आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
शरीर का वास्तविक उपयोग || आचार्य प्रशांत, संत कबीर और मुनि अष्टावक्र पर (2014)

वक्ता: ऋद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह।

निसि दिन दर्शन साधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह।।

इसी के साथ कुछ अन्य पंक्तियाँ भी हैं

एह अगन बिरहों दी जारी, कोई हमरी तपन निवारी।

बिन दर्सन कैसे तरिये, हुण की करिये।।

दोनों ही उदाहरणों में दर्शन शब्द आया है। कबीर, बुल्ले शाह दोनों ने एक साझे शब्द का प्रयोग किया है, किसका?

(सभी एक साथ): दर्शन

वक्ता: दर्शन का। तो सवाल ये है कि ये दर्शन क्या है? पता कैसे चले कि दर्शन हो रहा है? दृष्टि। दर्शन माने देखना। देखने के लिए क्या चाहिए? दृष्टि। कौन है साधु? साधु वो जिसके सामीप्य में दिखाई देने लग जाए। साधु का दर्शन करते हो और साधुता दृष्टि बन जाती है। साधु कौन? जिसके जब करीब हो, तो दिखाई देने लग जाए। साधु कौन? जिसके जब करीब हो तो आँखों में दर्शन की सामर्थ्य आ जाए। ये मत कहना कि साधु का दर्शन किया। इसको ऐसे कहना कि — बात को पकड़ो ध्यान से — जिसके समीप दर्शन कर सको, वो साधु है। साधु का दर्शन नहीं होता। इसका प्रमाण ये है कि यदि साधु का दर्शन हो पाता, तो साधुओं का दर्शन सबको हो जाता। पर साधु आते हैं और चले जाते हैं, क्या दिखाई देते हैं किसी को? क्या दर्शन हो पता है? हमारे बीच से कितने साधु संत चले गए, हमारे बीच से कितने बुद्ध, कृष्ण, महावीर चले गए हमें दिखाई दिए क्या? तो साधु का दर्शन नहीं।

जिसकी समीपता में तुम दर्शन के काबिल हो जाओ वो साधु है।

यही साधु की परिभाषा है: जिसके पास रहने से अचानक दिखाई देना शुरू हो जाए, अचानक बोध जागृत हो जाए, वही साधु है। बात समझ में आ रही है? वो व्यक्ति हो ज़रूरी नहीं, वो एक माहौल हो सकता है, कोई ग्रंथ हो सकता है, वो तुम्हारी अपनी ही आत्मा का बाहर फैलता प्रकाश हो सकता है क्यूँकी दृष्टि के पीछे, ताकत तो आत्मा की ही है। वही है जो दृष्टि को दृश्य दिखाती है। आ रही है बात समझ में? कैसे जानूँ? सवाल पूछा कि कैसे जानें कि दर्शन हो रहा है? अरे! बात सीधी है। जब देख पाओ तब दर्शन। बात इतनी सीधी है, पूछ क्या रहे हो इसमें? जब आँखें बंद तो कोई दर्शन नहीं। जब आँखें बंद तब घर्षण, जब आँखें खुली तब दर्शन!

इसमें पूछना क्या है? पर बात इतना सीधी है कि तुम उसको समझोगे नहीं। आँखें जब बंद होती हैं तो क्या होता है? इधर गिरते हो, उधर गिरते हो; उसी का नाम तो घर्षण है। घिसे जा रहे हो और जब आँखें खुली होती हैं, तो दर्शन होता है। सहजता से चलते हो तब खिलते हो पृथ्वी पर। जिस माहौल में आँखें खुल जाएँ, सब कुछ हल्का, साधारण, शून्यवत सहज लगे, वही साधु है और कैसे जानोगे साधु को? कोई विशेष चिह्न तो होता नहीं। तुमने यहाँ पर दो लोगों को उथ्रित किया है, कबीर को और बुल्ले शाह को। देखो यही दिनों कितने अलग थे। कबीर को कभी नाचते नहीं देखा गया, बुल्ले शाह तो खूब नाचते थे। कबीर की काया अति साधारण थी, बुल्ले शाह का शरीर, व्यक्तित्व, वाणी बड़ी ओजस्वी थी। कबीर ने पूरा जीवन अपने घर में या यात्रा करते हुए बिताया, बुल्ले शाह ने खूब संघर्ष किये, तलवार भी उठाई। तो कैसे कहोगे कि, ‘’ये साधु है और साधु के ये सब लक्षण और चिह्न होते हैं‘’? कोई विशेष चिह्न तो होते नहीं; किसी भी रूप में प्रकट हो सकता है। बाहर उसके प्रमाण मत खोजना कि ऐसा कपड़े पहने तो साधु। उसका प्रमाण भीतर खोजना। क्या है उसका प्रमाण? उसका प्रमाण है दृष्टि।

साधु का दर्शन तब मानो जब तुम्हारी दृष्टि निर्मल हो जाए। दोहरा रहा हूँ: जिसके सामीप्य में तुम्हारी दृष्टि निर्मल हो जाए, वही साधु है। तो साधु का दर्शन नहीं कहेंगे, कहेंगे जिसके पास रहने से दर्शन होने शुरू हो जाते हैं, वो साधु है। जिसके पास रहने से परमात्मा के दर्शन शुरू हो गए वो महात्मा है। तो ये परिभाषा है और क्या? वरना कैसे इंगित करोगे? आ रही है बात समझ में? अब कैसे जानें कि दृष्टि साफ़ है, साफ़ दिखाई दे रहा है? साफ़ दिखाई देना कुछ दिखाई देना नहीं है। हमें तो यूँ ही बहुत ज़्यादा दिखाई देता रहता है। हमें तो बहुत ज़्यादा दिखाई देता रहता है। विक्षेप और किसको कहते हैं? हम समझना चाह रहे हैं दृष्टि क्या है? विक्षेप किसे कहते हैं? जो नहीं भी है वो दिखाई दे रहा है। मृत्यु नहीं हैं, पर सौ तरह के और खतरे और भय नहीं हैं पर दिखाई दे रहे हैं। यही तो विक्षेप है और क्या है विक्षेप। दृष्टि निर्मल होने का ये अर्थ नहीं होता कि कुछ ख़ास दिखाई देने लग गया,

दृष्टि निर्मल होने का मतलब ये होता है कि जो दिखाई देता था, वो अब दिखाई देना बंद हो गया।

हमें बहुत दिखाई देता है, उदाहरण दीजिये हमें क्या-क्या दिखाई देता है? हमें भविष्य दिखाई देता है, कमाल करते हैं! दृष्टि निर्मल होने का ये अर्थ नहीं होता कि तुम त्रिकालदर्शी हो गए। तुम कुछ ख़ास देखने लग गए। दृष्टि निर्मल होने का अर्थ होता है कि वो जो आम आदमी को भी दिखता है, तुम्हें अब वो दिखता नहीं। तुम्हें दिखता ही नहीं, उन्हें खतरे ही खतरे नज़र आ रहे हैं। ‘’मुझे तेरी बड़ी चिंता है।‘’ उन्हें साँप, बिच्छु, अजगर दिखाई दे रहे हैं तुम्हारी ओर आते हुए। और तुम कह रहे हो, ‘’हैं कहाँ? हमें तो दिखाई ही नहीं देते। हमें दिखते नहीं, आपको हमारी बड़ी चिंता है कि हमारा क्या होगा? है कहाँ खतरा?’’ आ रही है बात समझ में?

