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लेख
तुम्हारा स्वरुप क्या? तुम्हें विश्राम कहाँ?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
23 मिनट
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कुत्रापिन जिहासास्ति नाशो वापि न कुत्रचित्।

आत्मारामस्यधीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ , श्लोक २३)

अनुवाद: जिसका अंत:करण शीतल एवं स्वच्छ है, वो आत्माराम है। उस धीरपुरुष की न तो किसी वस्तु के त्याग की इच्छा होती है, और न तो कुछ पाने की आशा।

प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।

प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ , श्लोक २४)

अनुवाद: जिस धीर का चित्त स्वभाव से ही शून्य निर्विषय हैं, वह साधारण पुरुष के समान प्रारब्धवश बहुत से काम करता रहता है परंतु न उसे मान होता है और न ही अपमान।

कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा।

इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोतिन॥

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ , श्लोक २५ )

अनुवाद: यह कर्म शरीर ने किया है, मैंने नहीं। मैं तो शुद्ध स्वरूप हूं। इस प्रकार जिसने निश्चय कर लिया है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता।

अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।

जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपिशोभते॥

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ , श्लोक २६)

अनुवाद: सुखी एवं श्रीमान जीवनमुक्त पुरुष, सत्यवादी विषयी के समान काम करता है, परंतु विषयी नहीं होता। यह तो संसार का कार्य करता हुआ भी अतिशय शोभा को प्राप्त होता है।

नाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।

न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति।।

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ , श्लोक २७)

अनुवाद: वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है, न देखता है। वो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है।

प्रश्नकर्ता: अपने स्वरूप में विश्राम पाना। तो बाकी सब कुछ तभी संभव होगा जब यह होगा, इसका अर्थ क्या हुआ?

आचार्य प्रशांत: अपने स्वरूप में विश्राम पाने का अर्थ होता है थकान से आकर्षण का समाप्त हो जाना। हम चैन क्यों नहीं पाते? हम विश्राम क्यों नहीं पाते? क्योंकि बात विश्राम पाने की है ही नहीं। बात इसकी है कि हमें बेचैनी का बड़ा लालच रहता है। हमें बेचैनी की बड़ी कशिश रहती है।

आप कभी किसी बदहवास आदमी को देखिए जो क्रोध में आग बबूला हो और जिस मुद्दे पर वह गरमा रहा हो, उस मुद्दे से आपका कोई लेना-देना न हो। आप उसे मात्र दूर से देख रहे हो। और जब आप देखते जा रहे हो और वो उबलता जा रहा है, उफनता जा रहा है, उसके मुंह से झाग निकल रहा हैं, वो गालियां बक रहा है, वो पांव पटक रहा है, वो घुसे चला आ रहा है। आपको दिखाई नहीं देता कि वो जो कर रहा है, वो आवश्यक नहीं है। आपको दिखाई नहीं देता कि वो जो कुछ कर रहा है, वो अनिवार्य नहीं है। वो कर रहा है ऐसा संकल्पवश। वो कर रहा है वैसा हठवश। वो करे जा रहा है कुछ ऐसा जो अनावश्यक हैं। वो न भी करे वो सब कुछ जो वो कर रहा है तो चलेगा। चलेगा कि नहीं चलेगा?

कोई पागल हुए जा रहा है, उपद्रव करे जा रहा है और उसकी जो क्रोध की उर्जा है वो थमने में नहीं आ रही है। वो इधर से उधर कूद रहा है। और उसको देख करके आपको कौंधेगा नहीं कि ये जो कुछ कर रहा है, ये ऊपरी बात है, ये अतिरिक्त बात है। ये ज़रूरी नहीं है। वो न चाहे तो ये सब न हो। तो बेचैनी हमारी चाहत है। हम न चाहे तो वो न हो।

हमारे जीवन में जो भी कुछ दुःख रूप हैं वो हमारी चाहत हैं। हम न चाहे तो वो सब न हो; हम चाहते हैं वो। और उसका सबसे प्रत्यक्ष सजीव प्रमाण कोई उत्तेजित व्यक्ति होता है।

