आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
स्त्री को नीचा क्यों माना धर्मों और बुद्धों ने?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डलादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को हीं प्राप्त होते हैं।

(श्रीमद्भगवद गीता, अध्याय ९, श्लोक ३२)

प्रश्नकर्ता: मेरे दो प्रश्न हैं, पहला यह कि हर ऋषि कहीं न कहीं स्त्री को इसी निम्नकोटि में डाल कर बात करते हैं और दूसरा यदि वाकई स्त्री होने के नाते कोई बात ध्यान रखने लायक है तो वह बताइए।

आचार्य प्रशांत: देखो जहाँ से कृष्ण बात कर रहे हैं, वहाँ से देखने पर तो जीव ही मिथ्या है तो काहे की स्त्री और कौन-सा पुरुष। जहाँ से कृष्ण देख रहे हैं, वहाँ से देखने पर तो जीव ही नहीं है तो स्त्री कौन? और पुरुष कौन? जिंदा कौन? और मुर्दा कौन? अर्जुन को कह रहे हैं "ये जो जिंदा हैं, ये कभी मुर्दा थे और जो मुर्दा हैं वो अभी भी जिंदा हैं।" अर्जुन बिल्कुल घबड़ियाया हुआ है। (सभी श्रोता हँसते हुए) कि कुछ है कि नहीं है? कृष्ण बोल रहे हैं "मरे हुए जो हैं, वो कभी मरे नहीं; जो जिंदा है, वो पैदा हुए नहीं।" तो वो तो जीव की ही सत्ता को मिथ्या बताए दे रहे हैं। अब उसमें क्या परेशान होना है कि कौन स्त्री है?कौन पुरुष है? लेकिन सुनने वाला कौन है? अर्जुन है। अब इन साहब पर ध्यान देते हैं। ये वो हैं जो पहले अध्याय में बता रहे थे कि "देखिए! अगर हमने लड़ाई करी तो सब क्षत्रिय पुरुष मर जाएंगे और फिर हमारी औरतें खराब हो जाएँगी, वो इधर-उधर जाकर के संबंध बनाएँगी, उससे वर्णसंकर पैदा होंगे।" वो सब याद है?

तो सुनने वाला किस मानसिकता का है? सुनने वाला तो जाति, लिंग इन सब संस्कारों से घिरा हुआ है न? और वह देखो समय ऐसा था जब अर्थव्यवस्था पूरे तरीके से बाहुबल पर चलती थी। आदमी द्वारा किए जा रहे श्रम पर चलती थी। मशीनें आविष्कृत हुई नहीं थी और जो थी भी वो अपने बहुत आरंभिक स्तर पर थी। किस तरह की मशीन थी? अब धनुष भी एक मशीन ही है और पर उस मशीन में ऊर्जा कहाँ से आ रही है? आदमी के बाज़ू से आ रही है। तो उस समय जो मशीनें भी थीं वह न तो हाइड्रोकार्बन से चल रही थीं, न सोलर पावर से चल रही थीं, न टाइडल वेव से चल रही थीं, सब मशीनें जो छोटी-मोटी थीं भी, वो काहे से चल रही थीं? वो या तो पशुओं के बाजुओं से चल रही थीं कि तुमने बैल लगा दिए हैं तो वो खेत जोत रहे हैं या फिर मनुष्य के बाज़ुओं से चल रही थीं। अब प्रकृति ने कुछ कर दिया है, भई! बाज़ू तो पुरुषों के ही ज़्यादा मजबूत होते हैं न? तो उस समय की अर्थव्यवस्था फिर ज़ाहिर-सी बात है किनके हाथों में थी? पुरुषों के। अब आज अगर लड़ाई हो, तो दागी जाएगी मिसाइल। अब मिसाइल बनाने में बाज़ू तो लगे नहीं हैं, मिसाइल बनाने में क्या लगा है? बुद्धि। और मिसाइल दागने के लिए भी बाज़ू नहीं चाहिए मिसाइल दागने के लिए भी क्या करना है? बटन दबाना है। तो मिसाइल बनाने का काम भी स्त्रियाँ कर सकती हैं आज और मिसाइल लॉन्च करने का भी काम स्त्रियाँ कर सकती हैं आज। कर सकती हैं न?