हमें खूब संसार दिखाई देता है, चीज़ें ही चीज़ें। स्वस्थ आदमी वो है, जिसे कम दिखाई दे। दृष्टि का अर्थ है कि अब दिखाई ही नहीं देता, पहले दिखता था। सुनी है न बुद्ध की वो कहानी कि लोग पूछ रहे हैं कि, ‘’यहाँ से एक लड़की भागी तुम्हारे सामने से?’’ बुद्ध ने क्या कहा? ‘’दिखनी बंद हो गई। बहुत दिन हुए जब से ये दिखना ही बंद हो गया है कि लड़का है या लड़की है। पहले दिखता था, अब दिखता नहीं।‘’ निर्मल दृष्टि का अर्थ यही है कि अब नहीं दिखता। साधु कौन? साधु वो जिसकी संगति में संसार दिखना बंद हो जाए, इसी का नाम दृष्टि है। कुछ विशेष दिखता नहीं है, जो दिख ही रहा था जो मन पर हावी था, जो रह-रह कर के विचार उमड़-घुमड़ रहे थे, वो उमड़ने-घुमड़ने बंद हो गए। दिखाई ही नहीं दे रहे, ऐसा लग रहा है, ‘’अरे! सपने में थे इतनी सारी बातें थीं, सपना गायब छट गया।‘’ ये साधुता है, यही दर्शन है और यही दृष्टि है।

दृष्टि का अर्थ ये नहीं है कि तुमने बादलों को चीर कर के सूरज देख लिया। दृष्टि का अर्थ है कि बादल हैं ही नहीं, कहाँ हैं बादल? मात्र खुला आकाश है और कुछ है नहीं। बात आ रही है समझ में? इसी लिए साधुता, निर्मलता या दृष्टि विशेष होने का नाम नहीं है, वो और ज़्यादा सहज, सामान्य हो जाने का नाम है। उसका अर्थ है कि तुम पीछे आ गए, तुम केंद्र की तरफ आ गए, पीछे घर की तरफ आ गए। जो पूरी यहाँ व्यवस्था थी, स्वरचित, वो टूटी। कुछ नया नहीं आ गया है। साधु उसको मत मान लेना जिसके पास कुछ विशेष है, साधु वो है जिसके पास वो भी नहीं है, जो तुम्हारे पास है। समझो बात को और फिर यही बात उसकी बाहरी व्यवस्था में भी दिखाई देती है। भीतर से भी वो खाली है, उसके पास वो कुछ भी नहीं जो तुम्हारे पास है। तुम्हारे पास क्या है भीतर? तुम्हारे खौफ़ हैं, तुम्हारे सम्बन्ध हैं, तुम्हारे मोह हैं, तुम्हारे आकर्षण हैं, तुम्हारी आसक्तियाँ है। वो भीतर से खाली है, इन सब से और चूँकी वो भीतर से खाली है इन सब से, तो वो बाहर से भी उन सब चीज़ों से खाली हो जाता है जो तुम्हारे पास हैं।

क्या हैं तुम्हारे पास? इधर-उधर की चीज़ें झाडू, पोछा, आटा, नमक, दाल, चावल, मकान, बीवी, गाड़ी, बंगला। वो बाहर से भी इन सब चीज़ों से खाली है। साधुता, निर्मलता, दृष्टि तीनों एक ही ओर को इशारे हैं किस ओर को? न होने की ओर को। नहीं हैं। देखिये, जब हम माया की शक्तियाँ गिनते हैं, तो हम कहते हैं कि, ‘’विक्षेप और आवरण।‘’ विक्षेप क अर्थ होता है कि संसार का प्रकट होना और आवरण किस पर पड़ा है? ये मत सोचना कि आवरण के पीछे कोई बड़ा सुन्दर, नैना-भिराम दृश्य होगा। जैसा मंदिरों में होता है कि जब कपाट खुलते हैं, तो पीछे से सुन्दर मूर्तियाँ अवतरित हो रही हैं। आप कहते हो, ‘’वाह! आवरण।‘’ तो आप ये भी सोचेंगे कि सत्य के ऊपर भी कोई ऐसा ही आवरण पड़ा है। सत्य के ऊपर का आवरण हटने का मतलब बस वही है जो कि आकाश के ऊपर से बादलों के हटने का है। बादल हटते है, आवरण हैं बादल। बादल हटते हैं तो पीछे क्या कुछ दिखाई देता है? ये खालीपन है बस निर्प्रता, शून्यता। तो आवरण का मतलब बस इतना ही है बल्कि यूँ कहिये कि आवरण ही विक्षेप हैं दोनों अलग-अलग नहीं हैं। बात समझ में आ रही है?

आवरण ही विक्षेप है और आवरण जब हटेगा तो कुछ ख़ास दिखाई नहीं देगा, जो दिखाई दे रहा था वो दिखाई देना बंद हो जाएगा तो कोई उम्मीद में ना जीए कि प्रभु की सुन्दर, अलौकिक छवि एक दिन दिखाई देगी। छवियाँ तो तुम्हें अभी ही खूब दिख रही हैं। लौकिक, परालौकिक सब दिखती हैं, खूब अभी छवियाँ दिख रही हैं। सत्य का मतलब ये नहीं है कि इनसे ज्यादा सुन्दर कभी कोई और छवि उतरेगी। सत्य का मतलब ये नहीं है कि अभी तुम एक घृणास्पद संसार में जी रहे हो और इससे कईं बेहतर, कईं ज़्यादा लोभित कर देने वाला कोई संसार कभी तुम्हें मिलेगा। सत्य का मतलब ये है कि जिसमें जी रहे हो, ये भी नहीं रहेगा, ये खालीपन। आप कहेंगे उस खालीपन की क्या कीमत है? उस खालीपन की वही कीमत है, जो शरीर की बीमारी से खाली होने की है। कोई कीमत है उसकी? ‘’नहीं जी साहब, उसकी क्या कीमत है! स्वस्थ्य दो टके की चीज़।‘’

बात समझ में आ रही है? बात थोड़ी उल्टी है, दर्शन का मतलब क्या है फिर पूछ रहा हूँ? दर्शन का मतलब है कि जो दिखाई दे रहा है उसका दिखाई देना बंद हो जाना।

श्रोता: स्थूल का दिखाई देना, बंद हो जाना।

वक्ता: वही तो दिखता है।

श्रोता: और सूक्ष्म का आना..

