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सुनना ही मोक्ष है || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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सुनना ही मोक्ष है || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ ॥२॥

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी, अंग ६६०)

वक्ता: सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ|

सुन-सुन कर मैं पार उतर गयी| सुन-सुनकर पार उतर गयी| (‘सुन’ शब्द पर ज़ोर देते हुए)

क्या अर्थ है इसका? सुन-सुनकर तर गयी|

सुनने का अर्थ है- निर्विकल्प भाव से सुनना| आँखों के पास हमेशा विकल्प होता है, आँखों के पास हमेशा विकल्प है, देखेंगे या नहीं देखेंगे| कानों में और आँखों में एक मूल अंतर है| आँखें कर्ताभाव से चलती हैं, जो चाहोगे वो देखेंगी, और जब तक चाहोगे तभी तक देखेंगी| तुम आँख घुमा सकते हो, तुम पलकें भी बंद कर सकते हो| कानों में ऐसा कोई विकल्प तुम्हें उपलब्ध ही नहीं है|

सुनने का अर्थ है, ‘मैं तो बैठ गया हूँ| मैं तो स्थिर हो गया हूँ| अब जो है, वो मुझसे गुज़र रहा है’| सुनने का अर्थ है, ‘मुझे कुछ करना नहीं है क्योंकि मैं करूँगा तो और गड़बड़ होगी’| उसी ‘करने’ से तो मुक्त होना है| ‘मैं तो बस हूँ, मौजूद हूँ’, जिसे ज़ेन में कहते हैं, ‘खाली बाँस हूँ मैं और मुझसे गुज़र रही है आवाज़| मुझसे गुज़र रही है आवाज़, मैं कुछ कर नहीं रहा’, यह है ‘सुनना’|

‘सुन-सुनकर पार उतर गयी’, इससे अर्थ इतना ही समझिये कि सुनना ही पार उतरना है, सुनना माध्यम नहीं है, सुनना ही अंत है, सुनना ही शिखर है| सुनने ‘से’ कुछ नहीं हो जाएगा, सुनना ही अंतिम बात है| अगर सुन लिया, तो हो गया| कब? तभी, उसके बाद नहीं कि सुना अभी और भविष्य में लाभ होगा| न, सुना नहीं कि काम हुआ| तभी कह रहा हूँ कि प्रयोगशाला है, सुनो| लाभ भविष्य में नहीं है, अभी है|

सुनने का अर्थ है, ‘अपने पूर्वाग्रहों से खाली हूँ मैं, उनसे चिपका नहीं हूँ, उन पर पकड़ नहीं बना रखी है, उन्हें महत्व नहीं दे रखा, उन्हें गंभीरता से नहीं लिया’| सुनने का अर्थ है, ‘पहचानों से खाली हूँ’|

कोई पहचान रखकर सुन नहीं पाओगे| सुनने के लिए तुम्हें अपनी पूरी अस्मिता से हटना पड़ता है, तब सुनना हो पाता है| देखने के लिए अस्मिता चाहिए| भूलना नहीं, किसी का चेहरा कैसा दिख रहा है, यह सदा इस पर निर्भर करेगा कि तुम उसे कहाँ से देख रहे हो|

(एक श्रोता की ओर देखते हुए) यहाँ ये सज्जन बैठे हुए हैं| तुम इन्हें ऊपर से देखोगे तो तुम्हें क्या दिखाई देगा? सिर पर बाल| सामने से देखोगे तो क्या दिखाई देगा? गोरा-गोरा चेहरा, और इधर-उधर से देखो तो न जाने क्या-क्या दिखाई देगा| लेकिन सुनोगे, तो कहीं भी हो, तुम्हें एक ही बात सुनाई देगी| आवाज़ ऊँची-नीची हो सकती है, लेकिन बात नहीं बदल जायेगी| समझ रहे हो न बात को?

दृष्टि में पहचान हमेशा कायम रहती है क्योंकि क्या दिख रहा है, वह तुम्हारी स्थिति पर निर्भर करता है कि तुम कहाँ से देख रहे हो| देखने के लिए तुम्हें कुछ होना पड़ेगा, देखने के लिए तुम्हें अपनी स्थिति निर्धारित करनी पड़ेगी| तुम जहाँ अवस्थित हो उसी के अनुसार संसार तुम्हें प्रतीत होगा| सुनने में ऐसी कोई बाधा नहीं है| तुम वहाँ बैठो या मेरे पीछे बैठो, एक-सा ही सुनाई पड़ेगा| हाँ, दिखाई एक-सा नहीं पड़ेगा| समझ रहे हो बात को?

इसलिए सुनने पर ज़ोर है क्योंकि सुनने में पहचान से पूरी तरह मुक्त हुआ जा सकता है, देखने में यह सम्भव ही नहीं है| तुमने यह तो सुना होगा कि लोगों को धुंधला दिखाई देता है, पर कभी यह नहीं सुना होगा कि धुंधला सुनाई देता है| उन्हें कम सुनाई दे सकता है, पर धुंधला नहीं सुनाई दे सकता| इसलिए चश्मे का काम, कान की मशीन से कहीं ज़्यादा मुश्किल है| कान की मशीन को इतना ही करना है कि आवाज को ऊँचा कर देना है| चश्मे को बहुत कुछ करना होता है इसलिए चश्मे कई-कई प्रकार के होंगे| कान की मशीन सरल है| उसे क्या करना है? उसे बस आवाज़ को बढ़ाना है, बात को बदलना नहीं है| पर जिसकी आँख खराब है, वो तो दृश्य को बदल भी देगा, देखने में पहचान कायम है|

सुनने का महत्व ही इसलिए है, पहचान से मुक्त होना| पहचान से मुक्त हुए कि तर गए| वही कहा जा रहा है: सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ| जहाँ अहंकार होगा, वहाँ दृश्य पर बहुत ज़ोर होगा|

(मौन)

एक नियम समझ लो- जहाँ सत्य होगा, वहाँ शब्द पर बहुत ज़ोर होगा|

भारत ने लगातार इस बात को कहा है कि सबसे पहले शब्द था| यह नहीं कहा है कि सबसे पहले कोई दृश्य था| सबसे पहले ‘शब्द’ था| कबीर अनहद नाद की बात करते हैं, किसी अनुपम छवि की बात नहीं करते|

सबसे ज़्यादा आँखें फिसलती हैं| जिसने आँखों को साध लिया, उसने सब कुछ साध लिया| कान आँखों की अपेक्षा कहीं ज़्यादा उपयोगी हैं, आँखें तो फिसलती ही रहतीं हैं| यहाँ भी बैठकर अगर तुम आँखों का उपयोग कर रहे हो और मुझे देखे जा रहे हो, तो तुम फिसल रहे हो| और अगर कानों का उपयोग कर रहे हो और मुझे सुन रहे हो, तो तुम्हारी कोई संभावना है|

आँखें तुम्हें फिसलायेंगी| कान तुम्हें सद्गति देंगे|

आँखें न चलाओ| तुममें से कई लोगों का अनुभव रहा है, और कुछ ने आकर बोला भी है कि आँखें खोलकर अगर सुनते हैं तो बात समझ में नहीं आती, और जब आँखें बंद कर लेते हैं तो ज़्यादा समझ में आने लगता है| बात ज़ाहिर है, ऐसा होना ही है| आँख खोलोगे तो दस चीजें और हैं जो भटकाती हैं|

तुमने यह खूब देखा होगा कि ऋषि तपस्या करता है तो आँखें बंद कर लेता है| यह कभी देखा है कि कान में रुई डाल लेता है? कि फलाने ऋषि कान में रुई डालकर समाधिस्थ थे| बुद्ध की आँखें अधमुंदी देखी होंगी| क्या कान भी देखा है कि आधा बंद कर लिया है, या उस पर कुछ चिपकाकर घूम रहे हैं?

तो सुनना ही जागना है, सुनना ही समझना है|

‘बोध सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

YouTube Link: https://youtu.be/nZi8h425-vI

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