आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
शारीरिक आकर्षण इतना प्रबल क्यों? || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
8 मिनट
110 बार पढ़ा गया

प्रश्न: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, आपके सत्संग में आना अच्छा तो लगता है, पर आने के लिए बड़ा प्रयत्न करता पड़ता है। दूसरी ओर जब प्रेमिका मिलने के लिए बुलाती है, तो उतना प्रयत्न नहीं करना पड़ता।

ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत जी: क्योंकि मुक्ति ज़रूरी नहीं है।

देह है, इसके लिए मुक्ति ज़रूरी है ही नहीं, लड़की ज़रूरी है। तो वो लड़की की ओर जाती है। ये जो तुम्हारी देह है, ये बताओ इसके किस हिस्से को मुक्ति चाहिए? नाक को मुक्ति चाहिए? आँख को मुक्ति चाहिए? नहीं। पर तुम्हारी देह में कुछ ख़ास हिस्से हैं जिन्हें लड़की चाहिए। तो लड़की के लिए तो तुम्हारी देह पहले से ही कॉन्फ़िगर्ड है। मुक्ति के लिए थोड़ी ही।

भई खाना न मिले तो देह मुरझा जाती है, मुक्ति न मिले तो कोई फ़र्क पड़ता है? एक-से-एक तंदरुस्त, हट्टे-कट्टे घूम रहे हैं पहलवान।

मुक्ति न मिले तो तुम्हारी इस पूरी व्यवस्था कोई अंतर पड़ता है क्या? हाँ खाना न मिले तो चार दिन में मर जाओगे, पानी न मिले तो दो दिन में मर जाओगे। लड़की न मिले तो बड़ी उदासी छाती है, मुक्ति न मिले तो उदासी छाती है? पैसा न मिले तो भी उदासी छा जाएगी। तो वही ज़रूरी है। वही तो ज़रूरी है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये प्रश्न पूछने में थोड़ी शर्म महसूस हो रही थी।

आचार्य प्रशांत जी: इसमें शर्म की कोई बात ही नहीं है। ये बिलकुल यथार्थ है। तुमने खोलकर बोल दी, सबकी ज़िंदगी का वही खेल है। कोई नहीं बैठा है जिसके साथ इसके अतिरिक्त कुछ और हो रहा हो। और जब ये सब हो रहा हो, तो ये जान लो कि ये सब बदा है।

प्रश्नकर्ता: तो हम बदे की ओर जाएँ, या …

आचार्य प्रशांत जी: तुम्हारे हाथ में नहीं है इधर-उधर जाना। जिस दिन तुम पैदा हुए थे पुरुष देह लेकर के, उस दिन तय हो गया था कि स्त्री की ओर भागोगे ही भागोगे। जिस दिन तुम ये मुँह, ये गला, ये आंत लेकर पैदा हुए थे, उस दिन ये तय हो गया था कि भोजन की ओर भागोगे ही भागोगे।

ये नथुने किस लिए हैं?

प्रश्नकर्ता: साँस लेने के लिए ।

आचार्य प्रशांत जी: साँस लेने के लिए। तो ये हवा खींचेंगे ही खींचेंगे। तो ये जो तुम्हारे प्रजनांग हैं, ये किसलिए हैं? ये जो अंग ढो रहे हो, ये किसलिए हैं?

भई नाक है, तो ये अपना काम कर रही है न। रोक पा रहे हो? है हिम्मत नाक को उसके काम से रोक पाने की? पेट को उसके काम से रोक पा रहे हो? छाती को उसके काम से रोक पा रहे हो? लिवर, किडनी किसी को रोक पा रहे हो उसके काम से? तो फ़िर जननांग को उसके काम से कैसे रोक दोगे? वो भी अपना काम कर रहा है।

प्रश्नकर्ता: पर आचार्य जी, ये दिल में जो बैचेनी महसूस होती है?

आचार्य प्रशांत जी: ये दिल-विल की बेचैनी कुछ नहीं है। तुम्हारे नीचे वाले विभाग में हड़ताल हो जाए, तो दिल एकदम साफ़ हो जाएगा।

(हँसी)

नीचे वाले विभाग का बस बिजली का तार काटना है। नीचे वाले विभाग की बिजली की सप्लाई-लाइन काट दी जाए अभी, तो दिल एकदम शांत हो जाएगा। कोई बेचैनी नहीं। तो पहली बात तो ये है कि इसको दिल का मामला बोलना छोड़ो। ये नीचे वाला मामला है। ठीक? तो वो अपना काम करेगा।

(हँसी)

बात समझो।

कोई समय होता है ऐसा जब मुँह में लार न हो?

प्रश्नकर्ता: नहीं ।

आचार्य प्रशांत जी: मुँह का काम है गीला रहना। तो ऐसे शरीर का काम है जगह-जगह से गीला रहना।

प्रश्नकर्ता: ऐसे तो हमारी आध्यात्मिक साधना में खलल पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत जी: क्यों पड़ेगा? पलक झपका रहे हो या नहीं झपका रहे हो? पलक का क्या काम है? झपकना। कान का क्या काम है? कहीं कुछ खटपट हो, सुन लेना। तो जननांग अपना काम कर रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: तो क्या किसी के साथ यदि जुड़ें हैं, तो इसी देह के कारण जुड़ें हैं?

आचार्य प्रशांत जी: तो और क्या कर रहे हो? भोजन तुम इसीलिए करते हो कि बुद्धत्त्व मिल जाएगा? मुँह को खाना किसलिए खिलाते हो?

प्रश्नकर्ता: कोई जीव है, जिसमें चेतना है। तो सिर्फ़ देह एकमात्र कारण नहीं है जुड़ने का।

आचार्य प्रशांत जी: तुम और भोजन इसीलिए खाते हो कि और चैतन्य जाओगे?

प्रश्नकर्ता: भोजन निर्जीव है।

आचार्य प्रशांत जी: भोजन निर्जीव कैसे हो गया? वो जीव ही था, जो निर्जीव हो गया। तुमने आजतक कौन-सी निर्जीव चीज़ खाई है? पत्थर, पहाड़, रेत ये सब निर्जीव होते हैं। तुमने आजतक जो भी कुछ खाया है, वो एक जीव था। चाहे वो पत्ता हो, या वो मुर्ग़ा हो। ठीक? खाने पहले उसे निर्जीव कर देते हो। तो जो खाते हो, इसीलिए तो नहीं खाते कि तुम्हारी चेतना बढ़े। खाना इसीलिए खाते हो कि मुँह है, पेट है, तो खाना माँगेगा। तो ऐसे ही जो जननांग हैं, वो स्त्री की देह माँगेगे।

स्त्री की देह पुरुष की देह माँगेगी, पुरुष की देह स्त्री की देह माँगेगी। देख नहीं रहे हो कैसे प्लग और सॉकेट की तरह निर्माण है इन अंगों का। वहाँ तो सबकुछ बनाया ही ऐसी तरह से गया है, कि एक चीज़ दूसरे की माँग करेगी ही। तो बस वही खेल तुम खेल रहे हो।

प्रश्नकर्ता: तो क्या माँगते ही रह जाएँगे जीवन भर?

आचार्य प्रशांत जी: भोजन नहीं खाते हो रोज़। करते हो या नहीं? तो ये क्यों नहीं कहते कि – “क्या खाते ही रह जाएँगे रोज़?” जैसे ही रोज़ खाते हो, तो ऐसे ही लड़की के पीछे रोज़ दौड़ना भी पड़ेगा। ये शरीर है।

अंतर बस एक है, जब खाते हो, तो ये नहीं कहते, “दिल में मोहब्बत आ गई है, और हमें भोजन से प्यार हो गया है।” ज़रा ईमानदारी रखते हो और कहते हो, “भक्षण कर रहा हूँ, भूख मिटा रहा हूँ।” इसमें तुम झूठ नहीं बोलते। नीचे वाले अंगों को लेकर झूठ बोलते हो, शायरी करते हो। बोलते हो, “जानें जा, तेरी जुल्फ़ें हैं आसमाँ। तेरा मुखड़ा है चाँद।”

इसमें ये नहीं है कि सारा मामला दैहिक है और प्राकृतिक है।

बात तुम्हारी बेईमानी की है।

तुम साँस लेते हो, क्या ये कहते हो कि – “मैं समाधि का अनुष्ठान कर रहा हूँ”? नहीं कहते न? भोजन करते हो तो ये नहीं कहते कि, “मैं परमात्मा का प्रसाद ले रहा हूँ।” पर जब तुम स्त्री के पीछे भागते हो, तो तुम कहते हो, “ये तो मेरा प्रेम है।” अरे प्रेम नहीं है, ये नीचे का विभाग है, कारख़ाना चल रहा है। रसों का उत्सर्जन हो रहा है।

अभी एक इन्जेक्शन लगा दिया जाए, और तुम्हारे हॉर्मोन्स शिथिल हो जाएँ, तुम तुरन्त छोड़ दोगे लड़की के पीछे भागना। ये बात पूरे तरीक़े से रासायनिक है , जैविक है। पर तुम्हें इस सच को मानने में बड़ी शर्म आती है कि – “मेरा और मेरी पत्नी का रिश्ता सिर्फ़ कामुकता पर आधारित है।”

जी हाँ, और कुछ नहीं है। नहीं तो तुमने किसी पुरुष से जाकर क्यों न शादी कर ली? और तुम्हें एक ख़ास उम्र की लड़की क्यों पसंद आई? देख नहीं रहे हो कि ये सारा खेल एक तयशुदा विभाग की तयशुदा प्रक्रियाओं का परिणाम है।

*पर आदमी को एक अजीब हठ है, एक ज़िद्द है, एक घमण्ड है कि उसमें कुछ दैवीय है,* *तो वो पूरे तरीक़े से अपने भौतिक कामों को भी दैवीय ठहराना चाहता है।*

बच्चा पैदा हुआ है तुम्हारा, वैसा पैदा हुआ है जैसे बन्दर और कुत्ते का पैदा होता है। कामुकता के एक क्षण में गर्भ ठहर गया, गर्भादान हो गया। लेकिन तुम कहोगे, “नहीं, ये तो भगवान का प्रसाद है। हमारे घर में ज्योति उतरी है।” घर में ज्योति उतरी है?

प्रश्नकर्ता: तो क्या इस सब में दिल का कोई सम्बन्ध ही नहीं है?

आचार्य प्रशांत जी: नहीं, बिलकुल भी नहीं।

तुम्हें अपनी माँग पूरी करनी है, करो। नाहक ‘प्रेम’ का नाम क्यों लेते हो। पर आदमी को बड़ा शौक़ रहता है दैहिक चीज़ों को भी अध्यात्म से जोड़ने का।

जैसे वो कहते हैं, “बुद्धा बार।”

मदिरालय को भी बुद्धा से जोड़ दिया।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें