आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
सोच कर दिया तो व्यर्थ दिया || आचार्य प्रशांत, यीशु मसीह पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
25 मिनट
119 बार पढ़ा गया

But when thou doest alms, let not thy left hand know what thy right hand doeth.

Mathew(6:3 )

किन्तु जब तू किसी दीन दुःखी को देता है तो तेरा बायाँ हाथ न जान पाये कि तेरा दाहिना हाथ क्या कर रहा है।

मैथ्यू(6:3)

आचार्य प्रशांत: बाएं हाथ को पता भी न चले। पर क्या करें हम जो कुछ करते हैं वो करते ही इसीलिए हैं कि किसी और को पता चले, विशेषकर जब हम दे रहे होते हैं। क्या करें हम अगर देते कभी हो ही न, बदले में धन्यवाद खरीदते हों। क्या करें हम अगर देने का पूरा उद्देश्य ही यही हो कि दुनिया भर को पता चले? हम ऐसे ही हैं। मौन में हमसे दिया नहीं जाता, दिया और किसी को पता न चला, तो हमारा मन कहता है, देना व्यर्थ गया। किसी को तो पता चलना चाहिए।

गुप्तदान की भी व्यवस्था की गयी है, तो उसमें हम कहते हैं चलो किसी और को नहीं पता चला, हमें तो पता चला ना कि हमने दिया, हम खुश हो लेते हैं। अहंकार को ताकत मिल जाती है। “मैं कौन? मैं दानी।” एक नई पहचान मिल गई। बड़ी गौरवपूर्ण पहचान है, मैं इतना बड़ा हूँ, मैं दे सकता हूँ। तो सबसे निचले तल पर तो वो जो देकर ढिंढोरा पीटते हैं, उनसे ऊपर वो जो देते हैं तो किसी और को नहीं बताते पर खुद मन ही मन उसका रसास्वादन करते हैं, जीसस कह रहे हैं, “तुम तीसरे बनो, इन दोनों से आगे, तुम यूँ दो कि तुम्हें भी न पता चले कि तुमने दिया। बायाँ हाथ दे ओर दायें को खबर ना हो।”

पता चलने से क्या आशय है? पता चलने से आशय है कि मन ने उसका संज्ञान ले लिया, मन ने उसको स्मृति के तौर पर इकठ्ठा कर लिया, मन ने उस बात से अर्थ जोड़ लिए कि मैंने दिया, मैं दाता हूँ। कुछ यूँ दो कि दिया ओर भूल गया, ‘नेकी कर दरिया में डाल’। दिया और भूल गये, याद भी नहीं रहा कि दिया था। तुम एक कदम और क्यों नहीं आगे जा सकते? कि दो और जिसको दो, उसका धन्यवाद् अदा करो। एहसान तेरा मुझपर कि तूने लिया। क्योंकि मैं तो बाँटने के मौके खोज रहा था, कोई न मिलता बाटने के लिए, तो इतनी मौज कहाँ आती? अकेले इतनी मौज कहाँ है? आनंद का तो स्वभाव है बटना।

नदी कब रोकती है अपनी धार को, और फूल कब रोकता है अपनी सुगंध को? उनका तो स्वभाव है। “लो, दिया, बांटा।” और अगर बांटने लायक कुछ है, और बांटा नहीं तो वो बीमारी बन जाएगा, ध्यान रखना। दे कर के तुम उसपर एहसान नहीं कर रहे हो जिसने ग्रहण किया, दे कर के वास्तव में आत्यंतिक रूप से अगर किसी का भला कर रहे हो तो अपना ही कर रहे हो।

बुद्ध कहते हैं, “नाव है, उसमे पानी भर रहा है, उलीचो उसको दोनों हाथों से उलीचो,” यही दान है, उलीचो, दो। दो किस्म का देना हुआ, एक तो वह जो तुमने संगृहीत कर रखा है और बांटा, इससे मन पर भोज कम हुआ। रूपया, पैसा, जो भी कुछ तुम दे सकते थे, ज्ञान, अपनी उपस्थिति – ये न देते तो तुम्हारी नाव भर जाती ओर डूब जाती। जैसे नाव में पानी भरेगा जितना ज्यादा, वो नाव का धन नहीं है कि नाव बड़ी खुश हो, मैंने पानी इकठ्ठा कर लिया है। पानी भरेगा, नाव डूबेगी। तो उसे उलीचो। एक ये देना हुआ, इसमें भी दे कर के तुम अपना ही भला कर रहे हो,

