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लेख
वासना सताए तो क्या करें? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
15 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरे मन में सेक्स से सम्बंधित बहुत विचार आते हैं तो फिर इनको कैसे कम करें या काबू में करें?

आचार्य प्रशांत: ज़िंदगी यूँ ही छोटी है उसमें किसी ऐसे काम के लिए तुम समय कहाँ से निकाल रहे हो जो तुमको पता है कि थोड़ी देर की उत्तेजना के अलावा तुम्हें कुछ नहीं देगा? समय यूँ ही कम है तुम्हारे पास, उसमें से भी तुमने समय थोड़ी देर के मसाले को दे दिया अब क्या होगा? समय और कम बचेगा न।

सेक्स में कोई बुराई नहीं थी अगर उससे तुमको मुक्ति मिल जाती। मैं सेक्स के माध्यम से कह रहा हूँ। अगर सेक्स के माध्यम से तुमको तुम्हारे दुखों से, तुम्हारे बंधनों से मुक्ति मिलती होती तो मैं कहता तुम सेक्स के अलावा कुछ करो ही मत, तुम दिन-रात अपनी वासना को ही पूरी करने में मग्न रहो। लेकिन ऐसा होता है क्या?

अरे, सब यहाँ वयस्क बैठे हुए हैं, प्रौढ़ हैं, चढ़ी उम्र के लोग हैं, सब अनुभवी हैं कुछ बोलिए, ऐसा होता है कि तुम जो यौन कृत्य होता है उसमें पचास बार संलग्न हो जाओ, कि पाँच-सौ बार, कि पाँच-हज़ार बार ऐसा होता है कि अब अंत आ गया, अब इसके बाद किसी उत्तेजना की कोई आवश्यकता नहीं, पार पहुँच गए, ऐसा होता है? या ऐसा होता है कि जो अधूरापन पहली बार था, जो अधूरापन बीसवीं बार था, जो अधूरापन दो-सौवीं बार था वही अधूरापन अब भी है। तो कभी-न-कभी तो तुम्हें इमानदारी से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा न कि यहाँ बात बन नहीं रही है, इस दुकान का माल खरा नहीं है, बहुत आज़मा लिया यहाँ।

या तो तुम नए-नवेले बिलकुल छैल-छबीले होते पंद्रह की उम्र के और तुम कहते कि, "साहब हमने दुनिया का कुछ अनुभव लिया नहीं, हम बिना जाने किसी चीज़ का त्याग कैसे कर दें?" उतने छोटे तो हो नहीं, दुनिया को भी देख लिया, तमाम तरह की इच्छाओं में लिप्त हो कर देख लिया, वहाँ चैन मिल जाता हो तो चले जाओ उधर और चैन ना मिलता हो ये जानते हुए भी उधर जा रहे हो तो स्वयं को ही धोखा दे रहे हो। फिर तुम्हारा कौन भला कर सकता है? सही काम करने के लिए भी जीवन बहुत छोटा है तो व्यर्थ काम करने के लिए तुमने समय कहाँ से निकाला? चोरी करी न?

जो समय जाना चाहिए था किसी सार्थक दिशा में उसको तुमने लगा दिया वासना की सेवा में, चोरी करी कि नहीं करी? तो जो लोग इस तरह के उपद्रवों से परेशान हों कि वासना सताती है, गुस्सा सताता है, लालच या कोई नशा सताता है उनके लिए समाधान सिर्फ़ एक है — अपने जीवन को, अपने समय को, अपनी उर्जा को, अपने दोनों हाथों को, अपने सारे संसाधनों को पूरे तरीके से झोंक दो किसी सच्चे उद्यम में, उसके अलावा कोई तरीका नहीं।

तुम्हारे शरीर की निर्मिति ही ऐसी है कि वासना इसको सताएगी, वासना के बीज इसी में मौजूद हैं। तुम सिर्फ़ ये कर सकते हो कि जब वासना सताए तो तुम उससे बोलो, "ओ! स्त्री कल आना!" क्या करना? "कल आना।"

फ़िल्म (स्त्री) में बताया था वो कहानी भी मध्यप्रदेश के ही किसी गाँव की थी, "ओ! स्त्री कल आना!" तो तुम उसे ये नहीं कह सकते कि मत आना क्योंकि लौट कर तो वो आएगी। क्यों आएगी लौट कर? क्योंकि वो तुम्हारी देह में ही निवास करती है। शरीर की एक-एक कोशिका आत्म-संरक्षण के लिए तत्पर है। उसे न सिर्फ़ अपने-आपको बचाना है बल्कि अपने-आपको बढ़ाना है। संरक्षण ही नहीं करना है संवर्द्धन भी करना है। एक कोशिका कहती है — "मैं कई गुनी हो जाऊँ" यही तो वासना है और क्या है?

जब वासना आए तुम कहो, "मैं अभी व्यस्त हूँ, ओ! वासना कल आना" और कहाँ व्यस्त हो तुम? तुम किसी महत प्रयोजन में समर्पित हो, तुम कोई ऊँचा काम कर रहे हो, तुम कोई मीठा काम कर रहे हो, तुम कोई ऐसा काम कर रहे हो जिसमें तुम्हें फुर्सत नहीं। किसी भी तरह के आवेग का झोंका आया, तुमने अनुभव किया लेकिन तुमने उससे कहा, "थोड़ी देर बाद! अभी हम कुछ ऐसा कर रहे हैं जो छोड़ा नहीं जा सकता, बेशकीमती है।" "देखो माफ़ करना, अभी हम मंदिर में हैं पूजा से उठ नहीं पाएँगे।" "देखो माफ़ करना, अभी हम किसी ऊँचे भवन का निर्माण कर रहे हैं काम से उठ नहीं पाएँगे। थोड़ी देर में आना न।" और तुम कहोगे, "थोड़ी देर में आना" वो थोड़ी देर में लौट कर आएगी। जब वो लौट कर आए तुम्हें पुनः व्यस्त पाए और तुम उससे फिर कहो, "ओ! स्त्री कल आना!" और कोई तरीका नहीं है।

शब्द समझो — "वा-स-ना", कभी तुमने पूछा नहीं क्या कि 'वासना' तो ठीक है, वास कहाँ करती है? जो तुममें वास करे सो वासना। जिसका तुममें वास हो सो वासना। उसकी हत्या नहीं कर सकते तुम क्योंकि उसमें और तुममें कोई भेद नहीं है। तुम्हारे ही शरीर का नाम है 'वासना'। तुम्हारा शरीर कामवासना का उत्पाद है और तुम्हारा शरीर लगातार अपनी सुरक्षा हेतु और अपने प्रसार हेतु तत्पर है, आतुर है, इसी का नाम 'कामवासना' है। शरीर की अपनी कुछ माँगे हैं, शरीर के अपने ढर्रे हैं, शरीर के अपने इरादे हैं। तुम शरीर से ज़रा भिन्न हो, तुम्हारा इरादा कुछ और है, शरीर का इरादा कुछ और है। तुम हो एक अधूरी अहम् वृत्ति जो अपने होने से परेशान है, जो मिट जाना चाहती है। शरीर है प्रकृति का यंत्र और प्रकृति का उत्पाद जो अपने होने को बचाए रखना चाहता है। तुम देख रहे हो, दोनों के इरादों में कितना फ़र्क़ है?

शरीर की हसरत है — बचा रहूँ। और तुम्हारी गहरी हसरत है — मिट जाऊँ।

अब बात कैसे बनेगी? कैसे बनेगी बोलो?

अब बताओ तुमको किसकी हसरत पूरी करनी है, अपनी या शरीर की? जल्दी बोलो।

तुम और शरीर एक नहीं हैं हालाँकि तुमने उससे नाता बहुत गहरा जोड़ लिया है पर फिर भी दोनों अलग-अलग हो, दोनों की दिशाओं में बड़ा अंतर है। और जो बात मैं कह रहा हूँ वो समझने के लिए बहुत गहरा अध्यात्म नहीं चाहिए। बचपन से ही तुम्हारा अनुभव रहा है, तुम पढ़ने बैठते थे तो तुम्हें नींद आ जाती थी, देख नहीं रहे हो अंतर? निश्चित रूप से शरीर अपनी ही चलाता है। कोई है तुम्हारे भीतर जो कह रहा है, "पढ़ाई करो!" और शरीर कह रहा है, "मुझे तो सोना है।"

जिन्होंने व्रत उपवास रखे हों वो खुली बात जानते होंगे बिलकुल, एक ओर कोई चेतना है जो कह रही है, "आज निराहार रहना है" और दूसरी ओर शरीर है जो कह रहा है, "कुछ खा ही लें!" देख नहीं रहे हो शरीर के इरादें हमेशा दूसरे होते हैं? और कितनी ही बार तुमने ग़लत पक्ष का समर्थन किया है, कितनी ही बार तुमने शरीर को ही जिताया है, कितनी ही बार हुआ है न कि तुमने व्रत उपवास में भी धाँधली कर दी है, चलो खुद नहीं करी तो किसी को करते देखा होगा, कि गए और एक लड्डू, थोड़ा-सा पानी, "शरीर सत्तर-प्रतिशत जल ही तो है थोड़ा-सा पी लिया तो अधर्म थोड़े ही हो गया।"

सुबह ट्रेन पकड़नी है और शरीर कह रहा है, "रज़ाई से प्यारा कुछ होता नहीं, कौन बाहर निकले।" ये सब देखा है या नहीं देखा है? देख नहीं रहे हो कि शरीर को इस बात से कोई मतलब ही नहीं कि तुम ट्रेन पकड़ो या ना पकड़ो उसको मतलब बस एक बात से है — आराम मिलना चाहिए। आराम माने सुरक्षा, मस्त पड़े हुए हैं। कौन ठंड में बाहर निकले दौड़ लगाए, प्लेटफार्म पर जाए, कौन ये सब झंझट करे?

इसको (शरीर को) आराम दे दो, इसको रोटी दे दो और इसको सेक्स दे दो इसके अलावा इसे कुछ चाहिए नहीं। ना इसको ज्ञान चाहिए, ना इसको मुक्ति चाहिए, ना इसे भक्ति चाहिए। अब बताओ ऐसे का साथ देना है? कोई तुम्हारे पड़ोस में रहता हो जिसको ना ज्ञान चाहिए, ना भक्ति चाहिए, ना मुक्ति चाहिए उसका साथ दोगे? तुम्हारे पड़ोस में कोई आ गया है और उसको सिर्फ़ खाना है, सोना है और मैथुन करना है, इन तीन के अलावा उसे कुछ करना ही नहीं, उसका साथ दोगे? उससे दोस्ती रखोगे? इसी पड़ोसी का नाम है 'शरीर'। अब क्या करोगे तुम अब वो आ गया पड़ोस में तो कुछ तो उससे नाता बन ही गया है पर जितना कम नाता रखो उतना अच्छा। शरीर को पड़ोसी की तरह ही रखो ज़रा दूरी बना कर, सिर पर मत चढ़ा लो उसको। अब तुम कुछ काम कर रहे हो ये पड़ोसी आ गया, घंटी मार रहा है, घुसना चाहता है, क्या जवाब देना है? "ओ! पड़ोसी कल आना!"

और वो कल फिर आएगा क्योंकि बसा तो वो पड़ोस में ही है। मानव जन्म लिया है तुमने तो ये दुर्भाग्य है तुम्हारा कि शरीर हमेशा अगल-बगल ही रहेगा पर उसे पड़ोसी ही रहने देना, उसे घर का सदस्य मत बना लेना। शरीर की अपनी वृतियाँ हैं, चूँकि उसे सुरक्षा चाहिए इसीलिए उसमें मालकियत की बड़ी माँग रहती है। ये जो तुममें ईर्ष्या आदि उठते हैं, इनको भी मानसिक मत समझ लेना, ये भी करतूतें शरीर की ही हैं। जिसको तुम मन कहते हो वो भी शरीर से अलग नहीं है, मन भी शरीर के रोएँ-रोएँ में वास करता है। भ्रम, तुलना, हिंसा ये सब किसी बच्चे को सीखने नहीं पड़ते ये उसके शरीर में ही निहित होते हैं इसलिए पशुओं में भी पाए जाते हैं। तुम्हारा मस्तिष्क ही नहीं तुम्हारे सर के बाल भी ईर्ष्या में पगे हुए हैं। ये सब भावनाएँ, ये सब वृतियाँ जिस्मानी हैं। इन सब को यही कहना है, "ओ! ईर्ष्या कल आना!" "ओ! मोह" "ओ! क्रोध!" यही तो चीज़ें हैं जो हमें जानवरों से जोड़ती हैं। जानवरों को भी क्रोध आता है, जानवरों को भी मोह रहता है, जानवरों को भी ममता रहती है। हाँ, जानवरों को बोध नहीं रहता। जिस्म का बोध से कोई लेना-देना नहीं।

प्र२: रोज़ शरीर लेकिन जीत ही जा रहा है।

आचार्य: तुम जिता रहे हो, वो नहीं जीतेगा। वो अधिक-से-अधिक तुम्हारे दरवाज़े पर घंटी बजा सकता है ये तुम्हारा निर्णय होता है कि तुम दरवाज़ा खोल दो और आगंतुक को भीतर स्थान दे दो, नहीं तो ये भी हो सकता है कि दरवाज़े की झिर्री से तुम उससे कहो, "कल आना!"

ये मत कहो कि शरीर जीत रहा है, ये कहो कि तुम रस ले रहे हो शरीर को जिताने में। स्त्री भी बस पीछे से आवाज़ देती थी, मुड़कर देखोगे या नहीं देखोगे ये तुम तय करते थे और बताने वाले तुमको बता गए थे कि बचने का तरीका है — जब आवाज़ दे तो मुड़कर देखना मत। पर वो आवाज़ में ही कुछ ऐसी मिठास, कुछ ऐसी कशिश होती है कि मुड़ ही जाते हो और उसके बाद न जाने कहाँ नंग-धड़ंग क़ैद में पड़े हुए हो।

याद है न कहानी? आवाज़ आई नहीं कि मुड़कर देख लिया तुरंत, ये नहीं कि अपना काम करो। अब एक बात बताओ, कोई है जिससे वास्तविक प्रेम है तुम्हें और उसकी तरफ़ चले जा रहे हो तुम, दौड़े जा रहे हो तुम और पीछे से तुम्हें कोई आवाज़ आती है — "रूपेश!"

मुड़कर देखोगे क्या?

यही तुम्हें तब से समझा रहा हूँ।

ये जो स्त्री है जिसका नाम देह है इसके चक्कर में पड़ते ही वही हैं जिनके पास जीवन में कोई सार्थक काम, कोई सार्थक लक्ष्य नहीं होता। तुम्हारे जीवन में वास्तविक प्रेम हो तो वो बुलाती रहे पीछे से तुम मुड़कर ही नहीं देखोगे। यही बात तुम्हें तुम्हारे बगल में बैठे मित्र ने समझाई — "तुम्हें समय कहाँ से मिला?"

तुम लगे हुए हो किसी सार्थक उद्यम में, वो देती रहेगी पीछे से आवाज़, तुम्हें सुनाई ही नहीं पड़ेगी। तुम्हें पता है तुम्हें किस दिशा जाना है, तुम मुड़ कर ही नहीं देखोगे। मुड़कर वही देखते हैं जो यूँ ही टहल रहे होते हैं, जो पेड़ से टूटे हुए पत्ते होते हैं जिनका ना ठौर ना ठिकाना, जो कहीं के नहीं हैं, जिनको हवा जिधर को ले जाए बस ले ही जाए, वो मुड़कर देख लेंगे।

कोई भी कीमती काम सोच लो, चलो चाहे यही सोच लो कि कोई प्रियजन अस्पताल में भर्ती हैं और तुम उसको देखने के लिए दौड़े जा रहे हो और पीछे से आवाज़ आती है, "रूपेश!" तुम रुकोगे क्या? तुम्हारे पास दवाईयाँ हैं, बहुत आवश्यक है कि अभी जो तुम कर रहे हो उसको पूरा करो।

तुम रुकोगे? नहीं रुकोगे। कौन है जो रुक जाता है? कौन है जो उस पड़ोसी की, जो उस वासना की आवाज़ पर मुड़कर पीछे देखता है?

वही जो व्यर्थ टहल रहा है, मटरगश्ती कर रहा है।

व्यर्थ मत टहलो, मटरगश्ती मत करो, जीवन के पल-पल को ऊँचे-से-ऊँचे काम से आपूरित रखो, भरा हुआ। खाली हो ही नहीं तुम, जो खाली होगा वो फँसेगा।

चंदेरी पुराण में ये नियम नहीं था, ये मैं बता रहा हूँ — जो खाली होगा वो फँसेगा और जीवन बहुत छोटा है, खाली रखने का सवाल ही नहीं पैदा होता। तुम तो पूरी जान से, पूरी ताक़त से अपने जीवन के कोने-कोने को भर दो सच्चाई के नाम से, सुधार के नाम से, राम के काम से। जो भी तुम्हें ऊँचे-से-ऊँचा उपक्रम मिले उसके सामने बिक जाओ, उसी के हो जाओ क्योंकि अगर उसके नहीं होओगे तो किसके हो जाओगे? कोई-न-कोई तो तुम्हें खींच ले ही जाएगा, राम से नहीं खिंचोगे तो काम से खिंचोगे। ये मत कहना कि किसी से नहीं खिंचोगे। वो व्यर्थ की कपोल कल्पना है, वो नहीं होने वाली। और उस कल्पना पर भी बहुत लोग चलते हैं, वो कहते हैं, "नहीं साहब, हम किसी के नहीं होंगे।"

वो संभव नहीं है, मनुष्य को वो विकल्प उपलब्ध ही नहीं है। जो राम का नहीं है समझ लो काम का है और जिसको काम का नहीं होना उसको एक ही उपाए है — राम का हो जाए, खाली बैठे ही नहीं।

जब वो आए तो बोलें, "हम व्यस्त हैं!" कहाँ व्यस्त हो? "हम राम की सेवा में व्यस्त हैं।"

और राम की सेवा का मतलब भजन-कीर्तन, आरती मात्र ही नहीं होता। कोई भी ऐसा काम जो अहंता से ना उठा हो, कोई भी ऐसा काम जिसमें तुम्हारे स्वार्थ ही ना शामिल हों, कोई भी ऐसा काम जिसमें करुणा हो, जिसमें दूसरों की भलाई हो, जिसमें रचनात्मकता हो, जिसमें संगीत हो — ये सब राम के काम हैं। राम के काम से मेरा आशय मात्र उन कामों से नहीं है जो धार्मिक माने जाते हैं। गणितज्ञ हो तुम और गणित में गहरे पैठ जाते हो ये राम का ही काम है। कलाकार हो तुम और सुंदर कलाकृति बनाते हो या संगीत रचते हो, ये राम का ही काम है। राजनेता हो तुम और साफ़ राजनीति करते हो, ये राम का ही काम है। खिलाड़ी हो तुम और अपने-आपको पूरी तरह झोंक कर खेलते हो, ये राम का ही काम है और झोंक कर अपने-आपको खेल रहे हो, कहाँ फुर्सत होगी तुम्हें फिर कि इधर-उधर की व्यर्थताओ में लिप्त हो जाओ।

प्र३: आचार्य जी, वह काम यदि हम ढूँढ नहीं पा रहे हैं तो?

आचार्य: बेटा, वो काम कभी दूर का नहीं होता।

उस काम को पाने का सीधा तरीका होता है कि आज और अभी तुम्हारे सामने तुलनात्मक रूप से, अपेक्षतया जो भी ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य उपलब्ध हो उसको पकड़ लो। हो सकता है आज जो तुम्हें ऊँचा लग रहा है कल तुम्हें नीचा लगे पर आज तो तुम्हारे सामने वहीं उच्चतम विकल्प है न? तो तुम उसी को पकड़ लो। उसको पकड़ लो और ये तैयार रहो कि कल इससे ऊँचा कुछ मिला तो उसके हो जाएँगे पर अभी बैठे-बैठे इंतज़ार मत करो, ये मत कहो कि, "जब उच्चतम मिलेगा सिर्फ़ तब हम पहला कदम उठाएँगे।" अगर इंतज़ार करोगे तो ये इंतज़ारी जीवन भर की हो जाएगी। भाई, अभी तुम अपने सामने मान‌ लो पाँच विकल्प देखते हो कि मेरे पास करने के लिए, जीने के लिए पाँच रास्ते हैं, इन पाँच रास्तों में तुलनात्मक रूप से जो एक रास्ता तुम्हें शुद्धतम और उच्चतम लगे उस पर चल दो। उसको सीढ़ी का एक पायदान मानना, उसपर कदम रखोगे तो अगला कदम रखने की हैसियत और दृष्टि मिल जाएगी और ऐसे ही, ऐसे ही तुम सीढ़ी पर चलते चले जाओगे। पर ये कहो सीधे कि, "मुझे तो उछल कर आसमान चूम लेना है", तो वो कभी होने नहीं वाला। यहाँ तो कदम-दर-कदम ही यात्रा होनी है, सोपान-दर-सोपान ही चढ़ाई होनी है।

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