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लेख
साउंड ऑफ साइलेन्स (Sound of Silence) का झूठ || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
21 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! हमने यूट्यूब पर कुछ प्रश्न आमंत्रित किए थे। उनमें से एक प्रश्न है जो मुझे सबसे ज़्यादा प्रासंगिक लगा है। लगभग पाँच-छ: लोगों ने इसी विषय पर हम से प्रश्न पूछा है। यह प्रश्न द साउंड ऑफ साइलेंस के बारे में है। यह मेडिटेशन (ध्यान) की एक क्रिया है जो आज के समय में बहुत प्रचलित है।

लोग कहते हैं कि जैसे 'अनहद नाद' अद्वैत की जो आवाज़ है उसको आप द साउंड ऑफ साइलेंस कहकर भी आज के समय में परिभाषित कर सकते हो।

तो कई मोटिवेशनल स्पीकर्स (प्रेरक वक्ता) हैं जो ऐसा ध्यान सिखा रहे हैं कि अगर आप अपने कान में कुछ देर इयरप्लग्स लगाकर बैठ जाएँ और बाहर की जितनी भी आवाज़े हैं — जैसे यह एक आवाज़ हो गयी, (दीवार को ठोकते हुए) ताली की एक आवाज़ हो गयी, (ताली बजाते हुए) मैं जो बोल रहा हूँ वह एक आवाज़ हो गयी — बाहर की जितनी आवाजें हैं उनको आप कान में ठेपी लगाकर अगर बंद कर दें, तो आपके मन में एक बहुत धीमी सी‌, सटल आवाज़ गूँजती रहती है 'शऽऽऽ' जैसे मानो एक वाइट नोइज़ (कोरा निनाद) हो। वह आवाज़ द साउंड ऑफ साइलेंस है, वही अनहद नाद है, वही ब्रह्म है और वही अद्वैत का सत्य है।

इस मेडिटेशन की क्रिया से बहुत लोग बता रहे हैं कि उन्हें डीएडिक्शन (नशामुक्ति) सिगरेट छोड़ने में, अपने मन को शांत करने में और कंसंट्रेशन (एकाग्रता) इत्यादि बढ़ाने में बड़ी मदद हुई है। तो द साउंड ऑफ साइलेंस जो है इसपर आपके क्या विचार हैं? यह मैं जानना चाह रहा था।

आचार्य प्रशांत: (कंधे उचका कर अस्वीकृति में सिर हिलाते हैं) तुम आँख बंद कर सकते हो; तुम्हें तब भी कुछ रोशनियाँ दिखाई देती हैं, उसको तुम बोल सकते हो 'द लाइट ऑफ डार्कनेस' (अँधेरे की रौशनी)। तुम मुँह में कुछ भी मत रखो; तो भी मुँह में कुछ स्वाद होता है, उसको तुम बोल सकते हो 'द टेस्ट ऑफ एम्प्टीनेस' (खालीपन का स्वाद)। तो उससे क्या हो जाएगा? मतलब क्या है?

क्या है, कुछ नहीं! फालतू का बुद्धि-विलास। मेडिटेशन (ध्यान) किसी बाहरी या किसी अंदरूनी आवाज़ पर थोड़े ही करा जाता है, पागल! मेडिटेशन का ताल्लुक मेडिटेटर (ध्यानी) की हालत को उठाने से है। जो भीतर बैठा है ध्यानी, वह चाहे किसी बाहरी आवाज़ को सुने या जो कान में खुचुर-खुचुर चलती रहती है इसको सुने, फ़र्क क्या पड़ता है?

बिलकुल ठीक बोला तुमने, यह वाइट नॉईज है एक तरह की, जिसका ताल्लुक भीतरी न्यूरल-नेटवर्क (तंत्रिका-तंत्र) से है। इसके लिए तो तुमको जाना चाहिए किसी न्यूरोलॉजिस्ट (स्नायु विशेषज्ञ) के पास। वह तुमको बता देगा कि जो कान में आवाज़ चलती रहती है इसकी कोई आध्यात्मिक महत्ता कहाँ से हो गयी? मैं हैरान हूँ यह सोच करके कि इसको कोई किसी आध्यात्मिक विषयवस्तु की तरह पेश भी कर सकता है!

आप सब आँखे बंद करिएगा। आँखें बंद करिए! कुछ रोशनी सी दिखायी पड़ रही है कि नहीं? तो वह क्या है? वह स्वर्ग का प्रकाश है? वह क्या हो गया? अच्छा, आँख बंद करके इधर दबाइएगा जहाँ पर नाक और आँख मिलते हैं, उस जगह दबाइएगा (अपनी आँख के नाक की तरफ वाले कोने को दबाते हुए)। आँख के दूसरे कोने पर चक्र खड़े हो गए कि नहीं? तो यह दिव्यचक्र हैं? आपका अक्षकेंद्र जागृत हो गया है? अक्षचक्र?

तो कुछ नहीं है। यह तो शारीरिक, बायोलॉजिकल , फिज़िकल गतिविधियाँ हैं। तो कोई बहुत मूर्खता की बात है इनको कोई स्प्रिचुअल सिग्निफिकेंस (आध्यात्मिक महत्व) देना। देखिए, यह सब कुछ किया क्यों जाता है? यह सब इसलिए किया जाता है, ताकि आप असली ध्यान से बच सकें।

असली ध्यान क्या है? बहुत बार कह चुका हूँ, फिर एक बार दोहराए देता हूँ।

असली ध्यान है — ज़िंदगी की, मन की अड़चनों को, तकलीफ़ो को मुक्ति के उद्देश्य के लिए ग़ौर से समझना।

देख किसको रहे हैं ध्यान में? जो सामने तथ्य हैं, यथार्थ है। ज़मीनी वास्तविकता जो है उसको देखा जा रहा है। देखा उसको जा रहा है और लक्ष्य क्या है? मुक्ति।

तो ध्यान है — ये, आप मेरे हाथों में बेड़ियाँ हैं, मुझे हथकड़ी डाल दी किसी ने — ध्यान है इस हथकड़ी को बहुत ग़ौर से देखना। बहुत ग़ौर से देखना! बहुत-बहुत ग़ौर से देखना! परीक्षण भी करते रहना इसका। किसलिए? इसलिए नहीं कि मुझे सुहा गयी है कि मुझे इसको रंगना है।

गोल्डकोटिंग (सोने की परत चढ़ाना) कर दूँ क्या इसपर? जौनपुर वाले जीजा की बहन की शादी है, रंगवा लूँ? क्यों देख रहा हूँ इसको ध्यान से? तो ध्यान में तथ्य और सत्य दोनों समाविष्ट हैं। तथ्य भी और सत्य भी। तथ्य क्या है? तथ्य क्या है? यह बेड़ियाँ मेरा तथ्य हैं और सत्य मेरा उद्देश्य है। हथकड़ी मेरा तथ्य है और सत्य मेरा उद्देश्य है, मेरा प्रेम है, मेरी मंज़िल है — यह ध्यान है।

तो ध्यान में आँख नहीं बंद कर लेनी, भाई! ध्यान में आँख खोलनी है अपनी ज़िंदगी को देखने के लिए और ध्येय रखना है मुक्ति को। तो जबतक ध्यान में ध्येय मुक्ति नहीं हुआ; तबतक ध्यान मानिए नहीं उस घटना को। जब ध्येय हो जाए मुक्ति, जब ध्याता हो जाए प्रेमी, तब जो घटना घट रही है — वह है ध्यान।

ध्यान बहुत व्यर्थ है, अगर उसमें आपकी ज़िंदगी का यथार्थ सम्मिलित ही नहीं है। और ज़्यादातर हमारा ध्यान वही होता है, जो हम करते हैं अपनी ज़िंदगी का यथार्थ भूलने के लिए।

ठीक?

'जी, साहब! जब ध्यान में रहते हैं तो बड़ी शांति रहती है।' क्यों रहती है? क्योंकि बिलकुल भूल जाते हैं कि फ़लाना आदमी खड़ा हुआ है बाहर डंडा लेकर मारने को। अब यह अलग बात है कि तुम ध्यान के बाद जब बाहर जाओगे, तो वो फिर मारेगा डंडा लेकर। पर आधे घंटे के लिए ही सही, चैन तो मिला। यह साधारण और प्रचलित ध्यान है। यह असली ध्यान नहीं है। यह वह ध्यान नहीं है जो उपनिषदों ने, ऋषियों ने हमें सिखाया है। न ही यह वह ध्यान है जिससे उपनिषदों का जन्म हुआ है।

समझ रहे हैं बात को?

इसीलिए कहे जा रहा हूँ, कहे जा रहा हूँ कि ध्यान आपकी ज़िंदगी से हटकर कोई चीज़ नहीं हो सकती। पर लोग आते हैं, आपके शुभचिंतक और गुरु वग़ैरह भी — 'देखो, भाई! तुम तनाव में लग रहे हो। थोड़ा ध्यान के लिए समय निकाला करो।' और आपको लगता है, क्या बात बोल दी है यह तो मैंने सोचा ही नहीं था। 'थोड़ा ध्यान के लिए समय निकालो।' जैसे बोला जाता है न कि अजी! तोंद निकाल रखी है, थोड़ा जॉगिंग (धीमी दौड़) के लिए समय निकालो।

जैसे जॉगिंग के लिए समय निकालो, वैसे ही ध्यान के लिए समय निकालो। ध्यान के लिए समय नहीं निकालना होता; समय जहाँ भी जा रहा होता है उसपर ध्यान देना होता है। यह बहुत अलग बातें हैं, समझ में क्यों नहीं आ रहीं? आपकी ज़िंदगी का जो यथार्थ है — फ़ैक्ट — उसपर ध्यान दीजिए, उसी को ग़ौर से देखिए। उसी को ग़ौर से देखिए विद द इंटेंशन ऑफ लिबरेशन (मुक्ति के इरादे से)।

उद्देश्य है मुक्ति और आँखों में है बेड़ियाँ; आँखों में बेड़ियाँ है और दिल में आज़ादी — यह ध्यान है। आँखें नहीं बेड़ियों को छोड़कर आसमान की ओर देख रही हैं; तुम आसमान की ओर देखने लगोगे, तो बेड़ियाँ अचानक भाप थोड़े ही हो जाएँगी?

बेड़ियाँ आसमान की ओर देखकर नहीं कटेंगी बाबा! बेड़ियाँ काटनी हैं तो बेड़ियों को ही देखना पड़ेगा।

तुम क्या इधर-उधर की चीज़ों की कल्पना कर रहे हो आँख बंद करके कि वह फ़लाना कमल का फूल खिला है फ़लाने सरोवर में, उसका आप ज़रा ध्यान करिए या फ़लानी घंटियाँ बज रही हैं या — जो बोला कि — नाद उठ रहा है, इसपर ध्यान करिए! नाद क्या उठ रहा है? वहाँ चारों तरफ़ नर्क बिखरा हुआ है, तुम आँख बंद करके पता नहीं काहे की कल्पना कर रहे हो — इस बेईमानी से तुमको मुक्ति मिल जानी है कभी? यह बेईमानी मुक्ति का कारण बनेगी?

श्रोता: देखने का मतलब नॉलेज (ज्ञान) होना?

आचार्य: हाँ, बिलकुल-बिलकुल। बिलकुल वही है। आप उतना ही कर लो। देखिए, साहब! हम जानते ही कहाँ हैं कि हम किन वजहों से फँसे हुए हैं। तो जो नॉलेज की बात है न उसकी हमें जानकारी हो, ज्ञान हो; हमें वो भी नहीं है। वही हो जाए तो बहुत तक़लीफें हल हो जाएँगी। जो भी मुद्दे ज़िंदगी में हमारी हमको बिलकुल बाँधकर रखे हैं, ऐसे गला पकड़ रखा है, वो मुद्दे क्या हैं वो भी हमें पूरी तरह से पता नहीं हैं।

ठीक है?

तो उन्हीं मुद्दों पर ग़ौर करें। उन मुद्दों पर ग़ौर करें और भीतर भरोसा पक्का हो और आग भड़की हुई हो कि इसके पार निकलकर दिखाऊँगा! और इसके पार निकलने के लिए ज़रूरी है कि पहले मैं इसके बारे में पूरी छानबीन करूँ। 'मैं जानूँगा, मैं जानूँगा, मैं जानना चाहता हूँ' — यही ध्यान है।

और मैं जिस तरीक़े से बोल रहा हूँ, बहुत सक्रिय उत्साह का आपको संदेश दे रहा हूँ न? 'मैं जानना चाहता हूँ, मैं देख रहा हूँ' — दिनभर आप ऐसा नहीं कर सकते। आप थक जाओगे और गर्दन में दर्द होगा, पीठ में यहाँ कहीं (अपने शारीरिक अंगों की ओर संकेत करते हुए)। आप बार-बार ऐसे थोड़े ही करते रहोगे? यह तो वह मोटिवेशन (प्रेरणा) के लिए स्टेज (मंच) पर कर लो, उतना सुहाता है।

तो वास्तविक ध्यान पैसिव (अक्रिय) होता है। कैसा होता है? पैसिव होता है। आप जो कुछ भी कर रहे हो, खा रहे हो, पी रहे हो उसमें आप उछल-उछल कर बताते थोड़े ही रहोगे कि यही मेरी बेड़ी है; इसको तोड़ दूँगा — पगला जाओगे, अगर इतना अगर उछलोगे तो। तो वह जो आग है वह वैसे जलनी चाहिए जैसा साहब ने बोला है कि "धुआँ न परगट होय।"

समझ रहे हैं बात को?

जिसको श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, "निर्धूम ज्योति की तरह"। वह जल रही है, पता नहीं चलेगी। लेकिन हम कुछ भी कर रहे हैं, एहसास हमें लगातार है कि यह हमारी अंतिम संभावना नहीं है। यह हमको कहीं रोककर, कहीं बाँधकर रखा गया है। मुझे जहाँ होना चाहिए, जिस जगह का मैं हक़दार हूँ, अधिकारी हूँ उससे नीचे मुझे गिरफ़्तार करा जा रहा है — मैं नहीं बँध रहा।

और यह बात इतनी सूक्ष्म, इतनी पैसिव , इतनी अक्रिय होती है कि किसी और को पता नहीं चलेगी। क‌ई बार आपको ख़ुद भी नहीं पता चलेगी। लेकिन निशाना लगातार मुक्ति पर ही है, भले ही आप एक साधारण सा वार्तालाप कर रहे हैं।

आप — कुछ नहीं है — आप रेलवे स्टेशन पर हैं। आप यूँ ही किसी से कुछ बात कर रहे हैं। साधारण कोई बातचीत। वह जो होती है गॉसिपिंग। उसमें भी कुछ है आपके भीतर का जो लगातार तलाश रहा है, टटोल रहा है कि चाबी कहाँ है? चाबी कहाँ है? चाबी कहाँ है? और सतह-सतह पर कोई दूर से देखेगा, रिकॉर्ड करेगा, फ़ोटो लेगा; उसको यही लगेगा कि यह तो एक साधारण वार्तालाप चल रहा है। वह साधारण वार्तालाप नहीं चल रहा है। भीतर कोई है, जो उस वार्तालाप में भी पीछे-पीछे कुछ ढूंँढ रहा है, कुछ तलाश रहा है। क्योंकि उसको पता है कि बेड़ियाँ हैं — यह ध्यान है। यह ध्यान है, यह अहर्निश ध्यान है।

बात समझ रहे हो?

यह लगातार चलता है। यह चौबीस घंटे का ध्यान है। इसी की बात हमेशा से करता आ रहा हूँ। एक बेकली जिसपर आपका नियंत्रण नहीं है। आपको अगर समझाना भी चाहे कि सब ठीक ही तो है न, चल इंजॉय (मस्ती) करते हैं। 'ला भई, कैपेचिनो यहाँ पर रख।' भा नहीं रही। ऊपर-ऊपर से हो सकता है अच्छा लग रहा हो; भीतर-ही-भीतर हमको पता है न कि काहे का कैपेचिनो , काहे का मोका। इधर भी धोखा, उधर भी धोखा — यह ध्यान है।

समझ में आ रही बात?

ज़्यादातर लोग कहते हैं, 'ऐं-ऐं-ऐं… ये तो… इतना बड़ा करना पड़ेगा क्या? कुछ बता दो न! पंद्रह-बीस मिनट वाला बता दो न!' जाओ, तुमसे हमारा कोई लेना-देना नहीं।

समझ में आ रही है बात?

अच्छा इतना बताइए, कभी ऐसा हुआ है कि घर का कोई सदस्य या कोई आपका क़रीबी दोस्त काफ़ी ज़्यादा बीमार हो, अस्पताल में हो? कितनों के साथ ऐसा हुआ है? आपके साथ कभी नहीं हुआ?(एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) और वह बीमारी ज़रा लम्बी चल रही है। मान लीजिए, हफ़्ते चल गयी है। हफ्ते भर तक वह अस्पताल में, आईसीयू (गहन चिकित्सा केंद्र) में ही है, मान लीजिए। होता है कई बार।

और उन दिनों में आप लगातार अस्पताल में तो नहीं बैठे हो। आप अपना काम करने बाहर भी निकल रहे हो। हो सकता है आप दफ़्तर जा रहे हो — जहाँ भी — अपना व्यापार सब देख रहे हों, उन दिनों में चित्त की दशा कैसी रहती है?

आप दुकान पर बैठे हों, मान लीजिए, तो जो भी साधारण क्रय-विक्रय, दुकानदारी है वह तो चल ही रही है न? चल रही है या नहीं चल रही है? आप अपने दफ़्तर में बैठे हो, तो वहाँ भी आपकी जो रोज़ की ज़िम्मेदारियाँ हैं, वह तो आप पूरी कर ही रहे हैं। लेकिन चित्त में क्या है? चित्त में क्या है?

श्रोता: अस्पताल।

आचार्य: वह है न?

श्रोता: जैसे उसकी एक-एक साँस सुनायी दे रही हो।

आचार्य: बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया! जैसे उसकी एक-एक साँस सुनायी दे रही हो। इस हद की संवेदना है।

ठीक है?

और मान लीजिए आप कहीं काम करते हैं, किसी दफ़्तर में। आपके सामने जो व्यक्ति बैठा है, उसको आप गाने तो लगोगे नहीं कि हाय! हाय! मैं क्या करूँ? मेरा दोस्त बीमार है।

तो उसको यह पता चल रहा है क्या? उसको यह पता चल भी रहा है क्या कि आपका चित्त अभी कहाँ है? ध्यान ऐसा होता है। दुनिया को नहीं पता चलेगा, लेकिन आपका चित्त कहीं और लगा हुआ है। यह ध्यान की प्राथमिक अवस्था है। और अगर आपका चित्त वाक़ई सही जगह पर लग गया है, तो फिर आप जो बाहर-बाहर काम कर रहे हो, काम बदल जाता है।

अभी तो जो मैंने उदाहरण दिया, उसमें यह था कि चित्त कहीं और लगा हुआ है और काम कुछ और चल रहा है। काम अपने दफ़्तरबाज़ी का चल रहा है और चित्त लगा हुआ है अस्पताल में — यह शुरुआती है। उसके बाद क्या होता है कि अगर चित्त वहीं लगा रह गया, बिलकुल बात ऐसे गड़ गयी खूँटे की तरह; तो वह बात फिर संचालित, निर्धारित करती है कि आपके बाहरी कर्म क्या होंगे। फिर आप यह नहीं कर सकते कि यह तो वहाँ लगा हुआ है और हम बाहर कुछ और कर रहे हैं।

फिर यह होता है कि अभी जिसका मैं संकेत कर रहा हूँ ऐसे खोपड़ी के पीछे बजा करके, वह फिर खोपड़ी के पीछे नहीं बजता, वह फिर यहाँ दिल में बजता है अंदर (हृदय की ओर संकेत करते हुए)। यह फिर हो जाता है आपके जीवन का केंद्र। इसे ही बोलते हैं — हृदय से जीना, लिविंग फ्रॉम द हार्ट। वो जीवन का केंद्र बन गया है और वो फिर तय कर रहा है, हम क्या करेंगे, क्या नहीं करेंगे — लगातार।

ध्यान समझ में आ रहा है?

और इस तरह की बातें भी कि वो फ़लानी जगह चले जाओ, उस फ़लानी जगह पर ध्यान करने से बहुत ज़बरदस्त लाभ होता है। (अचंभित होने का अभिनय करते हुए) बेड़ियाँ मेरी यहाँ हैं और ध्यान मैं वहाँ जाकर करूँ? बताओ तो! ध्यान मुझे कहाँ करना होगा? जहाँ मेरे बंधन हैं, ध्यान वहाँ करूँगा न! या किसी और विशेष, पवित्र, कानसिक्रेटेड स्पेस में जाकर ध्यान करूँ? बोलो।

मुझे कहाँ होना चाहिए? जहाँ मेरा दोस्त मर रहा है वहाँ या मैं किसी पहाड़ के ऊपर चढ़ जाऊँ ध्यान करने के लिए? जवाब दो। तो असली ध्यान आपकी कर्मभूमि में होता है, इधर-उधर भाग के नहीं ध्यान किया जाता।

समझ में आ रही बात?

तो मैंने जब बेड़ियों का उदाहरण लिया, तो मैंने कहा उद्देश्य मुक्ति है और जब मैंने बीमारी का — दोस्त की बीमारी का — उदाहरण लिया, तो उसको ऐसे कह दीजिए कि उद्देश्य स्वास्थ्य है — वह एक ही बात है बिलकुल।

समझ में आ रही बात?

जब यह सब नहीं करना होता तो फिर यह सब साउंड ऑफ साइलेंस और यह सब। ये इतने निचले तल की बातें हैं कि मैं इस पर टिप्पणी भी क्या करूँ! बस दुख होता है कि यह सब बातें फैलाकर के पता नहीं कितने करोड़ लोगों को गुमराह किया जा रहा है। लेकिन जो गुमराह हो रहे हैं उनकी बराबर की ग़लती है। उन्होंने क्यों नहीं कोशिश की स्वयं जानने की कि असली ध्यान होता क्या है? उन्हें अगर पता होता और फिर उनसे कोई यह सब बातें करता, तो ख़ुद ही ज़ोर से हँस देते।

कुछ और हो इसमें तो बताओ‌।

प्र: अगर कोई बहुत थका हुआ है, परेशान है और कुछ देर के लिए वो सो जाए, तो वो ताज़ा तो अनुभव करता ही है न? उसी तरीक़े से अगर इस ध्यान की विधि से आपको कुछ देर के लिए शांति अनुभव हो रही है, आपका जो भेजा है वह हल्का हो रहा है, तो इसमें बुराई क्या है?