आप कोई नाटक या फ़िल्म वगैराह ही देख लो, जिसमें कोई घरेलू लड़ाई चल रही हो। चार-पांच लोग तर्क में गुत्थम-गुत्था हो रहे हों। पर आपको साफ़ दिखाई देगा कि ये जो कुछ हो रहा है, ये ग़ैर ज़रूरी है। ये यूं ही है। और फिर भी हुए जा रहा है, हुए जा रहा है। बहस हो सकता है बीस मिनट से चल रही हो। ज़रूरी तो नहीं था न कि चले।

जो कुछ अनावश्यक है उसको अनावश्यक जान लेना ही मुक्ति हैं।

गुर्जिएफ़ का इतना सुंदर वचन है, “That which is needless is sin.”

जो ज़रूरी नहीं है, फ़िर भी है उसे ही पाप कहते हैं।

कोई आपके सामने बैठ-बैठ के ज़ार-ज़ार रोता हो। आपको नहीं प्रकट होगा कि ये आवश्यक तो नहीं था कि ये ऐसे रोए। और वो जैसे रो रहा है साफ़ है कि उसका दिल टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है। उसे अनुभव हो रहा है महान् दुःख। पर आपको दिखेगा नहीं कि ये जो महान् दुःख है ये वैकल्पिक है। ये पकड़ा हुआ है, ये चुना हुआ है।

तो न चुनो दुःखी होना तो तुम दुःखी हो नहीं सकते। दुखी होने में ही तुम्हारी रज़ामंदी हैं, तुम्हारी सहमति है। तुम ये कर रहे हो, ये हो नहीं रहा। क्योंकि तुम कर रहे हो इसलिए तुम रोक भी सकते हो, तुम छोड़ भी सकते हो, तुम त्याग सकते हो, तुम्हारी ऊर्जा है जो तुम्हारे आंसुओं में बह रही है। तुम्हारी सहमति है जो तुम्हारे अपशब्दों में प्रकट हो रही है। तुम्हारी रज़ामंदी है जो तुम्हारी बेचैनी के रूप उफना रही है।

स्वरूप में स्थापित होने का मतलब ये होता है कि ये जितने कुरूप हैं इनकी निर्सारता दिख गई है। इनकी व्यर्थता, खोखलापन दिख गया है। हमें अब मज़ा ही नहीं आता उफनाने में, पांव पटकने में। हमें अब कोई सार ही नहीं दिखता बेचैन हो जाने में। परमात्मा समझ लीजिए कि एक लत है। गलत नहीं होगा बहुत अगर हम परमात्मा को एक गहरा नशा बोलें। जैसे मछली को पानी की लत लग गई हो और वो कहती हो, बाहर आना मंज़ूर नहीं है। ऐसा होता है अष्टावक्र का स्थतज्ञ।

वो प्रज्ञ में, प्रज्ञा में स्थित हो गया है, जैसे मछली सागर में स्थित हो जाती हैं। उसे अब बाहर आने का मन ही नहीं करता। मन ऐसा हो जाए जिसे अब बेचैनी गंवारा ही न हो। मन अब ऐसा हो जाए जिसे अब दुःख में रस ही न आता हो। मन ऐसा हो जाए जो अब तड़प को रज़ामंदी ही न दे। जबतक मन वैसा नहीं होता, जब तक मन मज़े पाता है तड़पने में तबतक आप तड़पते ही रहोगे। और जो तड़प रहा हो तो जान लेना कि वो तड़पने में कोई घिनौना रस पा रहा है। जबतक आप को बहुत ही दुर्गंधयुक्त मज़ा न आ रहा हो, आप क्यों इतने कष्ट को गले लगाए रहोगे।

स्वरूप में स्थित होने का मतलब है कि स्वरूप के अलावा बाकी जो कुछ है, हमें वो चाहिए नहीं। हमें वो अच्छा नहीं लगता। जैसे मछली कहे सागर के अलावा जो कुछ है, वहां भेजा तो मर जाएंगे। सागर से बाहर अगर निकाला तो जान दे देंगे। यही स्थितप्रज्ञ है। वो कहते हैं प्रज्ञा में स्थित हैं। प्रज्ञा माने आत्मा।

प्रज्ञानम् ब्रह्म:

प्रज्ञान ही ब्रह्म है। प्रज्ञा में स्थित हैं और अगर प्रज्ञा से बाहर निकाला तो जान देना मंज़ूर है। जान देना मंज़ूर है, बेचैन होना मंज़ूर नहीं है। ये होता है स्वरूप में स्थित होना।

वो ये नहीं कह रहा कि मुझे अशांति के माहौल में मत डालो। वो कह रहा है ठीक है, माहौल तो प्रारब्ध की बात है। पर माहौल कैसा भी रहे, प्रारब्ध कुछ भी रहे हमें बेचैन होना मंज़ूर नहीं है। माहौल बेचैनी का हो सकता है, हम बेचैन नहीं हो जाएंगे। और माहौल अगर बहुत ही संक्रामक हो तो ये भी हो सकता है कि हम माहौल में हंस भी लें, रो भी लें। लेकिन हंस लें चाहे रो लें तब भी हम बेचैन नहीं हो जाएंगे। माहौल बहुत संक्रामक हो तो ये भी हो सकता है कि हम बेचैनी प्रदर्शित भी कर लें। पर हम जब बेचैनी दर्शा भी रहे होंगे तब भी हम बेचैन नहीं हो जाएंगे। ये होता है स्वरूप में स्थित होना।

हमें अब अच्छा ही नहीं लगता बेवकूफीयों में पड़ना। आप बेवकूफीयों में पड़ते ही इसलिए हो क्योंकि आपको अभी बेवकूफीयों से उम्मीद बंधी हुई है। आपको अभी ज़रा अच्छा लगता है। प्रज्ञा तभी उत्तरी जब बेवकूफीयों में जाना आपको बेवकूफी लगने लगी। बेवकूफ वो हैं जिसको बेवकूफियों में जाना अभी अक्लमंदी लगती है। हम बेवकूफियों में शामिल ही इसलिए होते हैं क्योंकि हमें लग रहा होता है इसमें कोई अक्लमंदी की बात है।

जिसने बेवकूफीयों को बेवकूफी जान लिया वो स्वरूप में स्थापित हो गया।

प्र: जब तक राग-द्वेष हैं तब तक ये संभव नहीं है।

आचार्य: कह सकते हैं। पर न आप राग कहिए, न द्वेष कहिए। आप बस छोटी सी बात जान लीजिए; आत्मा स्वभाव है, आत्मा नियति है, आत्मा घर है, आत्मा आपके सोने की जगह है। वहां से आपको आपकी मर्ज़ी के बिना कोई नहीं हिलाता। आप जब रज़ामंदी दिखाते हो तब आप बेचैनी पाते हो। आत्मा चैन है। बेचैन होने के लिए आप कहते हो कि अब मैं बेघर होना चाहता हूं। जब आप बेघर होना चाहते हो सिर्फ तभी आप बेघर हो जाते हो। कोई नहीं आपको आपके स्वभाव से खींच सकता बाहर, जब तक आप न कहो कि स्वभाव बड़ा उबाऊ हो गया है। ज़रा इधर-उधर झांक कर के आए। कहीं कुछ और पा जाएँ क्या पता।

आत्मा के अतिरिक्त, सत्य और शांति के अतिरिक्त और कुछ आवश्यक नहीं है। आवश्यक से अर्थ होता है वो जो सत् हो, वो जिसका कोई विकल्प ही न हो। वो जो नियति हो, वो जो असीम हो, सिर्फ़ वही आवश्यक है। अवश्य, जो है ही, जिसके होने का कोई विकल्प नहीं, जिसके न होने की कोई संभावना नहीं, उसी में रहिए। और जो कुछ ऐसा हो कि न हो तो भी चलेगा, उसको न ही होने दीजिए।

भक्ति साहित्य में सत्य को गुरु को अक्सर पारस कहा गया है। पारस माने वो जो लोहे को सोना बना दे। तो उसी उपमा को आप ज़रा आगे बढ़ाएंगे, कुछ और बात भी खुलेगी। संसार, वृत्तियां ये सब चुंबक हैं। पर चुंबक भी आपको खींच तभी तक पाता है जब तक आप लोहे हो। आप लोहा न हो तो चुंबक आपका क्या कर लेगा? कैसे खींच लेगा?

तो ज्ञानी वो, धीर वो, जो अब लोहा रहा ही न हो। जो गुरु के और सत्य के संपर्क में आकर के सोना हो गया हो। अब लगे होंगे चारों ओर चुंबक, आपको इच्छा ही नहीं हो रही उधर जाने की। कुछ विचार है जो अब उठते ही नहीं। विचारों के दमन से काम नहीं चलेगा। विचारों के नियंत्रण से काम नहीं चलेगा। विचारों से आज़ादी तब मिली जब कुछ विचार हैं जो अब उठते ही नहीं; जैसे क्रोध का विचार, शोक का विचार। और जैसे-जैसे आप कहते हो जिस विचार में क्रोध शामिल हो, जिस विचार में शोक शामिल हो, दुःख शामिल हो, मुझे वो उठता ही नहीं, वैसे-वैसे आप पाते हो आप अधिकाधिक विचारों से मुक्त होते जाते हैं। क्योंकि विचार का मतलब यही है कि उसे किसी न किसी कोने में दुःख और अपूर्णता तो पड़ा ही होगा। तो आपको बहुत सोचने इत्यादि की झंझट बचती ही नहीं।

आध्यात्मिकता का बड़े से बड़ा लाभ ये होता है कि बहुत सारे ख़्याल जो पहले आते थे, अब आपको आने ही बंद हो जाएंगे। अगर आप उतरे हैं आध्यात्मिक गहराई से तो ये होगा। ऐसा नहीं कि और नए दैवीय ख़्याल आने लगेंगे, न! बस ऐसा है कि बहुत सारे ख़्याल जो दूसरे लोगों को आते हैं, वो आपको आएंगे ही नहीं। दूसरे आपके पास आएंगे और वो ताज़्जुब दिखाएंगे। वो कहेंगे भाई मुझे भविष्य से डर लगता है। तुझे नहीं लगता? आप कहेंगे हम ये भी नहीं कह सकते लगता है, हम ये भी नहीं कह सकते कि नहीं लगता है। बस हम इस बारे में कभी सोचते नहीं। वो कहेंगे तो सोचो ना, ज़रूरी है। आप कहेंगे कौन सोचे? और जब सोच उठ ही नहीं रही तो क्या ज़बरदस्ती सोचे। ये होती है आध्यात्मिकता। ये होते हैं अष्टावक्र।

जो व्यर्थ है, जो अनावश्यक है वो उठना ही बंद हो जाता है। इसी को कहते हैं चित्त की वृत्तियों का शमित हो जाना। जैसे अग्निशमन कर दिया गया हो; अब लपटें उठती ही नहीं। ऐसा नहीं हुआ है कि उठती थी और हम उन पर कंबल डाल आए हैं। ऐसा भी नहीं हुआ है कि उठती हैं और हम कुछ उपाय कर लेते हैं। क्योंकि जब विचार उठ गया, कौंध गया तो उसके बाद तो आप मजबूर हो। एक बार कोई ख़्याल आ गया तो नचाएगा। मुक्ति आपकी तभी है जब ख्याल आए ही न। ये होता है स्वरूप में स्थापित होना।

हमें ख़्याल में मज़ा ही नहीं आता। ख़्याल हमें अब आता ही नहीं। जान गया है ख़्याल कि आएगा तो अब उसे पोषण नहीं मिलेगा। जान गया है ख़्याल कि आएगा तो कोई उसका स्वागत करने वाला कोई नहीं बैठा है; तो आता ही नहीं।

हम यूं ही बुद्धू से बैठे रहते हैं, पर ख़्याल आता ही नहीं। और दुनिया बुद्धू ही कहेगी जब ख़्याल न उठें। आपके सामने कोई ललचाने वाली चीज़ ला दी गई हैं और आपको ख़्याल ही नहीं उठ रहा। लालच ख़्याल ही होता है न? आपको ख़्याल ही नहीं उठ रहा लालच का। दुनिया कहेगी बुद्धू और आप बुद्धू की तरह बैठे भी रहोगे। और वो जो बड़ी ललचाऊ चीज़ थी आकर्षक व्यक्ति, वस्तु, भविष्य, कुछ भी ऐसा जो लोभित करता हो, वो गुज़र गई और आप बुद्धू की तरह बैठे रहे। आपको ख़्याल ही नहीं आया कि ये बड़ी आकर्षक है। अब समझ लो कि संसार से मुक्त हो गए। संसार आपको ललचा ही नहीं पा रहा है। चुंबक आ रहे हैं पर आप उनकी तरफ खींच नहीं रहे। क्योंकि आप लोहे से सोना हो चुके हो, तो चुंबक व्यर्थ जा रहे हैं।

संसार बेचारा बड़ा मजबूर हैं। उसके पास सिर्फ़ चुंबक हैं। और संसार बहुत सामर्थ्यशाली है क्योंकि उसके पास चुंबक है। आप जबतक लोहे हो, संसार आपके लिए सामर्थ्यशाली है। आप सोना हो जाओ, संसार के बड़े से बड़े चुंबक आपके सामने विफल हैं। आएंगे आकर्षण, आएंगे प्रलोभन और आप उनको यूं ताक रहे हो। प्रलोभन भी सकपका जाएंगे, बोलेंगे बड़ा अपमान हुआ है हमारा।

जैसे ऋषियों के सामने आती थी ना अप्सराएं, ये वही बात है। वो ऋषि बुद्धू की तरह उसको देख रहे हैं। वो बेचारी जी तोड़ कोशिश कर रही है। ऊपर से उसको इंद्र इत्यादि देहाड़ी देकर भेजते थे। कहते थे जितना दिया है उतने का काम करके आना। इलेक्ट्रोमैग्नेट हैं। उसका करंट बढ़ाया जा रहा है। उसका वोल्टेज बढ़ाया जा रहा है। और कितना भी तुम बढ़ा लो इलेक्ट्रोमैग्नेट के ज़ोर को, सोने पर क्या असर पड़ जाना है। ऐसी स्थिति हो जाती है उसकी जो स्वरूप में स्थापित होता है।

वो कहानी है ना की अप्सरा आई एक। अब ऋषि बैठे थे, अपना कुछ कर रहे थे। पान चबा रहे होंगे, जो भी। कुछ ज़रूरी थोड़ी ही है हर समय पढ़ ही रहे हो। तुमने बड़ी छवि बना रखी है कि पढ़ ही रहे होते हैं। दातून कर रहे थे, कुछ कर रहे थे, बैठे थे। अब वो आई और पहले तो नाचने लगी। उन्होंने कहा बढ़िया है, नाच। हमारी गईया भी नाचती है, तू भी नाच। तो वो मुस्कुरा दिए होंगे तो उसका ज़रा सा प्रोत्साहन मिल गया। उसको लगा मुस्कुरा रहा है तो फंस रहा है। उसको नहीं पता था कि दांतुन कर रहे हैं इसलिए दाँत दिखा रहे हैं। सुबह-सुबह का वक्त था, तब तो मज़े से नाची। फ़िर धूप चढ़ने लगी, अब उसके पसीना छूट रहा है। ऋषि पर कोई अंतर ही नहीं पड़ रहा। वो कभी मुंह धो रहे हैं, कभी नाश्ता कर रहे हैं, कभी पांव खुजा रहे हैं, कभी बालों में तेल चल रहा है, कभी कोई आया होगा, शिष्य आया होगा, कहा होगा, चल भाई मीच दे। ये सब हो रहा था। तो उसने कपड़े उतारने शुरू किए एक-एक करके। अभी इलेक्ट्रोमैग्नेट का करंट बढ़ाया जा रहा है। कह रहे हैं बढ़िया है, कपड़े उतर रहे हैं पसीना छूट रहा है ना बेचारी के, धूप बढ़ गई है। हर पन्द्रह-बीस मिनट पर एक वस्त्र उतरता जा रहा है। और उधर सूरज चढ़ता जा रहा है। कह रहे हैं ठीक है, अच्छी ही बात है। उन्होंने एक शिष्य को लगा भी दिया जा भाई चल पंखा चला, बेचारी को बहुत गर्मी लग रही है। उतारती गई उतारती गई अंततः उसने जो अंतः वस्त्र थे, वो भी उतार दिए। पूरी नंगी खड़ी हो गई। कह रहे हैं बढ़िया है, हमारे यहां के सारे जानवर तेरे ही जैसे लगते हैं। कतई नंगे हैं वो भी। अब उस बेचारी के पास उतारने को कुछ बचा ही नहीं था। तो ऋषि बोले ये जो तुमने खाल ओढ़ रखी है, ये भी उतार दे। ये भी तो वस्त्र ही है। बड़ा अपमान लगता है फ़िर अप्सराओं को।

संसार की यही स्थिति हो जाती है उसके सामने, जो अपने में स्थापित हो गया है। वो आ कर के प्रलोभन बढ़ाता जा रहा है, बढ़ाता जा रहा है और जो स्थिप्रज्ञ हैं वो बस यूं ही दातून चबाता जा रहा है, चबाता जा रहा है। जैसे कोई आ कर के बोली लगा रहा हो कि बताओ अपने दाम। हज़ार रुपया, तुम कह रहे हो हां! बढ़िया-बढ़िया तीन ज़ीरो और बताओ।

कह रहे हैं लाख, बोल रहे हो हां, एक आद शून्य और बढ़ाएं, बढ़िया लग रहा है। और वो बढ़ाता जा रहा है, बढ़ाता जा रहा है और तुम मुस्कुराते जा रहे हो, मुस्कुराते जा रहे हो। ऐसे के सामने संसार के ऊपर दो ही प्रतिक्रियाएं ही होती हैं। या तो संसार की फ़ज़ीहत हो जाती है या वो कुछ सीख लेता है।

ज्ञानी के सामने, गुरु के सामने जब भी आओगे तुम्हारे ऊपर भी दो ही असर पड़ेंगे। या तो पाओगे कि बड़े अपमानित हुए या पाओगे कुछ सीख कर गए। और जो गुरु के सामने मान-अपमान रखते हो, कुछ सीख नहीं पाएंगे। क्योंकि गुरु के सामने होना वास्तव में बहुत बड़े अपमान की बात होती है। वो गुरु है और तुम नहीं हो। इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है। तुम में भी बीज वही, तुम्हारा भी मूल वही। लेकिन वो अभिव्यक्त है और तुम छुपे हुए हो। वो जो है वो तुम भी हो सकते थे। पर तुमने अपनी बेवकूफीयों के चलते अवसर अभी तक गंवाया है। बात बड़े अपमान की लगती है पर या तो अपमानित हो लो या सीख लो। जिन्हें अपमानित होना बहुत बुरा लगता है, वो सीख नहीं पाएंगे। और जो सीख रहे हैं उन्हें फ़िर अपमान का ख्याल ही नहीं आएगा।

प्र: न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है, न देखता है माने?

आचार्य: न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है, न देखता है। जानना माने ज्ञान से उसे अब कुछ लेना-देना नहीं है। ज्ञान के पीछे भी आप यही सोच कर भागते हो कि ज्ञान आपको तार देगा। कि ज्ञान आपको मुक्ति दे देगा। देखा नहीं है कि लोग कैसी-कैसी बातों की सूचना इकट्ठा करते रहते हैं। और वो सूचना न मिले तो कैसे कसमसा जाते हैं।

आप मुक्त होते जा रहे हो इसका एक प्रमाण यह होगा कि आपको व्यर्थ बातों का संकलन करने में रुचि नहीं बचेगी। कम होती जाएगी, कम होती जाएगी। कोई आपको आकर के फ़िज़ूल की बातें भी बताना शुरु कर देगा तो उबासी आने लगेगी। आप कहोगे बहुत उब रहा हूं भाई। छोड़ दे, माफ़ कर दे। ये सब क्यों बता रहा है? मुझे ये सब सुनने में कोई मज़ा नहीं आ रहा। और दूसरी ओर आप पाओगे कि बहुत लोग हैं जिनको उन्हीं व्यर्थ की बातों में ऐसा रस आता है कि वाह! ये आपकी मुक्ति का एक सबूत होगा। किसी का फ़ोन आएगा और वो लगा हुआ है अपनी रामकथा सुनाने में आपको। और आप कह रहे हो क्यों? इसमें क्या रखा है? ये बता ही क्यों रहे हो? आप कोई फ़िल्म देखने जाओगे और उसकी कहानी शुरू होगी और पन्द्रह मिनट बाद ही आप कहोगे बाहर चलें क्या? खत्म करें क्या? इससे भला तो सो ही जाएं। आप कहोगे ये कहानी मैं देखूं ही क्यों? इस कहानी में कुछ ऐसा नहीं जो पूर्ति दे। कुछ ऐसा नहीं जो सुंदर हो। ये अनर्गल प्रलाप हैं मेरे सामने। मुझे इसको देखने में कोई रस ही नहीं, कोई रुचि ही नहीं। ये लक्षण होंगे इस बात के कि अब कली खिल रही है, फूल बनेगी। आप निकल जाओगे बगल से।

कहते हैं ना; बाज़ार से गुज़रा हूं, खरीदार नहीं हूं। बाजार से कोई दुश्मनी नहीं होगी पर बाज़ार में आप फंस भी नहीं जाओगे। आप बाज़ार से निकल जाओगे। आपकी राह अगर आपको बाज़ार से ले जाती हैं तो आप कहोगे ठीक है, कोई दिक्कत नहीं है। पर हम गुज़र जाएंगे, ये सब सुंदर दुकानें, बैनर, विज्ञापन और मैनुक़ुइन ये हमें खींच ना पाएंगे; हम इन्हें देखेंगे। ऐसा कुछ नहीं है कि हम डरते हैं; हम इन्हें देखेंगे। उनमें कोई सुंदरता होगी तो सरहा भी देंगे। पर ऐसा कुछ नहीं है जैसे चुंबक और लोहे का संबंध हो, कि चुंबक ने लोहे को खींचा और लोहा यूं ही विवश खिंचता चला गया। ऐसा नहीं होगा, अब हम मालिक हैं। स्वरूप में स्थापित होने का अर्थ होता है मालिकियत।

प्र: आचार्य जी, बोध के मार्ग में संकल्प का कितना महत्व है?

आचार्य: देखिए सतही तौर पर देखेंगे तो हर चीज़ का अपना महत्व है। वास्तव में पूछेंगे तो किसी चीज़ का कोई महत्व नहीं है। जो प्राप्त ही हैं उसको पाने में किस का क्या योगदान हो सकता है? आप कह रहे हैं आत्मा में स्थापित होने में संकल्प का क्या रोल है? क्या योगदान है? क्या किरदार है? एक तल पर बहुत बड़ा और वास्तविक तल पर कुछ भी नहीं। वास्तव में जो होता है, वो यूं ही होता है। जो यूं ही हो उसे कृपा कहते हैं, अनुकंपा कहते हैं।

ऊपर-ऊपर से देखेंगे तो लगेगा कि आप के संकल्प की वज़ह से हुआ। गहराई से देखेंगे तो पता लगेगा कि अनुकंपा की वजह से हुआ। और एकदम ही गहरे देखेंगे तो कहेंगे हुआ क्या? जो था वही तो है, कुछ बदला थोड़ी है। जो वास्तविक है उसमें कुछ बदलाव हो कहां सकता है।

आत्मा को पाने जैसी कोई चीज़ होती थोड़ी ही है। आत्मा खोई कब थी? तो ये तो आपके देखने का भेद है। आप कैसे देख रहे हैं? कहां से देख रहे हैं? संकल्पों में यदि आपकी अभी आस्था है तो संकल्पों का आपके लिए महत्व भी है। आस्था से गहरे अगर आप अभी श्रद्धा में पहुंच गए हैं तो फ़िर संकल्पों की नहीं मात्र श्रद्धा की क़ीमत है। आप कहेंगे कृपा से हुआ, मेरे संकल्पों से नहीं; संकल्प व्यर्थ हैं। जब उसकी इच्छा होती है, जब उसकी अनुकंपा गरजती है तब होता है। और श्रद्धा से आगे निकलकर यदि आप शून्यता में विराज गए हैं तो आप कहेंगे क्या होना, क्या हवाना, हुआ क्या?

कबीर कह गए हे ना:

पाया कहे सो बावरा, खोया कहे सो कूर,

पाया-खोया कुछ नहीं, जस का तस भरपूर।

जो कहे पा लिया, वो बावरा है। और जो कहे खो दिया, सो कुत्ता है। न पाया है, न खोया है। पाया-खोया कुछ नहीं जस का तस भरपूर। तो ये आख़री बात होती है। अब क्या संकल्प? संकल्प तो तब हो ना, जब कुछ पाया हो या कुछ खोया हो।

प्र: आचार्य जी, ये हरदम कैसे याद रहे कि यह कर्म मेरे शरीर ने किया है, मैंने नहीं?

आचार्य: देखिए ये बात ना थोड़ी अभाष्य हैं। इस बात को बहुत प्रतिपादित नहीं किया जा सकता कि ये कैसे होता है? हां! जानने वालों ने कुछ बातें देखी हैं तो बता दिया है। उन्होंने कहा है कि सत्संग में रहो तो संभावना बढ़ जाती है। कारण वगैरा तलाशना बड़ा मुश्किल होता है। हां! जब हो जाता है, उसका वृतांत दे दिया जाता है। जब हो गया है तब बता दिया जाता है कैसा है। जो हो गया है तो चीज़ ऐसी है (हाथों से आकृति बनाते हुए)। जो ज्ञानी होता है, वो ऐसा-ऐसा होता है। अष्टावक्र वही तो कर रहे हैं पूरी गीता में। कैसा है, उसका विवरण दे रहे हैं। क्यों है, नहीं बता पा रहे हैं। कभी किसी को अभ्यास से फ़ायदा हो जाता है। कभी भक्ति, कभी ज्ञान, कभी सत्संग, कभी साधना, कभी तपस्या, कभी वैराग्य, तमाम तरीक़े की विधियां हैं। तमाम तरीके के बहाने हैं। तुम्हें जो बहाना अच्छा लगता हो पकड़ लो। कोई ना कोई तो बहाना चाहिए ना, पाए हुए को पाने का। जो बहाना चाहिए वो पकड़ लो। तुम्हें भक्ति जचती है, भक्ति पकड़ लो। तुम्हें साधना रुचती है, साधना पकड़ लो। तुम्हें स्वध्याय रुचता है, स्वध्याय पकड़ लो। तुम्हें सत्संग रुचता है, सत्संग पकड़ लो। तुम्हें जो रूचता है, पकड़ लो पर होना-हवाना कुछ है नहीं। क्योंकि जो होना था, वो तो हो ही चुका है। अब होगा क्या? लेकिन फ़िर भी तुम पकड़ो। क्योंकि हम बहानेबाज़ लोग हैं, हमें बहाने चाहिए। तो अच्छा है कि तुम को एक समुचित बहाना मिले। तुम ले लो कोई बहाना। सुंदर बहाना पकड़ना।

और भी कहा गया है:

न हुआ न हो रहा, न कुछ होवन हार।

कोई घटना न पहले हुई है, न हो रही है, न होगी। ये धारणा ही कि कुछ हो सकता है, व्यर्थ की धारणा है।

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