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विद्या की गरिमा और सम्मान
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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बसंत पंचमी, विद्या की देवी, सरस्वती को समर्पित है। प्राचीन ज्ञान के अनुसार जीवन शिक्षा दो प्रकार की होती है – विद्या और अविद्या। आइए दोनों का अन्वेषण करें:

विद्या और अविद्या

अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया । इति शुश्रुम धीराणां येनस्तद्विचचक्षिरे ॥

विद्या का फल अन्य है तथा अविद्या का फल अन्य है । ऐसा हमने उन धीर पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें समझाया था ।।

(ईशावास्य उपनिषद, श्लोक १०)

विज्ञान, कला, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के ज्ञान को, विश्वविद्यालय के सभी विषयों को, अविद्या कहा जाता है। संसार के अंतर्गत किसी भी विषय का ज्ञान अविद्या है। जब हम दुनिया की ओर देखते हैं, इंद्रियों और मन का उपयोग करके जानकारी इकट्ठा करते हैं, और ज्ञान का निर्माण करते हैं, वह है अविद्या।

अविद्या को अपराविद्या, सांसारिक ज्ञान या निम्नविद्या भी कहा जाता है।

जब हम स्वयं को देखते हैं, तो मन और अहंता की संपूर्ण-संरचना की, और व्यक्तित्व की पूरी व्यवस्था की झलक पाते हैं। यह आत्म-अहंता ही दुनिया की दृष्टा और पर्यवेक्षक है। अपने प्रति इस ज्ञान को, स्वयं की इस धारणा के जानने को, विद्या कहते हैं।

विद्या को पराविद्या या उच्चविद्या भी कहा जाता है।

विद्या मनोविज्ञान से कैसे अलग है? विद्या केवल मन के अध्ययन का क्षेत्र नहीं है – बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति के लिए मन की रहस्यमय लालसा से निकटता, और समाधान भी है।

हमारी शिक्षाप्रणाली में विद्या चाहिए ताकि युवाओं और छात्रों को मन और जीवन के बारे में अंतर्दृष्टि मिले। मैं कौन हूँ और मेरा दुनिया से क्या रिश्ता है? : उन्हें इस मौलिक प्रश्न से रचनात्मक तरीके से परिचित कराया जाना चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि वे दुनिया की ओर क्यों भागते हैं, दुनिया से किस तरह का संबंध रखते हैं, और जीवन में क्या हासिल करने योग्य है।

अविद्या सामान्य सांसारिक जीवनयापन के लिए निस्संदेह ज़रूरी है। वह मन को संसार के बारे में ज्ञान से भर देती है, और तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे संसार ही सबकुछ है। इसका एक दुष्परिणाम यह है कि व्यक्ति केवल भौतिक संसार के साथ अपनी पहचान बनाने लगता है, और अपने तथा दूसरों के लिए दुःख का निर्माण करता है।

आज दुनिया भर में हम विद्या की कीमत पर अविद्या की अधिकता के विषाक्त परिणाम देख रहे हैं। मनुष्य आज भौतिक ब्रह्मांड के बारे में बहुत कुछ जानता है, लेकिन अपने बारे में बहुत कम। इन परिस्थितियों में विद्या, जो भीतरी जगत की शिक्षा है, हमारी शिक्षा के बाकी हिस्सों की तुलना में हजार गुना अधिक मूल्यवान है।

विद्या और अविद्या दोनों को एक साथ जानना

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते ॥

जो विद्या और अविद्या दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ॥

(ईशावास्य _ उपनिषद, श्लोक ११)

हमारे सीमित इन्द्रियगत अनुभव और हमारी शिक्षा की विफलताओं के कारण हम मानते हैं कि ब्रह्मांड का अस्तित्व हमारे अस्तित्व से पूरी तरह स्वतंत्र है। हम कहते हैं, “हम आते-जाते रहते हैं, लेकिन दुनिया वैसी ही रहती है।” इसलिए हमारी सामान्य वृत्ति है ब्रह्मांड को एक ऐसी विषयवस्तु मानना जो विषयेता से पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।

हमें विश्वास रहता है कि हम ब्रह्मांड में बहुत कुछ बदल सकते हैं बिना अपनेआप में कुछ भी बदले। हमें लगता है भले ही हमारे पास विद्या न हो लेकिन अविद्या हमारी मदद करती है, हमें सुधारने में, हमें बेहतर जीवन देने में।

अतः हमारी धारणा यह है कि बाहर किसी चीज़ या परिस्थिति को अपने अंदर कुछ भी बदलाव किए बिना बेहतर किया जा सकता है। और इस तरह मानव जाति बाहर की चीज़ों को बेहतर बनाती जाती है, और अंदर की अराजकता को अवहेलना करती जाती है।

हमें यह प्रकट ही नहीं होता है कि हम जैसे हैं, बाहर की दुनिया भी ठीक वैसी ही है, और हम पर पूरी तरह निर्भर है, और जो हमारे भीतर है, उससे जुड़ी है। इस भ्रम से विद्या के क्षेत्र की न तो केवल अवहेलना हुई है, बल्कि अवमानना ​​भी।

विद्या, समझा जाना चाहिए, शुद्ध आध्यात्मिकता है।

शास्त्र कहते हैं, “जब आप विद्या और अविद्या को एक साथ जानते हैं, तब ही आप कुछ जान पाते हैं।” यह सूत्र दोनों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है – भौतिक प्राप्ति के आकांक्षी के लिए, और आध्यात्मिक साधक के लिए भी।

भौतिकवादी को इस धारणा को छोड़ना पड़ेगा कि आध्यात्मिक प्राप्ति के बिना वास्तविक भौतिक सफलता प्राप्त की जा सकती है। और अध्यात्मवादी को यह धारणा छोड़नी पड़ेगी कि आध्यात्मिक प्रगति भौतिकता से पूर्णतया पृथक है। आध्यात्मिकता और भौतिकता को साथ-साथ चलना होगा। हमारा भौतिक जीवन हमारी आध्यात्मिक यात्रा के साथ ईमानदारी से कदम से कदम मिलाकर चले। भीतरी और बाहरी एक होने चाहिए। और जब ये दोनों एक होते हैं, तो उपनिषद कहते हैं कि व्यक्ति सभी आशंकाओं पर विजय प्राप्त करता है और कालातीत निश्चिंतता का आनन्द ।

हमें पूछना चाहिए कि उपनिषदों में अविद्या और विद्या दोनों को महत्वपूर्ण क्यों माना गया। हमें चिंतन करना चाहिए कि विद्या को उच्च शिक्षा क्यों कहा जाता है। यह चिंतन हमें आज की तमाम भयावह चुनौतियों की जड़ तक पहुँचने में मदद करेगा – चाहे वह जलवायु परिवर्तन हो, प्रजातियों का विलुप्त होना, संप्रदायवाद, अंध आत्म-विनाशकारी उपभोक्तावाद, या मानसिक रोग की महामारी।

हम देखेंगे कि इनमें से बहुत सारी हमारी स्वरचित समस्याएँ हैं जो विद्या या आध्यात्मिकता की उपेक्षा से बढ़ रही हैं।

विद्या को उसका उचित स्थान दें। आध्यात्मिकता की ओर अधिक ध्यान, समय और संसाधनों का निवेश करें। वेदांत जैसे उच्चतम दर्शनों के अध्ययन को संस्थागत रूप दें, संतों के सुंदर गीतों को मुख्यधारा की संस्कृति में प्रवेश करने के अवसर दें, समाज के सब वर्गों को एक समान जीवन के उच्च आयाम की खोज करने का अवसर दें। केवल यही दृष्टि हमें बचा सकती है, और यही बसंत पंचमी का वास्तविक उत्सव होगा।

यह लेख ‘जनसत्ता’ नामक अख़बार में दिनाँक २९ जनवरी, २०२० को प्रकाशित हुआ

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