आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
स्त्री-रूप‌ ‌के‌ ‌प्रति‌ ‌आकर्षण
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
21 मिनट
470 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: स्त्री रूप के प्रति अत्यधिक आकर्षित हो जाता हूँ ऐसा क्यों होता है?

आचार्य प्रशांत: देखो आकर्षित हम सभी रहते हैं। बात इतनी ही है कि हम जिसके भी प्रति आकर्षित रहते हैं वो एक आकार, रूप, नाम, व्यक्ति, वस्तु, चीज, इंसान ऐसा कुछ होता है। कुछ भी हो सकता है। अब ये तुम्हारे संस्कारों पर, तुम्हारे मन की जो पूरी अन्तर्व्यवस्था है उस पर निर्भर करता है कि तुम किस रंग, किस रूप, किस नाम, किस वस्तु के प्रति आकर्षित होगे। कुछ विशेष मत समझना इसको कि अगर तुम किसी खास लिंग की तरफ खिंचते हो और दूसरे लोग हैं, वो कहीं और को खिंचते हैं। किसी को प्रतिष्ठा चाहिए, किसी को अपनी विचारधारा स्थापित करनी है, किसी को प्रगति चाहिए खिंचाव सबके पास है। ऐसा कोई नहीं है जिसके पास खिंचाव न हो। राग-द्वेष ये सब के पास हैं। तुम जिधर को भी खिंचोगे वो संसार होगा, वो प्रकृति होगी।

प्र: मैं पूछ रहा था क्या ये भी माया है?

आचार्य: हाँ, बिल्कुल। तुम और किसी ओर आकर्षित हो ही नहीं सकते। जिधर को भी जाओगे उधर को ही, संसार को ही पाओगे। संसार के अलावा क्या है जो तुमको खींचेगा क्योंकि तुम खिंचते हीं तभी हो जब कुछ दिखाई दे या जब कुछ कल्पना में आए अन्यथा तुम्हें कहाँ खिंचाव अनुभव होता है? अब होता क्या है कि अगर कोई किसी विचारधारा की तरफ खिंच रहा है, अगर कोई किसी देव मूर्ति की तरफ खिंच रहा है। अगर कोई सामाजिकरुप से मान्य किसी गतिविधि की ओर खिंच रहा है, तो उसको अपने भीतर किसी प्रकार का कोई संशय, ग्लानि, कुंठा इत्यादि नहीं होते बल्कि उसको ये लगता है कि ये खिंचाव तो शुभ है। शुभ ही नहीं है, नैसर्गिक है, प्राकृतिक! होना ही चाहिए! ठीक! उसको प्रोत्साहित और किया जाता है कि बढ़े चलो। लेकिन मान-मर्यादा, नैतिकता का जो पूरा घोल तुमने पिया है, उसके कारण जब तुम किसी स्त्री की तरफ आकर्षित होते हो तो तुमको उसमें हजार तरह की बुराइयाँ और कुंठाएँ दिखने लगती हैं।

दो लोग चले जा रहे हैं बाजार में, अगल-बगल, लगा लो कि मित्र हैं। एक अपनी कल्पना में खोया हुआ है कि मैं किसी तरीके का स्वर्ग धरती पर उतार लूँगा मान लो वो कहता है कि "मैं इस पूरी दुनिया का धर्मांतरण करके उन्हें अपने धर्म में दीक्षित करना चाहता हूँ" या मान लो कि वो सोच रहा है की इस पूरे देश में साम्यवाद ले आना चाहता हूँ और वो खोया हुआ है कल्पनाओं में। उसके बगल में दूसरा व्यक्ति चल रहा है, वो खोया हुआ है स्त्रियों की छवियों में। जो साम्यवाद, समाजवाद की कल्पना में खोया हुआ है उसे कोई कुंठा नहीं होगी। वो इस बात को कोई समस्या नहीं मानेगा। पर जिसके मन में स्त्रियों की छवियाँ तैर रही हैं, वो इस बात को बड़ी समस्या मानेगा। अगर समस्या है तो दोनों हैं और अगर समस्या नहीं हैं तो दोनों में से कोई नहीं है क्योंकि दोनों ही स्थितियों में मन किसी दिशा में खिंच रहा है। किसी प्रभाव के वशीभूत हो भाग रहा है। बिल्कुल एक ही बात है।

तुम अपनी बात को मात्र ऐसे भी व्यक्त कर सकते थे कि मन भागता है। ये बताने की कोई विशेष आवश्यकता ही नहीं थी कि किधर को भागता है? जब तुम बता देते हो कि मन किधर को भागता है तो वो तुम्हारी व्यक्तिगत समस्या हो जाती है फिर वो समस्या तुम्हें खास लगती है क्योंकि अब उसका नाता विशेष रूप से तुमसे हो गया है और जब कोई चीज तुम्हारे लिए विशेष रूप से उपयोगी और उपयुक्त हो जाती हैं तब वो दूसरों के लिए अनुपयोगी हो जाती है। तुमने ज़्यों ही सवाल पूछा, यहाँ बैठे अन्य कुछ लोगों को ऐसा लग सकता है कि हमें तो ऐसा कुछ होता नहीं, ये स्थिति हमारी तो है नहीं, तो इस बात का जो उत्तर आएगा वो भी हमारे लिए तो है नहीं। अगर सिर्फ इतना ही कह देते कि मन भागता है, मन आकर्षित होता है, मन को कुछ रिझाता है, तो भी बिल्कुल वही बात होती जो तुमने अभी कही।

देखो, मन जब भी भागेगा किसी काया, किसी आकार, किसी ऐसी वस्तु की तरफ ही तो भागेगा न? जिसका आभास होता हो, जो प्रतीत होती हो, जिसे छू सकते हो, छू न सकते हो तो कम से कम कल्पना कर सकते हो, जिसका किसी कागज पर चित्र बना सकते हो, चित्र न बना सकते हो तो कम से कम नाम लिख सकते हो। तुम ये तो नहीं कहोगे न कि मन निराकार की ओर भाग रहा है। कभी निर्गुण के प्रति आकर्षित तो नहीं हुए न तुम?

किधर को भी जाओ, संसार की ओर ही जा रहे हो क्योंकि समस्त गुणों और समस्त आकार संसार में ही हैं और मन का काम है- बाहर को भागना।

दौड़त दौड़त दौड़िया, जेती मन की दौर।

कभी इधर को भागेगा, कभी उधर को भागेगा, इसमें कुछ विशेष नहीं है कि अभी किधर को भाग रहा है। हम यहीं पर चूक कर जाते हैं न। हमारा ध्यान इस पर बहुत रह जाता है कि मन कहाँ को भाग रहा है? और हम इस बात को भूल ही जाते हैं कि जो मन की निरंतरता है, वो मन की दौड़ है। मन किधर को भाग रहा है? वो निरंतर नहीं है बिल्कुल। मन जिधर को भाग रहा है, वो कल को बदल जाएगा। आज एक चेहरा तुम्हें लुभाता है, कल दूसरा चेहरा तुम्हें लुभाएगा, परसों हो सकता है कोई चेहरा न लुभाए। परसों हो सकता है तुम्हारी दौड़ किसी मकान की ओर हो जाए। चेहरे का स्थान मकान में ले लिया, मकान का स्थान दुकान ले सकती है, दुकान का स्थान देश ले सकता है, देश का स्थान कल्पना ले सकती है। मन किधर को भाग रहा है वो लगातार बदलता रहता है।

मन के बहुतक रंग हैं, छिन छिन बदले सोय

इन बहुत रंगों को यही समझ लेना कि मन की बहुत दिशाओं की दौड़ है। बहुत सारे विषय हैं जो मन को खींचते हैं। पर हम इस बारे में बड़े सजग, बड़े उत्सुक रहते हैं कि विषय क्या है? और इस बात को भूल जाते हैं के बदलते विषयों के बीच, कुछ है जो बदल नहीं रहा। जो बदल नहीं रहा वो ये है कि मन भाग रहा है। मत पूछो कि कहाँ को भाग रहा है? क्योंकि ये प्रश्न ही गौण है। महत्वपूर्ण बात ये है कि मन भाग तो रहा ही है। इधर को भागा, कि उधर को भागा, ऊपर को भागा कि नीचे को भागा, पत्नी की ओर भागा, कि धर्म की ओर भागा, जन की ओर भागा, कि वन की ओर भागा। भागा तो। अभी तुम्हारी एक खास वय है, तुम्हें लड़कियाँ-स्त्रियाँ आकर्षित करती हैं। कल को थोड़े बुढ़ा जाओगे तो तुमको छोटे बच्चे आकर्षित करेंगे, उनकी उंगली पकड़ कर खेलोगे उनके साथ, उन्हें घुमाने ले जाओगे, दादाजी कहलाओगे या हो सकता है कि पशु-पक्षी आकर्षित करने लग जाएँ। ये मत समझना कि तुम ने कोई प्रगति कर ली है। ये मत समझना कि तुम माया के फंदे से छूट गये हो। ये मत समझना कि पहले तो तुम वासना में लिप्त थे और अब प्रेम उतर आया है तुम्हारे मन में। नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ है! आकर्षण की दिशा बदल गयी है बस। जब तक जवान थे, पैसे को पूजते थे, अब जब वृद्ध हुए हो तो भगवान को पूजते हो। समझ रहे हो बात को? अब मैं तुमसे जानना चाहता हूँ। दो बातें हैं- मन स्त्रियों की तरफ खिंचता है और मन खिंचता है। दोनों में से किसे समझना चाहते हो?

प्र: मन खिंचता है।

आचार्य: मन खिंचता है! पर जैसे संकोच के साथ और लजा-लजा के तुम ने सवाल पूछा, उससे स्पष्ट ही था कि तुम्हें अपने प्रश्न में विशेष ये लग रहा था कि 'मन स्त्रियों की ओर खिंचता है'। यही तुम्हारा मन किसी वीडियो गेम की ओर खिंचता होता, यही तुम्हारा मन किसी खास तरह के करियर की ओर खिंचता होता, यही तुम्हारा मन किसी फुटबॉल मैच की ओर खिंचता होता, तो तुम इस आध्यात्मिक सभा में, ये सवाल नहीं उठाते। बड़ा अजीब लगता कि- "क्रिकेट का विश्व कप होने जा रहा है और मेरा मन उसकी ओर खिंचता है, बड़ी आध्यात्मिक समस्या है। मेरे इस रूहानी मर्ज का इलाज बताएँ?" बड़ा विचित्र लगता! जैसे लगता है ये कोई बात है? अरे क्रिकेट मैच देखने का मन है तो उसको किसी मंदिर में पूछने की क्या जरूरत? ये कोई धार्मिक-आध्यात्मिक समस्या तो हुई ही नहीं। बहुत अजीब लगता न? सोचो कोई आकर पूछ रहा है कि "साहब! जब सचिन तेंदुलकर बैटिंग करने उतरता है, तो मेरा बड़ा मन करता है कि देखूँ।" तुम्हें लगता ही नहीं कि वो कोई सवाल है, पर देखो कितनी कशिश के साथ तुमने पूछा कि "लड़कियाँ दिखती हैं, औरतें दिखती हैं तो उनकी ओर आकृष्ट होता हूँ।" ये तुम को लगता है कि सवाल है। ये सवाल क्यों है? इसमें कुछ विशेष क्यों है?

श्रोता: समाज

आचार्य: बहुत बढ़िया! सही पकड़ा! क्योंकि समाज ने तुम्हें बता दिया है कि कुछ प्रकार के आकर्षण मान्य हैं और कुछ प्रकार के आकर्षण अस्वीकृत हैं। जो आकर्षण मान्य हैं उनमें तुमको कहीं रुग्णता दिखती ही नहीं और जो आकर्षण अमान्य हैं उन्में तुम अपने आपको ग्लानि में धकेली रहते हो। युद्ध हो रहा है, टैंकों की गड़गड़ाहट है, बमों का विस्फोट है और तुम्हारा मन उधर को आकर्षित हो रहा है, ये आकर्षण सामाजिक रूप से मान्य हैं। ये आकर्षण देशभक्ति कहलाएगा। ठीक? तो तुम कहोगे ही नहीं कि ये चित्त की बीमारी है। पर कुछ दूसरे आकर्षण हैं वो तुम्हें हो जाएँ तो तुम अपनी ही नजरों में गिर जाते हो। बड़ी हिम्मत की तुमने, जो बोल दिया। बहुत लोग तो बता भी नहीं पाएँगे, इतना गिर जाएँगे अपनी नजरों में। कैसे बताएँ कि किधर को खिंचे जाते हैं?

