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लेख
शून्यता या संग्राम? || आचार्य प्रशांत, महात्मा बुद्ध और कबीर साहब पर (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, कल के सत्र में आपने गौतम बुद्ध जी का ज़िक्र किया, गौतम बुद्ध जी कहते हैं कि शून्य हो जाओ। माने आपको किसी भी घटना का फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए।

साहब कहते हैं:

कबीरा तेरी झोपड़ी, गल कटीयन के पास। जैसी करनी वैसी भरनी, तू क्यों भया उदास॥

~ कबीर साहब

आपने कहा है कि चुप मत बैठो, असत्य का विरोध करो, संग्राम करो। कृपा करके इन दोनों बातों में अन्तर्सम्बन्ध समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: बुद्ध जब कहते हैं कि शून्य हो जाओ तो शून्यता का मतलब होता है खालीपन, रिक्तता। कुछ न होने को कहते हैं शून्यता। तो बुद्ध को क्यों समझाना पड़ा कि बच्चा, शून्य हो जाओ। बुद्ध क्या ये बात शून्य को समझाएँगे कि शून्य हो जाओ? बुद्ध को क्यों समझाना पड़ा और किसको समझाना पड़ा कि शून्य हो जाओ? अरे! सीधी सी चीज़ है, बताइए।

जो कुछ हम हैं उसमें बुद्ध ने कुछ गड़बड़ देखी होगी तो उन्होंने कहा, 'ये जो तुम बने बैठे हो, ये मामला नकली है, गड़बड़ है, खोखला है और दुख-कारक है। तुम शून्य हो जाओ।' इसी को मैं कहता हूँ — असत्य के प्रति संग्रामरत रहो। बुद्ध कह रहे हैं, ‘कचरा हटाओ, खाली हो जाओ।’ मैं कह रहा हूँ असत्य हटाओ, जो शेष बचेगा वही सत्य है।

बात समझ में आ रही है?

बुद्ध की भाषा बड़ी शीतल है, शालीन है; मेरी भाषा रूखी है, लड़ाई-झगड़े की है। वो बहुत प्यार से कह देते हैं — शून्य हो जाओ। मैं ज़रा रगड़कर कहता हूँ कि उठो, भिड़ो, और जहाँ कहीं भी असत्य देखो, झूठ देखो, उसको निकाल बाहर करो, संग्राम करो। ठीक है? इन दोनों का सम्बन्ध साफ़ दिख गया?

इन दोनों का दिखा कि नहीं? अभी कबीर साहब पर आएँगे; इन दोनों का सम्बन्ध स्पष्ट है? नहीं हो तो बोलिए।

प्र: एक फ़र्क है जो मुझे अभी तक समझ नहीं आया है। वो ये है कि एक असत्य वो होता है जो हम अपने अन्दर रखते हैं कि मैंने बनावट बना रखी है, मैंने बन्धन बना रखे हैं, मुझे उसको काटना चाहिए। तो वो एक बात मुझे समझ में आती है। दूसरा ये है कि जो मेरे बाहर मुझे दिख रहा है ग़लत हो रहा है। तो बुद्ध इन दोनों में से किसकी बात कर रहे हैं?

आचार्य: दोनों की। लेकिन अध्यात्म में जब भी कोई बात कही जाएगी, वो सबसे पहले व्यक्ति के तल पर होती है। समाज अध्यात्म का प्राथमिक सरोकार नहीं है। ये अच्छे से समझिएगा। बुद्ध भी कहेंगे कि क्रान्ति चाहिए और मार्क्स भी कहेंगे क्रान्ति चाहिए, पर बुद्ध बात करेंगे आंतरिक क्रान्ति की और मार्क्स बात करेंगे बाहरी क्रान्ति की।

ये अलग बात है कि बुद्ध जिस आंतरिक क्रान्ति की बात करेंगे उसके कारण बाहरी क्रान्ति अपनेआप आ जाएगी। लेकिन बुद्ध की बात आप जब भी पढ़ें या अध्यात्म के क्षेत्र से किसी की भी बात आप जब भी पढ़ें, वो सबसे पहले आपके आंतरिक जगत के विषय में होती है। बाहर की बात होती है लेकिन बाद में।

शुरुआत बाहर से नहीं करनी है, शुरुआत भीतर से करनी है। फिर बाहर का खेल देख लेंगे। ऐसा नहीं कि अध्यात्म में बाहर की बात नहीं होती, पर प्राथमिक नहीं होती है, केन्द्रीय नहीं होती है।

बाहर की चीज़ों को भी महत्व दिया जाता है, उदाहरण के लिए, संगति ठीक रखो। ये बाहर की ही बात है कि भाई, किसके साथ हो। तो बाहर की बात होगी पर कभी भी पहले नहीं होगी। अध्यात्म का उद्देश्य है आंतरिक परिवर्तन। और आंतरिक परिवर्तन आएगा तो बाहरी परिवर्तन पीछे-पीछे अपनेआप चला आएगा। ठीक है? इन दोनों में सम्बन्ध स्पष्ट हो गया? बिलकुल साफ़ है बात।

अब आते हैं कबीर साहब की बात पर:

"कबीरा तेरी झोपड़ी, गल कटीयन के पास। जैसी करनी वैसी भरनी, तू क्यों भया उदास॥"

कबीर साहब कह रहे हैं — बाहर बहुत गन्दगी फैली हुई है, उस गन्दगी को क्या आवश्यक है भीतर प्रवेश दे देना? और जहाँ तक बाह्य जगत की बात है, उसमें तो तमाम प्रकृतिगत विकार रहेंगे ही रहेंगे। क्या आवश्यक है उनसे प्रभावित हो जाना?

असल में अगर आप बनारस जाएँगे, कबीर मठ, कबीर चौराहा जाएँगे, तो जहाँ रहा करते थे साहब उसके पास में सचमुच कसाइयों की बस्ती थी। और वो बकरा काटें, सूअर काटें और वहाँ से आवाज़ें भी आया करें। अब यहाँ पर साधुओं का जमघट, साहब का घर, लोग आयें मिलने-जुलने, बात करने और वहाँ से आवाज़ क्या आ रही है — पशुओं के कटने की। तो उस सन्दर्भ में ये कहा गया था।

हाँ, ये अलग बात है कि जब साहब बोलेंगे तो वो छोटी और साधारण बात भी बोलें तो उसके अर्थ व्यापक ही होंगे। वो कोई बहुत सीधी-सादी बाद भी बोलेंगे तो वो बात बहुत गहरी होगी, बड़े व्यापक अर्थ वाली होगी। तो बात आयी यहाँ से थी लेकिन उसके अर्थ व्यापक हैं।

क्या कह रहे हैं वो? बाहर से आ रही होंगी आवाज़ें, बहुत कुछ आ रहा होगा, तुम अपना ध्यान क्यों भंग होने देते हो? तुम अपना ध्यान क्यों भंग होने देते हो? तो कबीर साहब उस स्थिति की बात कर रहे हैं जब तुम साफ़ हो चुके हो भीतर से। वो कह रहे हैं — तुम साफ़ हो भीतर से, रिक्त हो गये हो, अब बाहर की गन्दगी को भीतर प्रवेश क्यों दे रहे हो?

मैं जो बात कह रहा हूँ, मैं एक गन्दे आदमी से कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ, 'तू गन्दा है, जा नहा-धोकर आ, ज़िन्दगी के विरुद्ध संघर्ष कर, जा नहा-धोकर आ।' कबीर साहब उस आदमी से बात कर रहे हैं जो नहा-धोकर आ गया। उससे अब कह रहे हैं कि तू बाहर की धूल अपने ऊपर क्यों पड़ने दे रहा है।

"जैसी करनी वैसी भरनी, तू क्यों भया उदास।" बाहर जो कुछ चल रहा है, चले, तू उसकी उदासी अपने ऊपर क्यों आने दे रहा है?

बात समझ में आ रही है?

जब बुद्ध कह रहे हैं कि शून्य हो जाओ तो किससे कह रहे हैं? जो अभी गन्दगी से भरा हुआ है उससे कह रहे हैं कि शून्य हो जाओ, तुम्हारे भीतर गन्दगी है, शून्य हो जाओ।

कबीर साहब का ये जो दोहा है ये किसके लिए है? जो शून्य हो गया। देख नहीं रहे हैं इसमें आप, वो स्वयं को सम्बोधित कर रहे हैं। 'कबीरा' तेरी झोपड़ी — अपनेआप को सम्बोधित कर रहे हैं कि मैं तो शून्य हूँ ही, अब ये बाहर की गन्दगी अपने भीतर क्यों आने दूँ।

जब भी आप कभी इन आर्ष वचनों को पढ़ें, आध्यात्मिक साहित्य को पढ़ें तो ये सवाल सदा पूछिएगा — ये जो बात कही गयी है, ये कही किससे गयी है? क्योंकि ज़रूरी नहीं है कि हर बात आपके जैसी ही स्थिति वाले किसी व्यक्ति से कही गयी हो।

कबीर साहब अगर अपनेआप को सम्बोधित करके कहें कि भाई, तुम्हारी झोपड़ी ग़लत लोगों के पास है लेकिन प्रभावित होने की कोई ज़रूरत नहीं, तो ठीक है। क्योंकि वो कौन हैं? अरे भाई! वो साहब हैं। उनके आसपास कितनी भी गन्दगी रहेगी, वो उससे अछूते रह जाएँगे। आपकी झोपड़ी अगर गलकटियन के पास हो, तो आप भाग जाइए, आप अछूते नहीं रह पाएँगे।

अगर कबीर साहब कह रहे हैं, "कबीरा तेरी झोपड़ी” — ‘ओ कबीर! तेरी झोपड़ी इन गलकटियन के पास है लेकिन अपनी करनी वो ख़ुद भुगतेंगे, तुम क्यों उदास हो रहे हो!’ तो ये बात कबीर साहब पर बिलकुल सटीक है। उनके लिए उपयुक्त है, आपके लिए उपयुक्त बिलकुल भी नहीं है।

आप तो भली-भाँति जानते हैं न कि आप कितने ज़्यादा ख़तरे में हैं, आप कितने वल्नरेबल (असुरक्षित) हैं, आप पर संगति का कितना असर पड़ता है। अगर आपकी संगति गलकटियन की हो गयी तो आप गलकटियन जैसे ही हो जाओगे। गलकटियन माने कौन? गला काटने वाले, हिंसक, क्रूर लोग।

आप की झोपड़ी अगर उनके पास है तो आप बिलकुल उन्हीं के जैसे हो जाओगे। तो ये तर्क मत देने लग जाइएगा कि देखो, कबीर साहब ने कहा है कि वे अपनी करनी ख़ुद भुगतेंगे, हमें क्या फ़र्क पड़ता है!

आपको फ़र्क पड़ता है। अपना जीवन देखिए, पड़ता है कि नहीं पड़ता है? जिसकी संगत में होते हैं उसका असर होता है न?

आयी बात समझ में?

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