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लेख
वह रात
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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बस यूँ ही अनायास,

उदासी सी छा गयी थी,

सूरज के डूबने के साथ ही,

और मैं – मुरझाया, उदास

देखता था गहरा रही रात को

तारों की उभर रही जमात को ।

प्रत्येक पल युग सा प्रतीत होता था,

परितः मेरे सारा जग सोता था,

पर मैं, यूँ ही अनायास,

मुरझाया उदास,

तकता था कभी समय, कभी आकाश को

रे गगन, काश तुझे भी समय का भास हो ।

रात्रि अब युवा थी दो पहर

पर दूर उतनी ही लग रही थी अब भी सहर,

सुबह का बेसब्र इंतज़ार करता था,

पर दूर थी सुबह ये सोच डरता था,

एक रात, यूँ ही अनायास ।

सुबह झट हर लेगी मेरे संताप को,

निशा-भैरवी काल देवी के वीभत्स प्रलाप को,

सवेरा अब मोक्ष-पल जान पड़ता था,

पल-पल घड़ी की ओर ही ताकता था,

एक रात, यूँ ही अनायास।

अंततः हुआ वह भी जिसका मुझे इंतजार था,

सूर्यदेव निकले, जग खग-कोलाहल से गुलज़ार था,

चहकती थी दुनिया, चलती थी दुनिया,

हर्षित हो बार-बार हँसती थी दुनिया,

हुआ वह सब जो रोज़ होता था,

पर मेरा विकल मन अब भी रोता था,

सूरज के आगमन में (हाय!) कुछ विशेष नहीं था,

मेरे लिए अब कोई पल शेष नहीं था

क्यों सूरज का आना भी मुझे संतप्त कर गया,

राह जिसकी तकता था, वही सवेरा देख मैं डर गया।

एक रात यूँ ही अनायास,

मैं- मुरझाया और उदास ।

~ प्रशान्त (२१.१०.१९९५, धनतेरस रात्रि 1 बजे)

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