अभी पिक्चर देख कर आई होगी 'मिशन मंगल' उसमें देखा होगा कि पूरी जो टीम हीं थी उसमें ज़्यादातर महिलाएँ हीं थी। तो आज के समय में तीर क्या रॉकेट भी लॉन्च करना हो तो महिलाएँ पूरी तरह सक्षम हैं। पर उस समय होता था गदा युद्ध। अब तुम भीम के सामने आनंदिता (प्रश्नकर्ता) को खड़ा कर दो गदा देख कर के तो क्या होगा? क्या होगा बोलो? कुछ नहीं होगा (सभी श्रोता हँसते हुए) भीम हँस-हँस के लौटने लग जाएँगें। तो उस समय जो पावर, जो एनर्जी का स्रोत था, वो ये था- बाहुबल और बाहुबल किसके पास ज़्यादा था? पुरुषों के पास ज़्यादा था। तो सारी सत्ता पुरुषों ने हथिया रखी थी। उन्हीं सत्ताधारियों में एक कौन है? अर्जुन भी। तो अर्जुन की निगाह में भी स्त्रियाँ कैसी हैं? ये उस समय की बात है, अर्जुन को दोष नहीं दिया जा रहा। उस समय पर जितने लोग थे उन सब की दृष्टि में स्त्रियाँ थोड़े नीचे के ही तल की हुई न? क्योंकि उर्जा तो है ही नहीं उनके पास और पूरी अर्थव्यवस्था ही किससे चल रही है? पूरी दुनिया ही किससे चल रही है?

ऊर्जा से।

आज भी जो बड़े-बड़े संग्राम हो रहे हैं, बड़ी लड़ाइयाँ चल रही हैं दुनिया में, वो किसके लिए हो रही हैं? एनर्जी के लिए। यह जो लगातार मिडिल-ईस्ट में कोहराम मचा रहता है यह क्यों मचा रहता है? क्योंकि मिडिल-ईस्ट में क्या है? तेल है। ऊर्जा, उसे मशीन चलेगी भाई। उससे पूरा यूरोप ठंड में गर्म रहेगा। इराक ने कुवैत पर कब्ज़ा क्यों किया था? खाड़ी-युद्ध हुआ ही क्यों था? कुवैत तो इतना-सा है, दो जिले बराबर। सद्दाम हुसैन को क्या पड़ी थी कुवैत पर आक्रमण करने की बताओ? कुवैत के पास क्या था? तेल। अमेरिका की सऊदी अरब में और सीरिया में इतनी रुचि क्यों है? आधी दुनिया पार करके अमेरिका क्यों घुसा रहता है? रूस क्यों घुसा घुसा हुआ है? क्योंकि वहाँ पर ऊर्जा है। जहाँ कहीं ऊर्जा होती है, वहाँ सत्ता होती है। फिर समझो!

जहाँ ऊर्जा है, वहीं पर सत्ता है क्योंकि आदमी की सारी ताकत किस पर आधारित है? ऊर्जा पर आधारित है।

अब यह जो बात हो रही है, जिस समय की बात हो रही है, फिर से याद करो की ऊर्जा पाने का एकमात्र ज़रिया क्या था? आदमी का बाज़ू। और औरतों के बाज़ू ज़रा कमजोर होते थे, आज भी होते हैं। लेकिन आज सौभाग्य की बात यह है महिलाओं के लिए कि ऊर्जा बाज़ुओं से नहीं आती, मस्तिष्क से आती है। तो इसीलिए बहुत संभव है कि आज किसी बड़े देश की सेना में, कोई बड़ा पद किसी महिला के पास हो। पर तब नहीं संभव था कोई महिला नहीं आती गदा-युद्ध करने। हाँ, कुछ ऐसे विवरण मिलते हैं कि कुछ महिलाओं ने शस्त्र-विद्या सीखी और धनुष इत्यादि भी चलाए, पर वो बीच-बीच के हैं।

अधिकांशतः तब लड़ाइयाँ लड़ने वाले कौन थे? खेत जोतने वाले कौन थे? तो लो, उत्पादन भी सारा कौन कर रहे हैं? पुरुष। सत्ता भी सारी किनके हाथों में है? पुरुषों के हाथों में है। तो ज़ाहिर-सी बात है कि वो स्त्रियों को कैसा समझते थे? नीचे तल का समझते थे। समझ रही हो बात को? तो चूँकि अर्जुन से बात की जा रही है, तो अर्जुन को कहा जा रहा है "अर्जुन, मेरी शरण में आकर सबको मुक्ति है भले ही वो तेरी दुनिया में नीचा समझे जाने वाले लोग क्यों न हो।" अर्जुन, तेरी दुनिया में तू जाति के आधार पर कुछ लोगों को नीचा समझता है न? नहीं कृष्ण की शरण में आएँगे उनको भी मुक्ति है। अर्जुन, तेरी दुनिया में स्त्रियों को निचला दर्जा दिया जाता है न? नहीं कृष्ण की शरण में आएँगीं तो महिलाओं को भी बराबर की मुक्ति है। तो कृष्ण तो बराबरी का दर्जा दे रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं कि "मेरी मेरे सामने चाहे ब्राह्मण आए, चाहे शूद्र आए मैं तो सबको मुक्ति देता हूँ।" भेद करने वाला कौन है? भेद करने वाली दुनिया है। भेद करने वाला संसार है। भेद करने वाले कृष्ण नहीं है। बात समझ रही हो? स्पष्ट हुआ? इसमें महिलाओं की कोई गलती नहीं है, यह बात समय की है। वह समय ही ऐसा था।

अब तुमने पूछा है कि आचार्य जी, अगर महिलाओं में वास्तव में कोई खोट होती है तो साफ-साफ बता ही दीजिए ताकि हम सतर्क हो जाएँ। देखो! वो जो खोट है वह महिलाओं में विशेषकर नहीं है, वो महिलाओं में है और पुरुषों में भी है बराबर की है। तो अगर सतर्क होना है तो दोनों को होना पड़ेगा। महिलाओं को, पुरुषों को दोनों को और वह खोट यही है कि- शरीर के चलाए ज़रा कम चलो। अगर स्त्री ऐसी है कि शरीर के चलाए चलती है तो उसे भी सतर्क होना पड़ेगा। पुरुष ऐसा है कि शरीर के चलाए चलता है तो पुरुष को भी सतर्क होना पड़ेगा। पर 'देह' से थोड़ा बचकर रहो। देखा ज़रूर ऐसा जाता है, दृष्टिगत जो प्रमाण है वो यही है लेकिन बताते हैं कि पुरुषों की सत्ता ने महिलाओं को कुछ ऐसा संस्कारित कर दिया है कि वो बहुत ज़्यादा देह भावना में जीती हैं। इसमें कुछ काम तो प्रकृति का है और कुछ काम इस पुरुष केंद्रित, पुरुष संचालित समाज का है। स्त्रियों से कह दिया गया है कि तुम्हें हम स्थान, सम्मान और धन तुम्हारे रूप-सौंदर्य के अनुपात में ही देंगे और यह बात बहुत आरंभ से शुरू हो जाती है।

अभी एक पिक्चर देखी 'छिछोरे', आईआईटी बॉम्बे पर आधारित है। वहाँ की हॉस्टल लाइफ से संबंधित है। तो उसमें भी वही दिखा रहे हैं कि कैंपस में 40 लड़कों पर एक लड़की है, ख़ैर ऐसा तो होता भी था। लेकिन वह जो लड़की है उसका कहानी में जो कुल योगदान है वह यही है कि वह सुंदर-सुंदर है और सब लड़के उसके पीछे पड़े हैं। पूरी कहानी इस पर आधारित है कि एक हॉस्टल है जिसके लड़की एक चैंपियनशिप जीतना चाहते हैं। अब चैंपियनशिप जीतने में लड़की का कोई योगदान ही नहीं। योगदान छोड़ दो लड़की की कोई रुचि भी नहीं। लड़कियों का जो पूरा हॉस्टल ही दिखाया गया है, उनकी कोई रुचि ही नहीं। लेकिन फिर भी लड़की का जो किरदार है वह बड़ा केंद्रीय है क्योंकि वह सुंदर-सुंदर है। तो पूरी कहानी में लड़कों को जो महत्व मिला है वह वह इसलिए मिला है क्योंकि वह जीत रहे हैं, खेल रहे हैं, संघर्ष कर रहे हैं। समझो बात को! लड़कों को महत्वपूर्ण इसलिए दिखाया गया है कहानी में क्योंकि वो जीत रहे हैं, खेल रहे हैं, संघर्ष कर रहे हैं और लड़की का महत्व किस लिए है? क्योंकि वह सुंदर-सुंदर है। तो लड़की को संदेश क्या जा रहा है? "कि बेटा तू सुंदर-सुंदर जितनी ज़्यादा होगी न तुझे उतनी जगह मिलेगी।" तो लड़की कहती है मुझे उपलब्धि करके करना क्या है? मुझे सुंदर-सुंदर होने दो। मुझे तो देखो कहानी में भी जगह तब मिली जब मैं सुंदर-सुंदर हूँ। लड़के जो हैं वह सब साधारण हैं एकाध-दो तो घिनौने हैं दिखने में, लेकिन उनको फिर भी बड़ी केंद्रीय जगह मिली हुई है क्योंकि वो एक चैंपियनशिप जीतने की कोशिश कर रहे हैं और लड़कियों का हॉस्टल कहीं चैंपियनशिप में नज़र ही नहीं आ रहा, कहीं है ही नहीं। हाँ एक सीन मैं ज़रूर एक आती है, बेचारी दुबली-पतली। वह वजन उठाने की कोशिश करती है, उसको भी यही दिखाया गया है कि एक लड़का ऐसा बिल्कुल बेबस हो रहा है कि एक लड़की आकर उसे बेआबरू करे जा रही है। वहाँ भी उसको यही दिखाया गया कि लड़के को ताव हीं तभी आया जब उसने देखा कहीं लड़की से न हार जाऊँ। तो वहाँ भी जो लड़की का किरदार बीच में लाया गया, ज़रा-सा, दो मिनट के लिए बस इसी ख़ातिर लाया गया कि लड़के के सामने वह एक मापदंड की तरह बन सके कि भाई तू इतना दुबला-पतला और इतना मरियल हो गया क्या कि तू लड़की से हार जाएगा? छीह! लड़की से? तो उसको फिर ताव आ जाता है कहता है "हैं! लड़की से हारना पड़ेगा, हम लड़की से तो नहीं हारेंगे।" तो बिल्कुल आधा मरा हुआ इंसान भी वजन उठा जाता है क्योंकि उससे पहले लड़की वजन उठा गई थी।

