आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
स्त्री हूँ, इन बातों से डरती हूँ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न है कि मैं अपने-आप को देखती हूँ तो पाती हूँ कि मेरे अंदर एंग्जायटी (चिंता) बहुत रहती है और थिंकिंग प्रोसेस बहुत ज़्यादा हर समय चला करता है। वो एक तरह से एक कंडीशनिंग है डर की, जो बहुत ज़्यादा *डॉमिनेटिंग * (हावी) है लाइफ़ (जीवन) में। तो...

आचार्य प्रशांत: ये झंझट बहुत परेशान करता है और अपने भीतर न एक कटऑफ पॉइंट (कट जाने का बिंदु) होना चाहिए, एक लक्ष्मण रेखा – इससे ज़्यादा झंझट झेलना ही नहीं है।

डर जब भी आता है, चिंता, हमेशा एक धमकी साथ लाता है। हाँ? कुछ छिन जाएगा, कुछ बुरा हो जाएगा, तुम्हारा कुछ बिगड़ने वाला है या मैं बिगाड़ दूँगा। इस तरह की बात है न? बंदे को कहना चाहिए, ‘तू ले ही जा जो ले जाना है, पर डरे रहने का झंझट हम को झेलना ही नहीं है।’

मेरे पास ये हो (एक चीज़ उठाते हुए)। कुछ है ये, और आप बार-बार मुझे डराएँ कि, "अच्छा बेटा! ये तुझे क्या लग रहा है, हमेशा रख लेगा? एक दिन मैं आऊँगी, छीन ले जाऊँगी, ये-वो करके।" आप बिलकुल चढ़ बैठे मेरे ऊपर तो एक बिंदु आएगा जब मैं कहूँगा, "लो, ले जाओ, ले जाओ!"

हमारे पास ये था, इसी कारण डर था। ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी। डर कभी भी किसी रिक्तता में नहीं आता है, डर का संबंध हमेशा किसी विषय से होता है। जो विषय इतना अनिश्चित है, इतना क्षणभंगुर है, इतने कम भरोसे का है, अन-रीलाएबल है कि बार–बार डर लगा रहता है कि कभी ये छिन ना जाए, कभी ये छिन ना जाए, उस विषय की फिर रक्षा भी क्यों करनी? उसको छिन ही जाने दो – जा!

पूरब में कहावत चलती है, ‘लाल कहे लाल मुरझई हैं, तो जीबै कै दिन करे है।’ एक बच्चा पैदा हुआ था, उसकी ये हालत थी कि उसको इतना ही बोल दो, "मेरा लाल, मेरा लाल", तो वो बीमार पड़ जाता था। बस 'लाल' भी बोल दो, कोई शब्द बोल दो, कुछ देखने से बीमार पड़ जाए, कुछ सुनने से बीमार पड़ जाए, छू दो तो बीमार पड़ जाए, तो वैद्य बुलाया गया। जो सबसे बड़ा वैद्य था, उसने कहा, "कुछ मत करो। लाल कहने भर से अगर ये लाल मुरझा जाते हैं तो वैसे भी इन्हें कितने दिन जीना है? कुछ मत करो, इनको जाने दो।"

'लाल कहे लाल मुरझई हैं, तो जीबै कै दिन करे है।'

इनको, ऐसो को जाने ही दो। जिस विषय की उपस्थिति जीवन में इतना डर भर देती हो, उस विषय को फिर रोको मत, उसको विदा कर दो। जिसको लेकर के हमेशा डर लगा रहता हो, उसको रुक्सत करो, "जी, जी।"

सत्य तो परम भरोसे की चीज़ होती है। सत्य तो वो है जो अडिग, अचल, अटल होता है, हिल ही नहीं सकता। सत्य तो वो है जिसको ले करके कभी कोई डर हो ही नहीं सकता क्योंकि वो कभी आपसे छिन नहीं सकता।

जो चीज़ आप से छिनेगी नहीं, उसको लेकर डर नहीं लगेगा न? जो चीज़ ऐसी है कि हमेशा छिनने को तैयार बैठी है, उसे छिन ही जाने दीजिए। आप कब तक उसकी रक्षा करते रहोगे?

पीला पत्ता टूटकर गिरने को तैयार है, आप कब तक उस पर कोई कृत्रिम लेप लगाते रहोगे, उसको पेड़ से बांधे रहोगे?

'पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय। इस घर की ये रीत है, एक आबे एक जाए।'

डरना क्या है? डर से पहले कहीं-न-कहीं लोभ या मोह बैठा होगा। उसको जान लीजिए, डर भी चला जाएगा।

प्र: वो जो महिलाओं के अंदर, वो ज़्यादा रहता है, वो पुरुषों के कंपैरिजन (तुलना) में। तो उसी पर ही…

आचार्य: क्या, क्या छिन जाएगा?

प्र: एक वो कंडीशनिंग (अनुकूलन) बहुत गहरी है।

आचार्य: छोड़ो न कंडीशनिंग को, सीधी बात बताओ, क्या छीन लेगा कोई? आ, ले जा!

प्र: जो आइडेंटिफिकेशन (तादात्म्य) जुड़े हुए हैं।

* आचार्य:" फिर जो पूछ रहा हूँ वो बताओ। कोई क्या छीन लेगा?

प्र: जो कल का ये कॉन्सेप्ट (संकल्पना) है जो।

आचार्य: कल में क्या? क्या है जो छिन जाएगा?

प्र: वो हमारा सस्टेनेंस (निरंतरता), जो हम कहते हैं।

आचार्य: सस्टेनेंस माने क्या होता है? सीधी, ज़मीन की बात – सस्टेनेंस माने क्या? वो वेग है, इसीलिए डरावना है। उसपर रोशनी मारो ज़रा। ये सस्टेनेंस बहुत धुंधला शब्द है। सस्टेनेंस माने क्या?

प्र: सर, वही, वही नहीं हो पा रहा है।

आचार्य: आप कहते हो, ‘कल मेरा क्या होगा?’ उसके लिए आपने एक शब्द कहा, ‘मेरा सस्टेनेंस कैसे होगा, मेरा निर्वाह कैसे होगा?’ निर्वाह माने क्या?

प्र: वही है जो कॉन्सेप्ट्स भर दिए गए हैं दिमाग में कि मतलब ये-ये होना चाहिए और उसके अलावा...

आचार्य: क्या होना चाहिए? ये-ये-ये सब नहीं होता। क्या होना चाहिए?

प्र: सर, जैसे कि उन लोगों को हमने शामिल कर लिया है अपनी ज़िंदगी में और अगर हमें लगता है कि कुछ ऐसा स्टेप (कदम) लेंगे तो वह उसका एक दूसरा परिणाम होगा।

आचार्य: क्या परिणाम होगा? एकदम सीधी बात करो, इशारों में नहीं।

प्र: उसका परिणाम यही होगा कि वो आगे चलेगा कि नहीं।

आचार्य: क्या नहीं चलेगा?

प्र: जो भी रिलेशनशिप (संबंध)।

आचार्य: एक इंसान है, वो आगे नहीं रहेगा। यही न? तो ये बोलने में ज़बान क्यों काँप रही है इतनी?

जाने दो!

लाल कहे लाल मुरझई हैं। मौज करो, भला हुआ मेरी मटकी फूटी। अच्छा हुआ तू गया। कल की जगह आज चला जा।

प्र: सर, ये हो नहीं पाता।

आचार्य: हो इसलिए नहीं पाता क्योंकि अपने स्वार्थ जोड़ रखे हैं और कोई बात नहीं है। उस व्यक्ति से कुछ मिल रहा होगा। जो मिल रहा है, उसका लालच है। या तो मिल रहा है, या मिलने की उम्मीद है। उसी का लालच है बस और कोई बात नहीं है।

प्र: सर, वही अकेले रह जाने का…

आचार्य: अकेले में क्या दिक्क़त है? सोते अकेले हो, जागते अकेले हो, खड़े अकेले हो, अकेले माने क्या? अकेला भी एक इशारा है, उस इशारे से तात्पर्य क्या है? अकेला तो हर कोई होता है। यहाँ कौन है जो अकेला नहीं बैठा हुआ है? सब अकेले बैठे हैं। कौन किसके ऊपर बैठा है गोद पर? अकेले तो हम हैं ही, वो यथार्थ है। तो, ‘मैं अकेले रह जाऊँगी’, इसका क्या मतलब है? आप सब अकेले हो। अपने-आप को ढांढस भले ही दिए रहो कि, "नहीं-नहीं, मेरे पास छः हैं!” अकेले तो तब भी हो।

प्र: सर, वही सोशल-कन्डिशनिंग (सामाजिक कंडीशनिंग)।

**आचार्य: सोशल-कंडीशनिंग हटाओ न, अपनी बात बताओ न। 'अकेले रह जाऊँगी', इसमें डर क्या लग रहा है?

प्र: सर, डर वहीं इमेज (छवि)...

आचार्य: ड्राइविंग लाइसेंस छिन जाएगा? राशन कार्ड, आधार कार्ड, पैन, मूवी का टिकट नहीं मिलेगा? ट्रेन में चढ़ने को नहीं पाओगी, कॉलेज में एडमिशन (प्रवेश) नहीं मिलेगा, क्या होगा? अगर अकेले हो तो दिक्क़त क्या है जीवन में?

प्र: सर, वही जो अभी आप कह रहे थे, एक्स्ट्रीम (चरम) जो हम लोग डिसीज़न नहीं ले पाते हैं।

आचार्य: ये एक्सट्रीम कुछ नहीं है। ये तो साधारण सी बात है बिलकुल। सब अकेले हैं, इसमें एक्स्ट्रीम कहाँ है? एक्स्ट्रीम तो अभी आगे आता है, वो बाद में बताऊँगा। ये तो शुरुआत है, अकेलापन।

प्र: सर, वैसे अकेले में कोई दिक्क़त नहीं है, पर वो जो कॉन्सेप्ट ...

आचार्य: अरे! कॉन्सेप्ट छोड़ो, अपनी बात बताओ न!

प्र: वही तो दिमाग में घूमता रहता है।

आचार्य: तो वो क्या है? क्या घूम रहा है?

प्र: कि तुम अकेले रह जाओगे।

आचार्य: तो हो अकेले। समस्या क्या है उसमें?

प्र: सर वही, सोशल आइडेंटिफिकेशन (सामाजिक पहचान)।

आचार्य: ये अब मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ। आप अकेले हो, हो! अब उसमें समस्या क्या है? समस्या तो बताओ। अकेले होना स्थिति है, समस्या नहीं, ठीक? ये एक स्थिति है, आप अकेले हो। अकेले से मतलब यही कि घर में अकेले रहते हैं, वगैरह। यही तो मतलब है अकेलापन? और कौनसे अकेलेपन की बात कर रहे हैं? घर में अकेले रहते हैं। अपने कमरे में हम ही भर हैं, अकेले हैं। अब इसमें समस्या क्या है? समस्या तो बताओ।

प्र: कल की समस्या है।

आचार्य: कल की क्या समस्या है? अकेले तो तुम आज हो। कल क्या मतलब? कल क्या होने वाला है?

प्र: मेरी जो थिंकिंग (विचार) रहती है, वो कल की ज़्यादा रहती है।

आचार्य: कल क्या समस्या आती है?

प्र: सर, कल कैसे होगा?

आचार्य: क्या होगा कल?

एक तो ये महिलाएँ न, इतना ज़्यादा प्रतीकों में बात करती हैं। ‘कल कैसे होगा?’ इस वाक्य में विषय कहा है? सब्जेक्ट प्रेडिकेट (विषय विधेय) पढ़ा था ग्रामर (व्याकरण) में या नहीं पढ़ा था? ‘कल कैसे होगा’, कल कैसे होगा ये क्या वाक्य-संरचना है?

प्र: हम लोगों को प्लानिंग (योजना) का बताया जाता है कि *प्लैन प्लैन*।

आचार्य: काहे का प्लैन ? विषय क्या है?

प्र: तो वही कह रहे हैं, निर्वाह का।

आचार्य: निर्वाह माने रुपया-पैसा, खाना-पीना?

प्र: इसके अलावा सामाजिक।

आचार्य: अरे! सामाजिक निर्वाह किसका होता है? निर्वाह माने तो खाना-पीना होता है। सामाजिक निर्वाह माने क्या?

(प्रश्नकर्ता कुछ कहती नहीं हैं)

खुल कर नहीं बोलेंगे तो मैं मदद नहीं कर सकता।

प्र: सर, वही है कि ये कि आइडेंटिफिकेशन के बिना तुम्हारा क्या है?

आचार्य: ये आइडेंटिफिकेशन क्या चीज़ होती है? कॉन्सेप्ट है, अपनी बात करो।

प्र: सर वही कि मेरी आइडेंटिफिकेशन , मेरा नाम है और जो पहचान है जिनके साथ जुड़ी हूँ।

आचार्य: क्या?

आप अकेले हो, समस्या क्या है? आप अकेले हो, आप जाते हो, कमाते हो, खाते हो, जो करना है करते हो, ज़िंदगी में भी। समस्या क्या है, ये बताओ।

प्र: समस्या है लोग।

आचार्य: लोग? लोग तो हैं ही नहीं, आप अकेले हो।

प्र: सर, जो अकेले हैं न, उसको लोग पता चलें...

आचार्य: हैं?

प्र: जो अकेले हैं उसका ड्यूलिस्टिक फैक्टर (द्वैतवादी कारक) तो...

आचार्य: क्या ड्यूलिस्टीक (द्वैतवादी)?

प्र: लोग।

आचार्य: लोग क्या?

प्र: सर वो डूऐलिटी (द्वैत) रहती है।

आचार्य: क्या ड्यूलिटी , कहाँ से आ गई बीच में? लोग क्या हैं? लोग क्या कर रहे हैं? आप अकेले हो, लोग क्या कर रहे हैं उसमें?

प्र: सर वही दिमाग में चला करता है कि 'तुम अकेले रह जाओगी', ऐसे करके।

आचार्य: हाँ अकेले हैं! अब समस्या क्या है?

प्र: सर वो प्लानिंग नहीं ख़त्म हो रही है। वो प्लानिंग ...

आचार्य: काहे की प्लानिंग ? यही तो पूछ रहा हूँ, छुपा रहे हो बार-बार। काहे की? प्लान है क्या?

(श्रोतागण हँसते हैं)

क्या प्लान है?

प्र: सर, वो डर का ही कुछ।

आचार्य: प्लान बताओ! सब जानते हैं क्या प्लान है। तुम्हें ही नहीं पता है बस। और वही प्लान है जिसके कारण थर्रा रहे हो, काँपे जा रहे हो, छोड़ ही दो न वो प्लान, करना क्या है? उस प्लान के बिना ही बहुत मौज है, मैं बता रहा हूँ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: सर, वो प्लान की बात नहीं कर रहे है।

आचार्य: ये समझ गईं कौन से *प्लान*। अभी तक नहीं पता था *प्लैन*। बात सारी इशारों में होनी है।

(श्रोतागण और जोर से हँसते हैं)

प्र: सर, वही है कि...

आचार्य: वही है, माने क्या?

प्र: सर जैसे कि मैं कुछ हूँ ऐसा करके मैंने सोचा है, और वही चल रहा है।

आचार्य: क्या सोचा है? कुछ हूँ, माने क्या हूँ?

प्र: जैसा हमें बता दिया गया है।

आचार्य: क्या बता दिया गया है?

प्र: तुम यही हो।

आचार्य: अरे! क्या बताया गया है?

देखो बात अगर ऐसी है कि बोलने में इतनी लाज आ रही है, तो मन में पकड़े रहने में लाज नहीं आती?

प्र: सर मैं बता रही हूँ। कमज़ोर हो, अकेले, मतलब कैसे?

आचार्य: ठीक है, किसी ने बता दिया कमज़ोर हो। अब मैं बोल रहा हूँ, कमज़ोर नहीं हो। अगर दूसरे के बताने से ही सुनना है तो मेरी भी सुन लो।

प्र: सर, रिज़ल्ट्स (परिणाम) ऐसे रहे कि कमज़ोर…

आचार्य: हाँ, तो जब मानते थे कमज़ोर हो तो रिज़ल्ट कमज़ोरी के आए, अब नहीं मानोगे कमज़ोर हो तो रिज़ल्ट दूसरे आएँगे।

प्र: सर, वही जानना है कि कमज़ोरी होती क्या है?

आचार्य: अगर ज़िंदगी भर वही जी है, तो तुम्हें पता नहीं है क्या होती है? अगर ज़िंदगी भर कमज़ोर बन कर रहे हो तो नहीं जानते कमज़ोरी क्या है? एक कल्पना है कमज़ोरी। एक सपना है कमज़ोरी। आप पढ़े-लिखे हो, आप यहाँ आए हो तो शायद कमाते भी होओगे, बिना डोनेशन (अनुदान) के तो यहाँ आने नहीं देते, ठीक? (श्रोतागण हँसते हैं)

पढ़े–लिखे हो, जवान हों, कमाते हो, डर किस बात का है?

प्र: सर, डर वही है, जो छवियाँ देखी हैं, वो लगता है कि...

आचार्य: अरे यार! कौनसी छवि चाहिए? उस छवि में क्या है?

प्र: सर, वही एक फैमिली (परिवार) का *कॉन्सेप्ट*।

आचार्य: अब आयी न बात! फैमिली माने क्या?

प्र: सर, वही माँ-बाप की छवि एक।

आचार्य: माँ-बाप कहाँ से आ गए अब इसमें?

प्र: फैमिली का ही मैं बता रही हूँ। जैसे हम बता रहे हैं, कल का जो कॉन्सेप्ट रहता है।

आचार्य: क्या चाहिए कल में? क्या चाहिए?

प्र: माँ-बाप के प्रति जो आसक्ति और मोह है।

आचार्य: तो माँ–बाप को कल क्या होगा? हैं तो अभी।

माँ–बाप तो हैं न अभी? हाँ, तो कल क्या हो जाएगा?

(प्रश्नकर्ता कुछ कहती नहीं हैं)

बोलोगे नहीं?

प्र: सर, वही है कि उनकी एक्सपेक्टेशन्स (अपेक्षाएँ) कुछ रहती हैं।

आचार्य: उन्होंने अपने माँ-बाप की सारी पूरी करी थीं? नहीं पूरी करी थीं तो तुम बच गए। पूरी करी थीं तो भी तुम बच गए क्योंकि उन्होंने जो पूरी करी, उससे देखो अंजाम कैसा आया।

प्र: सर, बस वही जो अर्जुन की स्थिति है, मोह-आसक्ति की, उसी में ही ख़ुद को पाती हूँ।

आचार्य: मोह-आसक्ति कुछ नहीं। देखो मैंने बोला न, वो सब तो ठीक है, डर भी लग रहा है सब सेना-वेना देख करके। आप इतने कमज़ोर हो नहीं, इतनी कातरता दिखा करके आप वास्तव में कुछ छुपा रहे हो। ये जो माँ-बाप वाली भी बात है, माँ-बाप की इच्छाओं का भी न बहुत ख्याल तभी आता है जब १०-१५ हज़ार की नौकरी लगी हो। तब आदमी अपने एँप्लॉयर (नियोक्ता) को बोल देता है, ‘मेरे माँ-बाप नहीं चाहते, मैं असल में झज्जर जिले का रहने वाला हूँ, नौकरी गुड़गाँव में लगी है। माँ-बाप नहीं चाहते हैं कि मैं १०० किलोमीटर दूर जाकर काम करूँ’, ठीक? यही १० हज़ार डॉलर की नौकरी अमेरिका में लग जाएगी तो माँ–बाप पिक्चर में ही नहीं आएँगे। बात यहाँ माँ-बाप की भी नहीं है, समझो अच्छे से। जब दस-हज़ार की नौकरी लगती है न तो माँ-बाप की रुचि-अरुचि बहुत प्रासंगिक हो जाती है। जिस दिन दस-हज़ार डॉलर की नौकरी लग जाती है, उस दिन खट्ट से जहाज ले करके अमेरिका चले जाओगे। आज तक किसी ने अमेरिका की नौकरी ये बोल करके नहीं ठुकराई कि 'माँ-बाप क्या बोलेंगे?' तो ये माँ-बाप की भी बात नहीं है, आप आई.ए.एस बन जाते हो, आपको मिल गया है, मान लीजिए असम कैडर, ठीक? नागालैंड में पोस्टेड हो, मान लो, और दूर। आकर माँ-बाप बोलेंगे, "हम बूढ़े बीमार हैं, हमारी सेवा करो"? लेकिन आपकी जो हल्की-फुल्की नौकरी होती है, तो माँ-बाप सर पर चढ़ जाते हैं, ‘नौकरी छोड़ दे, घर आ कर रह। माँ की पीठ में दर्द रहता है!’ किसी आई.ए.एस को माँ-बाप ने ऐसा बोला है, ‘नौकरी छोड़ दे घर आ कर रह, माँ की पीठ में दर्द रहता है’?

तो ये सब भी न, सब बहुत भौतिक और मटिरीअल चीज़ें हैं। इमोशनल (भावनात्मक) चीज़ें नहीं हैं ये। अच्छे से पढ़-लिख लो, ज़िंदगी में आगे बढ़ जाओ, माँ-बाप अपने-आप पीछे-पीछे एकदम ढर्रे पर चलेंगे। इस जगत की रीत बल की है, बलहीन पर सब चढ़ करके राज करते हैं। तुम्हारे हाथों में ताक़त नहीं होगी तो जैसे पूरी दुनिया तुमको परेशान करती है, वैसे ही जिनको अपना बोलते हो वो भी तुमको परेशान करेंगे। घर में इज़्ज़त रहे, अपने ही घर में भी अपनी इज़्ज़त रहे, इसके लिए अपने हाथ में ताक़त होनी चाहिए, नहीं तो अपने ही सगे लोग अपनी इज़्ज़त नहीं करते। जानते नहीं हो क्या?

तुम्हारा पति हो, तुम्हारी पत्नी हो, तुम्हारे माँ-बाप हों, तुम्हारे बच्चे हों, तुम बलहीन हो जाओ, तुम्हें घर में ही नहीं सम्मान मिलेगा। बात भावनाओं की नहीं है, बात बल की है। और रोना तुम्हें इसलिए आ रहा है क्योंकि बल इकट्ठा करने में जान लगानी पड़ती है। भावनाओं के कारण रोना नहीं आ रहा है। तुम्हें दिख रहा है कि बल इकट्ठा करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। उस मेहनत के कारण रुआसी हो रही हो। मेहनत करो!

माँ-बाप एअरपोर्ट तक छोड़ने आते हैं और ख़ुद ही सेल्फी खींच-खींच डालते हैं, कि ‘अब लड़की जा रही है अमेरिका, दो साल तक वापस नहीं आएगी’, बहुत खुश हो जाते हैं। तब माँ का पीठ का दर्द बिलकुल ठीक हो जाता है। यही तुम कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लो, रोज़ सुबह-शाम फ़ोन आएगा – ‘क्या खा रही है? क्या पी रही? किसके साथ घूम रही? चल घर आ जा जल्दी से। भैस ने परवा दिया है।‘ उसका एक ही इलाज है, अमेरिका। लड़की अमेरिका चली जाए, तब दो-दो साल तक वो नहीं आए, माँ-बाप को कोई दिक्क़त नहीं होती। डॉलर आते रहने चाहिए, बस।

कभी आप जाइए अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर। वहाँ देखिए न जब वहाँ कोई जा रहा होता है तो कम-से-कम २० लोगों का कुनबा आया होता है उसे छोड़ने के लिए। कोई उससे कह रहा होता है कि… (घर चल वापस)? कुछ नहीं।

मन करता है तो दिसंबर में एक बार आ जाते हैं, नहीं करता तो तीन–तीन साल नहीं आते, कौन पूछता है?

मेहनत करो, मेहनत!

कुल मिला–जुलाकर एक बहुत पुरानी घिसी–पिटी कहानी है। लड़की है, गाय है, उसको कहीं बाँधना है। किसी के घर की वो लक्ष्मी बन जाएगी, बछड़े होंगे, दूध-घी होगा – यही है कुल कहानी। तुम्हें इस कहानी में कुछ भी आकर्षक लग रहा है क्या? तुम्हें इस कहानी का एक पात्र बनना है?

हटाओ न!

नयी कहानी लिखते हैं। कम-से-कम इस पुरानी से तो पिंड छुड़ाएँ। कि नहीं छुड़ाना है? यही करना है?

कोई दुश्मन हमें चाहिए ही नहीं। हमारे अपने काफ़ी हैं हमारी ज़िंदगी नर्क करने के लिए। इतना दबाव बनाकर रखते हैं, इतना जकड़ कर रखते हैं। कोई आपको खुली धमकी दे, उससे निपटा जा सकता है, पर जहाँ बात अव्यक्त होती है, छुप-छुप कर होती है, इशारों में होती है, वहाँ आप भीतर से सिहरे हुए होते हो और कह भी नहीं सकते कि आप को धमकाया गया है इसलिए आप इतने डरे हुए हो। जबकि आप को धमकाया गया है पल-पल, इशारों में धमकाया गया है।

एक सवाल अपने-आप से पूछ लेना। कहना, ‘एक बर्बादी वो है जो यथास्थिति में हो रही है, जैसे अभी हैं चीज़ें, स्टेटस क्वो (यथापूर्व स्थिति)। एक बर्बादी वो है और एक खतरा वो है जो बाहर कदम निकालने पर उठाना पड़ेगा।‘ उस खतरे को चुन लेना, क्योंकि खतरे का मतलब होता है रिस्क (जोखिम)। रिस्क का मतलब होता है, दोनों बातें हो सकती हैं – अच्छा भी, बुरा भी। वहाँ कम-से-कम संभावना तो है कि कुछ अच्छा हो सकता है। यहाँ जो पुरानी कहानी है, उसमें तो निश्चित ही है कि बर्बादी होगी। तयशुदा है, लिखा हुआ है स्क्रिप्ट (कहानी) में कि अब आगे क्या होने वाला है तुम्हारा। नहीं जानते उस स्क्रिप्ट में क्या लिखा हुआ है? बहुत पुरानी स्क्रिप्ट है।

लड़कियों से, महिलाओं से, विशेषकर मेरा आग्रह है, कमज़ोर मत रह जाना। ये भावना के खेल में मत बह जाना कि ताक़त सारी पुरुष वर्ग के हाथ में छोड़ दी। और चितवन में नहीं ताक़त होती है, रूप, सौंदर्य, श्रृंगार, इसमें नहीं कोई ताक़त होती है। ना इसमें कोई ताक़त होती है कि ‘वो तो मेरे हैं, जो मैं कहूँगी वो कर देंगे।‘ ताक़त बस अपने ज्ञान में होती है, कौशल में होती है, अपने बैंक अकाउंट में होती है। अपने! किसी और के पास नहीं होना चाहिए उसका पासवर्ड। तो इन चक्करों में मत रह जाना कि ‘वो ही हैं सबकुछ, परमेश्वर!’ ये कमज़ोरी कहीं का नहीं छोड़ती है महिलाओं को। एक बार ताक़तवर बनकर देखो, यही सब लोग जो परेशान करते थे न, कैसे पीछे-पीछे आते हैं। यही जो राज़ी नहीं होते कि पढ़ने के लिए किसी अच्छी जगह भेज दें, अगर चले जाओ, पढ़-लिख लो, तो यही फिर बहुत फ़क्र के साथ बताएँगे, ‘फ़लानी एमएनसी में काम करती है हमारी लड़की।‘ और यही वो होते हैं, जब आप एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) ले रहे हो, लड़की एजुकेशन लोन ले रही है तो उसमें गारंटर (जिम्मा करनेवाला) बनने को तैयार नहीं होते। बैंक कहता है कि लोन आपका है, गारंटी भी चाहिए पीछे से। माँ-बाप मना कर देते हैं कई बार। फिर जब पढ़-लिख लेगी, कहीं कुछ बन जाएगी तो... ये सब ऐसे ही हैं।

शक्ति के पीछे-पीछे सब आ जाते हैं, शक्ति बना कर रखो। आप भी यहाँ इसलिए बैठे हो आज क्योंकि संस्था के पास एक शक्ति है। चार साल पहले आप भी नहीं आ गए थे यहाँ पर। मैं आज जो बात बोल रहा हूँ, इससे ज़्यादा शुद्ध बात बोला करता था चार साल पहले, दस साल, बारह साल पहले।

तो आप कितने शुद्ध हैं या आपकी भावनाएँ कितनी निर्मल हैं, इनसे कुछ नहीं होने का।

बल की उपेक्षा मत कर देना। व्यक्ति अकेला है और उसकी अपनी सामर्थ्य ही उसके काम आनी है।

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