आचार्य: ग़लत कुछ नहीं है। सही क्या है, यह बता दो। तुमने दस मिनट, पंद्रह मिनट, तीस मिनट और निकाल दिये अपनेआप को बेवकूफ़ बनाने में, इसमें सही क्या है? तुम इस बेवकूफ़ी में जो समय लगा रहे थे; वो समय बेवकूफ़ी को मिटाने में भी व्यय हो सकता था — तुम इसी में उलझे रह गये, इसमें सही क्या है?

प्र: पर आचार्य जी, जो बाहर की बेवकूफ़ियाँ हैं उनसे लड़ने के लिए और जो माया है उससे लड़ने के लिए कंसंट्रेटेड फोकस्स माइंड (एकाग्रचित्त मन) अगर हमें इस ध्यान विधि से मिल जाए तो यह तो अच्छी हुई न?

आचार्य: क्यों मिलेगी? जब इसी से सस्ता जुगाड़ हो गया, तो तुम और कुछ क्यों करोगे? एक तो देखो — समझ में आया तुम — यह बात बिलकुल भूल जाओ कि जो तुम्हें करना है उसका बिलकुल विपरीत करके तुम वह कर सकते हो जो तुम्हें करना है। इसी बात को मैं कहता हूँ — ग़लत रास्ते पर चलकर सही मंज़िल नहीं मिलती, बाबा!

बेड़ियों पर और लोहा चढ़ा-चढ़ाकर बेड़ियाँ काट थोड़े ही पाओगे। जब तुम्हारी समस्या ही यह है कि तुम अज्ञान में हो; तो वह समस्या अज्ञान के ही रास्तों पर और आगे बढ़कर, उसी हिसाब से और कर्म करके मिट थोड़े ही जानी है।

जब तुम्हारी समस्या यही है कि तुम न ध्यान जानते, न ध्येय जानते — ये समस्या है कि मैं ध्यान नहीं जानता, मैं ध्येय नहीं जानता, मैं ग़लत ध्यान जानता हूँ — तो ग़लत ध्यान की समस्या और ज़्यादा ग़लत ध्यान करके मिटा लोगे? जवाब तो दो!

प्र: नहीं।

आचार्य: तो यह है बात। बल्कि इससे तुम्हें जो तात्कालिक, इमिडिएट शांति या रिलीफ़ मिलेगी भी, वह तुम पर क्या असर करेगी, समझते हो? वह तुम्हें और ज़्यादा आश्वस्त कर देगी कि यही करे चलो, क्योंकि कुछ लाभ तो होता ही है। बिलकुल होता है।

तुम्हें तनाव हो, तुम खा लो नींद की गोली। लाभ होता है या नहीं होता है? अब तनाव मिटाने के लिए जितना ज़्यादा नींद की गोली खाओगे उतना ज़्यादा अपनेआप को तुमने आश्वस्त कर लिया, एश्योर्ड कर लिया कि यही तो तरीक़ा है। यह तरीक़ा तुम्हें कहाँ ले जाकर ख़त्म करेगा; यह तुम देख नहीं रहे हो। सस्ते तरीक़े हमेशा ज़्यादा आकर्षक होते हैं।

प्र: आचार्य जी, अगर कोई जैसे शराबी है और उसके जीवन की समस्या ही यही है कि वह शराब बहुत पीता है और वह शराब तब पीता है जब वह बहुत ज़्यादा चिंतित हो, भड़का हुआ हो, चिढ़ा हुआ हो। अगर वह इस चिंता के क्षण में कान में ठेपी लगाने वाला ध्यान करके शांत हो जाए और शराब नहीं पिए, तो फिर तो बहुत अच्छी बात है न?

आचार्य: चलो, तुम्हारी बात का थोड़ा विश्लेषण कर लेते हैं। मैं वह हूँ जो सारे ग़लत काम कर रहा है। सारे ग़लत काम करते हुए, अगले कदम पर भी जो मैं करूँगा, वह कैसा काम होगा? ग़लत काम करना न। तो मुझे टूटना पड़ेगा। मेरी धारा जैसी बह रही है, मुझे उस धारा से ज़रा हटना पड़ेगा, न?

मेरे लिए जो सबसे ख़तरनाक बात हो सकती है वह क्या है? वह यह है कि मैं जो ग़लत काम कर रहा हूँ, कर रहा हूँ, वही ग़लत काम करते हुए मुझे शांति का अनुभव होना शुरू हो जाए। इससे मुझे और पक्का भरोसा क्या आ गया? कि यह ग़लत काम ही करते रहो, भैया।

प्र: वह ग़लत ज़िंदगी जी रहा है उसका सबूत यह है कि वह शराब पीता है और उससे फिर हिंसा करता है। पर अगर इस काम को करने से उसने शराब पीना छोड़ दिया है, हिंसा करना छोड़ दी है।

आचार्य: नहीं, शराब पीना नहीं छोड़ दिया है। इस काम को करने से उसने दूसरा नशा करना शुरू कर दिया है, जिसके जो परिणाम आएँगे उसकी बात करनी ज़रूरी है। तुम्हें क्यों लग रहा है कि एक नशे का इलाज़ दूसरा नशा है। और छोटा नशा अगर किसी नशे से कट रहा है; तो वह जो दूसरा नशा है, वह उससे बड़ा ही होगा।

तो छोटे नशे से अगर दुष्परिणाम होता था; तो बड़े नशे से महादुष्परिणाम होगा। बुरी बात और क्या है, शराब वाले नशे से जो दुष्परिणाम था, वह प्रकट होता था, ज़ाहिर होता था। उसके मुँह से बदबू आती थी, वह उल्टियाँ करता था, वो गालियाँ देता था, वो कोई ढंग का काम नहीं कर पाता था, उसका लीवर ख़राब हो रहा था — तो सारे जो परिणाम थे वो प्रकट थे।

तुम जो दूसरा नशा करोगे, तथाकथित आध्यात्मिक नशा, उसके दुष्परिणाम आंतरिक होंगे। वह पता भी नहीं लगेंगे। साइकिक (मानसिक) होंगे, वो पता नहीं लगेंगे। जब पता नहीं लगेंगे, तो उनका कोई इलाज़ नहीं हो सकता। जब पता नहीं लगेंगे, तो तुम्हें यह मानने की कोई मजबूरी भी नहीं है कि कोई दुष्परिणाम हैं भी।

तुम अपनेआप को यही जताए रहोगे कि नहीं, साहब! कोई दुष्परिणाम नहीं हैं। मैं जो कर रहा हूँ उसका तो मुझे अच्छा ही नतीजा मिल रहा है। तो एक नशे की काट दूसरे नशे को नहीं बना सकते।

प्र: इयरप्लग्स लगाकर, बैठकर 'शऽऽऽ' इस आवाज़ पर ध्यान करने के क्या परिणाम हो सकते हैं?

आचार्य: जो असली बीमारी थी तुम उसपर ध्यान नहीं दे रहे, वो बची हुई है। बिल्ली बैठी हुई है खरगोश के सामने। खरगोश इयरप्लग्स लगाकर बैठ गया है और 'शऽऽऽ' सुन रहा है (श्रोतागण हँसते है)। तो क्या हो जाएगा? बिल्ली भाग गयी?

प्र: सही मेडिटेशन वो है जो बिल्ली भगा दे।

आचार्य: सही मेडिटेशन (ध्यान) में यथार्थ से शुरुआत करनी होती है। यथार्थ! सामने क्या है? उससे लड़ना है या उससे बचने का जो भी तरीक़ा है वह अपनाना है। उसकी सत्ता से इंकार करके तुम उससे बच नहीं पाओगे। या बच जाओगे?

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