वैसे ही वह पिक्चर आगे बढ़ती है, अब यह सब एक ही कॉलेज से पढ़े हुए लोग हैं, इनका एक थोड़ी दुःखद स्थिति में रियूनियन होता है। इनमें से एक का जो बच्चा है वह अस्पताल में भर्ती है, थोड़ा गंभीर हालत में है, तो यह पाँच-सात मिलते हैं दोबारा। वह जो लड़की है वह इनमें से एक को ब्याह चुकी है तो वह भी वहीं पर मौजूद है। अब यह सब बैचमेट्स हैं और आईआईटी के बैचमेट्स हैं और पिक्चर क्या दिखा रही है? कि यह जो छह-सात लड़के हैं यह बैठे हुए हैं और जो वह लड़की है जो इनकी बैचमेट ही है, वह इनके लिए खाना बना रही है। खाना बना रही है और कह रही है 'गायज़ डिनर इज़ रेडी।" यह सब बैठकर के कैंपस की पुरानी यादों की चर्चा कर रहे हैं और इन्हीं की बैचमेट क्या कर रही है? इनके लिए खाना बना रही है।

तो यह बात हमने महिलाओं के भीतर बहुत गहरे से बसा दी है कि देखो तुम्हारी उपयोगिता, तुम्हारा महत्व, तुम्हारा सम्मान तभी है जब तुम या तो सुंदर-सुंदर हो जाओ या देह वाले बाकी सब काम करो खाना बनाना, बच्चे पैदा करना इत्यादि-इत्यादि। तो स्त्रियों ने भी इस बात को बहुत हद तक आत्मसात कर लिया है यह बड़ी दुर्घटना हुई है महिलाओं के साथ कि पुरुषों ने उन्हें जो शिक्षा दी उन्होंने अपने ही भीतर उतार ली।

पुरुषों ने उनसे कह दिया कि तुम्हारी सबसे बड़ी अमानत तुम्हारा शरीर है। स्त्रियों ने कहा हाँ। अब वह लग गई है अपना शरीर ही साफ करने में कि चमकाओ रे चमकाओ। उनसे पूछो कि तुम्हें किसने सिखाया कि तुम्हारी सबसे बड़ी संपत्ति शरीर है तुम्हारा? उन्हें याद ही नहीं आएगा। यह बात उन्होंने उन्हें पुरुषों ने ही समझाई। क्यों समझायी? क्योंकि स्त्री का शरीर जितना चमकीला होगा पुरुषों की कामवासना को पूरा करने में उतना ही सहायक होगा। इस बात के प्रति सतर्क रहो।

कुछ तो प्रकृति का काम है स्त्री चूँकि गर्भ रखती है, तो प्रकृति ने ही उसे शरीर के प्रति बड़ा संवेदनशील बना दिया है। वह बार-बार अपने शरीर को देखती रहती है क्योंकि उसको एक बहुत महीन काम करना है, डेलिकेट काम। उस काम में अगर ज़रा-भी गड़बड़ हो गई तो बच्चा तो मरेगा ही माँ भी मर सकती है, इंफेक्शन हो सकता है, कुछ भी हो सकता है। तो स्त्री बड़ी इसीलिए सजग रहती हैं। तुम देखोगे कि लड़के तीन-तीन, चार-चार दिन, हफ्ताभर नहीं नहाएँगे, लड़कियाँ आमतौर पर ऐसा नहीं करती। लड़के घूम रहे होंगे, एकदम गंधाते हुए, कतई भयानक दुर्गंध उठ रही होगी, लड़कियों से ज़रा कम उठती है। यह बात उन में प्रकृति ने ही डाल रखी है कि इंफेक्शन से बचना। खेल सारा बैक्टीरिया का है। नहाओगे नहीं तो बैक्टीरिया घुस जाएगा।

तो कुछ तो प्रकृति ने तुमको देह केंद्रित बना दिया और बाकी काम किसने कर दिया? पुरुषों ने कर दिया। "धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाए।" वह बोली ठीक! धूप में नहीं निकलेंगे हम तो रूप की रानी हैं। और धूप में नहीं निकलेगी, मेहनत नहीं करेगी, तो घर में क्या गुड़िया बनकर बैठेगी? बाहर निकल, जमीन का स्वाद चख, धूल खा, पत्थर फांक, "नहीं जी! आई एम द डॉल ऑफ द हाउस।" तो बन जाओ 'डॉल ऑफ द हाउस' और महिलाएँ सोचती हैं कि इसमें बड़ा सम्मान है, बड़ा प्रेम है कि हम तो जी घर में रहते हैं, आई एम द क्वीन ऑफ द हाउस। तुम समझ ही नहीं रहे हो कि तुम क्वीन ऑफ द हाउस नहीं हो। तुम जो हो घर में, भाषा में उसके लिए बड़ा एक बदबूदार शब्द है।

तो यह कभी मत सोचना कि धर्म ने या अवतारों ने, गुरुओं ने, ऋषियों ने, मुनियों ने महिलाओं के साथ भेदभाव या अन्याय करा है। मैं तो बार-बार कहा करता हूँ- वो जब आदमी को आदमी जैसा नहीं देखते थे तो औरतों को औरतों जैसा क्या देखेंगे?

महात्मा बुद्ध के साथ जो कहानी जुड़ी हुई है, खूब कही जाती है। तुमने भी सुनी होगी, मैं ही एकाध-दो बार बता चुका हूँ कि बैठे हुए हैं और कुछ चोर थे या कोई और, जो एक लड़की को ले आए थे जो कि वैश्या थी। उसके साथ जंगल में शारीरिक संबंध बना रहे थे, वह वहाँ से जान बचाकर भगी नंगी-पुंगी। तो बुद्ध बैठे थे उनके सामने से करीब-करीब नग्न हालत में भाग गई वो। पीछे-पीछे वह सब चोर आए, तो उन्होंने बुद्ध को पकड़ा-झिंझोड़ा कहा "यहाँ से अभी कोई लड़की गई तूने देखा क्या?" वो बोले कि ध्यान नहीं दिया। तो वह बोले बकवास करता है? बूढ़ा थोड़े ही है तू? (अब यह सब अपनी ओर से जोड़ रहा हूँ) "तुझे दिखा नहीं कि सुंदर लड़की, वह भी नंगी तेरे सामने से गुज़री और तू कह रहा है तूने देखा नहीं।" वह बोले हमें अब आदमी औरत नहीं समझ में आता है। अब ऐसे बुद्ध पर तुम इल्ज़ाम लगाओ कि उन्होंने स्त्रियों के साथ भेदभाव करा तो यह नाइंसाफी है। उन्होंने नहीं करा। हाँ, समाज ने करा हो, यह जो पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था है किसने करा हो, पंडितों-पुरोहितों ने करा हो वह संभव है कृष्णों ने नहीं करा है।

और भी कुछ पूछा था? हाँ, तुमने पूछा था कि यह जितनी भी बेवकूफी है इसका प्रतीक स्त्री को ही क्यों बनाया जाता है? नहीं, ऐसा नहीं है कि स्त्री को ही बनाया जाता है। 'माया' को स्त्रीलिंग में संबोधित करते हैं ठीक है। पर इतने सारे और विकार भी होते हैं सबको थोड़े ही स्त्रीलिंग में संबोधित किया जाता है? तुम कहती हो क्या? "आज मैंने बड़ी पाप करी।" अब पाप स्त्रीलिंग है? फिर? तो ऐसा थोड़े ही है कि जितनी घटिया चीजें हैं सबको स्त्रीलिंग में ही संबोधित किया जा रहा है। तुम पर विकार चढ़ी हुई है? हाँ, 'वृत्ति' को कह देते हैं स्त्रीलिंग में, 'विकार' को कह देते हैं पुल्लिंग में। ऐसा नहीं है कि सब घटिया चीजें चुन-चुन कर स्त्रियों से ही संबंधित कर दी गई हैं या स्त्रीलिंग में ही कहीं जाती हैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। तो 'भाषा' पर भी यह आरोप मत लगाओ की भाषा ने स्त्रियों को ही निशाना बना रखा है। मामला करीब-करीब बराबर का है।

हमारी भाषा भी अनोखी है न हर चीज़ के साथ लिंग संबंधित करती है। यह काम अंग्रेजी में होता नहीं, तो वहाँ फिर यह सवाल उठता नहीं। पर भारतीय भाषाओं में, ज़्यादातर भारतीय भाषाओं में लिंग लगा दिया जाता है। पर उसमें भी यह बात नहीं है। यह थोड़े ही कहोगे कि तेरे हाथ पर मल लगी है। 'मल' स्त्रीलिंग तो नहीं होता न? फिर?

इसीलिए बार-बार कहता हूँ लड़कियों के लिए, महिलाओं के लिए तो परम आवश्यक है कि उनके हाथ मजबूत रहे। उन्हें विज्ञान की जानकारी हो, अर्थव्यवस्था की जानकारी हो, दुनिया में जो घटनाएँ चल रही हैं, हाल-चाल चल रहे हैं उनका उन्हें पता हो और उनका अपना बैंक खाता हो, जिसमें उनके अपने निजी पैसे हों, व्यक्तिगत, जॉइंट भी नहीं की साझा हैं। यह साझेदारी न जन्म में चलती है न मौत में चलती है तो बैंक में ही काहे को चलती है? एक देवी जी आईं, बोलीं पैसा नहीं है। मैंने कहा आप का कुछ अपना खाता-वाता नहीं है? वह बोली-हैं। मैंने बोला उसमें कुछ नहीं है? बोलीं- बहुत है। मैंने कहा- फिर? वह बोली एटीएम एक ही है, वह उनके पास रहता है। मैंने कहा लै! यह इनका जॉइंटअकाउंट है। अपना खाता रखो और एटीएम का पासवर्ड पतिदेव को तो बिल्कुल भी नहीं बताना, न डुप्लीकेट कार्ड बनवाना और न उसके एटीएम का पासवर्ड तुम्हें पता होना चाहिए न यह करना कि "अपने क्रेडिट कार्ड से एक और बनवा दो न मेरे लिए।" कुछ नहीं!

प्रेम कितना भी हो, आर्थिक आत्मनिर्भरता बहुत ज़रूरी है बल्कि प्रेम भी तभी हो सकता है जब दोनों पक्ष सबल हों

तो यह मत कर देना कि अब प्रेम बहुत हो गया है तो हम अपनी व्यक्तिगत सत्ता क्या रखें? प्रेम का तो मतलब ही ना है न समर्पण? तो अब जब तन-मन श्री पति को समर्पित कर ही दिया है तो धन भी क्या अपना रखें? आओ परमेश्वर धन भी तुम्हारा ही है।

प्रश्नकर्ता: इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मेरा एक प्रश्न है जब भगवान बुद्ध से मिलने उनकी मौसी आई तब स्त्रियों को ज्ञान नहीं दे रहे थे लेकिन अपनी मौसी को मना नहीं कर पाए तब उन्होंने यह बात कही कि मेरा धर्म 500 वर्ष चलेगा नहीं तो 5000 वर्ष चलता।

आचार्य प्रशांत: समय ऐसा था, समय ऐसा था, स्त्रियों में नहीं खोट हो गई समय की बात है, वह समय ऐसा था। भाई, समझिए बात को न बुद्ध भी तो पाँचवी-छठी शताब्दी ईसा पूर्व के ही हैं। जिसके हाथ में ताकत नहीं वह बस उपभोग की वस्तु होगा। आदमी कहाँ से निकला है भूलना नहीं है, कहाँ से निकला है? जंगल से! और जंगल में प्रेम नहीं होता। जंगल में शिकारी होता है और शिकार होता है या जंगल में हीर-रांझा होता है?

होता है?

कभी सुना है शेर और हिरणी में "तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी" सुना है क्या?

वो शेर-शेरनी में नहीं होता शेर और हिरणी में क्या होगा?

आदमी कहाँ से आया है दोहराओ, जंगल से! और जंगल में क्या होता है?

कोई शिकार, कोई शिकारी। जो ऊँचा है हो जाएगा-शिकार।

काहे में ऊँचा?

बोध में ऊँचा?

बाहुबल में ऊँचा।

जो बाहुबल में ऊँचा है वह क्या हो जाएगा?

शिकारी।

जो बाहुबल में नीचा है वह हो जाएगा- शिकार। तो आदमी-औरत भी अगर जंगल से ही निकल कर आए हैं तो ज़ाहिर-सी बात है कि आदमी के भीतर का जानवर औरत को कैसे देखेगा?

शिकार की तरह ही तो देखेगा। वह यही देखेगा कि मुझ से नीचे की है क्योंकि इसमें ताकत कम है और इसकी ताकत और भी कम हो जाती है गर्भावस्था में और वह समय ऐसा था कि औरत हर समय गर्भवती रहती थी। एक-एक औरत अपने-अपने जीवन काल में पाँच बच्चे दस बच्चे पैदा कर रही है और उन बच्चों में भी आधे मर रहे हैं, आधे तो मर ही रहे हैं। तो अगर उसका औसतन चालीस-पचास वर्ष का जीवनकाल है तो उस जीवन काल में आधे समय तो वह गर्भ से ही है और जब वह गर्भ से है तो उसकी हालत कैसी है? तब और कमजोर हो गई है, कुछ नहीं कर सकती, हिलना-डुलना भी मुश्किल हो जाए ऐसी हो गई है। अब वह पूरी तरह से किसकी मेहरबानी पर निर्भर है?

पुरुष की।

अब पुरुष खाना दे दे तो ठीक है, पुरुष शिकार करके लाया है जंगल जा करके, अब इसको दे देगा तो ये बचेगी नहीं तो यह खुद तो शिकार कर नहीं सकती। गर्भवती स्त्री खुद भागेगी क्या जंगल में जानवर के पीछे शिकार करने?

तो इसीलिए स्त्री उस समय एक निचला दर्जा रखती थी। निचला दर्जा रखती थी नतीजा शिक्षित भी नहीं थी, सबल भी नहीं थी, कुछ नहीं। अब न शिक्षा है, न बल है तो फिर मन भी एकदम दुर्दशा ग्रस्त।

बुद्ध ने यह सब सामाजिक स्थिति देखी, उनको साफ दिखाई दिया कि स्त्रियों की ऐसी हालत ही नहीं है कि इनको सीधे-सीधे बुद्धत्व में प्रवेश कराया जाए। तो उन्होंने कहा अभी रुको, अभी समय नहीं है। लेकिन फिर उनकी शिक्षा में आकर्षण कुछ ऐसा था कि महिलाएँ खुद ही आने लग गई। बोलीं "नहीं, हमें भी दीक्षित करिए, हमें भी संघ में लीजिए।" बुद्ध बहुत दिनों तक तो मना करते रहे कि आप जाइए, आप चूल्हा-चौका देखिए, घर संभालिये आप यहाँ मत आइए।

उस में याद रखना महिलाओं की गलती कम है जो बुद्ध के भिक्षु थे उनकी प्रवृत्ति ज़्यादा है क्योंकि आदमी ताज़ा-ताज़ा कहाँ से निकला था?

जंगल से और उसकी आदत थी महिला को किस तौर पर देखने की?

शिकार के तौर पर देखने की।

अब तुमने अगर चार जवान लड़कियाँ संघ में रख ली तो क्या होगा? बुद्ध के यह जो भिक्षु हैं सब, मुंडे ये आपस में ही लड़ मरेंगे। तो बुद्ध कहते थे "रहने दो भाई तुम, तुम लोग अभी बाहर ही रहो।" पर फिर वह बहुत सारी इकट्ठा हो गईं, बोली नहीं। बुद्ध भी फिर असहाय हो गए बोले "आओ! अब इतनी ज़िद्द कर रहे हो तो।" उनके लिए फिर एक अलग प्रशाखा बनायी कि तुम लोग फ़िर यहाँ पर रहो, उनके लिए थोड़े दूसरे नियम कायदे भी बनाए, वह सब करा की तुम्हारी इस तरह से व्यवस्था चलेगी। लेकिन फिर भी उन्होंने देखा होगा कि जब से सब भिक्षुणियाँ आई हैं तब से मेरे भिक्षु बिल्कुल धर्म-ईमान एकदम छोड़ चुके हैं। तो उन्होंने फ़िर ऐसे सर पर हाथ रख कर कहा होगा कि मेरा धर्म जो पाँच हज़ार साल चलता अब पाँच ही सौ साल चलेगा। यह बात उन्होंने महिलाओं से त्रस्त होकर नहीं कही है, यह बात उन्होंने अपने भिक्षुओं पर लानत भेजते हुए कही है। कि तुम ऐसे बेईमान निकले कि जहाँ तुमने महिलाएँ देखी, वहाँ तुम फिसले। तुम्हारी सब साधना, तुम्हारा सब अभी तक का शिक्षा-दीक्षा, बुद्धत्व सब बेकार ही है। ऐसे उनकी बात सही भी निकली बुद्ध धर्म पाँच सौ साल तो नहीं, हज़ार साल चला। बुद्ध के हज़ार- बारह सौ साल बाद आते हैं शंकराचार्य और बुद्ध का धर्म भारत से बिल्कुल साफ हो जाता है। तो उन्होंने भविष्यवाणी तो ठीक ही करी थी। लेकिन इसमें दोष क्या महिलाओं का था? इसमें दोष उस जंगल का है जिससे महिला और पुरुष दोनों निकल कर आए हैं। हमारे शरीर में वह जंगल घुसा हुआ है। आदमी, औरत को देखता है वह सारा अध्यात्म भूल जाता है। यह बात तो बुद्ध को पता थी बोले "मैंने इनको दी होगी कितनी भी शिक्षा, बड़ी ट्रेनिंग करी है इनकी, पर इनको जहाँ कोई मिली ढंग की भिक्षुणी, तहाँ यह भिक्षुणी को लेकर भगेगा आश्रम से, यह नहीं ठहरने वाला।"

जापान में एक बहुत प्रतिभाशाली भिक्षुणी हुई हैं, बौद्ध धर्म की ही। उस बेचारी का दुर्भाग्य है कि वह दिखने में सुंदर थी, तो वह जिस भी गुरु के पास जाए गुरु उसे लेने से ही मना कर दे कि "मेरे संघ में भाई! माफ कर बवाल, तू आई नहीं अंदर कि यहाँ उपद्रव मचेगा।" अंततः कहानी यह कहती है कि उसने अपने सारे बाल कटवा डाले और एक गर्म सलाख़ लेकर लोहे की अपना पूरा मुँह दाग डाला फिर उसको प्रवेश मिला। अब बताओ इसमें गलती महिला की है? वह तो उत्सुक है, सीखना चाहती है, जानना चाहती है। पर आदमी की जंगली नज़र।

आदमी ने अपनी वो नज़र स्त्री में भी आरोपित कर दी है, प्रविष्ट करा दी है। स्त्री भी अब अपने आपको पुरुष की नज़र से देखती है। यह बड़े से बड़ी दुर्घटना हुई है स्त्रियों के साथ। स्त्री जब अपने आपको आईने में देखती है, सब स्त्रियों की बात नहीं कर रहा पर बहुसंख्यक ऐसी ही हैं, वो जब अपने आपको आईने में देखती हैं तो ऐसे देखती हैं कि मैं उनको कैसी दिखूँगी? वह यह नहीं देखती कि मैं कैसी दिख रही हूँ, वह यह देखती है कि मैं उनको कैसे दिखूँगी। यह काम पुरुष भी करते हैं कि मैं उसको कैसा दिखूँगा। जो भी यह काम कर रहा हो, वही समझ ले कि उसने अपने साथ बड़ी गड़बड़ कर ली।

आ रही है बात समझ में?

अब आपने जो प्रश्न पूछा है उसका एक बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम जानते हैं क्या है? जैसे आप कह रहे हैं न कि बुद्ध ने भी तो औरतों को अपने संघ में घुसने से मना करा था, वैसे ही आज की जो पढ़ी-लिखी लड़कियाँ हैं उनके मन में यह भावना बैठ गई है कि ये पुराने जितने हुए हैं चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे कबीर इन सब ने लड़कियों के साथ नाइंसाफी करी है। वो कबीर साहब के भी दोहे उठाती हैं जिसमें उन्होंने नारी के बारे में, स्त्री के बारे में कुछ कहा है वो कहती हैं ये भी मिसोजेनिस्ट थे, ये भी नारी विरोधी थे तो हम कबीर को भी नहीं मानते। आजकल की जो पढ़ी-लिखी लड़कियाँ हैं, लिबरल, वो पुराने धर्म को संपूर्णता में अस्वीकार कर रही हैं। वो कह रही हैं "धर्म का मतलब ही है नारी-शोषण, पूरा धर्म ही स्त्री विरोधी है। वह कहती हैं राम, राम ने सीता के साथ नाइंसाफी करी, कृष्ण ने भी यही करा, सब संतो ने भी यही करा, बुद्ध ने भी यही करा, महावीर ने भी यही करा, जीज़स ने भी बोला हुआ है कि औरतों के लिए तो संभव ही नहीं है लिबरेशन तो कहती हैं "यह सब कहने को अवतार-पैगंबर थे लेकिन यह सब थे पुरुषसत्ता के प्रतिनिधि ही, तो हम धर्म को ही पूरे तरीके से अस्वीकार किए देते हैं। अब यह बड़ी गड़बड़ बात हो गयी। जिस धर्म को महिलाएँ दोष दे रही हैं, आजकल की आधुनिक पढ़ी-लिखी महिलाएँ, वह धर्म अकेला ज़रिया है आदमी की मुक्ति का। तुमने अगर धर्म को ही कचरे के डब्बे में डाल दिया तो अब तुम्हारे लिए क्या आशा बचेगी?

इसलिए मैं बहुत ज़ोर देकर समझा रहा हूँ कि यह मत समझो कि धर्म ने स्त्रियों के साथ भेदभाव करा है। नहीं, नहीं, नहीं धर्म के केंद्र पर जो राम और कृष्ण और जीज़स बैठे हैं उन्होंने अपनी ओर से कभी भेदभाव नहीं करा। भेदभाव उस समाज ने करा है जो पुरातन था, जो कृषि आधारित था, जो बाहुबल आधारित था, तो यह मत कर देना कि तुम इन सब बातों से प्रभावित होकर कि नहीं यह संत-वंत तो सब स्त्री-विरोधी थे इसलिए धर्म को ही त्याग दो। बहुत लड़कियाँ ऐसा कर रही हैं। वह कहती हैं हमें रिलीज़न से कोई लेना-देना नहीं, रिलीज़न का मतलब ही है स्त्री का शोषण। नहीं ऐसा नहीं है!

प्रश्नकर्ता: अगर ऐसा नहीं है तो इस बात के समर्थन में बस ये वक्तव्य आता है कि 'उस समय की परिस्थिति ही ऐसी थी', लेकिन कभी समानता का वक्तव्य क्यों नहीं आता?

आचार्य प्रशांत: आत्मा!

पूरा अध्यात्म तुम्हारी किस असलियत की ओर बार-बार इशारा कर रहा है

आत्मा।

वो यही तो बता रहा है कि स्त्री तो तुम हो ही नहीं और पुरुष तो तुम हो ही नहीं तुम क्या हो?

आत्मा।

समानता हो गई कि नहीं?

इससे बड़ी क्या समानता चाहिए?

स्त्री न स्त्री है, पुरुष न पुरुष है, दोनों की असलियत है आत्मा। लो हो गई समानता। यह तो समानता भी नहीं है, यह एकता है। एक हो। यह भी नहीं कहा जा रहा है कि औरत, आदमी के समान है वो और आगे की बात कह रहे हैं- वो कह रहे हैं आदमी औरत है, औरत आदमी है और दोनों झूठ हैं।

और... 'आत्मा' को भी स्त्रीलिंग में ही संबोधित करते हैं। भूल जाते हो बिल्कुल ही ये तो याद रहा कि माया को कहते हैं कि माया बड़ी बहुरूपिणी है, पर आत्मा को भी तो...स्त्रीलिंग में संबोधित करते हैं। फिर?

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