और कुछ दूसरे खिंचाव होंगे, वो नहीं भी होंगे तो उनको जता-जता कर बताएँगे। देखिए साहब! हमारा तो अब मन कृष्ण भक्ति में ही लगता है। अब दिन में एक दफे इनको कभी कृष्ण का ख्याल आ गया था तो ये दस दिन तक उसका ढोल पीटेंगे और फिर कहेंगे हमने वृंदावन में प्लॉट खरीदा है, कान्हा के करीब जीने के लिये। अब ये आकर्षण सम्माननीय आकर्षण है। इस आकर्षण से आपको समाज से स्वीकृति मिलती है, प्रतिष्ठा मिलती है, पर भूलना नहीं आकर्षण तो आकर्षण है। प्रमुख बात ये है कि- मन खिंचता है। क्यों खिंचा? किधर को खिंचा? व्यर्थ की बात है। खिंच गया न? और खिंचने का अर्थ है वहाँ से हट गया जो उसका नैसर्गिक आसन है। वहाँ नहीं है, जहाँ उसे होना था। कहाँ होना था? उसे अपनी शून्यता में आसीत होना था अर्थात उसे होना ही नहीं था। मन का सम्यक स्थान है आत्मा और आत्मा कुछ नहीं है। जो कुछ है वो मन है। ये जो पूरा अस्तित्व है, ये मन है। आत्मा तो एक अनंत शुद्धता है। अनंत विस्तीर्ण शुद्धता। एक निर्मल निर्दोष खालीपन। मन का स्थान वहाँ है। जब मन वहाँ होता है, तो मन भी वैसा ही निर्मल-निर्दोष और खाली होता है। कुछ होता ही नहीं है उसमें। जब कुछ है नहीं तो खिंचेगा कैसे? तब मन दर्पण की तरह होता है।

अभी आज धूप खूब खिली है, आप एक काला बर्तन रख दें और उसके बगल में एक चमकाया हुआ, इतना चमकाया हुआ कि वो शीशा बन गया, ऐसा बर्तन रख दें और थोड़ी देर बाद जाकर दोनों को छुएँ तो क्या अंतर पाएँगे? जो काला है वो गर्म हो गया, वो गर्म इसलिए हो गया क्योंकि उसने संसार को सोख लिया। बाहर से जो कुछ आ रहा था उसको वो सोख गया। सोख गया तो गर्म हो गया, उसमें परिवर्तन आ गया और जो दूसरा बर्तन है, जो दर्पण बन गया, उसको आप पाएँगे कि वो जितना ज्यादा दर्पण है, वो उतना ही कम गर्म है। जितना ज्यादा हो दर्पण की भांति है उतना ही कम वो धूप से अर्थात बाह्य प्रभावों से प्रभावित होता है। समझ रहे हैं बात को? अब वो ले नहीं रहा, अब उसके लिए जो जैसा है सो है। अब वो कोई अर्थ नहीं कर रहा है। ये मन की नैसर्गिक अवस्था है- दर्पण जैसा हो जाने की।

कल मैं कानपुर में था, तो वहाँ अद्वैत का शिविर लगा हुआ था। तो दूर तक फैले हुए खेत थे, उसमें ये सब छात्र बैठे थे। तो मैंने इनसे कहा-लिखो। लिखो जो भी लिखना है लिखो और कुछ देर बाद उन्होंने बताना शुरू किया कि उन्होंने क्या लिखा है? बड़ा सुंदर लिखा था कईयों ने, किसी ने कविता लिखी थी, किसी ने अपने मन के हाल लिखे थे, किसी ने जो कुछ शिविर में अभी तक सीखा वो सब लिखा था और फिर एक और आया मैंने पूछा तुम? तुमने क्या लिखा? वो बोला चाँद, पत्ते, मिट्टी, खेत, वृक्ष, लोग, हवा, शांति। शब्दों में कोई तारतम्य ही नहीं, कोई वाक्य नहीं, कोई छंद नहीं, कोई लय नहीं। पर मैंने उसकी ओर देखा, मैं समझा, मैं मुस्कुराया। अब ये मन इतना शांत था कि इसमें वाक्य भी नहीं उठ रहे थे। ये मन दर्पण था। ये बैठा हुआ है, रिक्त है, खाली क्या लिखें? लिखने के लिए कोई विचार तो होना चाहिए। कुछ उठ ही नहीं रहा, तो दर्पण की तरह हो गया। चाँद दिखा चाँद लिखा। चाँद देख कर के महबूबा पर कविता नहीं लिख दी। जो कि अन्यों के साथ हो रहा था कि दिखा चाँद और चाँद को देखते ही स्मृति आ गयी, किसी चाँद से चेहरे की और फिर प्रेमिका पर कविता लिख डाली। न! इसके साथ ऐसा नहीं हुआ इसने देखा चाँद, लिखा चाँद, ये दर्पण है। जो दर्पण का काम है- कि जो जैसा दिखा, उतार दिया, उसमें कोई अर्थ नहीं डालें। इसे प्रतीत हुई हवा, इसने लिख दिया हवा। इसने नहीं कहा कि हवा लोरी सुना रही है, माँ की याद दिला रही है। अब ये मिट्टी से एक हो चुका था। बिल्कुल मिट्टी ही था। इसका अपना कुछ नहीं था, अस्तित्व के साथ एक था। बात क्षणिक हो सकती थी, तात्कालिक हो सकती थी, पर तब के लिए तो तथ्य थी- तब ये हुआ। ये है रिक्त मन, खाली मन जिसका अपना कुछ होता नहीं। उसका अपना बस वही होता है जो उसके सम्मुख होता है। सम्मुख चाँद है तो मन कहेगा चाँद। इसको कहते हैं वर्तमान में जीना। सम्मुख चाँद तो मन बस इतना कहेगा चाँद। चाँद को देख कर के किसी स्मृति की बात नहीं करेगा, न ही आगत भविष्य की बात करेगा। नदी को देखेगा तो बोलेगा नदी! आवाज़! छल-छल, गंग-गंग! बस इतना। नदी को देख कर के समुद्र का खाता नहीं खींचेगा। नदी को देख कर के हिमपात को याद नहीं करेगा। बस नदी! जो है सो है, सामने, अभी, प्रत्यक्ष, ये मन की सहज अवस्था है। ये मन की मूल अवस्था है। इस मन को आत्मस्थ, आत्मारूढ़ कहते हैं। इसी मन को ब्रह्मलीन भी कहते हैं और फिर मन खिंचता है। जब मन खिंचता है, तब मन विस्तार लेता है। ये विस्तार, आत्मा का विस्तार नहीं है। ये विस्तार, अब संसार का विस्तार है। आत्मा का विस्तार- निराकार है, संसार का विस्तार- साकार है। आत्मा के विस्तार में कुछ है ही नहीं, संसार के विस्तार में वो सब कुछ है जो आप जान सकते हैं, जानते हैं। मन का खिंचना मतलब संसार का प्रकट होना। मन आत्मा से जरा हटा नहीं, अपने केंद्र से जरा विचलित हुआ नहीं, कि संसार पैदा होता गया और मन आत्मा से जितनी ज्यादा दूर, संसार उतना बड़ा और उतना वास्तविक प्रतीत होगा। अब आप दूर हो, अपने केंद्र से दूर हो, वहाँ से दूर हो जहाँ शांति मिलती है। स्वभाव तो है शांत होना, हो गये हो दूर, पहुँच गये हो अशांति में। वापस जाना चाहते हो पर वापस कौन जाना चाहता है? वो जो कि आत्मा से दूर है, जो आत्मा से दूर है वो समस्त बोध से भी दूर है क्योंकि बोध का केंद्र तो आत्मा ही है। जब बोध से दूर है तो जान नहीं पाओगे, समझ नहीं पाओगे, स्पष्ट होगा नहीं तुम्हें कि वापस जाना कैसे हैं? अब जाना तो चाहोगे आत्मा की ओर, पहुँच जाओगे किसी पस्त्री की ओर। जैसे कोई अंधा राह टटोले। जाना घर चाहता है पर चूँकि अंधा है इसीलिए पहुँच कहीं और गया। तुम किधर को भी खिंचते हो, वास्तव में वापस ही खिंचते हो। खिंचते याद रखना तुम सिर्फ तब हो, जब तुम अपने स्वाभाविक आसन से दूर होते हो। जो डट कर के अडिग वहाँ बैठा है वो खिंचता नहीं, उसके सामने से लाख स्त्रियाँ गुजर जाएँ, प्रलोभन गुजर जाएँ, पूरा संसार गुजर जाए वो खिंचता नहीं। पर हम खिंचते हैं, हम खिंचते इसलिए हैं क्योंकि हम पहले ही खिंच चुके हैं। हम पहले ही दूर हैं।

ये सूत्र याद रखना- जो दूर है मात्रा उसी को और दूर किया जा सकता है, जो समीप है वो और समीप ही आएगा। पाते हो अगर कि दूर हुए जाते हो तो जान लेना दूर थे, इसी कारण दूर हुए जाते हो। जो पास होता है उसे दूर करने का कोई रास्ता होता नहीं। तो दूर थे इसीलिए खिंचते हो। किधर को खिंचते हो? वापस को खिंचते हो। तुम्हें लग रहा है कि तुम्हें लड़कियाँ- स्त्रियाँ आकर्षित कर रही हैं, वो नहीं आकर्षित कर रही हैं। जान पाने की तुम्हारी क्षमता कुंद हो गयी है। इसीलिए तुम्हें ये लगता है कि तुम्हें ये खींचता है और वो खींचता है। इसका प्रलोभन है, उसकी चिंता है, उसकी प्रतीक्षा है, उसका आकर्षण है। न! किसी का नहीं, मात्र उसका है, जिसको व्यर्थ ही खोए बैठे हो। मात्र उसका है जिसके साथ होना तुम्हारी नियति थी पर जिसको अपनी मूर्खता में गंवा चुके हो। मात्र उसका है जिसको गंवा पाना संभव ही नहीं अतः जिसे गंवाने की तुम्हारी सारी चेष्टा विफल ही जानी है। बात समझ में आ रही है? तुमने कहा कि कोई लड़की दिखती है तो मन कहता है- "तुझ में रब दिखता है" ये वाक्य ही न रह जाए, रब वाकई दिखे। जब वाकई दिखेगा तब किसी एक रंग, रूप, लिंग में नहीं दिखेगा।

प्र: कभी कोई लड़का दिखे उसकी ओर भी आकर्षित हो जाता हूँ। यहाँ तक की कोई कपल जा रहा होगा तो वो भी अच्छा लगता है। दोनों के बीच में अंतर नहीं दिखता। ये सब मैं जान बूझकर करता हूँ।

आचार्य: फिर समस्या मत बोलो इसे।

प्र हाँ, मैं समस्या नहीं मानता इसे, चाहे कोई कितना भी बोले।

आचार्य: फिर लगे रहो! लगे रहो! फिर तो इसका नाम ही मत लो।

प्र: मई लड़के को भी किस करने लग जाता हूँ।

आचार्य: फिर न लड़का न लड़की, फिर ये लिंग भेद उसमें रहे ही न और फिर इसका विचार भी न उठे, इसका नाम भी मत लो। कहीं जाकर के पूछते हो क्या? ज़िक्र छेड़ते हो साथ लेने का? या चलने का? या बाल ठीक करने का? या दिल की धड़कने का? ये सब सहज बातें होती हैं न? तो फिर मामला उतना ही सहज हो जाए और जब उतनी सहजता रहेगी तो वो बिंदु भी आता है जहाँ पर जीवित और मृत का भेद भी मिट जाता है। जहाँ फिर तुम ये भी नहीं कह पाओगे कि सिर्फ उसकी ओर खिंचता हूँ जो जीवित है। फिर वो सब भी तुमको रब जैसा ही दिखेगा जो सांस नहीं लेता, जो चलता नहीं, जो बोलता नहीं, जिसको तुम जीव मानते नहीं। फिर मुश्किल होगा तुम्हारे लिए मिट्टी के साथ भी हिंसा कर पाना। फिर पत्थर पर भी कदम ज़रा आहिस्ता रखोगे। फिर ये नहीं कहोगे कि सिर्फ वो जो मेरे जैसा है वही प्राणयुक्त है। फिर समूचा अस्तित्व दिखेगा सांस लेता हुआ और वो बात कल्पना की नहीं है, वो बात शब्दों की नहीं है, जब शब्दों में कही जाती है जैसे मैं कह रहा हूँ तो वो थोड़ी विकृत हो जाती है। बात बहुत सूक्ष्म है और यहाँ सतर्क किये देता हूँ चूँकि बात सूक्ष्म है उसे सूक्ष्म ही रहने देना। उसको प्रदर्शन की, विचार की वस्तु मत बना लेना। जब प्रदर्शन करते हो, तो दूसरों को जताते हो। जब विचार करते हो तो स्वयं को जताते हो। न प्रदर्शन करना न विचार करना, जो होता है होने देना। उसको सोचने के और विश्लेषण के दायरे में लाना ही मत।

और ये बात बिल्कुल मन से हटा दो कि किधर को खिंच रहे हो? जितना उसको मन में रखोगे, उतना ज्यादा उस विषय को महत्वपूर्ण बनाओगे जो पहले ही तुम्हारे मन पर छाया हुआ है। हटा दो उस विषय को। जब विषय न होते हुए भी मन खिंचे तब समझ लो कि आत्मा की ओर खिंचा। जब तक मन के खिंचाव का कोई विषय है तब तक मन खिंचा संसार की ओर क्योंकि विषय तो सारे संसार में ही होंगे और जब मन खिंचे और पता भी न चले कि किधर को खिंच रहा है तब जानना की सही ओर खिंचा। तब जाना कि अब खिंचने की दिशा बाहरी नहीं आंतरिक है। अब भीतर की ओर जा रहा है। इसीलिए जिन्होंने प्रेम जाना है वो अपनी अभिव्यक्ति में अक्सर मजबूर हो जाते हैं। ज्यादा कुछ कह नहीं पाते। कह इसलिए नहीं पाते क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होता। चित्त कहीं को जा रहा है, घुला जा रहा है, एक मृत्यु-सी छा रही है। नशा, बेहोशी जो कह लो, मिटे-से जा रहे हैं और किस में मिटे जा रहे हैं? मिट के क्या हुए जा रहे हैं? न ये पता है न बताया जा सकता है। वही असली प्रेम है जिसके बारे में बहुत कुछ पता न हो। इसीलिए तो उससे दिल इतना डरता है।

हमारा जो साधारण प्रेम होता है वो तो बस विषयासक्ति होता है। हमें ठीक-ठीक पता होता है कि- किधर को जा रहे हैं? हमें ठीक-ठीक पता होता है कि यहाँ से निकलेंगे तो दूसरे मोहल्ले में साजन का घर है, वहाँ जाकर बैठ जाएँगे और ये भी पता है कि साजन कितना कमाते हैं? और ये भी पता होता है कि साजन के पास जमीन-जायदाद कितनी है। सब कुछ पता होता है। ये हमारा साधारण, सांसारिक प्रेम है, जिसमें सब पता होता है। कई बार तो साजन की जात-पात भी प्रेम होने के पहले से ही पता कर ली जाती है कि सब ठीक-ठाक हो तो प्रेम किया जाए।

वास्तविक प्रेम इसीलिए डराता है क्योंकि क्योंकि उसमें तुम्हें पता ही नहीं है कि साजन हैं कौन?और रहता कहाँ है? अब खिंच रहे हो उसकी ओर पर कहाँ को खिंच रहे हो ये पता नहीं क्योंकि उसके पते का पता नहीं। न उसके पते का पता है, न उसके रूप-रंग का पता है, न यही पता है कि उसकी पहले से कितनी प्रेमिकाएँ हैं? न यही पता है कि उसने हमें सदा साथ रहने के आश्वासन दिये हैं कि नहीं। कुछ पता नहीं है, खिंचाव लेकिन भरपूर है। अब इस खिंचाव को झेल पाने के लिए, बड़ा साफ, निर्मल मन चाहिए। शंकालु संसारी मन है तो कहेगा, "नहीं! नहीं! नहीं! नहीं! भाई कुछ आश्वस्ति तो हो, किसी तरह की कोई गारंटी। हम तो वहाँ पहुँच जाएँ और वहाँ जाकर पता चला कि फँस गये तो फिर? इसीलिए साधारण मन को सत्य, शांति, मुक्ति, परमात्मा कभी नसीब नहीं होते क्योंकि वो आश्वस्ति, गारंटी माँगता है। उसमें हिम्मत नहीं होती है कि बिना जाने बढ़ जाए आगे। श्रद्धा का अभाव।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें