आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
वासना निर्बल और निराधार क्यों? || आचार्य प्रशांत, रवीन्द्रनाथ टैगोर पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
6 मिनट
543 बार पढ़ा गया

तुम मुझे रोज़मर्रा की निर्बल और निराधार वासना से बचते रहने की शक्ति देते रहो।

~ गीतांजलि

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, वासना को निर्बल और निराधार क्यों कह रहे हैं?

आचार्य प्रशांत: वासना को रवीन्द्रनाथ निर्बल इसीलिए कह रहे हैं, क्योंकि वासना में बल होता तो वासना उसको पा ही लेती न जिसके लिए वो उठती है।

हर इच्छा, हर कामना, हर वासना चाहती क्या है?

शान्ति।

पर वासना को कभी शान्ति मिलती है? मिली? तो इसीलिए उसे रवीन्द्रनाथ कह रहे हैं, “निर्बल।”

और क्यों कह रहे हैं, “निराधार?” क्योंकि जिसका आधार होता है, आधार माने बुनियाद, जिसका आधार होता है वो अडिग रहता है, वासना को कभी अडिग रहते देखा है? इच्छा कभी अडिग रहते देखी है? क्या होता है इच्छा को? झट उठी, झट गिरी। कभी इसीलिए गिरी कि पूरी हो गई। और कभी इसीलिए गिरी कि पूरी होने की आस नहीं रही। है कोई इच्छा जो शाश्वत बनी रह जाती हो? जो इच्छा शाश्वत बनी रह जाए, उसे फिर इच्छा नहीं मुमुक्षा कहते हैं। वही हर जीव की सनातन इच्छा है – मुक्ति, मुमुक्षा। पर हम उस इच्छा को दरकिनार कर, छोटी, टुच्ची इच्छाओं में लिप्त हो जाते हैं। दो रुपया, चार रुपया, बीस हज़ार, पच्चीस हज़ार।

भक्ति सबल होती है, क्यों? क्योंकि वो उसको पा लेती है जो उसका ध्येय होता है। वासना निर्बल होती है, क्यों? क्योंकि वो उसको नहीं पा पाती, जो उसका ध्येय होता है। भक्ति सबल है, ज्ञान सबल है, ध्यान सबल है, समर्पण सबल है, तपस्चर्या सबल है। ये पा लेते हैं। कम से कम, पा सकते हैं। वासना की तो प्राप्ति की सम्भावना ही शून्य है, वो न पाती है और न ही पा सकती है; अति दुर्बल है। दुर्बल बहुत है, लेकिन ज़िद और घमंड उसमें पूरा है। ये बात मज़ेदार है। ज़िद और घमंड हमेशा तुम दुबर्लता के साथ ही देखोगे। जो जितना कमज़ोर होगा, वो उतना ज़िद्दी, उतना घमंडी। और जहाँ बल आ जाता है, वहाँ सर झुक जाता है। बल, किस में कहा हमने कि होता है? भक्ति में। और भक्त का सर तो? झुका रहता है। जो बलवान है वो झुका रहेगा। और जो जितना दुर्बल है, वो उतना अकड़ेगा। वो उतना अपने में फूला फूला फिरेगा। और वो उतना असफल जीएगा।

हाँ, क्या कह रहे थे, अब फिर बोलो?

प्र: शांति और आराम में क्या अंतर है?

आचार्य: हाँ।

एक मोटा आदमी कुर्सी पर बैठ कर आराम कर रहा है। और एक स्वस्थ, सुडौल, मज़बूत काठी का छरहरा आदमी दूसरी कुर्सी पर बैठा हुआ है। समस्या दोनों को नहीं है न? बाहर से देखने में ऐसा लगता है जैसे दोनों विश्राम में हैं। पर उनमें से एक शांत है और दूसरे को मात्र सुख है, सुविधा है, कम्फर्ट है। प्रमाण इसका ये है कि शान्ति सावधिक नहीं होती, झट जाने को तैयार नहीं होती। और जिसको तुम सुख या सुविधा कहते हो, आराम कहते हो, वो बहुत तात्कालिक होता है, वो लगातार भागने को तैयार होता है। एक धोखा होता है वो।

तुम्हें लग रहा है कि सब ठीक है, पर तुम इतने मोटे हो कि तुम्हारे भीतर पाँच व्याधियाँ पनप रही हैं। तुम्हें लग भर रहा है कि सब ठीक है। और ऐसा नहीं कि भविष्य ही तुम्हारा भ्रम तोड़ेगा, ठीक अभी अगर तुम पहाड़ चढ़ने की कोशिश करो, तो तुम्हें दिख जाएगा कि तुम्हारा आराम झूठा है। आराम तुरंत बदल जाएगा, बेचैनी में। आराम तुरंत बदल जायेगा 'हाय राम' में। फिर तुम्हें पूछना होगा अभी तो आप कहते थे, "नहीं नहीं नहीं, हमें तो तोंद के साथ भी आराम है। अब, 'हाय राम, हाय राम' क्यों?" न पहाड़ पर चढ़ते हो, न उतरते हो, कौन सा आराम है तुमको? समझ में आ रही है बात?

और शान्त आदमी, वो जिसको हमने कहा कि सुडौल है, सबल है, वो शान्ति में चढ़ जाएगा और शान्ति में ही उतर भी जाएगा, उसकी शान्ति निर्विघ्न रहेगी। अंतर समझ रहे हो न?

तो, तुम कह सकते हो कि शान्ति वो आराम है जो निर्बाध रहता है, अक्षुण्ण रहता है, अविचल रहता है हम जिन आरामों में रहते हैं वो आराम धोखेबाज़ी के हैं। क्योंकि वो अभी हैं और अभी होने के कारण ही वो अगले पल नहीं रहेंगे। वो अभी होने के कारण ही अगले पल नहीं रहेंगे। तुम्हें जो आराम मिला है उससे पूछना। धोखा देगा क्या? वो तुमसे आँख मिला कर न नहीं बोल पाएगा। कुछ ऐसा पाओ जो सदा का आराम दे जाए। जिसके बिछुड़ने की कोई सम्भावना ही न हो,तब मिला आराम। इसीलिए नींद वास्तविक आराम नहीं है क्योंकि वो टूटेगी।

वास्तविक आराम को जानने वालों ने कहा है, जागृत शुषुप्ति। कि जग भी रहे हो तो ऐसा है कि सोये हुए हो। अब ऐसा आराम है कि सोये तो सोये, हम तो जगे में भी सोये। अब हमारा आराम अविरल है। अब तोड़ो हमारी नींद। तुम नींद तोड़ भी दोगे तो भी हम नींद में ही हैं। कभी नींद में नींद है, और कभी जागे में नींद है। ये शान्ति है।

शान्ति वो, जो आती, जाती नहीं। शान्ति वो जो धोखा नहीं देती। तुम अगर कहो कि अभी शांत हूँ, थोड़ी देर में अशांत हो जाऊँगा, तो तुम्हारी शान्ति सिर्फ झूठा आराम थी। उस शान्ति के समपर्क में रहो, जिसे कोई हिला नहीं सकता। उसके चक्कर में फँस गए जिसे कोई भी हिला देता है, तो घनचक्कर हो जाओगे। जो कुछ भी तुम्हें सुख देता हो, तुम उसी से कहना, कि ठीक है तू सुख देता है, चल कुछ ऐसा उपाय करें कि ये सुख कभी छिने न। और उस उपाय में लग जाना, ईमानदारी से। अगर तुम्हारा सुख ऐसा हो सकता है कि कभी छिने ना, तो वो फिर सुख नहीं है, सत्य है। सुख मात्र नहीं है वो फिर, शाश्वत सत्य है। और अगर तुम्हारा सुख ऐसा हो ही नहीं सकता कि कभी छिने ना, तो उस सुख को धूल और राख जान के झाड़ देना।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें