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लेख
विदाई माने क्या? पिता का घर पराया कैसे? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
43 मिनट
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प्रश्नकर्ता: गुड आफ़्टरनून सर , बहुत ही गंभीर चर्चा थी। इस एन.आर.आई. ड्रीम के ही बारे में कुछ प्रश्न है, पर थोड़ा अलग है। जैसा कि अभी शादियों का मौसम चल ही रहा है, तो मैं किसी शादी में गई हुई थी, और अचानक मैं स्तब्ध रह गई कि जो विदाई के गाने होते हैं वो कितने अजीब हैं।

एक बहुत ही प्रसिद्ध गाना है जो बहुत पुराना है, पर वो अभी तक चलता आ रहा है विदाई के समय पर। एक ‘दाता’ मूवी थी कोई उन्नीस सौ नवासी में, और उसका गाना है, ‘बाबुल तेरी बिटिया..’, कुछ-कुछ ऐसा ही। और उसके जो मुख्यत: बोल हैं, वो हैं कि बेटी अपने बाबुल की किसी और की अमानत है।

आचार्य प्रशांत: ‘बेटी घर बाबुल के, किसी और की अमानत है;’ खूब सुना है मैंने।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: ‘दस्तूर ये दुनिया का, हम सबको निभाना है।‘ और फिर दो हज़ार अठारह में एक मूवी आई थी ‘राज़ी’, जो वास्तव में एक बोल्ड गर्ल की कहानी थी। पर विडंबना ये है कि उसमें उसकी विदाई में ये बोल हैं कि फसलें जो काटी जाएँ, उगती नहीं हैं, बेटियाँ जो ब्याही जाएँ, मुड़ती नहीं हैं।

और ये गाने खूब चलते हैं, और जो थिंग अबाउट एन.आर.आई. ड्रीम , ये दुल्हन ही डिसाइड (निर्णय) करती है कि ये गाना बजेगा मेरी विदाई पर। और जब वो जा रही है तो सब भावुक हो रहे होते हैं क्योंकि पूरा माहौल ही ऐसा बनाया जाता है। सो कॉल्ड (तथाकथित) लिबरल विमेन (उदारवादी महिलाएँ), फ़ेमिनिस्ट वीमेन (नारीवादी महिलाएँ), मतलब सब मिलकर बहनें, सब लोग ऐसे समूह में तस्वीर खिंचा रहे हैं और रो रहे हैं।

तो ये जो इमेज (छवि) है, ये क्यों नहीं बदल रही है, हम क्यों इतना बँधे हैं इस इमेज से?

आचार्य: ये आप बताइए न! आप महिला हैं, आप क्यों तैयार हो जाती हैं अपना घर छोड़कर जाने को? मुझे तो नहीं समझ में आया कभी भी, पर आप लोग चले जाते हो तो आपको उसमें कुछ आता होगा मज़ा! आप बताओ, मैं क्या बताऊँ!

भई, मैं बहुत पहले से घोषणा कर चुका हूँ कि मैं आधी बुद्धि का आदमी हूँ। आप लोगों को चीज़ें समझ में आ जाती हैं, मुझे समझ में ही नहीं आती। क्यों चले जाते हो? महिला आप हो, आप बताओ, ये आप कैसे बर्दाश्त कर लेते हो? या आपने पहले से ही कुछ साज़िश वगैरह कर रखी होती है, कि जाना है, भागना है, क्या करना है। मतलब कैसे?

मैं तो न छोड़ूँ अपने माँ-बाप को, कुछ हो जाए! मैं यहाँ आया हुआ हूँ, वहाँ अभी भी मेरे पिता जी वेंटिलेटर (जीवन-रक्षक प्रणाली) पर ही पड़े हुए हैं। मेरा यहाँ आना मुझे लग रहा है जैसे आधा व्यर्थ जा रहा है, आज रात को ही भाग रहा हूँ वापस। आप लोग कैसे अपने बाप को छोड़कर के चले जाते हो, ये बताओ न! कैसे चले जाते हो? और ऐसा नहीं कि मतलब दो-चार किलोमीटर या बीस किलोमीटर चले जाते हो; पता नहीं कहाँ-कहाँ चले जाते हो, विदेश चले जाते हो, साल में एक बार लौटकर आते हो।

श्रोता१: पहले के जीवन से बोरियत हो जाती है।

आचार्य: अच्छा, बोर हो जाते हो इसलिए? आप बताओ न! माँ-बाप का घर अच्छा नहीं लगता? या माँ-बाप से इतनी दुश्मनी रहती है कि जहाँ जाते भी हो वहाँ माँ-बाप को नहीं ला सकते? चलो कहीं और जाना है, तो जहाँ जा रहे हो, माँ-बाप को लेकर जाओ न! माँ-बाप हैं भई, क्यों छोड़ रहे हो उनको, समस्या क्या है? या अत्याचार कर रहे थे वो? खुंदक थी कुछ?

तो ये घर छोड़-छोड़कर क्यों भागती हैं भारतीय महिलाएँ? पूरी दुनिया में यही रिवाज़ है, लेकिन भारत में ओर ज़्यादा है; क्यों है? मुझे नहीं समझ में आया कभी।

(हँसते हुए) मुझसे पूछ रहे हैं! मैं तो बचपन से ही विस्मित हूँ कि ये चल क्या रहा है, इसलिए मैं आपसे पूछूँगा।

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता२: नमस्ते आचार्य जी। इसी मुद्दे को मैं बोलना चाह रहा था कि कहीं-न-कहीं ये एक माँ-बाप की ही मानसिकता ऐसी बनी हुई है कि वो बेटियों के..।

आचार्य: अरे मेरे माँ-बाप मुझे ज़बरदस्ती घर से निकालें, मैं तो न निकलूँ!

श्रोता२: ..बेटियों के घर नहीं आना चाहते। कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि बेटी पराई है, या फिर उनके घर कैसे रुकें।

आचार्य: माँ-बाप जो कह रहे हैं सो कह रहे हैं, बेटी ने कैसे छोड़ दिया माँ-बाप को, मैं ये जानना चाह रहा हूँ। वैसे तो हम इतनी बातें करते हैं, पितृऋण इत्यादि, तो पितृऋण पुत्री पर नहीं होता क्या? या माँ का दूध बेटी ने नहीं पिया होता है क्या? वो ऋण कहाँ गया? कैसे उतारोगे? कहीं और जाकर के झाड़ू-पोंछा करके? झाड़ू-पोंछा ही करना है तो अपने ही घर में कर लो! ग़लत कुछ? वहाँ काहे के लिए भागते हो?

आप जो भी तर्क देंगे, मुझे पहले से पता है। मेरी समस्या ये है कि मेरी बुद्धि आधी है, तो मुझे वो तर्क समझ में ही नहीं आते।

मेरी मौसियों की विदाई हो रही थी, मैं छोटा था। मेरी कई मौसियाँ हैं, एक के बाद एक उनकी शादियाँ हों, और विदाई के समय पर ये भयानक माहौल, बीस-चालीस औरतें छाती पीट-पीटकर रो रही हैं, कोई दो-चार बेहोश हो गई हैं ― ये हमेशा होता है, हो सकता है अब बड़े शहरों में होना बंद हो गया हो, छोटे शहरों में अभी भी होता होगा ― पछाड़ खा-खाकर गिर रही हैं महिलाएँ। जब विदाई हो जाती है तो होता ही है हमेशा, कि दो-चार बेहोश हो गई हैं, उन पर पानी-वानी डालकर होश में लाया जा रहा है।

और उसमें से दस-बारह न, एक्सपर्ट होती हैं वो गाने की, वो इतने भयानक विदाई गीत गाती हैं। ‘बिटिया जो जइहें त निजवा मा बड़िहैं, तो लिधिया ता भइहैं हमार।‘

(श्रोतागण हँसते हैं)

और मैं छोटा, मैंने कहा, ‘ये काम अगर इतना ही गंदा है तो हो क्यों रहा है? इतना दर्द है! इतना रो रहे हो!’

‘बाबुल करेजवा मा पइहें दरार, भइया जो कहिएँ रे बहिनी हमार,’ और बड़-बड़-बड़-बड़।

मैंने वहाँ क्रांति कर दी, मैंने कहा, ‘नहीं होगा ये! जब ये इतनी ग़लत चीज़ है तो होनी ही नहीं चाहिए। इतना रो रहे हो, माने दुख है, अगर इतना दुख है तो कर क्यों रहे हो?’

तो दूसरी विदाई में मुझे दूसरे घर में बंद कर दिया गया, वो सुबह से ही तय कर लिया गया था कि इसको बाहर मत आने देना। देर रात तक शादी चलती है, तीन-चार बजे तक, और सुबह-सुबह एकदम पाँच-छः बजे कार्यक्रम होता है। मैं ताक में बैठा था, मैं रात में सो लिया, मैंने कहा, ‘सुबह विदाई करेंगे, मैं अड़ूँगा।‘ उन्होंने मुझे बंद कर दिया, बोले, ‘इसको बाहर मत आने देना, ये उल्टे-पुल्टे सवाल करता है।‘

मैं बहुत छोटा था, मुझे तबसे नहीं समझ में आ रहा। इतनी तैयारियाँ करते हो, छः-छः महीने पहले से दहेज का वो बिस्तर लाकर रख दिया, बड़े-बड़े बर्तन आने लग जाते थे। मध्यम-वर्गीय घरों में यही होता है, एक साथ आप दहेज नहीं इकठ्ठा कर पाते, तो आप जब देखते हो कि जवान हो रही है तो धीरे-धीरे करके पहले से ही इकठ्ठा करना शुरू कर देते हो। कभी एक चीज़ आती है, कभी दूसरी चीज़ आती है, सब रखा जा रहा है।

‘क्यों आया है, ये नया फ्रिज क्यों आया है?’ कोई बताता नहीं है, फिर आधी बुद्धि को दूना समय लगाकर समझ में आता है कि ये जाएगा, इसलिए आया है। काहे को? इतना रोना क्यों? अगर इतने दुख का काम है तो करना क्यों?

मजबूरी का तर्क मेरे गले कभी उतरा ही नहीं! बोले, ‘मजबूरी है, करना होता है।‘ काहे की मजबूरी है? तुम बाप हो, वो बेटी है, बीच में मजबूरी कहाँ से आ गई? किसकी मजबूरी है? कौन कर रहा है मजबूर?

नहीं समझ में आया मुझे, आप बताओ न!

श्रोता३: सामाजिक दबाव।

आचार्य: किसका दबाव, सामाजिक दबाव माने किसका दबाव?

श्रोता३: सब कर रहे हैं, तो फिर उनको लगता है कि..।

आचार्य: तो कैसे दबाते हैं आपको?

श्रोता३: हमारी अपनी कोई छवि नहीं रहती है न अपने लिए, तो..।

आचार्य: अरे तो छवि के लिए तुम अपनी बेटी भगा दोगे क्या?

श्रोता३: हाँ फिर उससे उनको अपनी छवि अच्छी लगती है ऐसा करके।

आचार्य: वो ‘तुम्हारी’ बेटी है।

मैं नहीं समझ पा रहा। मेरी बेटी है; कोई पाँचवाँ, सातवाँ, आठवाँ, तीसरा, चौथा आदमी कुछ कह रहा है, उसके लिए मैं अपनी बेटी घर से निकाल दूँ?

श्रोता३: उसे पैदा करने से पहले भी तो..।

आचार्य: ये भी मुझे नहीं समझ में आ रहा। बच्चे किसी तीसरे-चौथे को दिखाने के लिए पैदा करे थे? कैसे?

श्रोता३: वही था न, शादी इसीलिए तो की थी न फिर उन्होंने, क्योंकि पूरी कहानी से पहले ही तो ऐसा हो गया न।

आचार्य: तो फिर जीवन-भर स्वाँग क्यों करते हो कि प्रेम है? अगर सबकुछ दूसरों को दिखाने के लिए ही करा है, तो बच्चे से झूठ क्यों बोला कि तुझसे प्रेम है? सीधे बोलते कि तुझे पड़ोसी को दिखाने के लिए पैदा करा है।

श्रोता३: फिर कह सकते हैं कि वो अपना सच, ईमानदारी नहीं रखना चाहते हैं।

आचार्य: ईमानदारी नहीं है तो फिर वो विदाई पर आँसू कैसे आ गए इतने, बेईमानी के आँसू हैं?

श्रोता३: वो नाटक है।

आचार्य: नाटक में इतने नहीं आते आँसू! बेहोश हो गई थी वो, तुम कह रहे हो कि नाटक है।

श्रोता३: तो मतलब ऐसा कह सकते हैं कि वो भी फिर छवि ही दिखाना चाह रहे हैं वहाँ पर फिर, कि संस्कारी हैं।

आचार्य: ऐसा नहीं है। दर्द भी होता है, तकलीफ़ भी होती है, फिर भी करे जा रहे हो; और यही बात बहुत अजीब है। पूरी तरह नाटक भी कर रहे होते न, तो भी ठीक था, कि एक-दूसरे को बुद्धू बनाने का कार्यक्रम चल रहा है, बना लो। होती है, तकलीफ़ भी होती है; क्यों झेल रहे हो तकलीफ़, यही मुझे समझ में नहीं आता।

श्रोता४: संस्कृति के लिए।

आचार्य: आप लोगों की बातें अमूल्य हैं!

श्रोता४: ग़लत संस्कृति।

प्र२: सर , ये जो पूरा शादी का कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है, जिसमें आप पैदा होते हो, आपको अठारह साल तक बड़ा किया जाता है माँ-बाप के द्वारा, और उसके बाद एक दिन आपको कह दिया जाता है कि आपको जाना है। तो ये ही कहीं-न-कहीं फ़ीमेल फ़ीटिसाइड (कन्या भ्रूणहत्या) को कंट्रिब्यूट (बढ़ावा देना) नहीं करता है?

आचार्य: हाँ, करता है, बिलकुल करता है। लेकिन अभी उस पर आ जाऊँगा, मैं पहले ये समझना चाहता हूँ कि वो चली क्यों जाती है। बाकी तो सब ठीक है, वो क्यों चली जाती है? घर में कोई मार रहा था?

श्रोता५: नहीं, ऐसा लगता है कि माता-पिता को कुछ हो जाएगा तो बाद में हमारा क्या होगा, माता पिता को भी ऐसा लगता है कि हमें कुछ हो गया तो उसका क्या होगा।

आचार्य: नौकरी कर लो न।

श्रोता५: जब तक ये बैठा है दिमाग में..।

आचार्य: जिनकी नौकरियाँ लगी होती हैं न, वो भी चली जाती हैं; काहे को चली जाती हैं?

श्रोता५: सिक्योरिटी (सुरक्षा) वाला इश्यू (मुद्दा) रहता है।

आचार्य: कौन देगा सिक्योरिटी ? जिसके यहाँ जा रहे हो, कई बार वो ही मर्डर (हत्या) करता है, सिक्योरिटी कौन देगा?

श्रोता५: पहले तो ये मानकर चलते हैं कि बाद में सब सही हो जाएगा।

आचार्य: जो तुम्हारा बाप है, जो तुम्हारी माँ है, जिसने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, वो सिक्योरिटी देंगे, या एक अंजान आदमी जो कि तुमसे शादी कर ही रहा है तुम्हारी देह देखकर के, वो तुमको सिक्योरिटी देगा?

श्रोता५: उन्हें लगता है कि उनके चले जाने के बाद फिर ऐसा..।

आचार्य: किनके चले जाने के बाद?

श्रोता५: माता-पिता जी के चले जाने के बाद।

आचार्य: माता-पिता अभी जिएँगे तीस-चालीस साल, इतनी जल्दी नहीं चले जाते। जब लड़की की शादी होती है तो बाप कितने साल का होता है आमतौर पर? पचास; इतनी जल्दी मर जाएगा क्या? ऐसी क्या समस्या आ गई? और भाई भी तो है, वो क्या करेगा? बीस साल तक तुम्हारे साथ-साथ कूदता-फाँदता था, लड़ाई-झगड़ा, कपड़े फाड़ना; अब वो सिक्योरिटी नहीं देगा?

श्रोता६: सर , मुझे लगता है कि बायोलोजिकल नीड्स (शारीरिक ज़रूरतें) होती हैं, तो कम्पेनियन (साथी) सब ढूँढ रहे होते हैं, तो लगता है कि अच्छा शादी एक ऐक्सेप्टेड फ़ॉर्म है सोसाइटी (समाज) में किसी के साथ रहने के लिए।

आचार्य: भई, बायोलॉजिकल नीड्स मेरी भी थीं, मैं भी जवान हुआ था। मुझसे कोई बोलता कि वो तभी पूरी होंगी जब फ़लानी लड़की के घर में जाकर रहने लग जाओ और चूल्हा-चौका, बर्तन करो, तो मैं कहता, ' बायोलॉजिकल नीड्स गई भाड़ में!’ माने शारीरिक ज़रूरतों के लिए, माने सेक्स के लिए मैं किसी लड़की के घर में जाकर परमानेंट निवासी बन जाऊँ? ये तो कभी न करूँ मैं! एक-आध, दो दिन ठीक है, हो गईं नीड्स पूरी, चलो अब वापस, क्या करना है!

(श्रोतागण हँसते हैं)

इतनी बड़ी कौनसी नीड्स हैं कि उम्र-भर के लिए कहीं बस जाओ? इतनी भयानक कामवासना? ये क्या होता है?

श्रोता ६: सर , पता नहीं, शायद सोशल कंडीशनिंग होती है।

आचार्य: पता नहीं है तो कर कैसे लेते हो? जो चीज़ पता नहीं, वो करे जा रहे हो?

श्रोता७: सारा जीवन साथ-साथ रहना है, तो किसी के, मतलब एक के साथ तो रहना पड़ेगा न?

आचार्य: जिसके साथ रहना है उसे अपने घर क्यों नहीं बुला लेते? और अगर वो ऐसा है कि तुम्हारे घर आना बर्दाश्त नहीं कर सकता, तो उसके साथ रहना क्यों है फिर?

मेरा कोई दोस्त बने और कहे, ‘दोस्त तो हूँ, पर तेरे घर नहीं आऊँगा कभी भी। हाँ, तू मेरे घर आ!’ तो मैं उससे दोस्ती करूँ क्यों? या तो बराबर का हो कम-से-कम खेल, ‘थोड़ा तू मेरे यहाँ आ, थोड़ा मैं तेरे यहाँ आ जाऊँ।‘ ऐसा आदमी दोस्ती करने लायक कहाँ से हो गया जो मेरे घर ही नहीं आ सकता, और जो शर्त रख रहा है कि अपने माँ-बाप को छोड़ तभी तुझसे दोस्ती करूँगा? ऐसे से मैं दोस्ती करूँगा क्यों?

श्रोता७: मतलब ये उलट भी हो सकता है, लेकिन ऐसा होता नहीं है।

आचार्य: अरे, क्यों नहीं होता है?

श्रोता७: ये नहीं पता।

आचार्य: ये नहीं पता तो तुम क्यों लड़की अपने घर बुला लेते हो? क्यों?

श्रोता७: शायद देखते आ रहे हैं, मतलब वही मान्यताएँ हैं, कंडीशनिंग है।

आचार्य: पता नहीं क्या करते रहते हो!

मेरी बहन है छोटी, तीन साल छोटी है मुझसे। मस्त ऐसी थुलथुल, एक-डेढ़ साल की थी, एकदम डॉल-टाइप , मैं खेलता था उसके साथ। उसके बाल बड़े बढ़िया थे, झब्बा-झब्बा बाल, छोटे बच्चों के जैसे हो जाते हैं। रीवा में है ननिहाल मेरा, मध्य प्रदेश। तो उसको एक दिन मैहर ले गए, मैं भी चला गया साथ में। उस ज़माने में वीडियो रिकॉर्डिंग वगैरह होगी, मुझे लगा बहुत अच्छा कार्यक्रम होने जा रहा है; हाँ, मुंडन (होने जा रहा था)।

उसको बैठा दिया और उसके सर पर लगे उसके बाल मूँडने, तो वो लगी ज़ोर-ज़ोर से रोने। वो ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, तो मैं भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। मुझे नहीं समझ में आया, ‘क्यों कर रहे हो ये?’ और फिर वहाँ सब घर की महिलाएँ बैठी हुईं थीं, मैंने फिर क्रांति कर दी। मैंने कहा, ‘ऐसे ही अगर कोई आपके बाल मूँडे तो आपको कैसा लगेगा?’ अब हिंदू घर में महिलाओं से ये बोलोगे तो क्या होगा? थप्पड़ पड़ा ज़ोर का, और अलग कर दिया गया। ‘इसको ले जाओ और वहाँ जीप में बैठा दो,' ड्राइवर लेकर गया जीप मेंl

‘क्यों करना है ये? इतने अच्छे उसके बाल थे, क्यों मूँड रहे हो, क्या समस्या है? कोई मेडिकल रीज़न हो तो बताओ? वो तो है नहीं, कुछ भी करते रहते हो, बिना सोचे? विचार कहीं है ही नहीं?’

श्रोता८: सर , बचपन से एक कंडीशनिंग ही बन जाती है, कि लड़की हो तुम, तो ऐसे-ऐसे ही होगा तुम्हारे साथ। मतलब हम भी ऐसे होते हैं कि समझ ही नहीं..।

आचार्य: आप तो इतना पढ़ी-लिखी हैं!

श्रोता८: नहीं, पर बचपन से ये सीखा है, फिर समझ ही..।

आचार्य: आप बचपन से पढ़-लिख भी तो रही हैं, और पढ़ने-लिखने का मतलब होता है कि सोचो।

आप इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से हैं, है न?

श्रोता८: फ़ार्मेसी किया है, फिर डिज़ाइन।

आचार्य: फ़ार्मेसी करा है, डिज़ाइन करा है, उसमें आपके सामने प्रॉब्लम्स आती हैं, आपने सॉल्व करी हैं। आपको एक साइंटिफिक बेंट ऑफ़ माइंड दिया गया है, आपसे बार-बार कहा, ' एग्ज़ाम तभी क्लीयर करोगे जब सोचोगे,’ आपने न्युमेरिकल प्रॉब्लम्स सॉल्व करी हैं। वो सब आपने किसलिए करा है? ये आपका थॉट , ये किसलिए है? एक भी मॉलिक्यूल बन सकता है फ़ार्मेसी में बिना एप्लिकेशन ऑफ़ थॉट के? तो बिना एप्लिकेशन ऑफ़ थॉट के ज़िंदगी कैसे बन गई? कैसे?

कुछ नहीं, बस ऐसे ही? हाँ जी?

ये नहीं तो फिर क्या? माने घर में हो तो; समस्या क्या है?

श्रोता९: नमस्ते सर , मैं दो पॉइंट्स रखना चाहती हूँ। एक तो ये होता है कि तुम ख़ुद इवोल्व हो जाते हो, पर तुम्हारे पेरेंट्स उस लेवल पर इवोल्व नहीं होते। मैंने जो ऑब्ज़र्व किया अभी रीसेंट डेज़ में, उनको मतलब दया-सी आने लग जाती है। वो चाहते भी हैं कि तुम साथ में रहो, लेकिन वो ये भी चाहते हैं कि तुम न रहो, क्योंकि उन्हें लगता है कि कुछ कमी रह गई ज़िंदगी में अगर वो चीज़ नहीं हुई जो सामाजिक-रूप से होती है।

आचार्य: एक साफ़-साफ़ बात क्यों नहीं कर सकते हैं, कि ऐसी कोई कमी नहीं रह गई है? ‘और कोई कमी होगी तो मैं देख लूँगी, आप परेशान न हों। पढ़ी-लिखी हूँ, कमाती हूँ, सोच-विचार रखती हूँ, जीवन के निर्णय कर सकती हूँ।‘

कौन-सी कमी की बात कर रही हो? दो ही कमियाँ होती हैं - सेक्स नहीं मिल रहा होगा, और किसी पुरुष का साथ नहीं मिल रहा है। और कौन-सी कमी होती है? बच्चा - ये नहीं मिल रहा। कर लीजिए न बात उनसे!

श्रोता९: मतलब वो कल्पना नहीं कर पाते ये चीज़ कि कोई लड़का आकर हमारे घर में साथ रह रहा है। मतलब वो ये चीज़ कल्पना कर पाते हैं कि लड़की आ जाएगी, भाई की पत्नी आ जाएगी।

आचार्य: वो ये कल्पना कर लेते हैं कि वो अपनी बेटी को उठाकर कहीं फेंक देंगे, ये कल्पना कर लेते हैं।

श्रोता९: उनको लगता नहीं है कि ऐसा होता होगा, उनको लगता है कि सबका बढ़िया ही तो चल रहा है। उनका असल में यही होता है कि सबका बढ़िया चल रहा है, तुम्हारा ही क्यों ख़राब चलेगा।

आचार्य: ज़्यादातर माँएँ जो अपनी लड़कियों की विदाई करती हैं, उनका अपना विवाह अच्छा नहीं चला होता है, तो वो कैसे कल्पना कर लेती हैं कि लड़की का अच्छा चलेगा? माँ है, जो ख़ुद अपने वैवाहिक जीवन में दुखी रही है, उत्पीड़ित भी रही है, वो अपनी लड़की की विदाई कर रही है; और उसने कैसे कल्पना कर ली कि लड़की का खेल अच्छा चलेगा?

श्रोता९: पर स्वीकार नहीं करते। और सर , मैं दूसरा पॉइंट ये बोलना चाह रही थी..।

आचार्य: नहीं, देखिए मैं आपकी बातें समझ रहा हूँ, पर समझना चाहता नहीं हूँ, ठीक है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता९: सर , पेरेंट्स का भी यही है, वो समझते हैं पर समझना चाहते नहीं हैं।

आचार्य: (हँसते हुए) इसीलिए मैं पेरेंट्स से कर ही नहीं रहा न बात!

श्रोता९: सर , रहना तो उनके घर में ही है न, जब तक ख़ुद का कुछ बिल्ड होगा तो।

आचार्य: तो अपने घर में चले जाइए।

श्रोता९: सर , *थर्ड ऑप्शन इज़ देयर*।

आचार्य: अगर माँ-बाप इतने ही क्रूर किस्म के हैं कि कह रहे हैं कि मेरा घर है, तू यहाँ रह ही नहीं सकती ― मुझे नहीं लगता ज़्यादातर माँ-बाप इतने पहुँचे हुए होते हैं कि निकल बाहर अगर शादी नहीं करेगी तो; ऐसे होते हैं क्या?

श्रोता९: ताने।

आचार्य: ताने तो कहीं भी जाओगे तो पड़ेंगे।

श्रोता९: पपी फ़ेस बन जाता है बस, और कुछ नहीं है।

आचार्य: सास के ताने खाने से अच्छा है माँ के ही खा लो। ग़लत? कम-से-कम अपनी माँ है।

श्रोता९: सर , दूसरा पॉइंट यही था मेरा, कि लड़कियों के इस तरह के प्रश्न होते हैं क्योंकि लड़कियाँ इस सबसे गुज़र रही होती हैं, पर मैंने कोई लड़का नहीं देखा जो ऐसा करने को तैयार हो; नहीं करेंगे।

आचार्य: जो नहीं कर रहा उससे मत करो न शादी, क्यों करनी है? ‘नहीं छू, दूर हट! भाई तू मेरे घर नहीं आ सकता तो मुझे तेरे साथ रहना नहीं है, ख़तम बात!’

श्रोता९: ऐसे नहीं है सर , मैंने तो कोई नहीं देखा।

आचार्य: तो? नहीं रहना, किसी के साथ नहीं रहना, क्या हो जाएगा?

श्रोता९: वो इस चीज़ को समझते हैं कि दूसरे के घर जाएँगे तो बंधन है, तो वो तैयार नहीं होते हैं, जो कि सही है। पर फिर एक तीसरा विकल्प होना चाहिए जहाँ दोनों एक-दूसरे के घर जाकर रहें।

आचार्य: बिलकुल ठीक है, या आप अपने घर में रहो, वो अपने घर में रहे, अच्छी बात है; बीच-बीच में गोवा।

(श्रोतागण हँसते हैं)

क्या समस्या है?

ये एक क्रूर परम्परा है, ये जो चीज़ है ये क्रूर है। और इसी क्रूरता ने महिलाओं के मन को बिलकुल विकृत कर दिया है, ऐसे तोड़-मरोड़ दिया है; एक अपरूटेडनेस की भावना, जड़हीन होना, मूलहीन होना। मूल समझते हो? जड़, *रूट*। वो महिलाओं में हमेशा रहती है, वो सदा के लिए आश्रिता बन जाती हैं, आर्थिक रूप से नहीं तो मानसिक रूप से। मनुस्मृति वगैरह तो कहते भी हैं, कि बचपन में उसे पिता पर आश्रित रहना है, जवानी में उसे पति पर आश्रित रहना है, और बुढ़ापे में उसे पुत्र पर आश्रित रहना है; और आगे ये भी कहते हैं कि ठीक ही है कि वो कभी स्वतंत्र न रहे।

अब ये आपको तय करना है कि आपको ये सब मंज़ूर है कि नहीं। और अगर आप शुरुआत कर लोगे उस तरीके से, तो अंत भी उसी तरीके से होगा। आश्रयता में शुरुआत करोगे, आश्रयता में ही अंत होगा; जीवन-भर पर-निर्भर बने रहोगे, किसी-न-किसी की बाट जोहते रहोगे। और एक बात अच्छे से समझना, जब आप किसी पर आश्रित होते हो न, तो आप उसकी ज़िंदगी भी ख़राब कर देते हो, ये शोषक-शोषित के खेल में बर्बाद दोनों होते हैं। जब एक व्यक्ति किसी पर निर्भर होता है, बल्कि ग़ुलाम ही बन जाता है दूसरे का, तो वो जो तथाकथित मालिक होता है, उसकी ज़िंदगी भी बर्बाद हो जाती है, दोनों बर्बाद होते हैं। और जब दोनों बर्बाद होते हैं तो पूरा समाज बर्बाद होता है, राष्ट्र बर्बाद होता, विश्व बर्बाद होता है।

जिस किसी ने बंधन को स्वीकार कर लिया, वो अध्यात्म से दूर हो गया न! क्योंकि अध्यात्म का तो अर्थ ही है मुक्ति। जब अध्यात्म का अर्थ है मुक्ति, और तुम जानते-बूझते बंधन स्वीकार कर रहे हो, तब कौन-सा अध्यात्म और कौन-सी मुक्ति? मुक्ति नहीं, तो जीवन-भर तड़पोगे। तुम्हें ज़िंदगी-भर के लिए तड़प पर ही हस्ताक्षर करने हैं, तो कर लो।

पैसा आता जा रहा है, शिक्षा बढ़ती जा रही है। भारत का जो उड्डयन-क्षेत्र है, ये जो जहाज़ जिन पर आप उड़ते हो, एविएशन सेक्टर , इसमें मालूम है कितने प्रतिशत महिला पायलट हैं? दस प्रतिशत। और अमेरिका में कितने प्रतिशत हैं? तीन प्रतिशत। ये कितनी अच्छी बात है, समझो! आप अमेरिका से तीन गुना आगे हो। आप जिन हवाई जहाज़ों पर चलते हो न, अगर दस बार चल रहे हो तो दो बार संभावना ये है कि कोई महिला वहाँ बैठी है कॉकपिट में। दो पायलट होते हैं, उसमें से कोई एक तो महिला हो सकती है, इतनी संभावना है वहाँ पर।

वो इतना बड़ा जहाज़ उड़ा सकती है, इतना पढ़-लिख जाती है, भारत में प्रधानमंत्री बन गयी, भारत में राष्ट्रपति बन गयी, मुख्यमंत्री तो बनती ही रहती है बीच-बीच में किसी-न-किसी प्रान्त में; लेकिन फिर भी मजबूर है और धकेली जा रही है – ‘निकल बाहर।‘

(हाथ में कागज़ लेते हुए) ये दिया गया है मुझे, पढ़ देता हूँ आपसे; *टॉक्सिक*। ‘बाबुल तेरी बगिया की मैं तो वो कली हूँ रे, छोड़ तेरी बगिया मुझे, घर पिया का सजाना है।‘ तुम सजावट की वस्तु हो? तुम क्या हो? तुम शोकेस हो? तुम फूलों का गुलदस्ता हो? ये क्या है? और जो इसमें प्रतीक भी है, जो सिम्बोलिज़म भी है, वो है पूरा रिप्रोडक्टिव ही, दिख रहा है? क्या हूँ मैं? कली हूँ; भँवरा आएगा पराग लेकर, और पॉलिनेट कर जाएगा।

दिख नहीं रहा है कि इन सब बातों के पीछे एक भौतिक दृष्टि है, एक कामुक दृष्टि है? भले ही इसको ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है कि ये एक सांस्कृतिक विदाई गीत है, इसमें सांस्कृतिक कुछ नहीं है, इसमें बस कामुकता है और भौतिकता है। एक चीज़ है जिसको उठाकर के यहाँ से वहाँ रख देना है, और वहाँ उसका इस्तेमाल होगा; और यहाँ से उठा लिया गया है तो यहाँ अब उस पर खर्चा नहीं होगा।

‘जितना तेरा खर्चा बचा, उतना अब तू दहेज दे दे। भई, अभी तक तू इस पर खर्च किया करता था न, अब तू नहीं खर्च करेगा इस पर, अब हम खर्च करेंगे, तो तेरा खर्चा हमारे ऊपर आ गया, चल तू दहेज दे अब।‘

तुम्हें दिख नहीं रहा है कि तुम्हारा इस्तेमाल चीज़ की तरह किया जा रहा है? बच्चा पैदा करने की चीज़, खाना बनाने की चीज़, बिस्तर गर्म करने की चीज़, सास-ससुर की सेवा करने की चीज़। तुम इस व्यवस्था में लगातार शामिल हुए ही जा रही हो, इंसान नहीं हो क्या?

‘बेटी घर बाबुल के किसी और की अमानत है, दस्तूर दुनिया का हम सबको निभाना हैl’ मजबूरी, मजबूरी, मजबूरी। क्या होगा, जेल में डाल देगा कोई? क्या करेगा? क्या कर लेंगे वो, नहीं निभाते दस्तूर, क्या उखाड़ लोगे? क्या कर लेगा कोई, मार देंगे? मार तो वो तब भी देते हैं, जब चले जाते हो पिया के घर; दहेज-हत्याएँ कम हो गई हैं क्या? पता है न, दुनिया-भर में महिलाओं के जितने मर्डर होते हैं, उसमें से पिचहत्तर प्रतिशत उनके पतियों, प्रेमियों, घरवालों द्वारा ही किए जाते हैं। महिलाओं की जितनी हत्या होती है समूचे विश्व में, उसमें से तीन-चौथाई उनके पतियों, प्रेमियों और घरवालों द्वारा ही की जाती है। तो तुम्हें कौन-सी सुरक्षा मिल रही है दस्तूर वगैरह निभाकर के?

और पिता से तो कम ही पिटती होंगी बेटियाँ, पिटती तो पति से ही हैं, हमने तो नहीं सुना कि पिता ने पीट-पीटकर मार डाला बेटी को। हाँ, भ्रूणहत्या वगैरह होती है, सब होता है बिलकुल। लेकिन एक बार जन्म ले लेती है, तब तो मोह-ममता हो ही जाती है उससे थोड़ी, फिर तो कोई नहीं उसको..। जलाई पिता के घर में तो नहीं जाती न?

साथ ही में वो बोल भी रही है, ‘मइया तेरे आँचल की मैं हूँ एक गुड़िया रे, तूने मुझे जनम दिया, तेरा घर क्यों बेगाना है?’ वो बोल भी रही है, फिर भी नहीं बात समझ में आ रही। और धिक्कार है उस मर्द पर, जो खड़ा हुआ ये सब देख रहा है, फिर भी कह रहा है कि मैं विदा कराके ले जाऊँगा। तुझे ले ही जाना है तो फिर उसके माँ-बाप को भी साथ में लेकर जा। ऐसे फाड़कर के ले जाना, ये कहाँ की भलमनसाहत है, इसमें कोई सज्जनता है? ये कोई सज्जन आदमी होगा जो किसी लड़की से कहे कि जब तक तू टियर अपार्ट नहीं कर दी जाएगी अपने घर से, अपने खानदान से, माँ-बाप से, तब तक मैं तुझसे रिश्ता नहीं बनाऊँगा? ये तो कोई अच्छा आदमी तो नहीं हो सकता!

प्र१: सर , इसमें भी बॉलीवुड का बहुत बड़ा रोल (भूमिका) है। वो गाना है, ‘ले जाएँगे, ले जाएँगे, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे।’

आचार्य: दुल्हनिया नची जा रही है, कि आ रहे हैं लेने।

प्र१: हाँ, वो एकदम ज़बरदस्ती, और दूसरा है कि हम तुझको उठाकर ले जाएँगे, डोली में बिठाकर…।

आचार्य: ‘थप्पड़ नहीं मारूँगी, उठाएगा तो?’

प्र१: नहीं वो म्यूज़िक में है, उठा रहा है, ऐसा करके। *ऑल दैट नॉनसेंस बॉलीवुड-फ़ेड, वैरी-वैरी बॉलीवुड फ़ेड*।

आचार्य: नहीं, बॉलीवुड से पहले भी विदाइयाँ तो होती ही थीं, बॉलीवुड ने तो बस उस पर कैपिटलाइज़ करा है।

‘भइया पर क्या बीत रही, बहना तू ये क्या जाने, कलेजे के टुकड़े को रो-रोकर भुलाना है।‘ भई, बेटी नहीं है मेरी, बहन तो मेरे भी है, मैं तो नहीं भुलाऊँगा कभी भी रो-रोकर। अगर है मेरे कलेजे का टुकड़ा, मैं क्यों उसे भुला दूँ रो-रोकर? ये क्या है, नॉनसेंस ! एक ओर तो बोल रहे हो कि कलेजे का टुकड़ा है ― बिलकुल होगी, बहन होती है ― फिर कह रहे हो, ‘उसे रो-रोकर भुलाना है,’ काहे को, मजबूरी क्या है?

‘भइया तेरे आँगन की मैं हूँ ऐसी चिड़िया रे, रात-भर बसेरा है, सुबह उड़ जाना हैl’ फिर भइया कहते हैं, ‘यादें तेरे बचपन की हम सबको रुलाएँगी, फिर भी तेरी डोली को काँधा तो लगाना है।‘

श्रोता१०: आचार्य जी, ऐसा प्रश्न आता है कि अगर शादी नहीं करोगे तो फिर बुढ़ापे में क्या होगा।

आचार्य: अच्छा लड़का नहीं शादी करेगा तो उसका क्या होगा बुढ़ापे में?

श्रोता१०: नहीं, ये लड़का-लड़की दोनों को ये प्रश्न पूछा जाता है, कि..।

आचार्य: आप बूढ़े हो गए हो क्या? ये कितना बूढ़ा सवाल है कि जवानी में एक आदमी सोच रहा है कि मेरे बुढ़ापे का क्या होगा! बुढ़ापे में क्या होगा? मर जाओगे, और क्या होगा।

श्रोता१०: नहीं, जैसे बुढ़ापे में काफ़ी सारी स्वास्थ्य-संबंधी समस्याएँ होती हैं।

आचार्य: उसके लिए अस्पताल होता है, पति नहीं। नर्स लगानी होती है, पति थोड़े ही सेवा करेगा, करता भी नहीं पति सेवा।

मेरे पिता जी वहाँ पर वेंटिलेटर पर हैं, मैं क्या कर पा रहा हूँ? मिलने भी नहीं देते अस्पताल वाले। वो एम.आई.सी.यू. में हैं, ऐसे जाकर ऐसे देखना होता है और खट से एक मिनट के अंदर वापस आ जाना होता है। देखने भी इसलिए देते हैं ताकि मानसिक सांत्वना बनी रहे, बस और कुछ नहीं। डॉक्टर बोलते हैं कि कोई बात होगी आपको फ़ोन कर दिया जाएगा; और वो फ़ोन भी करते हैं सिर्फ़ कंसेंट (सहमति) लेने के लिए। ‘ ट्रेकियोटोमी करने जा रहे हैं, कंसेंट दे दीजिए। ब्रोन्कोस्कोपी करने जा रहे हैं, कंसेंट दे दीजिए।‘ उसके अलावा कुछ नहीं कर सकते हम।

उनके कोई नहीं काम आ रहा उनके परिवार में से, मेडिकल साइंस काम आ रही है उनके, हॉस्पिटल काम आ रहा है उनके। और उनके पास अगर इंश्योरेंस है, तो वो इंश्योरेंस काम आ रहा है उनके। क्या कर लेंगे बच्चे, क्या कर लेगी पत्नी, कोई क्या कर लेगा?

श्रोता१०: वो जिस तरह से हमारा खयाल रख सकते हैं, कोई नर्स नहीं रखेगी।

आचार्य: खयाल माने क्या है, नर्स ही खयाल रख रही है! और ये कितना बड़ा अत्याचार है कि मैं अपना खयाल रखने के लिए शादी करके एक नर्स को लेकर आऊँ, परमानेंट नर्स। ये अत्याचार नहीं है, कि शादी करी है और सोच रहा हूँ कि बुढ़ापे में मैं टट्टी करूँगा पैंट में, फिर ये साफ़ करेगी?

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये अत्याचार नहीं है? ये खुली बात क्यों नहीं करते हो फिर, जब अरेंज्ड मैरिज में मिल रहे होते हो, कि देख ये-ये काम हैं जिसके लिए तुझे लेकर आ रहा हूँ। मेरे सामने तो बता देते हो कि असली बात बुढ़ापा है, और आमने-सामने जवानों की तरह मिलते हो, ‘ हाय , *हाय*।‘ सीधे बोलो कि तू मेरे बुढ़ापे का हिसाब है, मुझे अल्ज़ाइमर्स होगा, तुझे पैरालिसिस होगा, दोनों एक-दूसरे का सहारा बनेंगे।

अरे कौन किसका सहारा है यहाँ पर? जो सहारा बन सकता है, राम का नाम तो कभी लेते नहीं, ज़िंदगियाँ एक-दूसरे की बर्बाद कर रहे हो बस। ये सचमुच आप लोगों को लगता है कि अभी जो कुछ कर रहे हो..; लगता होगा, लगता होगा।

मैं जब आई.आई.एम. में था, मुझे बड़ा झटका लगा था कि ये क्या बोल रहे हैं। मैं जब आई.आई.एम. में था तो जो जॉब ऑफ़र्स आए थे, उसमें से एक था एयर इंडिया का। तो उनको मैंने बताया कि मेरे पास पहले से ही यू.पी.एस.सी. वाली नौकरी रखी हुई है, मैं यहाँ पर उसके बाद एम.बी.ए. कर रहा हूँ। तो वो जो बोर्ड में बैठे थे, उनमें से एक बोलते हैं, ‘नहीं-नहीं, *यू जॉइन दैट गवर्नमेंट जॉब*।‘

मैंने कहा, ‘क्यों?’

बोले, ‘उसमें पेंशन मिलती है।‘

मैंने कहा, ‘भाई मैं चौबीस साल का हूँ, मैं पेंशन के बारे में थोड़े ही सोचूँगा!’ पर वो बोर्ड में जो बैठे थे, वो ख़ुद बूढ़े थे। वो बोले, ‘नहीं, इससे अच्छा है कि आप वहाँ वापस चले जाओ। एम.बी.ए. पूरा करके अकादमी जाओ और दुबारा जॉइन करो वहाँ पर, वहाँ पेंशन मिलेगी।‘

मैंने कहा, ' पेंशन ? आदमी पेंशन के लिए जिएगा क्या?’

देखा जाएगा यार, जब बूढ़े होंगे तब देखा जाएगा। कुछ नहीं होगा तो मर जाएँगे, ख़तम बात। ज़्यादा तकलीफ़ हो रही है, ये सब हो रहा है, तो मर जाओ न।

मुझे जैनों का ये बड़ा बढ़िया लगता है, जब उनको दिखाई देता है कि खेल ख़तम हो गया, तो ख़ुद ही मरना चुन लेते हैं। मेरा भी ऐसा ही रहेगा, पक्का! मैं नहीं इंतज़ार करूँगा कि मौत आए, मुझे घसीट-घसीटकर धीरे-धीरे लेकर के जाए। जब दिखेगा कि अब कोई मैं सार्थक काम कर नहीं सकता हूँ, तो चलो ख़तम; स्वेच्छा से ख़तम करेंगे, किसी की ग़ुलामी से, किसी के आदेश पर थोड़े ही ख़तम करेंगे! अपनी मर्ज़ी से जिए, अपनी मर्ज़ी से मरेंगे भी। कोई कुछ भी कर सकता है, हमें खाने के लिए थोड़े ही मजबूर कर सकता है! खाना छोड़ देंगे, ख़तम!

बुढ़ापे की इतनी क्या चिंता है? और मस्त जियो! देखो, सुनो, इतनी जो बीमारियाँ भी लगती हैं न, आधी तो इसीलिए लगती हैं क्योंकि शादीशुदा हो।

(श्रोतागण हँसते हैं)

सही बोल रहा हूँ या ग़लत बोल रहा हूँ? इतने आदमी हृदयाघात से काहे को मरते हैं? अब जीवन-भर किसी को बाँधकर रखोगे, तो तुम्हें हृदयाघात तो आएगा ही न! वो जो बँधी हुई है, वो फिर दिन-रात तुम्हारा खोपड़ा खाएगी। कभी सोचिए तो! और भारत में जितने पुरुष मरते हैं हृदयाघात से, अनुपात के तौर पर, उतने दुनिया में कहीं नहीं मरते; क्योंकि जो बँधी होती है न, उसकी आह लगती है। वो अपने तरीके से आपको हर समय कोंचती रहेगी, यहाँ से ताने मारेगी, यहाँ से कुछ करेगी। मरो!

फिर कौन-सा तुम शादी करके सेहत पर ध्यान देते हो, कौन-सा तुम स्पोर्ट्स खेलते हो, कौन-सा तुम एडवेंचर पर जाते हो, ट्रेकिंग करते हो, बताओ न! कितनी ब्याहता महिलाएँ स्विमिंग करने जा रही हैं, दिखाना! या टेनिस खेल रही हैं, दिखाना! और जब न दौड़ोगे, न भागोगे, न ज़िन्दगी में जिम है, न पूल है, न कोर्ट है, न बैट है, न रैकेट है, तो बीमार तो पड़ोगे ही!

और जब बीमार पड़ रही हो तो तर्क ये दे रही हो कि अब मैं बीमार पड़ गई हूँ इसलिए मुझे पति चाहिए, वो मेरी देखभाल करेगा। भई, इससे अच्छा जितना समय तुमने परिवार को दे दिया, उतना समय तुमने सेहत को दे दिया होता, तो बीमार पड़ते ही नहीं। ग़लत बोल रहा हूँ? जितना समय तुमने आपस की माथा-फोड़ी में और फ़ालतू में बच्चे पैदा करने में और सास-ससुर के झंझटों में लगा दिया, उतने समय में सेहत का खयाल रख लिया होता तो अस्सी की उमर में भी हट्टे-कट्टे रहते।

मेडिकल साइंस तो बहुत आगे बढ़ गई है, छोटी-मोटी बीमारियों का इतना इलाज है। इतनी सारी बीमारियाँ तो आपको अब लग ही नहीं सकती, आप वैक्सीन लगवा चुके हो सब-के-सब। जिन बिमारियों से पिछली शताब्दियों में लोग सबसे ज़्यादा मरा करते थे, वो आपको हो ही नहीं सकती, आपको उन वायरस का कुछ पता ही नहीं है; और बहुत भयानक वायरस थे, बैक्टीरिया भी।

ये कितना इमोशनल खेल है, ‘उँगली पकड़ के तूने चलना सिखाया था न, दहलीज़ ऊँची है ये, पार करा दे।’ ये तर्क क्या है, लॉजिक बताओ! जैसे कहते हैं न, ‘कोई सेंस है इस बात का?’

‘उँगली पकड़ के तूने चलना सिखाया था,' यहाँ तक तो ठीक है, अब ये क्या बोल रहा है आगे? तो ऐसे ही इसको और बोल दे, कि उँगली पकड़ के तूने चलना सिखाया था न, चल अब मुझे कुएँ में ही गिरा दे; वो और ये लॉजिक बराबर का है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

‘बाबा मैं तेरी मल्लिका, टुकड़ा हूँ तेरे दिल का, एक बार फिर से दहलीज़ पार करा दे।’ और पीछे से कोरस में समस्त भारत की महिलाएँ गा रही हैं, ‘मुड़के न देखो दिलबरो-दिलबरों, मुड़के न देखो..।‘ ये पूरे उत्तर-भारत की स्त्रियाँ एक स्वर में कोरस दे रही हैं, ‘मुड़के न देखो दिलबरों।’ तुमने नहीं देखा था मुड़के, तुम्हारी ज़िन्दगी कैसी हो गई? उस बेचारी को भी बता रही हो कि मुड़के न देखो दिलबरों!

(प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) तुमने कौन सी लाइन कोट (उद्धृत) करी थी, कि घास काट दी जाती है तो फिर वापस नहीं आती? कहाँ लिखा है इसमें? ‘फसलें जो काटी जाएँ, उगती नहीं हैं।‘

(व्यंग्यात्मक लहज़े में) वो फसल है और उसको काट दिया गया है; और ये फ़िल्में हिट हो जाती हैं!

देखिए, स्त्री-पुरुष-संबंध शायद जीवन की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ तो होती ही है। एक पुरुष होने के नाते अगर आपका सबसे महत्वपूर्ण संबंध होता है राम से, तो जो दूसरा सबसे महत्वपूर्ण संबंध होता है वो तो स्त्री से ही होता है। ये जो दूसरा है, ये बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है, नंबर दो का है एकदम। अगर ये (दूसरा) आपने ख़राब कर लिया है तो ज़िंदगी ख़राब हो गयी, दुनिया ख़राब हो गयी, पृथ्वी ख़राब हो गयी, आने वाली पीढ़ियाँ ख़राब हो गयीं; सब ख़राब हो गया।

और दूसरा ख़राब कैसे होता है, मालूम है न? जब तीसरा महत्वपूर्ण हो जाता है और पहला भुला दिया जाता है। तीसरा कौन है? दुनियादारी, समाज, भौतिकता, इधर-उधर के लोभ ― जब ये बहुत आकर्षक हो जाते हैं और पहले को हम भुला देते हैं। पहला है सत्य, राम। जीवन का उद्देश्य याद रखना, जो है मुक्ति। अगर पहले को याद रखते हुए दूसरा संबंध बनाओगे तो ठीक चलेगा। भई देखो, इंसान पैदा हुए हो, आदमी का औरत से संबंध रहेगा, और स्त्री को पुरुष चाहिए होगा; ये निर्विवाद है, ये तो होगा, बिलकुल होगा। लेकिन ये याद रखा जाए कि ये दूसरे नंबर की बात है, पहला नंबर तो हमेशा राम का है।

राम माने क्या?

श्रोतागण: सत्य।

आचार्य: हाँ, ये भीतरी माया है, इसको काटना — सत्य, मुक्ति। वो चीज़ याद रहे तो फिर स्त्री से, पुरुष से भी संबंध अच्छा बनता है, संतानों की परवरिश भी ठीक हो जाती है और समाज भी ठीक चलता है। लेकिन जब वो पहला नहीं पता होता तो दूसरा बहुत बर्बाद होता है; दूसरा बर्बाद होते ही सब बर्बाद हो गया।

आप रह रहे हो किसी के साथ ज़िन्दगी-भर, और कलह-क्लेश; क्या रखा है? और जो ये पति के घर भेजने का दबाव होता है, उसी का नतीजा होता है जो बात इन्होंने उठाई थी, कि फिर पिता को लड़की की भ्रूणहत्या करनी पड़ती है; पिता को और माता को। उनको भी पता है न, ‘ये क्या हो गयी, इसको तो उठाकर के किसी को दे ही देना है कल! इस पर जो इन्वेस्टमेंट करोगे, वो तो सब बेकार ही जाना है। तो इसको पैदा ही काहे को होने देना है, इसको मार ही दो!’ उसको पैदा ही नहीं होने देते फिर।

और ठीक वैसे जैसे दहेज की प्रथा रुकने में नहीं आ रही, उसी तरीके से फ़ीमेल फ़ीटिसाईड , और अगर पैदा हो गई तो इंफ़ेन्टिसाइड (नवजात हत्या), ये रुकने में आ नहीं रहे हैं। मज़ेदार बात ये है कि चूँकि ये रुक नहीं रहे, इसीलिए हमने उनकी बात करना ही रोक दिया।

मैं जब छोटा था तो दूरदर्शन पर भी विज्ञापन आते थे सरकार द्वारा प्रायोजित, दहेज-विरोधी। सरकार बार-बार विज्ञापन देकर सबको समझाती थी कि दहेज बुरा है, दहेज बुरा है; आज कौन दहेज की बात कर रहा है! इसी तरीके से कम-से-कम पाँच-सात साल, दस साल पहले तक़ होता था कि आप थोड़ा देहात की तरफ़ निकल जाओ तो वहाँ लिखा होता था, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।‘ वहाँ पर कम-से-कम इस बात को स्वीकार किया जाता था कि हाँ, भ्रूणहत्या चल रही है ज़बरदस्त; आज कोई नहीं उसकी बात करना चाहता।

और भारत में जो सेक्स रेशियो ऐट बर्थ है, वो दुनिया में सबसे बुरा है। ऐसा नहीं कि माँ-बाप अनिवार्य रूप से क्रूर हैं इसलिए बेटी को मार रहे हैं; जो कारण है वो सामाजिक और आर्थिक है। सामाजिक कारण क्या है? कि इसको विदा कराना है; वही जो आप लोग बोल रहे थे कि समाज की मजबूरी है न, विदा कराना ― ये सामाजिक कारण है। आर्थिक कारण क्या है? ‘विदा हो जाएगी, फिर हमें क्या मिलेगा इससे? ये तो एक नेट सिंक है बस, पैसे लेती है, कुछ वापस थोड़े ही देती है!’

तो ये सब जो इमोशनल गाने वगैरह हैं न, ये हत्यारे, खूनी गाने हैं। हम बात करते हैं इथेनिक क्लीनज़िग वगैरह की,, ‘अरे, इतने लाख फ़लानी इथेनिसिटी के लोग मार दिए, कितनी बुरी बात है, रेशियल क्लीनज़िंग कर दी!’ और ये जो जेंडर-बेस्ड क्लीनज़िंग हो रही है, इसकी कौन बात करेगा? कभी हिसाब भी लगाया है कि कुल कितने करोड़ लड़कियाँ हमने मार दी हैं सिर्फ़ पिछले दस-बीस सालों में ही? पैदा होने से पहले ही मार दी हैं।

कहीं दो हिंदू मर जाएँ तो हम बहुत शोर मचाते हैं, ‘अरे! हिंदू मर गए, हिंदू मर गए।‘ और खासतौर पर अगर उन हिन्दुओं को मुसलमानों ने मार दिया हो, तब तो शोर की कोई इन्तेहा ही नहीं रहेगी। और ये जो हिन्दुओं के घरों में ही हिन्दुओं की हत्या करी जा रही है ― वो जो लड़की मरी है वो हिंदू नहीं थी क्या? जिस लड़की को तुमने गर्भ में मार दिया वो हिंदू नहीं है? ― और करोड़ों ऐसी लड़कियाँ तुम मार रहे हो हर साल, उनकी तुम बात नहीं करोगे।

प्र२: सर , इसी में ही आगे एक ओर स्टैट (आँकड़ा) है। जहाँ पर पोलिटिकल रैलीज़ भी होती हैं, इलेक्शन्स भी होते हैं, तो वहाँ पर किसानों का मुद्दा काफ़ी उठाया जाता है, कि वो आत्महत्या करते हैं आर्थिक समस्याओं के कारण। पर जो डेटा है वो कहता है कि भारत में हर साल जितने किसान आत्महत्या करते हैं उससे कहीं ज़्यादा आत्महत्या गृहणियाँ करती हैं, पर ये कभी मुद्दा ही नहीं आता सामने।

आचार्य: गाय है, नहीं रही तो दूसरी आ जाएगी, उसको कौन-सा इंसान की तरह देख रहे हो!

पहले ऐसे ही गिनते थे, ‘फ़लाने किसान के पास इतना पशुधन है और इतना स्त्रीधन है।‘ गाय को भी माना जाता है एक उर्वर संसाधन, फ़र्टाइल रिसोर्स ; बच्चा देती है, दूध देती है। और स्त्री भी वही है – बच्चा देती है, दूध देती है। गाय मर जाती है तो कौन बहुत रोता है? स्त्री भी मर गई तो बस! काहे को गिनना है, मीडिआ काहे को इस बात को उठाए, मीडिया के पास ज़्यादा मसालेदार मुद्दे हैं!

(मोबाइल में आँकड़े देखते हुए) ये सुनिए अपनी करतूत! हम बहुत भावुक लोग हैं न, इंडियंस आर वैरी सेंटिमेंटल पीपल , देखिए हम कितना सेंटिमेंटल स्लौटर करते हैं। बिहार – नौ सौ आठ; नौसौ आठ माने हज़ार लड़कों पर। बाकी बयानबे कहाँ हैं? बताइए-बताइए, कहाँ हैं? (व्यंग्यात्मक लहज़े में) वो फसल पहले ही कट गई, बहुत बढ़िया!

अब बिहार की कुल आबादी सोचिए कितनी होगी। बारह-चौदह करोड़ होगी। इतनी ही है न? बारह-चौदह करोड़ में बयानबे बटा एक हज़ार के हिसाब से ले लीजिए, मोटा-मोटा आप दस प्रतिशत के हिसाब से ले लीजिए तो कितनी गायब महिलाएँ हैं? जितनी होनी चाहिए उससे दस प्रतिशत कम। चौदह करोड़ लोग हैं तो सात करोड़ महिलाएँ होनी चाहिए। उससे दस प्रतिशत कम, तो माने कितनी गायब हैं? सत्तर लाख।

ये तो कह रहे हैं, ‘यादें तेरी बचपन की हम सबको रुलाएँगी।’ बचपन तो शुरू भी नहीं होता है उसका, बचपन शुरू होने से पहले ही काम तमाम। हाँ, एक लड़की घर से भाग जाए तो कितना बड़ा मुद्दा बनता है मीडिया में - 'वो घर से भाग गई।‘ एक लड़की का कोई क़त्ल कर दे, उसका प्रेमी वगैरह तो कितना बड़ा मुद्दा बनता है; और ये सत्तर लाख लड़कियाँ कहाँ हैं? बताओ न मुझे, ये कहाँ हैं?

ये बिहार था, मेरा प्यारा हरियाणा कहाँ है? हाँ - आठ सौ तिरानबे।

(व्यंग्यात्मक लहज़े में) ओ मर्दों का देश है भई हरियाणा, नारियों का क्या काम वहाँ पर? एकदम ही फिज़ूल चीज़ है, पैदा ही नहीं होने देना है इसको। ख़तम, अभी काटो।

पंजाब भी इससे बहुत बेहतर नहीं होगा – नौ सौ चार। कल्चर एक ही है हरियाणा और पंजाब का, और ये गाने भी सब उधर के ही हैं। जितना स्लौटर , उतनी *सेंटिमेंटलिटी*।

उत्तर प्रदेश बुरा मान रहा है, बता दूँ फिर – नौ सौ इकतालिस। उत्तर प्रदेश का नौ सौ इकतालिस हरियाणा के आठ सौ तिरानबे से बदतर है, बताओ क्यों? क्योंकि आबादी बहुत ज़्यादा है।

राजस्थान ― हरियाणा को बुरा लग जाएगा ― आठ सौ इक्यानबे। (व्यंग्यात्मक लहज़े में) शूरवीरों का देश है भई! महिलाएँ तो कमज़ोर होती हैं, क्या करना है, वहाँ तो शूरवीर चाहिए। तो हजार लड़कियाँ अगर गर्भ में आती हैं, तो उसमें से एक सौ नौ मार दी जाती हैं।

ये आपकी स्थिति है, और आप इन्हीं पुरुषों पर आश्रित होना चाहती हैं कि ये आपकी देख-भाल करेंगे, आपके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे? ये पुरुष जो आपको जन्म नहीं लेने देते, ये आपके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे? आप हैं किस दिवास्वप्न में? या बस नाचना है? डी.डी.एल.जे., दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे?

क्या था वो? उठाकर ले जाएँगे?

श्रोतागण: ‘हम तुझको उठाकर ले जाएँगे।’

आचार्य: ‘हम तुझको उठाकर ले जाएँगे।’ बस नाचना है?

ये मुझे नहीं समझ में आया; अच्छा, ये तो कारण दूसरा है। गोवा भी आठ सौ अड़तीस है, पर उसकी वजह दूसरी है। उसकी वजह ये है कि यहाँ पर इमिग्रेशन है न सारा। बाहर के लोग आए हैं काम करने के लिए, और जो लोग आए हैं वो पुरुष हैं, तो पुरुष चूँकि यहाँ बढ़ गए हैं, तो स्त्रियों का अनुपात कम दिख रहा है।

चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के बीच में है, तो आठ सौ अड़तीस। हमारा सिविलाइज़्ड , ले कोरब्यूज़ियर (1958 में वर्तमान सुखना झील के निर्माता का नाम) का चंडीगढ़ - आठ सौ अड़तीस।

पश्चिम बंगाल में अच्छा होगा, बुरा नहीं होगा - नौ सौ तिहत्तर।

श्रोता११: वहाँ देवी की पूजा की जाती है, शायद इसलिए।

आचार्य: इसीलिए, यही बात है। और बंगाल जैसा ही माहौल त्रिपुरा का रहता है, त्रिपुरा में भी बंगाली ज़्यादा हैं। त्रिपुरा - एक हज़ार अठ्ठाइस।

श्रोता११: और आचार्य जी, ये ग़ैरकानूनी हो चुका है स्कैन करना, और उसके बाद अगर ये संख्या है, तो ये बता रहा है कि वो ग़ैरकानूनी होने के बाद भी धड़ल्ले से चल रहा है।

आचार्य: ये स्कैनिंग ग़ैरकानूनी है, पर वो अलग तरीके से होती है अब।

जिन जगहों पर हमारी ये सेंटिमेंटल संस्कृति नहीं है, वहाँ मामला थोड़ा ठीक है। उदाहरण के लिए, लद्दाख – ग्यारह सौ पच्चीस, लक्ष्यद्वीप – एक हज़ार इक्यावन।

केरल में भी ठीक होना चाहिए; केरल – नौ सौ इक्यावन।

हिमाचल – आठ सौ पिचहत्तर; पंजाब का पड़ोसी है। और हिमाचल का तो और अच्छा होना चाहिए था क्योंकि हिमाचल मैनपॉवर का एक्सपोर्टर (निर्यातक) है, तो हिमाचल के पुरुष मैदानों पर आकर काम करते हैं। तो हिमाचल में तो महिलाओं का अनुपात और ज़्यादा होना चाहिए था, पर सिर्फ़ आठ सौ पिचहत्तर है।

उत्तराखंड – नौ सौ चौरासी; पर कारण वही है, उत्तराखंड के पुरुष नीचे आ गए हैं मैदानों में, तो वहाँ महिलाएँ ज़्यादा होंगी।

महाराष्ट्र – नौ सौ तेरह।

नेचुरल रेट (प्राकृतिक दर) थाउज़ेंड नहीं होता बाय द वे , थाउज़ेंड फ़िफ़्टी होता है। प्राकृतिक तौर पर लड़कियाँ थोड़ी ज़्यादा पैदा होती हैं लड़कों से, तो अगर मारा न जाए तो हज़ार लड़कों पर हज़ार-बीस या हज़ार-चालीस लड़कियाँ मिलेंगी। तो जब आप ये संख्या पढ़ रहे हैं, तो इसको हज़ार से नहीं, एक हज़ार पचास से तुलना करिए।

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