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लेख
उठना, खपना, खाना, सोना - क्या यही जीवन है? || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
8 मिनट
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प्रश्नकर्ता: मैं सुबह उठता हूँ, अपना काम करता हूँ और रात को खाकर सो जाता हूँ, क्या यही जीवन है? नहीं तो क्या? मुझे इसके सिवा कुछ दिखाई ही नहीं देता, कृपया मार्गदर्शन करे ।

आचार्य प्रशांत: किनका है? न मैं खाने की चीज़ हूँ न मेरे बगल में सोते हो अगर तुमको खाने और सोने के अलावा कुछ दिखायी ही नहीं देता तो मेरे सामने क्या कर रहे हो? तुम्हारे मुताबिक तुम्हारी ज़िंदगी में दो ही चीज़ें हैं— खाना और सोना। अगर तुम्हारी जिंदगी में यही दो चीज़ें हैं तो मैं क्या हूँ? दाल-चावल या बिस्तर-बिछौना, मेरे साथ क्या कर रहे हो?

भाई, तुम इन्हीं दो जगहों पर पाए जाते हो। खाते हो,सोते हो और काम करते हो। न मेरा रिश्ता तुम्हारे काम से है, न मैं तुम्हारी थाली-कटोरी हूँ,न मैं तुम्हारी चादर-तकिया हूँ तो यहाँ क्या कर रहे हो? ज़बरदस्ती का झूठ बोलते हो कि साहब,मेरी ज़िंदगी में तो काम के अलावा और खाने के अलावा और सोने के अलावा कुछ है ही नहीं।

इन तीनों के अलावा तुम्हारी ज़िंदगी में एक इतना बड़ा छेद है, एक खोखलापन, एक विराना, सन्नाटा और उसी को भरने के लिये, उसी के दुखसे प्रेरित होकर तुम यहाँ अभी आये हो सामने मेरे। उसकी बात क्यों नहीं कर रहे हैं? अपने प्रश्न को ही देख लो न, तुमने कहा, ‘काम है, खाना है, सोना है। आचार्य जी, इसके अलावा भी कुछ है क्या या यही है?’ तो इन तीन के अलावा क्या है तुम्हारे पास? एक सवाल।

देख नहीं रहे हो। सवाल को देखो अपने। ‘आचार्य जी,काम, खाना, सोना इनके अलावा भी कुछ है क्या? आचार्य जी या जीवन इतना ही है।’ तो इन तीन के अलावा क्या है? एक सवाल। उसी सवाल का नाम है— खोखलापन। जीवन नहीं है, यक्ष प्रश्न है।

यह तो हो गई क्योंकि यह जो तीन तुमने बातें बतायी इनसे दिल भरता है किसी का? काम किया, खाए, सो गये। इन तीन के अलावा बहुत कुछ है जो खाली रह जाता है पर कहोगे भी नहीं कि ज़िंदगी खाली है।कहोगे भी नहीं कि यह सबकुछ चल रहा होता है बाहर-बाहर और भीतर-भीतर तो रो रहे होते हैं।उसका नाम नहीं लिया।कह दिया, ‘जीवन में यही तीन चीज़ें हैं।’

नहीं बाबा, इन तीन के अलावा भी तुम्हारे पास बहुत कुछ है, सूनापन है, बेचैनी है,तनहाई है, तड़प है, उजाड़ है। उसका नाम क्यों नहीं लेते? बैल थोड़े ही हो। यह तो ज़िंदगी किसकी होती है? बैल की। वो काम करता है, खाता है, सोता है। फिर उठता है तो वो फिर काम करता है, खाता है, सोता है। बैल हो? तुम बैल होते तो कोई दिक्कत ही नहीं थी क्योंकि बैलों को इस ज़िंदगी से बहुत समस्या नहीं होती।बैल कहते हैं, ‘ठीक है, यह सब ठीक है। खाना बताओ, खाना ठीक है? मेहनत तो करा ली आठ घंटे, खाना दिखाओ खाना।’

खाना अगर ठीक है तो बैल दिन भर की मेहनत भुला सकता है और सोने को उसको बढ़िया मिलना चाहिए।यह नहीं कि फिर रात में कोई आकर के उसको चिकोटी काट रहा है। खाएगा और बिलकुल तबीयत से सोएगा । बैल हो! बैल बुद्धि हो! तो बैलों जैसा सवाल क्यों पूछ रहे हो?

आदमी इसीलिए होता है कि काम करे, खाए, सो जाए? हाँ, मैं समझता हूँ कि अधिकांश उदाहरण जो अपने आसपास देखते हो वो ऐसे ही हैं। उनकी पूरी ज़िंदगी ऐसी ही बीत रही है, ऐसी ही बीती है और बहुत ऐसे हैं जो साठ साल, अस्सी साल ऐसी ही ज़िंदगी बिताकर मर भी गए। वो क्या करते हैं कुल? काम करते हैं, खाते हैं, सोते हैं। इसमें थोड़ा जोड़ दो,थोड़ा घटा दो। वो कुछ इसके अलावा अपने ही जैसे पैदा भी कर देते हैं।यह अतिरिक्त काम हुआ और कई बार अगर वो घूसखोर, बेईमान किस्म के हुए तो वो बिना काम करें ही खाते हैं और सोते हैं।

तो वो जो मूल कहानी है उसके थोड़े बहुत वेरिएशन्स (विविधताएँ) होते रहते हैं लेकिन मूल कहानी अपनी जगह टिकी रहती है, क्या? खाना, काम करना, सोना तो दुनिया भर में ऐसे ही लोगों को देख रहे हो जो यही करते हैं तो तुमको लगा मुझे भी ऐसे ही जीना चाहिए।वैसे ही जीने लग गये। अब वैसे ही जी रहे हो तो मुँह उतरा रहता है तो आगे कह रहे हो, ‘आचार्य जी, यही है सब कुछ?’ ख़ुद ही जानते हो क्या है, क्या नहीं है, मुझसे क्यों पूछ रहे हो?

तुम आनंद में हो? फिर! मैं बोल भी दूँ, ‘हाँ,ऐसा ही है सब कुछ। यही तो करना होता है। दबा के काम करो, पेल के खाओ और गधे-घोड़े बेचकर सो जाओ।’ तो तृप्ति हो जाएगी तुमको? हाँ, मैंने तुम्हें अपनी ओर से भी दे दी सहमति, यही करो, तो? बैल की बात दूसरी, आदमी की बात दूसरी ।

आदमी मूल में चेतना मात्र है और वो चेतना चाहो तो कह लो ऊर्ध्वगमन माँगती है, उठना माँगती है, फैलाव माँगती है और चाहे तो यह कह लो कि वो चेतना विलुप्ति माँगती है, मिटना माँगती है। जिस भी तरह कहना चाहो अभिव्यक्त कर लो। बाहरी श्रम इत्यादि ज़रूरी है शरीर चलाने को, पेट चलाने को,कपड़े के लिए, घर के लिए, इन सब चीज़ों के लिए बाहरी श्रम करना पड़ता है।

बैल भी करता है, पेट ही चलाने को श्रम करता है लेकिन आदमी को एक आंतरिक श्रम भी करना पड़ता है वो बैल को नहीं करना पड़ता। आदमी की ज़िम्मेदारी बैल से कहीं ज़्यादा है, बहुत आगे की है। बैल को सिर्फ़ पेट चलाना है,आदमी को अपनी चेतना भी चलानी है। बैल को फिक्र करनी है सिर्फ़ पेट की आदमी को अपनी चेतना की फिक्र करनी है। और चेतना की फिक्र करना ज़्यादा दुसाध्य काम है, ज़्यादा दुष्कर है लेकिन वही फिर तुम्हारा धर्म भी है, उसके बिना जी नहीं पाओगे।

जो दिन भर मेहनत करता हो सिर्फ़ पेट चलाने के लिए वो बैल समान निरा पशु है और पेट माने सिर्फ पेट ही नहीं होता। पेट में यह सब भी आता है कि कोई मेहनत कर रहा है कि बड़ा घर बनवा लूँ, गाड़ी खरीद लूँ, गहना-जेवर खरीद लूँ, भविष्य के लिए पैसा जोड़ लूँ, कारोबार का विस्तार कर लूँ। कोई इन सब कामों के लिए भी अगर दिन भर मेहनत कर रहा है तो वो पेट चलाने की ही कोटि में ही आती हैं सारी चीज़ें ।मैं कह रहा हूँ यह आदमी बैल जैसा जीवन जी रहा है, यह कभी चैन नहीं पाएगा।

आदमी को शरीर वाली मेहनत तो करनी ही है, शरीर से आगे का भी उसका लक्ष्य होना चाहिए। शरीर से आगे की भी उसको मेहनत करनी पड़ेगी। वो मेहनत तुम कर नहीं रहे, वो जो दूसरा ज़्यादा महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट है, उपक्रम है उसको तुम समय और ध्यान दे नहीं रहे । सारा समय तुम्हारा जा रहा है बस कमाने में और खाने में और सोने में। नरक और किसको कहते है? तुम्हें क्या लगता है, नरक वो जगह है जहाँ बड़े-बड़े कड़ाहों में तेल उबल रहा है और लोग उसमें पकोड़ों की तरह तले जा रहे हैं? न ।

नरक वो जगह है जहाँ सब खूब मेहनत करते हैं, कमाते हैं, खाते हैं और सो जाते हैं। नरक बड़ी साफ-सुथरी जगह है, भाई।नरक में बड़े-बड़े आलीशान घर हैं और नरक में खूब मेहनती लोग हैं जो जीवन में तरक्की कर रहे हैं। उनकी तरक्की का मापदंड क्या होता है? एक गाड़ी और खरीद ली, एक फैक्टरी और डाल ली, एक शादी और कर ली, यह उनकी तरक्की होती है।

नरक की वो छवि मत रखना कि नरक में यमदूत घूम रहे होते हैं जो तुमको पाँव पकड़ के उठा देते हैं और तुम्हारी मुंडी किसी गंदी नाली में डाल देते हैं। कहते हैं,‘अब साँस लो वही पर।’नरक में यह सब होता ही नहीं।नरक तो किसी बड़े शहर की पॉश कॉलोनी जैसा होता है जहाँ सब लोग खूब मेहनत करते हैं, कमाते हैं, खाते हैं और सो जाते हैं। यह नरक है।

नरक वो जगह है जहाँ आदमी ने बैल का मुखौटा डाल रखा है, जहाँ आदमी बैल बना घूमता है उस जगह को कहते है नरक।जहाँ आदमी की ज़िंदगी का कुल लक्ष्य बस भौतिक तरक्की हो उस जगह को कहते है नरक।

देखो कि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तुमको कितना चाहिए।कम-से-कम समय में अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करो और अपना बाकी समय, ध्यान और संसाधन किसी ऊँचे लक्ष्य में लगाओ। अपने छोटे स्वार्थों से आगे के किसी लक्ष्य में अपना समय लगाओ, अपने संसाधन लगाओ, तब इन्सान कहलाओगे।

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