वक्ता: और सूक्ष्म कुछ है नहीं। सूक्ष्म कुछ भी नहीं तो एक खालीपन, एक हल्कापन। क्या तुम ये कहोगे कि, ‘’पहले मैं एक बोझापन उठाता था, अब मैं एक हल्कापन उठाता हूँ?’’ बोझा है तभी तक तो उठाया जा रहा है न? हल्कापन है, तब तो उठाने के लिए कुछ बचा कहाँ? हल्कापन है, तो उठाने के लिए कुछ बचा कहाँ। ये बात ध्यान से समझ लो। साधु के दर्शन का अर्थ है कि चित्त शांत हो कर के बैठ गया बस, और कुछ नहीं। इसी लिए जो बुद्ध का नाम भी है बोध के लिए, वो बड़ा व्यवहारिक नाम है निर्वाण। खूब लगी हुई थी आग, खूब लगी हुई थी आग। आग, बुझ गई। अब जल नहीं रहे हैं, जल नहीं रहे। हम यहाँ बैठे हैं कोई अचानक पागलों की तरह उछलने लगे यहाँ भूत घूम रहे हैं।, यहाँ राक्षस घूम रहे हैं। देखिये न उसको कितना दिखाई दे रहा है। कितना ज़्यादा दिखाई दे रहा है उसको। क्या होगा निर्वाण उसके लिए? न दिखना। और ये प्रश्न पूछना पड़ेगा बड़ी इमानदारी से आपको अपने-आप से भला न होता कि जो दिखा वो न दिखता?

क्या-क्या तो दिख गया। जहाँ प्रेम नहीं था, वहाँ क्या दिख गया? वहाँ प्रेम दिख गया। जहाँ प्रेम नहीं था वहाँ क्या दिखा गया? भला न होता कि न दिखता? था कहाँ पर, देख डाला।

यही तो विक्षिप्तता है: जो है नहीं, वो दिख रहा है।

और दिख ही नहीं रहा उसमें प्रबल विश्वास है, ताकतवर यकीन है। ‘‘अरे! आई लव यू।‘’ बड़ी जोर देकर कह रहा है, ‘’आई लव यू।‘’ है कहाँ? साधु कौन? जिसकी संगति में कल्पनाएँ गायब हो जाएँ। फैंटसी समझते हो? फैंटसी माने क्या? वो जिससे फैंटास्टिक निकलता है। और आपका भरोसा नहीं आप ये भी कह सकते हैं, ‘’बड़ा फैंटास्टिक साधु है।‘’

सभी हँसते हैं

गज़ब हो गया। और ये आदमी के मन की बीमारी का परिचायक है कि हमें जो अच्छा लगता है, हम उसे क्या बोलते हैं?

फैंटास्टिक (सभी साथ में)

और फैंटास्टिक का अर्थ ही है जो है नहीं, बस दिखता है और आप बोलते हैं, ‘’*फैंटास्टिक।*‘’ एक मामले में बिलकुल सही बोलते हैं!

कोई आए आपके सामने बिलकुल सज-धज के, देखिये और कहिए, ‘’फैंटास्टिक।‘’ है तो तू नहीं, पर दिखती खूब है। जो मन में आए वैसा कह लीजिये, कह लीजिये जमादार है साधु। जो आपके संपर्क में आता है, तो कचरा साफ़ कर देता है, गलत नहीं कहेंगे। वो यही कर ही रहा है और आप चाहें तो कह लें कि प्रकाश पुंज है साधू जो आपके संपर्क में आता है, तो आपकी अँधेरी वासनाएँ साफ़ कर देता है। वो भी गलत नहीं हैं। लेकिन एक बात पक्की है आपको कुछ देता नहीं है। जो आपने इकट्ठा ही कर रखा है, जो आपने भर ही रखा है, उसको हटा देता है। अब आप समझ रहे हैं बात को? फिर दोहराएँगे आखिरी बार कब मानिए कि दर्शन हुए? जब जो आम तौर पे दिखता ही है वो दिखना?

बंद हो जाए (सभी साथ में)

बंद हो जाए। खूब दिख रहा था और जो दिख रहा था, मन उसमें खूब खोया हुआ था। दिखना बंद हो गया, ऐसा लगा जैसे कुछ क्षणों के लिए संसार ठहर गया है। ‘’अरे! कहाँ गया?’’ कुछ क्षणों के लिए पहिया घूमना थम गया। और कुछ क्षणों के लिए अगर वो घूमना थम जाए, तो ये प्रमाण है न इस बात का कि उसके बिना भी जी सकते हो। दो पल भी जी लिए तो जीवन भर भी जी सकते हो और जिसका प्रतीत होना, दो क्षण भर भी रुक जाए, क्या वो असली हो सकता है? क्या उसमें नित्यता हो सकती है?

नित्य तो वही है जिसका होना कभी रुके न।

और जो तुम्हें लगातार दिखता ही रहता है, जो तुम्हारे मन में लगातार घूमता ही रहता है, यदि ध्यान के क्षण में वो विलीन हो जाता है, तो इससे यही सिद्ध होता है न कि तुम्हारे मन में जो कुछ घूमता रहता है वो दो कौड़ी का है? साधू वही है, जिसके संपर्क में आने पर तुम्हें तुम्हारी दुनिया दो कौड़ी की दिख जाए, भले ही दो पल को। दो पल के बाद तुम्हें पूरी छूट है, तुम वापस जा सकते हो। और तुम करते भी यही हो, ‘’महाराज, अब आप अपने रास्ते, हम अपने रास्ते।‘’ लेकिन वो जो दो पल हैं, अगर तुम्हारा समय आ गया है अगर तुम में ज़रा सा भी संकल्प है, वो दो पल तुम्हें साबित कर देंगे कि सत्य ही है और कुछ नहीं और तुम सिर्फ भ्रमों की दुनिया में जी रहे हो अगर ज़रा तुममें इमानदारी है और उस ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं।

साधु तुम्हें दर्शन दे सकता है, पर दृष्टि तुम्हें रखनी है या नहीं रखनी, ये छूट तो तुम्हें तब भी है। बात समझ रहे हो न? ये ताकत, ये छूट, ये मुक्तता तुमसे कभी नहीं छीनी जा सकती। तुम सहमति न दो अपनी तो खुद परमात्मा भी तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता। ये तुम्हारे होने का अविभाज्य हिस्सा है। इसी लिए गुरु भी जब भी ये देखता है कि अभी शिष्य किसी भी तरीके से सहमति देने के मन में नहीं है, तो फिर वो एक सीमा के पार कोशिश नहीं करता। वो कहता है अभी नहीं, अभी मैं क्या परमात्मा भी कुछ नहीं कर सकता। क्यूँकी तुम्हारी इच्छा के बिना तो तुम्हें कुछ भी दिया नहीं जा सकता।

तुम्हारी इच्छा, अहंकार की ही इच्छा है। बड़ी मज़ेदार बात है ये। पर तुम तो अपने-आप को अहंकार ही जानते हो न। तुम्हारी स्वीकृति, तुम्हारी रज़ा के बिना तुम्हें कुछ दिया नहीं जा सकता। यही कारण है के कबीर गा रहे हैं साधु को, तुम तो नहीं गाते। कबीर बता देते हैं कि तुम क्या करते हो, जब साधु सामने आता है।

माता-पिता सूत इस तरी, आलस बन्धु कानि।

साधु दरस को जब चले, ये अटकावे आनी ।।

अब ये अजीब बात है कबीर साधु के गुण गा रहे हैं और उन्होंने सात ताकतें बता दी हैं, जो तुमको साधु से मिलने नहीं देंगी किसी भी हालत में। माता,पिता, बेटा, बीवी, आलस, दोस्त-यार, और तुम्हारी आना-कानी टाल-मटोल की आदत। ‘साधु दरस को जब चले, ये अटकावे आनि’। तुम साधु दरस को जब चलोगे, ये रास्ते में आ के खड़े हो जाएँगे क्यूँकी तुम साधु से मिले नहीं कि इन सातों के स्वार्थ टूटते हैं, इनके स्वार्थ टूटेंगे। साधु दुश्मन नहीं है, न माता का न पिता का, न सूत का, न स्त्री का, न बन्धु का, साधू दुश्मन नहीं है। लेकिन बात बहुत सीधी है कि साधु कौन? जिसके पास जाते ही दृष्टि निर्मल हो जाए, दृष्टि निर्मल हो गई, साफ़ हो गई तो तुम्हें कचरा दिखना बंद हो जाएगा, कचरे से तुम्हारी आसक्ति छूट जाएगी। और यदि संबंधों में कचरा ही कचरा भरा हो तो बहुत आवश्यक हो जाता है कि तुम्हें साधु की ओर जाने से रोका जाए! तुम्हें हर उस मौके से रोका जाए, और हर उस जगह से बचा जाए जहाँ पर सत्य उजागर होता हो, वहाँ से भागा जाए! और हर उस जगह पर पनाह ली जाए जहाँ पर भ्रम है, झूठ है और माया जाल है, वहाँ पनाह ली जाए।(व्यंग कसते हुए) बात आ रही है समझ में?

श्रोता: जैसे हम एक बाज़ार को देखते हैं, उस बाज़ार में मान लीजिए दिवाली की ख़रीददारी चल रही है, लोग खरीद रहे हैं, खूब ब्राइट है और सब कुछ है, स्थूल उसमें देखेंगे तो ख़रीददारी है, ब्राइटनेस है, लोगों के चेहरों पर स्माइल है अगर हमें उसमें ये दिखाई देता है कि एक दूसरे को तलवारों से मार रहे हैं, हमें ये दिखाई देता है कि वो भीख माँग रहे हैं एक दूसरे से, ये दिखाई देता है कि वो रो रहे हैं तो वो सूक्ष्म तो नहीं ही हुआ। पर वो फिर स्थूल भी नहीं है।

वक्ता: नहीं स्थूल क्यूँ नहीं है? अगर तुम किसी को चाँटा मार रहे हो, तो देखो तुम क्या कर रहे हो और सामने वाले पर क्या प्रभाव पड़ता है। तुमने जब चाँटा मारा तो उसके मुँह पर मारा, देह समझ के ही मारा और तुमने जब चाँटा मारा तो उसे खूब चोट लगी भनभना गया, बदले लेने को उतारू हो गया क्यूँ? मेरे मुँह पर, मेरे देह पर घात किया तो लोग जब एक दूसरे को तलवारों से भी काट रहे हैं, तो पूरी तरह स्थूल घटना ही तो है।

श्रोता: नहीं, शॉपिंग कर रहे हैं, उसमें आपको ..

वक्ता: ठीक, मैं समझ गया। एक तल नीचे आ गए तुम ये कह रहे हो कि, ‘’बाज़ार की जो पूरी व्यवस्था है, उसमें एक हिंसा है वो तुम्हें दिखाई दे रही है वो ठीक है,’’ ठीक है वो।

श्रोता: वो फिज़िकली विज़िबल तो नहीं है, मगर वो ऑब्वियस है, सूक्ष्म नहीं है।

वक्ता: फिज़िकल नहीं है ठीक। वो सूक्ष्म है या ये कह लो कि कम से कम जब कपड़ा खरीदा जा रहा है, उससे ज़्यादा ये सूक्ष्मतर बात है कि तुम्हें दिखाई दे कि इसमें हिंसा है। वो हिंसा तलवार की काट और लहू की धार में नहीं है, वो हिंसा मानसिक है। बाज़ार की जो पूरी व्यवस्था है उसमें हिंसा निहित्त है। वो हिंसा आँखों से नहीं दिखाई पड़ रही है, पर वो हिंसा अगर ज़रा सा समझोगे तो दिखाई पड़ जाएगी। न, उसमें खून नहीं बह रहा, उसमें किसी की गर्दन नहीं कट रही है, उसमें हिंसा खूब है गहराई से है ठीक है। वो बात ठीक है और ये बिलकुल सही है, ये एक तल और केंद्र के पास आ गए हो। जिसको ये दिखने लग जाए ये उसके लिए शुभ है।

श्रोता: लेकिन फिर सर, इसमें तथ्य को कैसे देखा जा सकता है?

वक्ता: देखिये तथ्य तो इतना ही होगा कि कपड़ा लिया गया और कपड़ा दिया गया। ये तथ्य से एक कदम आगे है।

श्रोता: सर, निर्मल का मतलब ये है कि ये भी न दिखे?

वक्ता: नहीं, निर्मल होने का अर्थ है कि जो कपड़े-लत्ते, बाज़ार, सबको दिखाई दे रहे हैं वो तुम्हें दिखाई दे ही नहीं रहे, वो तुम्हें दिखाई दे ही नहीं रहे। हमें दिखता ही नहीं। देखो, अनासक्ति का अर्थ ये नहीं होता कि, ‘’हम बड़े जाबाज़ हैं और हम पर जितने आकर्षण आते हैं, हम पर जितने डोरे डाले जाते हैं, हम उनको काट देते हैं तलवार से, हम बड़े योद्धा हैं।‘’ अनासक्ति का ये नहीं अर्थ होता, अनासक्ति का अर्थ ये होता है कि हम पर डोरे डाले ही नहीं जाते, अनासक्ति का अर्थ ये होता है कि, ‘’जो खौफ़नाक सपने तुम्हें सताते थे, हमें वो सपने आते ही नहीं।‘’ अनासक्ति का अर्थ ये नहीं है कि, ‘’हमें आते हैं खौफ़नाक सपने पर, हमारे पास एक लड़ाका है, वो उन सपनों को भगा देता है।‘’ ‘’न, हमारे पास आते ही नहीं, हमारे पास आते ही नहीं। हमारे पास वो बीमारी ही नहीं है जो सपनों को आकर्षित करे।‘’

एक चीज़ तो ये है कि आप शरीर पर खूब गुण लपेट के फिर रहे हैं चाशनी, शहद, शक्कर और आपने पाँच-सात तरह की विधियाँ अपना रखी हैं, मक्खियों को दूर रखने की। क्या विधियाँ हैं आपके पास? आपने पाँच-सात आल आउट वगैरह फिट कर रखे हैं, एक दो लोग लगा रखे हैं, वो लगातार पंखा चला रहे हैं। गुण और चाशनी तो आपने लपेट ही रखा है, उसके ऊपर एक परत मौस्कीटो रेप्लेंट की और फ्लाई रेप्लेंट की और इन्सेक्ट रेप्लेंट की, ये सब की लगा रखी है। जैसे माइंड कण्ट्रोल है, वैसे ही आपने पेस्ट कण्ट्रोल भी लगा रखा है। ठीक है शरीर पर चाशनी खूब पुती हुई है, लेकिन उसके साथ-साथ ओडोमोस भी पुता हुआ है और दूसरा क्या है? शरीर ही निर्मल है। ‘’हमें मक्खियाँ भगानी नहीं पड़ती क्यूँकी हमारे पास मक्खियाँ आती ही नहीं। हाँ, हमें कोशिश नहीं करनी पड़ती है कि मन नियंत्रण में रहें, कि मन का निग्रह करें क्यूँकी हमारा मन भागता ही नहीं तो कोशिश क्यूँ करें? तुम करो कोशिश। दृष्टि को इसके समकक्ष मानो।

दिखने का अर्थ होता है कि जो दिखेगा, उससे आसक्त भी रहोगे, जो भी दिखेगा। अभी हमने बात करी थी, जो तुम होते हो, वही तुम्हें दिखता है। तुम्हें कपड़ा दिखेगा, तो तुम्हें कपड़े से आसक्ति उठेगी और तुम्हें परमात्मा दिखेगा तो प्रेम में जीयोगे। अब ये तो बड़ा मुश्किल है, तुम शॉपिंग मॉल में हो और चारों तरफ़ परमात्मा दिखे। कैसे करोगे? तो शॉपिंग मॉल को चारों तरफ़ वही चीज़ें दिखती हैं, जिनसे आसक्ति हो। पदार्थ हो, पदार्थ ही देखते हो। बात आ रही है न समझ में? संसार ही बदल जाता है। एक जगह पर नानक ने कहा कि, ‘’तुम कितनी कोशिश कर लो कभी नहीं जान पाओगे कि योगी के, फ़कीर के मन में क्या चलता है। कितनी भी कोशिश कर लो कभी जन नहीं पाओगे।‘’ वो संसार ही दूसरा है। अगर तुमको उसको एक ही वस्तु दिख रही होती, तो बात भी की जा सकती थी। तुम पूछते, वो क्या है? वो कहते, ‘’देखो, मुझे तो ऐसा दिखता है’’ और तुम कहते, ‘’नहीं मुझे तो ऐसा दिखता है।‘’ फिर कुछ वाद, तर्क-वितर्क हो सकता था। जो उसको दिखता है, वो तुमको दिखता ही नहीं। जो तुम्हें दिखता है, वो उसको दिखता ही नहीं। उसको लगातार आकाश दिखता है, तुम कहते हो आकाश क्या? उसको सब खाली, साफ़, स्व्च्छ, निर्मल लगता है, तुम कहते हो शून्य कहाँ, कैसा? और तुम्हीं चारों तरफ़ क्या दिखाई देता है? पदार्थ, वस्तुएँ। कहेगा है कहाँ, हमें तो नहीं दिखते। हमें दिखते ही नहीं। हमें नहीं दिखते। जो दिखेगा, वो अपना असर भी करेगा, वो आकर्षित भी करेगा। मक्खी को क्या दिखाई देगा इस कमरे में? गन्दगी और दिखेगी गन्दगी तो वो अपना असर करेगी। क्या असर करेगी? खींचेगी, आसक्त करेगी।

उसको वो दिख ही इसलिए रही है क्यूँकी उसे आसक्त होना है, अन्यथा नहीं दिखाई देती। बात समझ रहे हो? तुम्हें क्या दिखाई देता है वही तो तुम हो, तुम्हें जो दिखाई देता है वही तो तुम हो। यदि तुम पेट हो तो तुम्हारे लिए इस कमरे में सिर्फ भोजन है। यदि तुम आत्मा हो तो इस समय इस कमरे में मात्र आत्मा का प्रकाश है। बात आ रही है समझ में? दिखना ही बदल जाता है, संसार ही बदल जाता है। कोई तुमसे पूछे क्या है? तुम्हारा उत्तर ही बदल जाएगा क्या है। तुम ये नहीं कहोगे कि मेरा इंटरप्रिटेशन (व्याख्या) बदल गया। विवरण नहीं बदले हैं, विश्लेषण नहीं बदले हैं, जो है वही बदल गया है। कुछ दिखता था और, अब कुछ और दिखता है। उसके नए अर्थ नहीं करे हैं। वस्तु ही बदल गई है, वस्तु ही बदल गई है और ये जो बदलना है ये क्रमशः हल्का होना है। बिलकुल ठीक कहा था अभी अभिषेक(श्रोता को इंगित करते हुए) ने पहले तुम्हें दिखाई देती थी दुकानदारी, पहले तुम कहते थे हम कर रहे हैं ख़रीददारी। मोटी बात थी उससे थोड़ी सूक्ष्म बात हुई कि हिंसा दिखी। फिर और सूक्ष्म, फिर और सूक्ष्म, सब हल्का होता जा रहा है, घुलता जा रहा है, घुलता जा रहा है। अंततः पूछेगा कोई कि क्या दिख रहा है? तुम कहोगे कुछ है ही नहीं क्या दिखेगा। क्यूँकी जो दिखेगा वही महत्वपूर्ण हो जाएगा, नहीं दिखता कुछ।

ये भी कहना कि बाज़ार हिंसा का अड्डा है, बाज़ार को महत्वपूर्ण बनाता है। जब तुम्हारे लिए बाज़ार ख़ुशी का केंद्र है, तो बहुत महत्वपूर्ण है तुम्हारे लिए, बहुत महत्वपूर्ण। तुम्हारा दावा है कि बाज़ार तुम्हें क्या दे देगा? खुशियाँ दे देगा। जब तुम्हारा दावा ये है कि तुम्हारे लिए बाज़ार हिंसा का अड्डा है, तब भी बाज़ार तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है। क्यूँ? बहुत दुःख देगा, दुःख देता है। बात बढ़ रही है, बात आगे बढ़ रही है। द्वैत का एक सिरा पहले दिखता था, अब वो सिरा तो दिखता ही है, अब दूसरा भी दिख रहा है। यात्रा शुरू हुई है, बात शुभ है। लेकिन ये भी छटेगा, हिंसा भी नहीं दिखाई देगी। क्यूँकी अगर हिंसा भी दिखाई दे रही है तो मन पर कुछ तो छाया हुआ है न। मन हल्का नहीं है, खाली नहीं है।

एक आदमी जिसको बाज़ार आकर्षित कर रहा है, तो उसके मन में क्या छाया हुआ है? लालच। मन खाली तो नहीं है न उसका बाज़ार में जाते समय और दूसरा आदमी है जो जब बाज़ार में है, उसे हिंसा ही हिंसा दिख रही है, उसके मन में क्या छाया हुआ है? एक तरीके की घृणा, जुगुत्सा, वीतराग। मन खाली तो नहीं है न उसका, दोनों चल रहे हैं अगल-बगल। एक के मन में क्या चल रहा है? लोभ-आकर्षण और दूसरे के मन में क्या चल रही है? घृणा। बहरहाल ख्याल तो घूम ही रहा है न मन में? ये सब बेकार है, ये सब बेकार है। पर ये सब है, ये सब अभी है, महत्वपूर्ण है। मैं सोच रहा हूँ इसके बारे में। एक दम गैर महत्वपूर्ण होता, तो मैं सोचता ही क्यूँ?

दिखना बदले, और जब दिखना बिलकुल बंद हो जाए तो समझिएगा पूर्ण दर्शन हो गया। उस दिन परमात्मा आपको दिखाई दे रहा है। पूर्ण दर्शन हो गया, अब नहीं अब ठीक है। वो वही है, जिसको हमने कहा था जब दृष्टि बदलती है, दिख्नना बदलता है, तो तुम मुझे यूँ न मना पाओगे। रूप होंगे कुछ और, हमें दिखता कुछ और है। रूप होंगे हज़ार, हमें दिखता लेकिन कुछ और है। अब ये किसी तीसरे को समझ में नहीं आएगा कि आदमी है और कुत्ता है, यहाँ पर ये चल क्या रहा है। जो है वो बस आपको दिख रहा है, संसार ही बदल गया है। क्यूँ है अब आपकी ऐसी छवि, आप किसी तीसरे को समझा नहीं पाएँगे, संसार बदल गया है। आकाश में ऊँचे उड़ने वाला पक्षी, ज़मीन में बसने वाले छोटे से कीड़े को कैसे समझाएगा कि उड़ान माने क्या? संसार बदल गया है। आ रही है बात समझ में? पहले से बेहतर नहीं हो गया है, पहले से कमतर भी नहीं हो गया है; कुछ और ही हो गया है। ‘मैनु कौन पहचाने, हुन हो गई नि मैं कुछ होर।‘ ये तो नहीं कहा न कि पहले से ज़्यादा सुन्दर हो गई, कुछ और हो गई अब पहचान में ही नहीं आती। वही हूँ अब पहचान में ही नहीं आती। ये है दृष्टि का निर्मल होना; संसार बदलेगा, तुम भी बदलोगे।

साधु वही जो विक्षिप्तता दूर कर दे, विक्षेप हटा दे। जो लगातार न होते हुए भी छाया रहता है मन में, उसको दूर भगा दे। कैसे दूर भगा दे? कुछ करके नहीं मात्र अपनी मौजूदगी से। उसका होना काफ़ी है। उसका होना प्रमाण है, उसका होना संक्रामक है। वो होता है बगल में और संक्रमण आपको भी लग जाता है। साधु छूत की बीमारी है, कह सकते हैं, गलत नहीं है। साधू राज़ी होगा। बिलकुल ठीक कहा, ‘’मैं संक्रामक हूँ।‘’

श्रोता: जैसे हम इस पर पहुँचे थे कि वहाँ पर हिंसा हो रही है और ये सब कुछ फिर आपने कहा कि एक ऐसे भी होगा जब उसमें कुछ दिखेगा ही नहीं, फिर अचानक से एक कल्पना सी चालू हुई कि कैसा होगा आँखों से सामने काला सा पड़ जाएगा या सेंस हट जाएगी, नंब(सुन्न) सा पड़ गया है। इसके बाद एक बात ये हुई कि जब आप यहाँ पर हो तो डायमेंशन चेंज हो रहा है, बार-बार डायमेंशन चेंज हो रहा है उस प्लेन पर नहीं है, वो है ही बहुत सारे डायमेंशन पे तो आप कितना भी कल्पना कर लो या तो वो बात आपको बहस के रूप में दिखेगी या फिर आप कहोगे कि क्या बकवास है।

वक्ता: पर अगर तुम इस तल पर भी कल्पना करना चाहते हो, कल्पना पूरी नहीं पड़ेगी पर अगर करना चाहते हो तो ऐसे कर सकते हो। इन्द्रियाँ भीतर वही सब कुछ लेती हैं, जो उनको लेने के लिए प्रेरित किया जाता है। अगर सौ इनपुट हैं, जो तुम्हें इस वक़्त मिल रहे हैं तो उस में से एक प्रतिशत या दो प्रतिशत ही है, जो उसमें से भीतर जाता है बाकी इन्द्रियों की पूरी ट्रेनिंग है कि उसको छोड़ ही दिया जाए, रिजेक्ट, फ़िल्टर आउट कर दिया जाए। जब मन बदलता है न, तो भीतर क्या जा रहा है वो बदलने लगता है। तुम पहले जिसको अन्दर आने ही नहीं देते थे, अब उसके लिए द्वार खुल जाते हैं और पहले जो बे रोक-टोक अन्दर घुसता अब उसके सामने प्रतिरोध होता है। तू अन्दर नहीं जाएगा।

बात समझ रहे हो? सौ घटनाएँ हैं यहाँ जो अभी एक साथ घट रही हैं, तुम उन सभी सौ घटनाओं को रजिस्टर नहीं करते हो। तुम उनमें से दो को रजिस्टर करते हो। किन दो को? जो तुम्हारी आतंरिक व्यवस्था से ताल-मेल खाती हैं। जो तुम्हारे पैटर्न में फिट होती हैं, तुम बस उन दो को क्या करते हो? नोटिस कर लेते हो। जब आतंरिक व्यवस्था बदलती है तो संसार बदल जाता है। अब वो दो दिखाई नहीं देंगी जो तुम पहले भीतर आने देते थे और कुछ ऐसा नया दिखाई देगा…

ये बात तल के बदलने की नहीं है, मैं अभी उसी तल की बात कर रहा हूँ इसीलिए कहा कि ये सिर्फ उदाहरण है ताकि कल्पना कुछ दूर तक जा सके। कल्पना हम जानते हैं बहुत दूर जा ही नहीं सकती पर इससे हो सकता है थोड़ी मदद मिले।

श्रोता: अब इस पर जैसे एक प्रश्न आ रहा है पर वही लग रहा है कि क्यूँकी ये एक एस्सम्प्शन है, क्यूँकी वो है तो लिमिटेड ही, तो इसका कोई यूज़ नहीं है कि तो फिर जो एक साधु होता है जो भी होता है, उसको वो भी दिख जाता है जो आपको दिख रहा है और और परे, परे तो जैसे-जैसे मुझे ए, बी, सी दिख रहा है तो ऐसा नहीं है कि उसको नहीं दिखाई दे रहा..

वक्ता: नहीं, नहीं दिखाई दे रहा। देखो, दिखाई देना कभी आकस्मिक नहीं होता। दिखाई देना कभी आकस्मिक होता ही नहीं। नज़र पड़ने का नाम नहीं है देखना। देखना एक ऐसी क्रिया है, जिसमें मन की रज़ामंदी चाहिए। मैं तुमसे कहूँ, ‘’अभिषेक नीचे दौड़ कर के जाओ, सामने वाली इमारत में कोई बेहोश हो कर के गिरा हुआ है। तुम दौड़ कर के जाओगे यहाँ से ले कर के सामने वाली इमारत तक। क्या तुम्हें कुछ दिखाई देगा?’’

श्रोता: नहीं।

वक्ता: आँखें बंद कर के तो नहीं दौड़े, तो फिर कुछ दिखाई क्यूँ नहीं दिया? क्यूँकी मन की रज़ामंदी नहीं है अभी कुछ देखने की। दिखना कोई मैकेनिकल प्रोसेस नहीं होता है। तुम वही देखते हो, जो देखना मन की रजामंदी से है। तुम भाग कर के कहीं को जा रहे हो, तुम्हें रास्ते में कुछ भी हो दिखाई पड़ता है क्या? इमानदारी से बताओ। तुमसे कहा जाए याद करो, खूब याद करो रास्ते में क्या था तुम्हें दिखाई पड़ेगा? तो वास्तव में दिखाई देना बंद हो जाता है। तो ये मत कहो कि साधु को जो दिखता है वो तो दिखता ही है; दिखता ही नहीं। दिखेगा तब न जब वो महत्त्व देगा। वो महत्त्व ही नहीं देता, उसको दिखाई ही नहीं पड़ता।

श्रोता: मेरी कैलकुलेशन हैं , मेरी ग्रीड है तो उसको कैसे वो चीज़ दिखाई दे जाती है जो मेरे को ही पता है कि इस चीज़ में कैलकुलेशन चल रही है, ग्रीड चल रही है तो उसको कैसे पता लग जाता है?

वक्ता: भारी हो बस इतना और कुछ भी नहीं। देखो खुला आकाश हो, खुला आकाश उसमें ज़रा सा बादल का टुकड़ा हो, तुम्हारी नज़र कहाँ जा के रुकेगी?

श्रोता: बादल के टुकड़े पर।

वक्ता: ऐसे दिख जाता है। और अगर आकाश खूब भरा ही हो, भरा ही हो बादलों से और उसमें से एक ज़रा सा बादल का टुकड़ा हो तो तुम्हारी नज़र उस बादल के टुकड़े पर जा के रुकेगी? साधू को ऐसे दिख जाता है वो चूँ की खुले आकाश में जीता है, तो उससे अन्यतर जो भी कुछ होगा, वो उसको तुरंत दिख जाएगा। लेकिन एक बात और समझना बहुत महत्वपूर्ण जो बात है। चिकित्सक वो नहीं है, जिसको जब तुम बीमारी दिखाने जाओ, तो वो तुम्हारी बीमारी देखे। वो घटिया चिकित्सक है। चिकित्सक वो है जिसको तुम जब अपनी बीमारी दिखाने जाओ तो तुम तो कह रहे हो कि तुम बीमार हो पर वो तुम में स्वास्थय देखे। वही चिकित्सक है, इसी के समकक्ष अब साधु को समझना।

तुम साधु के सामने खड़े हो, तुम तो अपनी समस्याएँ ले कर के आए हो, तुम पूरा संसार ले कर के आए हो, वो संसार देख ही नहीं रहा। अभी भी उसको नहीं दिख रहा। तुम दावा कर रहे हो अपने विषय में मेरा संसार और इस संसार की ये सब समस्याएँ। वो मुस्कुरा भर रहा है क्यूँकी यकीन जानो तुम जो कुछ कह रहे हो, वो वास्तव में उसको नहीं दिख रहा है। तुम कह रहे हो मैं परेशान हूँ, वो देख रहा है तुम परमात्मा हो। वही साधु है। चिकित्सक वो नहीं है जो तुम्हें बीमार देखे, चिकित्सक वो है जो जब भी तुम्हें देखे तो तुम में स्वास्थय देखे। साधु वो नहीं है जो देखे तुम्हें और कहे ये संसारी आ गया, साधु वो है जो देखे तुम्हें और कहे सत्य ही है सामने। बात समझ रहे हो?

तुम अपनी नज़र से साधु को तोलते हो न। तुम साधु के सामने जाओगे और उसके सामने बैठे हुए कहोगे महाराज, सर देखिये मेरी ये-ये समस्याएँ हैं ये है और वो चुप-चाप बैठा हुआ ध्यान से बातें सुन रहा है तुम्हारी। तुम्हें लग रहा है उसे कुछ समझ में आ रहा होगा। बात बिलकुल उलटी है: तुम जो कुछ कह रहे हो वो उसके पल्ले ही नहीं पड़ रहा। तुम जिस भाषा में बात कर रहे हो वो भाषा वो भूल चूका कब की। अब उसे याद ही नहीं है। तुम कह रहे हो देखिये पत्नी है, बच्चा है, बच्चे की ज़िमीदारियाँ हैं और ये शब्द उसके व्याकरण से बाहर। ज़िम्मेदारी? इसका अर्थ क्या होता था? अब वो सर खुजा रहा है उसको ज़िम्मेदारी का अर्थ याद ही नहीं आ रहा। जिम्मेदारियाँ वो कब की छोड़ आया पीछे। बैठा मुस्कुरा रहा है ठीक है ये कुछ अनाब-शनाब बक रहा है, बक ले। बको। उसको वास्तव में नहीं समझ में आ रहा।

समझो बात को। उसे कैसे समझ में आएगा? वो अछूता है, उस सब से जो तुम्हें पकड़ के रखे हुए है। वो भूल गया। हाँ, उसका स्वास्थ्य संक्रामक है। तुम ठीक इसलिए नहीं होते कि वो तुम्हारी बीमारी हर लेता है; तुम ठीक इसलिए होते हो क्यूँकी जब तुम उसके पास बैठे होते हो तो तुम्हें तुम्हारे स्वास्थ्य की याद आ जाती है। बीमारी हरने का उसके पास कोई तरीका ही नहीं। तुम उससे कहोगे, ‘’महाराज मेरी बीमारी हर लीजिये।’’ वो कहेगा, ‘’क्या हर लूँ?’’ तुम कहोगे, ‘’बीमारी।‘’ वो कहेगा, ‘’बी-मा-री, ये होती क्या है?’’ अब उसके आस-पास भटकती ही नहीं बीमारी, तो उसे क्या पता क्या है बीमारी। उसे कैसे पता क्या है बीमारी?

कोई तुम्हारा दोस्त हो पगला गया हो, वो तुम से आ कर के कहे कि, ‘’मुझे पुक्चुआ ने काट लिया है और पुक्चुआ का ज़हर मुझे लगे जा रहा है।‘’ ठीक है? अब पुक्चुआ है क्या? कुछ है ही नहीं। ये कल्पना में आ कर हमारे सामने खड़े हो गए हैं, ये देखो ये पुक्चुआ ने काटा है और ज़हर लगा जा रहा है। न पुक्चुआ है, न किसी ने काटा है, ये साहब पगलाए हुए हैं तो तुम क्या करोगे? तुम सुन सकते हो इनको ध्यान से और शांत मौन बैठे हो, वो थोड़ी देर में भूल जाएँगे, पुक्चुआ स्वस्थ होकर चल देंगे। मन का फितूर था उतर गया, पुक्चुआ। ऐसे, ऐसे होती है औषधि।

ये उपचार है, मौन। मौन के अलावा क्या उपचार है? साधु का जो आतंरिक मौन होता है, वो तुम्हें तुम्हारे स्वभाव की याद दिला देता है। अब हाँ ये ज़रूर है कि तुम बहुत कुछ बोल रहे हो पगलाए हुए हो तो तुमको यूँ ही बहलाए रखने के लिए वो भी कुछ बोले हाँ, हाँ बिलकुल ठीक बोला, बड़े दुखी हो तुम और बताओ और क्या करें तुम्हारे लिए? कुछ कर सकते हैं? कल एक जगह गया हुआ था तो रात का खाना था उनके यहाँ पर, उनकी माताजी एक बार यहाँ पर आ चुकी हैं। तो ऐसे ही बात-चीत चलने लगी तो हो रहा था ये सब था। पति-पत्नी बड़े ध्यान से सुनने लग गए। माताजी के कान में आवाज़ पहुँची कि दूसरे कमरे में ज्ञान चर्चा हो रही है, कुछ काम की बात हो रही है। आईं वहाँ से कुछ देर सुनती रहीं। बोलती हैं ‘‘उठने में बहुत दर्द होता है इसकी कोई दवा है’?

मैंने कहा मन के दर्द की दवा है उसी की बात हो रही है। नहीं, वो सब नहीं चाहिए। घुटने में गठिया है, उसका कुछ हो तो बताओ। नहीं है। एक-आधा मिनट रुक कर चली गईं। तुम जो उपचार खोजने आए हो वो वास्तव में साधु के पास है ही नहीं। उसके पास तो मौन है। हाँ, मुझे उनको बहला-फुसला के रखना था तो मैंने उनसे कहा, ‘’बैठिये-बैठिये, गठिया ही डिस्कस कर रहे हैं। अब वो बैठती तो इस लालच में कि घुटने का दर्द ठीक हो जाए। मिल उनको कुछ और जाता है, तो ये करा जा सकता था। खैर, हुआ नहीं। समझ रहे हो? सारी बीमारियाँ नकली हैं।

जो नकली है, उसी का नाम बीमारी है।

नकली में उलझना मतलब बीमार होना। साधु वो जो नकली से निजात पा चुका है। इसी लिए वो तुम्हें कोई असली उपचार देता नहीं क्यूँकी नकली बीमारी का कोई असली उपचार होता नहीं। हर बीमारी नकली है, तुम्हारा हर दुःख नकली है। जो नकली है, उसी का नाम तो दुःख है। तुम्हारे पास कोई असली दुःख होता, तो उसका कोई असली उपचार भी होता। इसी लिए जब दुःख सामने दिखे तो भावुक मत हो जाया करो। नकली है उससे क्या तुम सहानुभूति दिखा रहे हो, क्या संवेदना दिखा रहे हो? करुणा बिलकुल दूसरी बात है, करुणा का अर्थ है: यही जानना कि बच्चा नकली में फँसा हुआ है। करुणा ये नहीं है कि तुमने नकली दुःख को असली समझ लिया और उसमें शामिल भी हो गए कि, ‘’अरे! तू क्यूँ रो रही है? आ जा तुझे थपकी दूँ।‘’ गजब हो गया। थपकी दे कर के तुम और उसके नकली दुःख को असली बना रहे हो। समझते क्यूँ नहीं बात को? कोई अपने नकली दुःख में खूब रोए जा रहा है और तुम जा कर के सहानुभूति प्रकट कर दो, तो तुमने पता है क्या किया? क्या किया? नकली को और असली बना दिया। जो था ही नहीं उसको और मान्यता दे दी। करुणा बिलकुल अलग बात है। करुणा का अर्थ है कि है तो नकली, लेकिन उलझा हुआ है ये उसमें।

श्रोता: एक जो आपने अभी बात कही थी कि जो सहज दृष्ट संसार होता है दो मिनट के लिए साधु उनको दृष्टि दे सकता है कि तुम सत्य के करीब आ जाओ और जो चीज़ दो मिनट के लिए भी हट जाए, वो असल में कहाँ सत्य है। तो सर, जो सत्य दिखा वो दो मिनट के लिए ही क्यूँ?

वक्ता: क्यूँकी दो मिनट से आगे तुमने पाबंधी लगाईं हुई है। हमने कहा न कि तुम्हारी स्वेच्छा से बड़ी ताकत कोई है नहीं। तुमने दो मिनट की सीमा तय की हुई है तो, दो मिनट के बाद वो हट जाता है। तुमने खुद कह रखा है कि, ‘’आना प्रभु, मेरे घर आना दो मिनट को आना, तो आते हैं दो मिनट को!‘’ तुम और क्यों गाते हो, ‘’राम मेरे घर पधारो दशहरा और दिवाली पर?’’

सभी हँसते हैं

वो तुम ये कह रहे हो कि अन्यथा मत आ जाना। बुलाया नहीं है। तुमने त्यौहार क्यूँ निर्धारित किए हैं कि इस-इस दिन एंट्री की अनुमति है, इसके अतिरिक्त आए तो जूता और पाओगे। देखा नहीं है तुम क्या करते हो? तुम तो रात में मंदिर तक के कपाट बंद कर देते हो कि अभी हमारा कुछ और समय शुरू हो रहा है। दरवाज़ा बंद करो। झाँका-ताकि मत करना कि बाहर निकल कर के झाँकने पहुँच गए। तो जितनी तुम्हारी रज़ामंदी है, उतना वो तुमको मिलते हैं। तुमने तय कर रखा है कि सुबह आरती करोगे, शाम आरती करोगे तो मिल जाते हैं सुबह-शाम। जितनी तुम्हारी रजामंदी होगी इतना तुमको मिल जाएगा। जितना बड़ा तुम्हारा पात्र होगा, उतना इकट्ठा कर लोगे। वहाँ तो अनंतता है। तुम फैलते जाओ, जो तुम्हें मिल रहा है वो फैलता जाएगा।

अभी संवाद में एक जगह गया तो वहाँ पर एक आया। बोला, ‘’सर अब थर्ड इयर चलने लग गया। सेकंड सेमेस्टर से आपको सुन रहा हूँ और कोई संवाद ऐसा नहीं होता जिसमें मैं आता हूँ और सवाल नहीं पूछता। मैं सवाल ज़रूर पूछता हूँ। तो सर, मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूँ। मैंने कहा क्या? बोलता है ‘सर आपके उत्तर बेहतर से बेहतर होते जा रहे हैं, बिलकुल सटीक होते जा रहे हैं।‘’ मैंने कहा पगलू तुम्हारी सुनने की ताकत बढ़ती जा रही है। तुम्हारे सवाल और सार्गार्पित होते जा रहे हैं। तुम जो पूछ रहे हो वो बदलता जा रहा है। तुम जो माँग रहे हो वो और निर्मल होता जा रहा है। मैं तो वही हूँ। यहाँ क्या बदला? कुछ नहीं। तुम्हारा कटोरा बड़ा होता जा रहा है, जैसे-जैसे तुम्हारे सवाल साफ़ और पैने होते जाएँगे, वैसे-वैसे तुम्हें और-और मिलता जाएगा। तुम पूछो तो सही, तुम माँगो तो सही। तुम अपनी रज़ामंदी तो दो। तुम सुनने के लिए तैयार कहाँ हो? बात समझ में आ गई है? जिस दिन तुम उपस्थित होगे, जिस दिन तुम तैयार होगे, उस दिन देखो। उस दिन बात ही दूसरी होगी। तुम्हारे सवाल में, तुम्हारी पुकार में जब जान होगी तो फिर जब उत्तर भी आएगा तो वो ऐसा आएगा कि नया- अनूठा, जो तुमने पहले कभी सुना ही नहीं होगा और तुम कहोगे अरे! आज सर ने नयी बात बोली।

सर ने नयी बात नहीं बोल दी है आज तुम तैयार हो, आज तुम प्रस्तुत हो इसी लिए उस नयी बात को आने का मौका मिला। वो नयी बात पहले भी बोली जा सकती थी। पर कैसे बोलते? तुम तैयार कहाँ थे सुनने के लिए? तुम्हें समझ में ही नहीं आती। तुम्हारी रजामंदी, तुम्हारी अपनी तयारी, तुम्हारी स्वेच्छा बड़े महत्त्व की है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

सत्र देखें: *Acharya Prashant on Kabir and Ashtavakra: शरीर का वास्तविक उपयोग ( Body’s real purpose) *

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सम्पादकीय टिप्पणी :

आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:

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