओर को ही है, और वो संकेत आपसे सम्बंधित है। आपको दान करना है। आपके लिए शुभ कर्म कौन सा है? आपको आहुति चढ़ानी है। किसकी? बताइए मुझे कि यज्ञ उपासना में निराकार की बात कहाँ हो रही है?

गीता का उपदेश बहुत-बहुत व्यावहारिक है। युद्ध के मैदान पर कही गई है गीता। उसमें ऊँचे आदर्शों और अव्यावहारिक सिद्धांतों के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती—मामला तीरों का, भालों का, जन्म का, मृत्यु का है। वहाँ कोरी बयानबाज़ी तो नहीं चलेगी न? श्रीकृष्ण जो बात कह रहे हैं, वो बात बहुत ज़मीनी है, बिलकुल धरातल से जुड़ी हुई, धरातल से उठी हुई।

तो निराकार की नहीं बात कर रहे हैं। समय ही नहीं है अर्जुन को निराकार समझाने का। बात हो रही है - अर्जुन तुम कौन हो? तुम्हारी हालत क्या है? तुम्हें क्या करना चाहिए?

अर्जुन के लिए जो श्रेय कर्म है, उसी का नाम यज्ञ है। और यह बात अर्जुन पर ही नहीं, हम सब पर लागू होती है।

तो आमतौर पर जो यज्ञ आपने होते देखे हैं, जिसमें हवन कुण्ड हो, अग्नि हो, समिधा हो, आहुति हो, श्लोक हों, स्वाहा हो, वो यज्ञ का स्थूल प्रतीक है। उनको यज्ञ कहना ग़लत नहीं होगा पर अपूर्ण होगा। वो जो आप यज्ञ के नाम से होते देखते हैं, वो यज्ञ है, पर वही मात्र यज्ञ नहीं है। वो यज्ञ का, हमने कहा, एक स्थूल प्रतीक है।

यज्ञ की व्यापक परिभाषा यदि शुभ कर्म है, तो शुभ कर्म क्या आप प्रातः बस आधा-एक घण्टा ही करोगे यज्ञ की अवधि में या वो शुभ कर्म निरंतर चलेगा? तो जीवन मात्र को यज्ञ होना है।

ऐसे भी समझिए। तीसरा अध्याय है, शुरुआत में अर्जुन ने जिज्ञासा रख दी है कि “मधुसूदन, साफ़ बता दीजिए कि ज्ञान का मार्ग चुनूँ या कर्म का? अभी पिछले अध्याय में आपने सांख्य योग पर विस्तार किया था, और साथ-ही-साथ आप कर्म की भी बात करते हैं।” तो अर्जुन ने जिज्ञासा रखी है कि, "सांख्य पर चलूँ या योग पर चलूँ?" सांख्य से उसका आशय है ज्ञान, योग से उसका आशय है कर्म।

जब अर्जुन ने पूछा कि सांख्य योग ही काफ़ी क्यों नहीं है, तो वास्तव में वो पूछ रहा है कि "जान लिया एक बार मैंने, जैसा कि अभी थोड़ी देर पहले आपने समझाया कि आत्मा अमर है और बाकी सब तो प्रकृति का खेल है। ये बात मुझे एक बार समझ में आ गई तो फ़िर प्रकृति के खेल में उलझना क्यों है?"

“मैं जान गया, मैं अजर-अमर आत्मा हूँ, बात ख़त्म हो गई। आप फ़िर मुझे कर्म के रास्ते क्यों प्रवृत करते हो? क्योंकि कर्म तो सारे होते हैं प्रकृति, और श्रीकृष्ण, आपने ही अभी थोड़ी देर पहले समझाया कि 'अर्जुन तुम तो आत्मा हो'। ये बात अब मुझे समझ में आ गई। तो अब फ़िर मुझे इस घोर कर्म की ओर क्यों धकेलते हैं, श्रीकृष्ण?”

ये अर्जुन का संदेह है। क्या है अर्जुन का संदेह? कि, "सांख्य योग, यदि आत्मा, पुरुष का ज्ञान उच्चतम है, जैसा आपने कहा, और वो बात मैंने जान भी ली है, तो ज्ञान ही काफ़ी होना चाहिए मुक्ति के लिए। उस ज्ञान के बाद अब क्यों कह रहे हो कि तीर चलाओ?" - ये अर्जुन की जिज्ञासा है।

इस जिज्ञासा से उद्घाटित होता है तीसरा अध्याय। आरम्भ ही यहीं से है, और थोड़ी बातें करने के बाद श्रीकृष्ण सीधे यज्ञ की बात करते हैं। तो अब वो रणभूमि में अग्नि आंदोलित करके उसमें आहुति देने की बात तो नहीं कर रहे होंगे न?