दूसरे प्रकार का देना कौन सा हुआ? जिसमें आनंद से भरे हुए हो। और उसको बांटते हो, वो बंटता है, स्वयं ही बटंता है। उसमे भी तुम किसी पर एहसान नहीं कर रहे। पर आदमी का मन मानता नहीं। वो तो एक सुई भी किसी को देता है, आनंद तो छोड़ दो, एक कंकड़ भी किसी को देता है तो अपेक्षा करता है कि कुछ मिलेगा। तुम गौर करना, तुम किसी भिखारी को दो रूपये दो ओर वो तुरंत मुड़ कर चला जाए, एक क्षण को भी उसकी दृष्टि में अनुग्रह का भाव न आए तो तुम्हें बुरा लग जाएगा। दो रूपये भी दिए हैं तो तुम्हें अपेक्षा है कि तुम्हें कुछ मिलेगा।

हम ऐसे भिखारी हैं, हम उस भिखारी से ज्यादा बड़े भिखारी हैं, लगातार मांगते ही रहते हैं। जीसस कह रहे हैं कि ऐसे दो कि बायां हाथ दे, तो दायें को पता भी न लगे। मन में ये भाव ही न आने पाए कि मैं दाता हूँ। जहाँ जीसस खड़े हैं, वहाँ दाता सिर्फ एक होता है, ओर तुमने अगर ये भाव पकड़ लिया कि मैं दाता हूँ, तो ये अहंकार की बड़ी दुस्साहसिक उद्घोषणा है। एक है दाता, देने वाले तुम कौन होते हो? आ रही है बात समझ में? अगला?

श्रोता १: आचार्य जी, यहाँ पर दान जो बोलते हैं, तो वो कैसा दान? किस चीज़ का दान?

आचार्य जी: दोनों प्रकार का हो सकता है। हमने दोनों प्रकार के दानों की चर्चा कर ली है। कल भी जब सेशन चल रहा था, तो यहाँ लाईन लगा के खड़े हो गये थे। दो प्रकार का, एक तो वो जो इकठ्ठा कर रखा है, दान दो तरह का हुआ। एक तो वो जो तुमने इकठ्ठा कर रखा है, जिसके दम पर तुम्हारा अहंकार फलता-फूलता है, ये अहंकार युक्त दान है। ठीक है? ये अहंकार युक्त दान है क्योंकि इसमें अहंकार है, और वो जिन वस्तुओं पर, जिन विचारों पर, जिन आधारों पर, अपना पोषण पाता है, तुम उनका ही दान किये दे रहे हो। ठीक है ना?

दूसरा दान हुआ अहंकार मुक्त दान, उसमें तुम्हारे पास बांटने के लिए सिर्फ प्रेम है ओर आनंद है। दोनों प्रकार का दान महत्वपूर्ण है, जब पाओ कि अहंकार बहुत घना है, तो उन आधारों का दान करो जिनपर अहंकार फल-फूल रहा है। जब पाओ कि अहंकार गया, मुक्त हो, हलके हो, तो अपने हलकेपन का दान करो।

जब भारी हो, तो तुम्हें जो भारी बनाता है, उसका दान करो, और जब हलके हो, तब अपना हलकापन फैलाओ, पर दोनों ही स्थितियों में बांध कर मत रखो। तुम्हारे पास पैसा बहुत है, तुम पैसा बांटों, और तुम्हारे पास प्रेम है, तुम प्रेम बांटों। तुम और कर क्या सकते हो? प्रेम अभी तुम्हें उपलब्ध हुआ नहीं, तुमने ज़िन्दगी भर सिर्फ पैसा-पैसा जोड़ा, तो तुम शुरुआत पैसे से ही करो। वही पहला कदम है। तुम पैसों को बांट दो।

इसीलिए तमाम धार्मिक पंथों में दान की इतनी महिमा बताई गई है। कि बांटों, कपड़े, पैसे, ज्ञान, जो दे सकते हो। पदार्थी हो, और क्या बांटोगे? अहंकार तो पदार्थों पर ही फलता फूलता है, तो उनको बांटों। सेठ भी बांटता है, संत भी बांटता है, दोनों के ही बांटने का महत्त्व है, दोनों को ही बांटना चाहिए। सेठ वो बांटेगा जो सेठ के पास है। क्या करे, आनंद और प्रेम तो उसके पास है नहीं। पर जो है, उसकी भलाई उसी में है कि वो उसी को बांटे। जो राजा के पास है, वो राजा बांटेगा, और जो संत के पास है, वो संत बांटेगा, पर बांटना सबको है, बांटे बिना तुम रह नहीं सकते और जो बांटेगा नहीं, वो बीमार पड़ेगा। जो भी तुम इकठ्ठा करोगे, वही तुम्हारी बीमारी बन जाएगा, ये पक्का समझो।

श्रोता 2: आचार्य जी, अगर किसी को बहुत गुस्सा आता है तो वो गुस्सा बांटे?

आचार्य जी: गुस्सा जिन आधारों पर फलता-फूलता है, हमने क्या कहा? अहंकार जहाँ से पोषण पाता है उसको बांटों। तुम क्रोध कर सकते हो क्या सब पर? तुम क्रोध किन पर करते हो?

श्रोत ३ : जो सहन कर जाते हैं। हमसे कमज़ोर।

आचार्य जी: ठीक है ना। तो निश्चित रूप से कोई ताकत तुमने संग्रह कर रखी है, उस ताकत के आधार पर तुम क्रोध करते हो। वो ताकत कौन सी होती है? या तो रुपये-पैसे की होती है, या संपर्कों की, संबंधों की होती है, उनको बाँट दो, क्रोध अपने आप चला गया। जिस ज़मीन पर खड़े होकर के तुम क्रोधित होते हो, जब तुमने उस ज़मीन का ही दान कर दिया तो तुमने साथ में क्रोध का भी दान कर दिया। बात आ रही है समझ में?

श्रोता 4: ये बांटने का मतलब क्या हुआ? कि जिसके पास कुछ भी हो वो बाँट दे?

आचार्य जी: याद रखना,

अहंकार का हमेशा कोई भौतिक आधार होता है। कुछ होता है, अहंकार स्थूल होता है, अहंकार सूक्ष्म होता है, इन दोनों ही स्थितियों में उसके पीछे स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ होते हैं, जिनको तुमने पकड़ रखा होता है, जो तुम्हारे हैं नहीं पर तुमने जिन्हें पकड़ रखा है। अपनी उस पकड़ को ढीला करने का ही अर्थ है बाँट देना।

कामवासना नहीं बांटी जा सकती, पर उसका जो आधार है, उसको जब खोजोगे तो मिलेगा ज़रूर, बिलकुल मिलेगा। उसके स्थूल, सूक्ष्म दोनों आधार होंगे। तुम उन्हें छोड़ दो, इसी छोड़ने का नाम है बांट देना।

श्रोता 4: आचार्य जी, इसमें जो आपने दो तरीके बताये, दो तरीके का बांटना, दूसरा वाला तो फिर भी थोड़ा समझ में आया जबकि वो अभी जीवन में उतरा नहीं है, लेकिन जो पहला है क्योंकि वो अभी हमारे आयाम का है, तो जो राजा महाराजाओं के समय पर भी होता था कि प्रजा में दान करना चाहिए, ये पहला पदार्थ वाला दान है हमारे जीवन में आज इसके क्या मायने हैं? मतलब कैसे करें? विशेष उदाहरण दें, क्या दान दें?

आचार्य जी: मन कहीं भी जा कर के संयुक्त होने के लिए लालायित रहता है, एक छोटी सी चीज़ हो सकती है, मोबाइल फ़ोन, और तुममें कुछ ऐसी वृत्ति घर कर सकती है कि तुम तीन-तीन, चार-चार रखने लगो। आवश्यकता नहीं है, एक काफी था, तुम चार लिए फिरते हो, उन्हें छोड़ दो, दे दो। कपड़ों को ले लो, क्या वास्तव में उतने ही कपड़े हैं तुम्हारे पास, जितने में काम चल जाता? ये विधि है एक। मैं तुमसे कह रहा हूँ अहंकार का हमेशा कोई स्थूल या सूक्ष्म भौतिक आधार ज़रूर होता है। उसको दे दो, बाँट दो।

खोजोगे तो मिलेगा। अलग अलग होगा, हर कहानी में कुछ अलग आधार निकलेगा, पर होगा ज़रूर। वस्तु होगी, नहीं तो विचार होगा। फिर बता रहा हूँ,

दान का अर्थ ये नहीं है कि दूसरे का भला करन है, दान का अर्थ है, मुझे छोड़ देना है।

जब भी कोई ये सोचेगा कि मैं गरीबों में कम्बल बाँट रहा हूँ, उससे गरीबों का फायदा होता है, वो अपने आप को धोखे में रख रहा है। गरीबों का फायदा करने वाले तुम कौन होते हो? दाता एक है। वो कर लेगा गरीबों के लिए इंतज़ाम, गरीबों का ख़याल वो रख लेगा, तुम अपना ख़याल रखो।

तुम्हारा अकाउंट, तुम्हारी तिजोरी बहुत भर गयी है, तुम उसमें से निकालो, और जो भी सामने दिखे, दे दो उसको। समझ में आ रही है बात? तुम इस होशियारी में मत रहो कि मैं जगत कल्याण करने निकला हूँ, तो मैं सुपात्र को चुनूँगा, ओर उसको दान दूंगा, और कहीं मेरा पैसा गलत हाथ में न पहुँच जाए। हटाओ ये सब बात। तुम तो फ़िक्र ये करो कि मेरे पास न रह जाए।

मैं यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि तुम्हारे पास पैसा बहुत भर गया है, तो तुम जा कर के नदी में बहा दो। सुनने में बात अजीब लगेगी, आप कहेंगे, “नदी में क्यों बहा दें? जाके भिखारियों को क्यों न दे दें? किसी बस्ती में क्यों ना दे दें?” क्योंकि तुमने अगर भिखारियों को दिया ओर बस्ती में दिया तो तुरंत तुम्हारा ये संग्रह करने वाला मन, ये बात कहेगा कि मैंने भिखारियों का भला कर दिया। तुमने पैसा तो छोड़ दिया, पर पैसे से भी ज्यादा घातक बीमारी पकड़ ली है, गड़बड़ हो गई ओर यही होता है।

सौ रूपये का दान किया लेकिन एक हज़ार रूपये की प्रतिष्ठा खरीद ली। किसी और की नज़र में नहीं तो अपनी नज़र में सही। तो इसीलिए गुप्तदान का महत्त्व है, गुप्तदान नहीं कर सकते तो फिर कह रहा हूँ नदी में बहा दो। लेकिन ये ख़याल में मत आने देना कि तुम्हारे कारण दुनिया का भला हो रहा है। दुनिया का भला करने वाला जानता है दुनिया का कैसे भला करना है। अगर उसे तुम्हारे माध्यम से करना होगा, तो तुम्हारे माध्यम से करेगा, नहीं तो कर लेगा, उसके पास हज़ार हाथ हैं। तुम्हारे दो हाथों कि कोई बिसात नहीं। समझ रहे हो बात को?

मुद्दा संपत्ति के वितरण का बिलकुल नहीं है, कि सारा पैसा एक के पास है, वो कुछ पैसा अब दूसरों में भी तो फैलाए, हम समाजवाद की चर्चा नहीं कर रहे हैं यहाँ बैठ कर के। हम बात ये कर रहे हैं कि संग्रह करना बीमारी है और बीमारी को बांटना है, बांटने से क्या आशय है? ये नहीं कि बिमारी और फैलानी है, बांटने से आशय है कि उसे छोड़ देना है, छोड़ दो। अब अगर तुम्हारा छोड़ा हुआ किसी के काम आना है, क्या पता तो उस तक अपने आप पहुँच जाएगा।

ठीक इसी तरीके से जो दूसरा दान है, जिसमे तुम प्रेम को, और आनंद को बांटते हो, उसमें भी तुम ये फ़िक्र न करो कि मैं किसको प्रेम कर रहा हूँ, और मेरा आनंद किस तक पहुँच रहा है। व्यक्ति है तो व्यक्ति, स्त्री है तो स्त्री, पुरुष है तो पुरुष, बच्चा है तो बच्चा, बूढ़ा है तो बूढ़ा, खरगोश है तो खरगोश, कुत्ता है तो कुत्ता, पेड़ है तो पेड़, पौधा है तो पौधा, पत्थर है तो पत्थर, नदी है तो नदी, तुम ये बिलकुल मत सोचो कि किस तक प्रेम को पहुँचाना है, जैसे तुम्हें ये नहीं सोचना है कि किस तक धन को पहुँचाना है, उसी तरीके से तुम्हें ये नहीं फ़िक्र करनी है किस तक प्रेम को पहुंचाना है। जिस तक पहुंचे उसी तक भला। मुझे तो अपने आप को देखना है, कि मेंरे माध्यम से वो फैला कि नहीं फैला? किसको मिला किसको नहीं मिला वो अस्तित्व जाने, उसकी मर्ज़ी।

तुम्हें क्या पता है कौन तुम्हारे संपर्क में आएगा? आज कितने लोगों से मिलोगे जानते हो? जब तुम नहीं जानते कि आज कौन-कौन तुम्हारे संपर्क में आएगा, तो तुम ये कैसे फैसला कर सकते हो कि मेरा प्रेम किस-किस तक पहुंचेगा? पात्र की तलाश व्यर्थ है, मुझे मालूम है ये बात सुनने में अजीब लग रही है, ख़ास तौर पर धन-दौलत के मामले में। हमारा मन कहता है कि बांटने से पहले साफ़ साफ़ देखना चाहिए ना। वो मुद्दा ही गौण है, वो बाद की बात है।

तुमने हज़ार शर्ट इकट्ठा कर रखी हैं, ओर चौंकना मत लोग होते हैं जिनके पास एक शून्य शून्य शून्य, एक हज़ार कपड़े भी होते हैं। स्त्रियाँ होती हैं जिनके पास जूतियों के शायद तीस, चालीस जोड़े होंगे। अब ये महत्वपूर्ण नहीं है कि वो तीस-चालीस तुमने किसको दिए, महत्वपूर्ण ये है कि खुद मुक्त हो जाओ, फेंक दो, किसी को मिलने होंगे तो उसके सर पर जाकर के गिरेंगे, वो ले लेगा। अस्तित्व जाने किसको मिले? तुम नदी में बहा दो, किसी को मिलने होंगे तो नाव से उठा लेगा। ये फ़िक्र किसी ओर पे छोड़ो। क्योंकि ये फ़िक्र अगर तुमने की तो समझ रहे हो ना क्या होगा? मैंने जूते तो छोड़ दिए ओर उससे ज्यादा बड़ा ज़हर इकठ्ठा कर लिया।

जगत की भलाई की बात छोड़ो, अभी हम थोड़ी देर पहले चर्चा कर रहे थे कि दूसरों तक बात कैसे पहुंचाएँ? इमानदारी की बात क्या है?

तुम्हें प्रेम है किसी से ओर तुम उसे बीमार देख रहे हो, तो तड़प कौन रहा है? कौन तड़प रहा है? तुम तड़प रहे हो ना। तो उसका अगर तुम इलाज करते हो, तो किस पर एहसान कर रहे हो? अपने पर कर रहे हो ना। तो ये रवैया ही क्यों कि किसी और का भला करना है? “मैं तो जगत के कल्याण हेतु पैदा हुआ हूँ।” भाई अगर प्यार है, और जिससे प्यार करते हो उसको कष्ट में और बेहोशी में, इग्नोरेंस में देख रहे हो तो तुम्हें बुरा लग रहा है ना? नहीं लग रहा?

तुम चाहते हो जिससे प्यार करते हो, वो नशे में झूमता रहे, गड्ढों में गिरता रहे, चोट खाता रहे? दुखी रहे? वो दुखी है तो तुम दुखी हो। तुम अपने दुःख का इलाज कर रहे हो, और ये भूलना नहीं किसी पर एहसान नहीं किया जा रहा है, किसी पर एहसान नहीं किया जा रहा है।

हाँ तुम जिसको दो, उसके मन में अनुग्रह उठे, वो तुम्हें धन्यवाद दे, ये उसकी अपनी कहानी है, तुम अपेक्षा मत करना।

तुम्हारे पास सौ जोड़ी जूते थे, तुमने उछाल के फेंके, वो किसी के सर पे जाके गिरे, उसको ज़रुरत थी, उसने ले लिए, ओर उसने कहा धन्यवाद, तुम मत खुश होने लगना, कि तुम्हें धन्यवाद बोला। तुम्हें नहीं धन्यवाद बोला, एक दाता है, उसको धन्यवाद बोला है। तुम माध्यम थे। तुम तो माध्यम थे, तुम अगर इतने ही होशियार होते कि सुपात्र चुन सकते, तो तुम पहले संग्रह ही क्यों करते? पर हमारा तर्क देखो, पहले तो हमने सालों तक अनाप-शनाप तरीकों से दौलत इकठ्ठा करी, ओर अब हम क्या कर रहे हैं? हम एक फाउंडेशन बना रहे हैं जो उचित कैंडिडेट ढूंढता है, कि दान किसको दिया जाए। तुममें अगर इतनी ही योग्यता होती सुपात्र ढूँढने की, तुम इतने ही अगर समझदार होते, तो तुम्हारे पास इतना पैसा क्यों इकठ्ठा होता?

बड़ी-बड़ी फाउंडेशन चल रही हैं आजकल जो काम ही यही करती हैं, कि हमें दान देना है, डोनेट करना है, तो हम ज़रा खोज कर रहे हैं कि कौन से योग्य लोग हैं जिन तक हमारा पैसा पहुंचे। बेवकूफ। तुम योग्य की खोज करोगे? पैमाने तो तुम्हारे ही होंगे ना योग्यता के? तुम्ही तो फैसला करोगे ना कौन योग्य है? तुममें है अक्ल फैसला करने की? और अक्ल होती तो तुम ये अरबों इकठ्ठा कर के बैठ जाते? बताओ? अमीरी बिमारी है। मनोविकारी स्थिथि है, “इकठा करो, इकठ्ठा करो, इकठ्ठा करो।”

जिस दिन इस धरती पर आदमी थोड़ा और चैतन्य होगा, उस दिन ये जितने लोग हैं जिन्होंने इकठ्ठा कर रखा है, इनका इलाज किया जाएगा, इनको आदर्श नहीं बनाया जाएगा, इनकी पूजा नहीं की जाएगी, धनपतियों के लिए पागलखाने खोले जाएँगे। कि तुझे क्या बीमारी थी जो तू इतना इकठ्ठा कर के बैठ गया? क्या दुःख है तुझे? कौन सी असुरक्षा है? बच्चों को ये नहीं कहा जाएगा कि फलाने बड़े अरबपति हैं, उनको पूजो, उनको आदर्श बनाओ, वो प्रेरणाश्रोत हैं, वो प्रेरणाश्रोत नहीं पागल है। ज़रा सी भी आध्यात्मिक सूझ बूझ हो तो आदमी तुरंत समझ जाएगा, ज़रा सी भी हो। मैं गहरी समाधि की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ होश की एक किरण भी हो तो भी समझ जाएगा कि इतना पैसा इकठ्ठा करना तो सिर्फ गहरी आंतरिक दरिद्रता का लक्षण है। जो भीतर से बहुत गरीब न हो, वो बाहर इतना पैसा नहीं इकठ्ठा कर सकता।

पर ये कैसी हमारी अजीब दुनिया है, जिसमें बच्चों को शिक्षा ये दी जा रही है कि अमीरों की ओर देखो, और वैसे बनो। और अमीरों को ये भुलावा दिया जा रहा है कि जब तुम दान करते हो, तो तुम दुनिया पर एहसान करते हो।

समझ रहे हो?

श्रोता 4: आचार्य जी, वारेन बफ्फेट (अरबपति)की एक उक्ति है कि “ पैसे कमाने से उसे प्रेम है।” और उन्होंने चालीस अरब कमाए और अब उसने दान कर दिए। तो जैसे आप कह रहे हैं कि जो इतना कमाता है, उसके अन्दर कमी है कोई, पर जब हम उसे सुनते हैं व्याख्यान उसकी, जब वो बात करता है तो वो प्रतिबिंबित नहीं होता।

आचार्य जी: पूरा होता है, ठीक से देखो। “पहले बचाओ, फिर भोगो,” ये एक बहुत ही मशहूर वक्तव्य है इस इंसान का। पहले इकट्ठा कर लो जितनी इकट्ठा करनी है, उसके बाद जो थोड़ा बहुत बचे, वो खा लो। इस वाक्य के बाद कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि आदमी कितना जर्जर है। जिसका दिमाग सारा का सारा भविष्य की ओर लगा हुआ है। पहले इकट्ठा करो। इकट्ठा करने की बात कौन करेगा, मात्र कोई डरा हुआ आदमी। “बचाओ,” क्या खौफ है कि बचाना है?

श्रोता 5: आचार्य जी, ये तो जोखिम से वाली बात भी तो हो जाती है।

आचार्य जी: जोखिम कहाँ है? जोखिम का क्या मतलब है? कौन आपको मारने चला आ रहा है? इस पेड़ को कोई जोखिम नहीं लग रहा, इंसान को हर समय जोखिम क्यों दिखाई देता रहता है? क्या खतरा है? क्या हो जाएगा? कौन सी दुर्घटना की आशंका खाए जा रही है?

श्रोता 5: जैसे हमारी जो कमाने की क्षमता है, वो ख़त्म हो जाए?

आचार्य जी: क्यों कमाना है? और नहीं कमाओगे तो क्यों ये खौफ खाता रहता है कि भूखे मर जाओगे? जिसने पेट दिया है, उसी ने समझ भी दी है ना? तुम्हें ये क्यों लगता है कि पेट तो रहेगा, और रोटी मांगेगा, पर वो समझ नहीं रहेगी जो रोटी हासिल कर पाएगी। क्यों लगता है?

श्रोता 4 : नहीं आचार्य जी, सोमालिया वगेरह में जो लोग भूख से मर रहे हैं?

आचार्य जी : वो क्यों मर रहे हैं? आपने कभी जानवरों को भूख से मरते देखा है जंगलों में? आदमी के पास जो जानवर हैं, उन्हें देखा होगा भूख से मरते। जब आप ये कहते हैं कि आपको गरीबी से, दरिद्रता से डर लग रहा है, इसीलिए आप बचाना चाहते हैं पैसा, तो मुझे ये बताईये गरीबी अस्तित्व में है या गरीबी आदमी की इजाद है?

श्रोता: आदमी की।

आचार्य जी: जंगलों में गरीबी देखी है कभी? कि गरीब हिरण घूम रहा है? और एक गरीब तोता। अस्तित्व में तो कभी गरीबी होती ही नहीं है। गरीबी एक सामाजिक कृति है, हमने गरीबी का निर्माण किया है। हमने दो तरह की गरीबी का निर्माण किया है, समझिएगा – पूर्ण गरीबी और सापेक्ष गरीबी, दोनों। कैसे? अकालों पर जब शोध हुआ कि अकाल कैसे होते हैं तो पता चला कि अकाल ऐसे नहीं होते हैं कि आपूर्ति नहीं हो रही है खाने की, अकाल ऐसे होते हैं कि वितरण नहीं हो रहा खाने का, क्योंकि कुछ लोगों ने अपने लालच के कारण…?

श्रोता: जमा कर रखा है।

आचार्य जी: जब कुछ लोग जमा करते हैं तो बाकी भूखे मरते हैं। नहीं तो अस्तित्व ने सबको दिया है। जब वो तोते को ओर चीटी को, ओर कुत्ते को ओर खरगोश को देता है, तो इंसान को ही नहीं देगा क्या? पर इंसान के अलावा कभी किसी को भूखा मरता नहीं देखा गया। इंसान आज भी भूखा मर रहा है। विचार तो करिए ना कि आपकी सभ्यता ने आपको क्या दिया है?

तो जहाँ तक पूर्ण गरीबी की बात है कि आप भूखे मर गए, ये इंसान ने करी है इकट्ठा। सापेक्ष गरीबी क्या है? कि आपके पास अपने पड़ोसी से कम है, ये भी समाज ने दी है आपको। कोई तोता आपको ईर्ष्या में मरता हुआ नहीं दिखाई देगा कि दूसरे तोते के पास ज्यादा है। पर आदमी मरता रहता है, मेरा घर बगल वाले के घर से छोटा है। दोनों प्रकार की दरिद्रता मानवनिर्मित है। बात समझ रहे हो ना? तुम अगर उतना ही खाओ जितना कि तुम्हे ज़रुरत है, तो कोई भूखा नहीं मरेगा। कभी कोई भूखा मर नहीं सकता। तुम अगर उतनी ही जगह लो जितनी कि तुमें ज़रुरत है, तो कभी किसी को जगह की कमी नहीं पड़ेगी।

जब तुम्हारी उम्र हो गयी है, तुम्हारी घड़ी आ गयी है, तब तुम चुप-चाप शरीर का त्याग कर दो तो दुनिया की आबादी यूँ न बढ़ेगी। दुनिया की आबादी व्यर्थ ही इसीलिए बढ़ी जा रही है, क्योंकि तुमने जन्म दर तो कम कर दी है, पर मृत्यु दर उससे भी कहीं ज्यादा कम कर दी है, तुम मरने ही नहीं दे रहे लोगों को। लोगों को तुम मरने ही नहीं दे रहे। जंगल में जानवर की जब मौत आती है, वो चला जाता है, वो नहीं जा कर के वेंटीलेटर पर बैठता। वो नहीं जा कर के सौ तरह की दवाइयाँ लेता, वो कहता है “जी लिए, अब और कितनी भूख है जीने की? एक खुला मुक्त, मस्त जीवन जिया, हो गए साठ के, सत्तर के, अस्सी के, अब जाने दो। अब भूख नहीं शेष है, खूब पी लिया।” तुम मरने ही नहीं देते।

श्रोता: आचार्य जी, किसी जानवर में ऐसी वृत्ति नहीं है जो इंसान में है, तो इंसान में कहाँ से आ गई कि इकठ्ठा करना और ये वो सब इंसान में कैसे आ गया, बाकी जानवरों में तो था नहीं।

आचार्य जी: करे होंगे पाप, क्या पता? इसका क्या जवाब है कि इंसान बनके क्यों पैदा हुआ? प्रार्थना करो, अगले जनम में कुत्ता बनो। सच में, आप जंगल चले जाओ, आपको हर जानवर हट्टा-कट्टा मजबूत मिलेगा।

श्रोता ५: कोई बीमारियाँ भी नहीं होती।

आचार्य जी: बीमारियाँ होती हैं, क्यों नहीं होती हैं, पर जब बीमारियाँ होती हैं, तो या तो उनके पास प्रतिरोधक तंत्र होता है उन्हें ठीक कर लेने का, नहीं तो बीमारी अगर हावी हो गयी तो सिधार जाते हैं। पर महामारी नहीं फैलते। आपने कभी नहीं सुना होगा कि जंगल में महामारी फैला और एक प्रकार के जानवर साफ़ हो हो गए बिलकुल। प्लेग इंसानों में ही फैलता है।

श्रोता 6: आचार्य जी , जैसा आपने कहा ना कि जितनी भी कमी होती है खाने की, जिसकी वजह से इकट्ठा करने का संकट आता है, वो मूलतः इस वजह से है कि समाज का एक वर्ग बहुत ज्यादा बचाता है। तो यहाँ पर ये भी कहा जा सकता है क्योंकि एक ऐसा वर्ग अस्तित्व में है, कुछ ऐसे लोग हैं जो बहुत ज्यादा जमा कर रहे हैं, अब हमारे पास उतने अवसर नहीं है तो ये उचित होगा कि हम बचाएँ।

आचार्य जी : नहीं तुम कर लो, जानवरों में भी इतना तो करते ही हैं वो भी कि थोड़ा बहुत इकठ्ठा कर लेंगे। चींटी भी दाना ले कर के जाती है रख देती है, तुम कर लो, पर थोड़ा विवेक तो रखो कि कहाँ तक जा रहा हूँ? तुमसे नहीं कहा जा रहा है कि सर के ऊपर छत न रखो, पर तुम ये देख लो कि वो छत किसलिए है? वो तुम्हें छाँव देने के लिए है या पडोसी को नीचा दिखाने के लिए है? और ये दोनों बहुत अलग अलग बातें हैं।

छत का प्रयोजन अगर सिर्फ इतना हो कि सर छुपाना है, तो ठीक है, पैसे का प्रयोजन बस इतना हो कि दूकान से राशन लाना है, और बाज़ार से कपड़ा लाना है, तो ठीक है, चलो उतना रख लिया है, पर हम जिस तरीके से बचाते हैं, और हमारे आदर्शों ने जो हमें प्रेरणाएँ दे रखी हैं बचाने की, वो तो सीधे-सीधे बीमारी है। बात मात्रा की नहीं है कि दस रूपया बचाओं या दस अरब बचाओ? ये बात आयाम की है, दस और दस अरब एक ही मात्रा में नहीं हैं, ये आयाम की है, एक बचाना इसीलिए है क्योंकि वो मेरी मूलभूत आवक्श्यताओं की पूर्ती करेगा, और एक बचाना इसीलिए है क्योंकि मेरा मन जो है, वो रुग्ण है, ये दो बहुत अलग अलग बातें हैं, इनको एक मत समझ लेना।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें