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लेख
शमन क्या है? नित्यता क्या है? || आचार्य प्रशांत, तत्वबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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शमः कः? मनोनिग्रह।

भावार्थ: शम किसे कहते हैं? मन का निग्रह।

~ तत्वबोध

प्रश्न: आचार्य जी, ‘शम’ क्या है? मन का शमन कैसे करें? ‘नित्यता’ का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत जी:

‘शम’ क्या है? मन के ऊपर नियंत्रण प्राप्त करना ही ‘शम’ है। दमन जो काम स्थूल रूप से करता है, शमन वही काम सूक्ष्म रूप में करता है।

‘दमन’ का अर्थ है – ये हाथ लड्डू की ओर बढ़ना चाहता है, ये हाथ नहीं बढ़ेगा। और ‘शमन’ का मतलब है – लड्डू के विचार दिमाग में बहुत घूम रहे हैं, हम बलपूर्वक मन से कहेंगे, “अच्छा, भूल गया आज कहाँ जाना था?” और जैसे ही हमने मन को याद दिलाया कहाँ जाना था, मन लड्डू से हट गया।

हाथ को लड्डू से हटाना, यदि ‘दम’ है, तो मन को लड्डू से हटाना ‘शम’ है। कुछ और नहीं। दोनों साथ-साथ चलते हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। वास्तव में, अगर ‘शम’ हो जाए, तो ‘दम’ की आवश्यकता कम हो जाएगी।

बस इतना है।

भूलना नहीं, तुम मन को बल से, सिर्फ़ हटा नहीं सकते हो। मन एक अपूर्णता है, जो अगर लड्डू में पूर्णता खोज रही है, तो उसे लड्डू चाहिए ही चाहिए। अगर तुम तुम चाहते हो कि लड्डू की तरफ वो न भागे, तो तुम्हें उसे लड्डू का कोई विकल्प देना होगा। अन्यथा ‘शमन’ की प्रक्रिया असफल हो जाएगी। तुम ये नहीं कर सकते कि – “लड्डू मात्र है, और तुझे लड्डू दूँगा भी नहीं।”

अगर लड्डू नहीं देना, तो उसे दूसरी मिठाई दिखाओ। कोई मिठाई नहीं देनी, तो उसको कुछ और दिखाओ। उसको वो दिखाओ जो उसको मिठाईयों से ज़्यादा प्यारा लगे।

ये ‘शमन’ है।

आ रही है बात समझ में? कुछ उसको ‘देना होगा’।

मन एक ज्वाला है, जिसका शमन करना पड़ता है। *ज्वाला भी कैसे बुझती है?* *पानी से।* उसे कुछ तुम ‘देते’ हो। उसे तुम कुछ देते हो। इसी को तो कहते हैं – ‘अग्नि-शमन’। तुमने उसे कुछ और ‘दे’ दिया।

पहले वो ज्वाला क्या खाए जा रही थी? हवा, लकड़ी, ऑक्सीजन, तमाम तरह के ज्वलनशील पदार्थ। इनको खा रही थी न वो ज्वाला? तुमने कहा, “तू खाएगी तो है ही, हम तुझे कुछ ऐसा खिला देते हैं जिसको खाकर तू शमित हो जाए”। क्या खिला दिया तुमने उसको? पानी, और बालू।

“ले खा, पानी और बालू, क्योंकि खाए बिना तो तू रहेगी नहीं।”

तो मन का भी शमन करते हुए ये ख़याल रखना कि उससे तुम लड्डू तब तक नहीं छीन सकते, जब तक तुमने उसे कुछ और नहीं दे दिया। पानी दे दोगे, तो आग, लकड़ी, और ऑक्सीजन खाना बंद कर देगी।

तो पानी खिलाओ।

प्रश्न २: आचार्य जी, हमारा तो पूरा जीवन ही अनित्य की ओर प्रवाहित होता है। तो ‘नित्यता’ को कैसे समझें?

आचार्य प्रशांत जी:

‘नित्यता’ तो कसौटी है। ‘नित्यता’ वो कसौटी है जिसपर तुम अनित्य को वर्जित करते हो। जिसपर तुम अनित्य को गंभीरता से लेने से इंकार करते हो।

जब भी कुछ लगे कि मन पर हावी हो रहा है, तो कसौटी पर कसना होता है। मन से पूछना होता है, “क्या ये नित्य है? और अगर ये नित्य नहीं है, तो मैं क्यों उलझ रहा हूँ?” जिस समय कोई चीज़ बहुत महत्त्वपूर्ण लग रही हो, उस समय ये सवाल पूछ लो, “क्या ये चीज़ नित्य है?” जो उत्तर आएगा, वो तुम्हारी गंभीरता को कम कर देगा। तुम्हें गंभीरता से, महत्त्व से, मुक्ति दिला देगा।

ये है पहली बात।

दूसरी बात यह है, तुम कह रहे हो कि अध्यात्म भी अन्य शिक्षा की शाखाओं जैसा लगने लगा है, धर्मग्रन्थ भी अन्य किताबों जैसे लगने लगे हैं। तो उसके लिए तो जो पढ़ रहे हो, किताबों में जो शब्द हैं, उनका स्वाद भी लेना पड़ेगा न।

किताब ने लिख दिया, ‘मुक्ति’ – मन को झलक भी तो मिले मुक्ति की। शंकराचार्य बता गए, ‘मुमुक्षा’ – तुम्हें दिखे भी तो कोई जो मुमुक्षा से भरा हुआ है। उसके लिए तुम्हें संगति चाहिए। उसके लिये तुम्हें संत समाज की, संघ की, संगति करनी पड़ेगी। दूर-दूर बैठोगे तो काम नहीं बनेगा। दूर-दूर बैठोगे तो ये सब सिर्फ़ शब्द, किस्से-कहानियाँ, बने रहेंगे।

“उपरति, तितिक्षा – कैसे-कैसे अलंकृत शब्द हैं, वाह, वाह!”

“उपरति, उ-प-र-ति। ठीक, उपरति हो गयी।”

कभी ऐसे माहौल में भी तो रहो जहाँ उपरति दिखाई दे, जहाँ तितिक्षा दिखाई दे, जहाँ एक बेखुदी दिखाई दे, बेपरवाही दिखाई दे। झलक मिलेगी तब यकीन आएगा न कि जिसकी झलक मिल रही है, ‘वो ‘है। होगा, तभी तो थोड़ी-सी झलक दिखाई दी है।

बिलकुल ही नहीं होता तो, ये झलक भी कहाँ से आती?

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