स्थल क्या है? रणभूमि। जिज्ञासा क्या है? "ज्ञान करूँ कि कर्म करूँ?" और कृष्ण महिमा सुना रहे हैं यज्ञ की। यज्ञ की महिमा सुनाने से ठीक पहले उन्होंने कहा है कि "अर्जुन, कर्म से तो कोई बच ही नहीं सकता, कर्म तो करना पड़ेगा।" तो फ़िर स्पष्ट सी बात है कि यज्ञ से श्रीकृष्ण का आशय क्या है। क्या आशय है?

प्र: उचित कर्म।

आचार्य: उचित कर्म। अर्जुन के लिए तो यज्ञ यही है कि वो युद्ध करे; वही अर्जुन का यज्ञ है। इसी अध्याय में श्रीकृष्ण स्वधर्म की बात करते हैं। यज्ञ को ही स्वधर्म जानिए—स्वधर्म ही यज्ञ है—स्वधर्म के लिए ही दूसरा शब्द है 'यज्ञ'। और इस यज्ञ को निरंतर चलना होगा क्योंकि स्वधर्म का पालन भी निरंतर होना है।

हमने कहा तीन अर्थ हैं - दान, आहुति, शुभ और सम्यक कर्म। दान क्या हुआ? जो तुम्हारा नहीं है और जिसको तुम अगर अपना मानोगे, अपने पास रखोगे, परिग्रह की भावना करोगे, कर्तृत्व रखोगे, संग्रह की भावना रखोगे तो तुम्हें नुकसान ही होगा। उसको तुम दे दो, छोड़ दो। ये दान हुआ।

दान का सम्बन्ध स्वयं से है। तुम अपने पास वो मत रखो जो तुम्हारा वास्तव में है नहीं; प्रकृति का है, खेल है, समय की बात है; अभी मिला है, अभी नहीं रहेगा—ये दान हुआ।

दूसरी चीज़ आहुति है। आहुति का अर्थ है उसको जला देना, उसको होम कर देना, उसको स्वाहा कह देना जो परिग्रहण में रुचि रखता है।

दान का अर्थ है उसको छोड़ देना जो तुमने पकड़ा है, आहुति का अर्थ है उसको जला देना जो पकड़ता है—यही यज्ञ है।

और शुभ कर्म क्या है? दान और आहुति दोनों। दोनों को जोड़ दो तो शुभ कर्म बन गया। विषय से मुक्ति और विषयी से भी। विषय से मुक्ति हुई तो तुम कहते हो 'दान किया', विषयी से मुक्ति हुई तो तुम कह देते हो 'आहुति दे दी'।

तो इन बातों का पूरा सम्बन्ध आपसे है, निराकार से नहीं। मैंने कहा होगा कहीं पर कि निराकार की उपासना नहीं हो सकती। कृष्ण भी कहाँ कह रहे हैं कि निराकार की उपासना करो? वो तो अर्जुन से कह रहे हैं, “अर्जुन, तुम साकार हो, तुम जीव हो, तुम प्रकृति के वशीभूत होकर चल रहे हो, तुम माया से घिरे हुए हो। उन सब चीज़ों को छोड़ो जो तुम्हें दुःख और बँधन में डालती हैं।”

साकार की बातें हो रही हैं। सारी बातें ही साकार सापेक्ष हैं। निराकार की बात करके अर्जुन को और उलझाएँगे नहीं कृष्ण, वो वैसे ही बहुत उलझा हुआ है। तो उससे, हमने कहा, बिलकुल ज़मीनी, बिलकुल व्यावहारिक बात की गई है। “अर्जुन, समझो कि ये दुनिया क्या है, ये तुम्हारे सामने जो लोग खड़े हैं, ये क्या हैं। तुम कौन हो, इसको जानो, और फ़िर चुपचाप यज्ञ करो।” यज्ञ माने तुम्हारे लिए जो कर्म उचित है। एक जगह पर कहते हैं, "नियतं कर्मं कुरु।"

जो तुम्हारे लिए नियत कर्म है, वही यज्ञ है, जो तुम्हारा स्वधर्म है, वही यज्ञ है। जीवन ही यज्ञ स्वरुप होना चाहिए। जो कुछ पकड़े बैठा हूँ, जितने दोष बाँध लिए हैं, उनको छोड़ता चलूँगा।

भारत में प्रथा रही है साँझ-सवेरे यज्ञ की, कई प्रकार के यज्ञों की। उसका अर्थ ही है यही कि प्रतीकात्मक तरीके से रोज़ अपने आप को याद दिलाऊँगा जो अपना नहीं, जो लाभप्रद नहीं, उसको छोड़ते चलना है। सब दोषों को छोड़ता चलूँगा तभी तो अपने विशुद्ध रूप में स्थापित रहूँगा। यज्ञ समझ लो जैसे दिन-प्रतिदिन का स्नान। रोज़ नहाते हो न, मैल छोड़ते हो? वैसे ही रोज़ यज्ञ करना है। जो तुम नहीं हो, उसको छोड़ना है। मैल माने क्या? जो तुम नहीं हो।

शारीरिक तौर पर जो तुम नहीं हो, उसको हम कह देते हैं मैल और आत्मिक तौर पर तुम जो नहीं हो, उसका नाम है माया। माया से रोज़ पिंड छुड़ाते चलना है।

"जा", रोज़ सुबह कहा, "जा। तू साथ रहेगी, बड़ा दुःख देगी, जा।" और वो जाती है नहीं। जैसे नहाना रोज़ पड़ता है, रोज़ नहाओ फ़िर भी लौट-लौटकर मैल आती है, वैसे ही माया को भी रोज़ विदा करो, वो लौट-लौट कर आती है। इसीलिए यज्ञ निरंतर चलेगा, तब तक चलता रहेगा जब तक तुम जीव रूप में प्रतिष्ठित हो; कोई अंत नहीं।

तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, “अर्जुन, कर्म का कोई अंत नहीं। बच्चा हो, बूढ़ा हो, स्त्री हो, पुरुष हो, किसी वर्ण का हो, किसी अवस्था का हो, किसी देश का हो, मनुष्य हो चाहे और कोई जीव हो, कर्म तो सबको करने हैं।”

अब कर्मों के यहाँ पर दो भेद बता देते हैं - एक कर्म वो जो प्रकृति के वशीभूत होकर सब प्राणी करते हैं, चर-अचर; कुछ ऐसा नहीं अस्तित्व में जो कर्मरत ना हो। और दूसरे कर्म का नाम है यज्ञ या स्वधर्म। तुम्हें दो में से एक को चुनना ही पड़ेगा।

श्रीकृष्ण कह रहे हैं, “ना चुनने का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है, ना कोई तीसरा रास्ता है। कर्म तो होकर रहेगा जब तक तुम जीव हो। अगर यज्ञरूपी कर्म नहीं करोगे, अगर स्वधर्म का पालन नहीं करोगे तो तुम्हें दंड यह मिलेगा कि तुम्हें प्रकृति के वशीभूत होकर कर्म करने पड़ेंगे। तो तुम चुन लो, अर्जुन, कौन सा कर्म करना है।”

अर्जुन कह रहा है, “नहीं, एक तीसरा विकल्प है। तीसरा विकल्प है कोई काम नहीं करूँगा, ज्ञानी हो जाऊँगा।” अर्जुन ने शुरुआत ही इससे करी है कि “हे महात्मन, गुरुवार, सखा मेरे, आपने समझा तो दिया कि हम सब अविनाशी आत्मा हैं और आत्मा अकर्ता होती है। तो अब मैं जाऊँ? आज का पाठ पूरा हुआ?” अर्जुन है अभी इसी टोह में कि मौका मिले और निकल जाऊँ।

श्रीकृष्ण कह रहे हैं, “रुक! निकलने का रास्ता उपलब्ध नहीं है।” दो ही रास्ते हैं। या तो कृष्णमय कर्म कर, जिसके हमने अभी तक कितने नाम बता दिए, बोलिए? कृष्णमय कर्म के क्या-क्या नाम बता दिए हमने?

प्र: दान, आहुति, सम्यक कर्म।

आचार्य: अरे, यज्ञ तो बोलिए। यज्ञ, स्वधर्म, नियत कर्म। तो एक रास्ता ये है। और दूसरा रास्ता यह नहीं है कि कर्म नहीं करना पड़ेगा। दूसरा रास्ता यह है कि सही कर्म नहीं करेगा तो प्रकृति के वशीभूत होकर त्रिगुणात्मक कर्म करेगा, कभी रजस में फँसेगा, तमस में फँसेगा, मोह-माया में आवृत रहेगा।

अर्जुन कह रहा है, “वो तीसरा रास्ता जिसमें कोई कर्म ना करना पड़े?” अभी आगे आप जाएँगे तो वो पूछेगा कि कर्मसन्यास के बारे में भी कुछ बोलिए। वो आपको अगले अध्यायों में मिलेगी बात। हार इतनी जल्दी नहीं मानाने वाला अर्जुन। तो फ़िर बताएँगे कि कर्मसन्यास और कर्म योग में भी कर्म योग ही श्रेष्ठ है, हालाँकि दोनों का फल एक ही होता है।

"तो अर्जुन, चुन लो।" और भाँति-भाँति से उसको समझाते हैं, कहते हैं, “या तो लड़ोगे और गौरव होगा, ख्याति फैलेगी। मारे भी गए तो स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी।” समझाने का तरीका है, जैसी अर्जुन की बुद्धि, उसी तल पर आकर बातें करनी पड़ती हैं। तो एक तो यह रास्ता है कर्म का और जो तुम दूसरा रास्ता पूछ रहे हो, वो भी रास्ता है कर्म का ही। पहले रास्ते में तुम्हारा कर्म है धर्मोचित युद्ध, धर्म युद्ध और दूसरे रास्ते में भी तुम कर्म में ही उद्यत हो। उस कर्म का नाम क्या है? भागा-भागा-भागा-भागा, अर्जुन भागा। और उस कर्म में खोट कितनी है और उस कर्म का परिणाम क्या है, ये भी श्रीकृष्ण बता देते हैं। कहते हैं, “कुख्यात हो जाओगे और तुम्हारी देखादेखी न कितने और लोग होंगे जो ग़लत उदाहरण अपना लेंगे। धर्म की हानि होगी सो अलग।”

अर्जुन को कृष्ण घेरे ले रहे हैं, विवश करे दे रहे हैं। अर्जुन भागने का चोर दरवाज़ा तलाश रहा है, श्रीकृष्ण सारे द्वार बंद किए दे रहे हैं। वो कह रहे हैं कि "अब दो ही द्वार हैं, एक तो सिंह द्वार है, जिससे क्षत्रिय की भाँति निकलो और सब जग अभिनन्दन करेगा।" और दूसरा क्या है? "किसी गंदे नाले में खुलता हुआ कोई संकरा दरवाज़ा, कि कोई सुरंग जिसमें से भागोगे तो मानहानि भी होगी और धर्महानि भी।"

दुनिया के किसी भी गुरु ने और किसी भी ग्रन्थ ने इतने ज़ोर के साथ और इतनी एकाग्रता के साथ कर्म पर, काम पर दबाव नहीं दिया है जितना श्रीकृष्ण ने गीता में। साफ़ कह रहे हैं श्रीकृष्ण, “व्यर्थ है ज्ञान अगर कर्म में परिणीत नहीं हो रहा। कहाँ के ज्ञानी हो तुम? क्या जानते हो तुम? अंततः तो कर्म दिखाओ। लड़, अर्जुन, यही तेरा इस वक़्त कर्म है। भाग नहीं सकता।”

लोग अध्यात्म का तुक अक्सर जोड़ते ही ज्ञान से हैं। गीता विशिष्ट है। जो ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान था, वो दे दिया अर्जुन को, आरम्भ में ही दे दिया। सब उपनिषदों का सार कृष्ण ने अर्जुन को आरम्भ में ही पिला दिया। और फ़िर कह रहे हैं, “अर्जुन, सुनो, इतने ज्ञान के बाद बताता हूँ, लड़ना तो होगा।” मिल गया सारा ज्ञान? सब जान गए न? ये दुनिया व्यर्थ है, मोह-माया है। अहम् प्रकृति से जुड़ जाता है और उसके बाद अहम् प्रकृति के गुणों से संयुक्त हो जाता है, विवश हो जाता है। सब समझा दिया? और फ़िर बोले, “ये सारी बात सिर्फ़ सुनने के लिए नहीं थी। अगर समझ में आ गई है बात तो अब युद्ध करो।”

क्रांतिकारी चीज़ है, ज़बरदस्त! सुन लिया, समझ लिया, अब काम करो। सुनना, समझना इसलिए नहीं था कि भाग जाओगे, छुप जाओगे, अकर्मण्य हो जाओगे, कर्महीन होकर कहीं पर लेट करके, आलस करके मज़े करोगे। नहीं, बात अगर समझ में आई है तो मेहनत दिखाओ, श्रम दिखाओ। और भारी धनुष है अर्जुन का, बहुत भारी धनुष, मेहनत लगती है। धनुष-तो-धनुष, अर्जुन का शंख भी बड़ा भारी है।

प्रकृति के तीनों गुण सब में विद्यमान होते हैं। बिना युद्ध करे ही अगर विश्राम मिल रहा हो तो युद्ध करना कोई पसंद नहीं करता। पशु-पक्षी भी इधर-उधर तभी भागते हैं, ज़ोर तभी लगाते हैं, शिकार तभी करते हैं जब पेट का सवाल होता है। द्रुत गति से भागने वाले शेर, चीते भी, और चील और बाज़ भी पेट भर जाने पर आराम करते हैं, हिलेंगे ही नहीं। चीते से ज़्यादा तीव्र गति किसकी? पर शिकार कर चुका है, आराम कर रहा है, उसके बगल से आप गुज़र जाइए, आपकी ओर देखेगा भी नहीं। प्रकृति में आलस भरपूर है।

कृष्ण कह रहे हैं, “उठो, उठो, बैठना नहीं है, लेटना नहीं है। जन्म तुम्हारा बैठने और लेटने के लिए नहीं हुआ है, काम तो तुम्हें करना ही है। या तो तुम वो काम करोगे जो मैं बता रहा हूँ, नहीं तो तुम कोई घटिया काम करोगे। चुन लो तुम्हें कौन सा काम करना है।”

और शिकायत बिलकुल मत करना कि कृष्ण काम करवा रहे हैं, बड़ी मज़दूरी करवाई। जीव पैदा हुए हो तो मज़दूरी तो करनी पड़ेगी। श्रमिक हो; श्रम से नहीं बच सकते। अब या तो वो श्रम तुम कृष्ण की दिशा में कर लो या वो श्रम तुम वैसे कर लो जैसे यातनागृह का, जेल का कोई कैदी करता है, कि चक्की पीसेगा, पीसेगा, पत्थर तोड़ेगा, तोड़ेगा, लेकिन आज़ादी नहीं मिलेगी।

कृष्ण कह रहे हैं कि काम करना ही है। काम वैसे करोगे जैसे मैं समझा रहा हूँ तो मुक्ति पा जाओगे। जैसे मैं समझा रहा हूँ, वैसे नहीं चलोगे तो भी श्रम तो करोगे ही, बस श्रम तुम्हारा वैसा होगा जैसे चक्की चलती है, गोल-गोल घूमती है, गोल-गोल घूमती है, मेहनत बहुत खाती है, कहीं पहुँच नहीं पाती है। तो बोलो क्या करना है?

लोग सोचते हैं, अध्यात्म माने विश्राम। यही मान्यता है, छवि ही यही जुड़ गई है। तो इसीलिए जब लोग वृद्ध आदि हो जाते हैं तब अध्यात्म की तरफ आते हैं या जीवन की आपाधापी से जब बहुत तंग आ जाते हैं तब अध्यात्म की ओर आते हैं। पता नहीं कौन से अध्यात्म की ओर आते हैं। कृष्ण की ओर आएँगे तो कृष्ण कहेंगे, “बैठ कहाँ गए? खड़े हो जाओ। काम करो, क्योंकि बैठ भी रहे हो अगर तुम तो वो भी काम है। बस तुम्हारा बैठना ऐसा काम है जो तुमको बँधनों में बनाए रखेगा। मैं तुम्हें ग़लत काम क्यों करने दूँ?” ग़लत काम की परिभाषा समझ रहे हैं न क्या है? कृष्ण माने मुक्ति।

जो काम आपके बँधनों को साबुत रखे, बल्कि और मज़बूत कर दे, वही परधर्म है। वही वो काम है जो आपको करना नहीं चाहिए था लेकिन आपने कर डाला।

परधर्म का वास्तविक मतलब किसी दूसरे का धर्म नहीं होता। किसी दूसरे का धर्म क्या है? ये तो आप जान भी नहीं सकते। परधर्म का मतलब होता है वो जो अपना नहीं है, बस इतनी सी बात।

अपना धर्म तो एक ही है - जो अपने को उससे आज़ाद कर दे जो अपना नहीं है।

तुम जो हो, उसको मुक्त कर दे उससे जो तुम नहीं हो पर पकड़े बैठे हो, बने बैठे हो। वही धर्म है अपना। और श्रीकृष्ण कह रहे हैं, “उस धर्म की सेवा में, अर्जुन, तुझे बाण लग जाए, मर जाए, अच्छी बात है। निधनं श्रेयः, बड़ी श्रेय की बात होगी अगर युद्ध करते हुए तू वीरगति को प्राप्त हो जाए। लेकिन इधर-उधर भागा, छुपा तो तुझसे बुरा अंजाम किसी का नहीं होने वाला।” श्रीकृष्ण कहते हैं कि भयावह गति होगी तेरी, ऐसी दुर्दशा।

बात को समझिए हो क्या रहा है। अर्जुन है, कृष्ण हैं। अर्जुन बँधनों के पक्ष में जितने तर्क दे सकता है, सब दे रहा है। श्रीकृष्ण को अवतार की तरह मत देखिए यहाँ पर; उनको एक ताक़त के रूप में देखिए, एक शक्ति, एक प्रयत्न, एक हौसला जो संघर्ष कर रहा है। यह मत मानिए कि कृष्ण हैं तो पहले से जीते हुए हैं।

मैंने तो महाभारत को जब भी देखा है, उसे कृष्ण और अर्जुन के मध्य संघर्ष के रूप में ही देखा है। कौरव इत्यादि तो सब मंच भरने के लिए हैं, दो असली किरदार तो कृष्ण और अर्जुन मात्र हैं। बाकी सब तो इसीलिए हैं कि खाली जगह भी तो भरी जानी चाहिए। तो बीच-बीच में और अगल-बगल के किरदार आ जाते हैं, जैसे फिल्मों में होता है। नायक है, नायिका है और पंद्रह-बीस हैं, उन पंद्रह-बीस की बहुत हैसियत नहीं होती। वैसे ही बहुत हैसियत न भीम की है, न युधिष्ठिर की है, न भीष्म की, न दुर्योधन की, न कर्ण की, न शल्य की।

पूरी महाभारत का शिखर है भीष्म पर्व की गीता। जैसे पूरी महाभारत रची ही गई हो इस शिखर तक पहुँचने के लिए। युद्ध के मैदान पर जितने किरदार हैं, उनको तो मैं अप्रासंगिक देखता ही हूँ, अर्जुन से पहले की दो-तीन पीढ़ियों के भी जो किरदार हैं, उनको भी बहुत महत्व का मत मानिए। वो सब भी इसीलिए हैं कि कथा अंततः गीता में निष्पत्ति पा सके।

कृष्ण संघर्ष कर रहे हैं, जैसे अर्जुन के बँधन उनके अपने बँधन हों। और अर्जुन दाँव पर दाँव चल रहा है। कम-से-कम छठे अध्याय तक तो अर्जुन के कुतर्क नहीं रुकते। और श्रीकृष्ण कई अर्थों में युग धर्म के आगे बँधे हुए हैं। वो स्वयं अस्त्र नहीं उठा सकते, वचन दे चुके हैं। अर्जुन की स्वेच्छा पर उनका नियंत्रण नहीं।

आप श्रीकृष्ण की स्थिति को समझिए। स्वयं लड़ नहीं सकते, सेना भी अपनी कौरवों को दे आए हैं और अर्जुन क्या करेगा, क्या नहीं, इस पर उनका नियंत्रण नहीं है। दुनिया के हर जीव की तरह अर्जुन भी स्वेच्छा रखता है, फ्री विल , और उसकी स्वेच्छा कृष्ण के विपरीत जाती हुई दिख रही है। असली योद्धा श्रीकृष्ण हैं महाभारत के मैदान में। तीर नहीं चला रहे, पर असली संघर्ष उन्हीं का है।

अर्जुन से जीतना आसान नहीं, अर्जुन हर तरीके से प्रबल योद्धा है। जब वो तीर चलाता है, तब भी प्रबल योद्धा है और जब वो अपने बँधनों के पक्ष में खड़ा होकर कुतर्क करता है, तब भी वो बड़ा प्रबल योद्धा है। आप उसके पैंतरे देखिए। सांख्य योग का अमृत पीने के बाद कहता है, “तो गुरुवर, आपने ही समझा दिया, आपकी ही कही बात पर चलता हूँ। सब आत्मा मात्र है, क्या लड़ना-मरना? कौन किसका? न कोई किसी का भाई-भतीजा, न राज्य किसी का, न सिंहासन किसी का, फ़िर ये युद्ध तो बचकाना हो गया न?” जैसे कोई मंझा हुआ पहलवान अचानक दाँव मार दे। कोई शातिर योद्धा। प्रवीण धनुर्धर है, भाई। बड़ी शिक्षा पाई है अर्जुन ने और वो शिक्षा का सारा प्रयोग कर रहा है कृष्ण के ऊपर।

ये गुरु-शिष्य के मध्य ही संवाद नहीं चल रहा, ये एक सामरिक टकराव है। ये कुश्ती चल रही है और उस कुश्ती में, मैं कह रहा हूँ, कृष्ण के हाथ बँधे हुए हैं। अर्जुन स्वेच्छाचारी होने के लिए आज़ाद है और श्रीकृष्ण के हाथ बँधे हुए हैं। वो अपनी बात अर्जुन पर थोप नहीं सकते। न स्वयं शस्त्र उठा सकते हैं, हमने कहा, और न अपनी सेना को निर्देश दे सकते हैं कि कौरवों के विरुद्ध लड़ जाओ। उनकी सेना तो अर्जुन के विरुद्ध लड़ने के लिए दान कर दी उन्होंने।

तो ये एक ऐसा दंगल हो रहा है जिसमें एक पहलवान हाथ बाँधकर अखाड़े में उतरा हुआ है। जब ऐसे देखेंगे आप श्रीकृष्ण को तो बड़ा सम्मान उठेगा, बड़ा प्रेम, बड़ी सहानुभूति उठेगी। तब श्रीकृष्ण को आप अपने दिल के करीब पाएँगे। और ऐसे देखेंगे कि "अरे! ये तो स्वयं विष्णु हैं, समस्त जगत के कर्ता-धर्ता हैं, अवतरित हुए हैं, अभी दिव्य रूप दिखाएँगे अर्जुन को और बस में कर लेंगे अर्जुन को", तो लगेगा कि फ़िर तो कोई बात ही नहीं। फ़िर तो कृष्ण जो कर रहे हैं, वो उनके चुटकी बजाने जैसा था। अगर चुटकी बजाने जैसा था, तो फ़िर मुझे लगता है कि थोड़ा महत्वहीन भी हो गया।

नहीं, चुटकी बजाने जैसा नहीं था। बड़ा संघर्ष है, बड़ा विवाद किया है अर्जुन ने। बड़ी मेहनत लगी है कृष्ण को। वास्तव में घोर कर्म करके, इतना श्रम करके, अर्जुन को वो समझाए दे रहे हैं कृष्ण जो शायद उनके शब्द मात्र से अर्जुन समझ नहीं पाता। शब्दों से तो वो कह ही रहे हैं, “काम कर, काम कर, काम कर।” अर्जुन काम करने को, सम्यक कर्म करने को सहमत ही नहीं हो रहा।

पर बीच में कहीं पर घटता है - कोई श्लोक ऐसा नहीं कह रहा पर मैं अर्जुन को देख रहा हूँ, इसलिए कह रहा हूँ - बीच में कहीं पर अर्जुन ने देखा है कृष्ण को और कहा है कि "ये इतना समझा रहे हैं, कुछ बात तो होगी। समझ में तो मुझे कुछ नहीं आ रहा और वृत्तियाँ मेरी सारी यही कह रही हैं कि भाग जा जंगल, जंगल में रहने का वैसे ही बहुत अभ्यास हो गया है। इतने साल जंगल में रह लिए, अज्ञातवास भी झेल लिया। भेष बदलना भी आ गया है, जंगल में सम्बन्ध भी बना लिए हैं। भीम भैया तो जंगल में रिश्तेदारी भी कर आए हैं, पूरा परिवार खड़ा कर दिया है। मुझे तो अब बल्कि राज्य मिल गया तो अटपटा सा लगेगा। इतने दिनों तक बनवासी रह चुका हूँ कि अब अगर मखमल और कोमल शैय्या मिल गए तो नींद ही नहीं आएगी। मैं तो पत्थरों और पत्तियों पर ही सोया हूँ।" तो कह रहा है, “कौन लड़ाई-झगड़ा करे। दूसरे, इस युद्ध का परिणाम भी अनिश्चित है। दुर्योधन वगैरह कोई कमज़ोर योद्धा नहीं हैं, पता नहीं हो क्या जाए। वैसे भी उनकी सेना हमसे करीब-करीब दूनी है।”

कृष्ण बिलकुल अकेले खड़े हैं आत्मा की तरह, असंग। एक दृष्टि से देखो तो कौरवों की सेना उनके विरोध में और ज़रा और व्यापक दृष्टि से देखो तो पांडवों का जो सबसे बड़ा धनुर्धर, महारथी है, वो भी कृष्ण के विरोध में। कृष्ण बिलकुल अकेले खड़े हैं जैसे आत्मा होती है। अकेले खड़े नहीं हैं; अकेले संघर्ष कर रहे हैं। और शायद यही बात अर्जुन को पिघला गई कि "कुछ बात तो होगी वरना इनको क्या पड़ी है?" कौरव जीतें कि पांडव जीतें, राज्य और सिंहासन कृष्ण को तो मिलने नहीं हैं।

जहाँ तक सम्बंधित होने की बात है, रक्त का सबंध दोनों तरफ़ है कृष्ण का। पांडवों से भी अगर हम कहें कि ज़्यादा निकट का सम्बन्ध है, तो कर्ण तो दुर्योधन की तरफ़ खड़ा है न। सबसे ज्येष्ठ पांडव तो वही है न? दोनों पक्षों में से कोई भी पक्ष जीते, श्रीकृष्ण को क्या मिल रहा है? उनके सम्बन्धी दोनों तरफ़ मारे जा रहे हैं। पर वो अकेले संघर्ष कर रहे हैं किसकी रक्षा के लिए? धर्म की रक्षा के लिए। ये है असली संदेश अर्जुन को। “अर्जुन, देख, मैं युद्ध कर ही रहा हूँ, तू भी युद्ध कर।”

अक्सर हम ऐसे ही कह देते हैं कि कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, “अर्जुन, तू युद्ध कर।” ना, कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, “अर्जुन, जैसे मैं युद्ध कर रहा हूँ, तू भी युद्ध कर। हाँ, मेरा युद्ध थोड़ा सा सूक्ष्म है, पता नहीं चलेगा। मैं ना चक्र चला रहा हूँ, ना तीर चला रहा हूँ, तो पता नहीं चलेगा मेरा युद्ध। पर अगर तुझमें ज़रा भी संवेदनशीलता है, थोड़ी भी सूक्ष्म दृष्टि है तेरी तो मेरा युद्ध देख न। मैं कितना अकेला हूँ इस मैदान मैं।”

एक अकेला अपनी अकेली लड़ाई लड़ रहा है, उसका नाम है कृष्ण।

ऐसे देखिए आप कृष्ण को, और मैं समझता हूँ ऐसे ही देखा होगा अर्जुन ने जब अर्जुन का ह्रदय थोड़ा पिघला होगा।

कृष्ण कहते हैं न एक स्थल पर कि “मैं तो सब कर्तव्यों से मुक्त हूँ। मेरे लिए तो कोई नियत कर्म, धर्म बँधा हुआ ही नहीं है। मुझे किसी धर्म का पालन नहीं करना, अर्जुन, लेकिन देख, मैं फ़िर भी बिना रुके काम करता हूँ।”

वो बात शास्त्रीय लगती है, वो बात बड़ी दूर की लगती है। ऐसा लगता है कि परमात्मा बोल रहे हैं। पर उसी बात को ज़मीन पर उतार कर देखो, महाभारत के मैदान पर उतार कर देखो। कृष्ण कह रहे हैं कि "मुझे इस युद्ध में कोई कर्मफल मिलना है? फ़िर भी देख, अर्जुन, मैं कितनी मेहनत कर रहा हूँ, कितनी कोशिश कर रहा हूँ। अगर मैं श्रम में हूँ, मैं कर्म हूँ, तो तू कर्म से कैसे बच सकता है? काम कर।"

मुझे बड़ा ताज्जुब होता है। गीता का देश आलसियों का देश कैसे हो गया? अट्ठारह अध्याय हैं पर जो एक उद्घोष सबसे साफ़ और सबसे अलग गूँजता है, वो यह है - रुकना नहीं, जूझते रहना। और जूझते-जूझते मौत हो जाए तो रंज मत करना—निधनं श्रेय:।

धर्म की राह में, स्वधर्म की राह में मृत्यु आ जाए—इससे अच्छी तुम्हारी और कोई गति हो नहीं सकती।

कृष्ण गीत की बात नहीं कर रहे, कृष्ण रास की बात नहीं कर रहे। कृष्ण कह रहे हैं, “जूझो, तुम्हारा जन्म जूझने के लिए ही हुआ है।” वो कुरुक्षेत्र हमारे पूरे जीवन का प्रतिबिम्ब है। जीवनभर आस-पास कौन होते हैं? यही सगे सम्बन्धी ही तो होते हैं। वही तो सब वहाँ मौजूद हैं। जीवन में मुद्दे क्या होते हैं? यही सब तो होते हैं, किसी ने किसी का अपमान कर दिया, किसी की पत्नी किसी से रुष्ट है, ज़मीन-जायदाद का कुछ झगड़ा है। आपके जीवन में जो कुछ होता है, वो कुरुक्षेत्र के उस मैदान में मौजूद है। और कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, “अर्जुन इन्हीं सबको तो काटना है। इन्हीं के तो पार जाना है। तू पलायन कैसे कर सकता है?”

नहीं कह रहे हैं कि 'शांत होकर बैठ जा', नहीं कह रहे हैं कि 'आनंद उत्सव मना; तू तो हँस, तू तो नाच। लड़! योद्धा है तू और योद्धा के लिए एक ही आनंद है - तीर मारे और तीर खाए; मार भी, खा भी। या तो जन्म का सार्थक उपयोग करके जीवनमुक्त हो जा, जीते जी परमहंस हो जा या मुक्ति के अभियान में शरीर की ही आहुति दे दे। पर शरीर बचाना नहीं है, शरीर को पकाना, चमकाना नहीं है। शरीर इसलिए नहीं है कि उसी का पालनपोषण करते रहो और उसे बचाए-बचाए घूमो।' योगीराज हैं कृष्ण और नहीं कह रहे हैं अर्जुन से कि योग का अर्थ है एक बलिष्ठ शरीर पा लेना।

अभी आप आगे बढ़ेंगे, कितने ही श्लोक मिलेंगे आपको योग के सन्दर्भ में और सबमें कृष्ण एक ही बात कह रहे हैं - योग माने वो करो जो तुम्हें करना चाहिए।

अभी एक सज्जन मिले। वो बोले कि “योग इत्यादि करने से मैंने सुना है कि साठ-सत्तर वर्ष की उम्र में भी बाल काले ही रहते हैं।” ये वो लोग हैं जिन्हें कृष्ण का कुछ पता नहीं, पता है भी तो जिन्हें कृष्ण से कोई मतलब नहीं। ये सोच रहे हैं अध्यात्म लम्बी उम्र पाने के लिए होता है, ये सोच रहे हैं अध्यात्म का सम्बन्ध शारीरिक सौष्ठव से और स्वास्थ्य से होता है। ये सोच रहे हैं कि योगी की यह पहचान है कि उसके बाल काले रहते हैं और त्वचा चमकती रहती है।

योगी वो जो संघर्ष कर रहा है लगातार। योगी वो जो हार नहीं मानेगा, देह भले ही त्यागनी पड़े। योगी वो जो एक पल को भी आराम करना मंज़ूर नहीं कर सकता है।

कैसा आराम, कैद में कैसा आराम? कैद में भी आराम कर लिया तो वही आराम कहलाता है हराम, जैसे कुरुक्षेत्र में अर्जुन सो जाए।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें