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लेख
शक़ करना अच्छी बात है || पंचतंत्र पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: मैं जब ग्रंथों, गुरुओं और बुद्धपुरुषों के पास जाता हूँ, तो मेरे मन में तत्काल श्रद्धा जग जाती है, मन एकदम से चिल्ला उठता है कि यही हैं सच्चे गुरु, पर बाद में यही एहसान-फ़रामोश मन संदेह करने लगता है।

आचार्य जी, मेरी मनोस्थिति आपके सामने है। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें शायद अफ़सोस इस बात का है कि मन संदेह क्यों करने लगता है। अफ़सोस ये होना चाहिए कि “मन पूरा संदेह क्यों नहीं कर रहा?” लज्जा या ग्लानि मत अनुभव करो अगर तुम्हें गुरु पर या ग्रंथ पर शक़ हो गया है। भली बात है कि शक़ हुआ। तुमने थोड़े ही किया है शक़; शक़ तो तुम्हारी रग-रग में बह रहा है।

जैविक विकास की प्रक्रिया में शक़ का बड़ा योगदान था। मान लो, किसी एक दिशा से तुम पर आक्रमण हो रहा है—तुम जंगल में बसते हो, तुम बहुत पुराने आदमी हो—किसी एक दिशा से कोई पशु तुम पर आक्रमण करने आ रहा है, और तुम्हें कुछ शक़-सा हुआ है और तुम चारों दिशाओं पर शक़ करने लगे कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है। तो तुम्हारा शक़ निन्यानवे प्रतिशत तो ग़लत ही है, क्योंकि सभी दिशाओं से तो पशु आ नहीं रहे तुम पर आक्रमण करने, तो निन्यानवे प्रतिशत तो तुम व्यर्थ संदेह कर रहे हो, पर एक प्रतिशत तुमने बिलकुल ठीक पकड़ा है, और ये जो एक प्रतिशत है, ये तुम्हारी जान बचा देता है, है न?

जब तुम शक़ करते हो कि किसी दिशा से तुम पर आक्रमण हो रहा है, तो तुम हर दिशा के प्रति चौकन्ने हो जाते हो। टटोलोगे और दिख जाएगा कि “अच्छा अच्छा! उधर से आ रहा था।” तो शरीर को बचाए रखने के लिए शक़ उपयोगी चीज़ रहा है करोड़ों सालों से। शक़ कोई इतनी भी घिनौनी बात नहीं है, लजा क्यों रहे हो? अगर आदमी शक़ करना ना जानता होता, तो आज आदमी जीवित नहीं होता।

बहुत सारी प्रजातियाँ इसीलिए विलुप्त हो गईं क्योंकि उन्हें शक़ ही नहीं होता था कि आदमी उनके पास उन्हें मारने के लिए आ रहा है। चिड़िया थी एक ‘डोडो’। वो बड़ी सीधी। उसके पास चले जाओ, उसे उठा लो, उसे शक़ ही ना हो कि कुछ बुरा होगा मेरा। और जब तक उसे समझ में आए कि गड़बड़ हो गई है, तब तक वो आग पर चढ़ चुकी होती थी। वो चिड़िया अब बची नहीं।

शरीर को बचाए रखने में शक़ की उपयोगिता रही है, ठीक है। पुराने समय का शक़ है, बड़ा लम्बा शक़ है, इसीलिए आज भी तुम शक्की हो। तो तुम्हें शक़ हो जाता है; शक़ हो गया, तुमने शक़ किया नहीं। शक़ हो गया, क्योंकि शक़ शरीर में बैठा हुआ है; तुम्हारी कोशिकाओं में बैठा हुआ है शक़। हो गया, कोई बात नहीं; अब पूरा शक़ कर लो।

शक़ का उपचार ये नहीं है कि तुम शक़ को दबा दो, तुम कहो कि संशय करना बुरी बात, और ख़ासतौर पर गुरु पर संशय करना तो और भी बुरी बात। संशय अगर हो ही रहा है, तो अब क्या करोगे? अब तो हो ही गया। संशय अगर उठ ही रहा है तो...?

संशय करीब-करीब वैसा ही है कि जैसे तुम्हारी आँतों पर मल का दबाव पड़ता हो। कितनी देर तक उसको बर्दाश्त करते रहोगे और दबाते रहोगे? अब अगर वो दबाव उठने लगा है तो उसका समाधान तो एक ही है – पूरी सफ़ाई कर दो। आधा घण्टा, एक घण्टा, दो घण्टा उसको दबा लोगे, और दबाओगे भी तो पीड़ा रह आएगी। राहत तो तभी मिलेगी जब कमोड (शौचासन) मिलेगा।

तो शक़ का भी समाधान यही है कि उसे पेट में पालते मत रहो; दुःख देगा। टट्टी-पेशाब आ रही है और उसको तुम पेट में रखे रहो, रखे रहो, बड़ा आनंद मिलता है? ऐसे ही शक़ को भी सीने में पालते मत रहो, पूरी जाँच कर लो फिर। जाओ और पूरी जाँच करो, पूरा संदेह करो। कहो, “सब पता करना है।”

पूर्णसंदेह का मतलब समझते हो? जिस पर संदेह है, उसको भी जाँच लो और जो संदेह कर रहा है, उसको भी जाँच लो। जिस पर तुम्हें शक़ हो रहा है, उसको तो जाँच ही लो, और शक़ करने वाला कौन है? तुम हो। अपने-आपको भी जाँच लो कि “ऐसा क्यों है कि मैं बात-बात पर शक़ करता हूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने पुराने रोगों को बचाए रखने की युक्ति है शक़?”

सही दिशा तुम्हें कोई बुलाता हो और सही दिशा जाने को तुम्हारा अहंकार तैयार ना होता हो, तो तुम अपने-आपको एक बड़ा मजबूत तर्क दे सकते हो, क्या? “नहीं, दिशा तो सही है, हमें आमंत्रित भी जो कर रहे हैं, उन पर भी यक़ीन है, बस एक ज़रा-सा संदेह बाकी है।” कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम संदेह का बहाना बना करके उचित काम से मुँह चुरा रहे हो?

शक़ उठे तो पूछो; शक़ उठे, जिज्ञासा करो, जाँच-पड़ताल करो। जितना अधिक-से-अधिक तथ्यों में पैठ सकते हो, पैठो। क्योंकि अगर तथ्यों में नहीं पैठोगे तो तुम्हारा ये जो कौतूहल भरा मन है, ये फिर मान्यताएँ बनाएगा, कहानियाँ बनाएगा, एज़म्प्शंस (कल्पनाएँ)। शक़ तो तुम्हें हो ही गया है, तो अब पूछ ही लो, क्योंकि अगर पूछा नहीं तो क्या करोगे? कहानियाँ गढ़ोगे।

शोध अगर नहीं करोगे, तो क्या करोगे? या तो शोधन करो, और शोध अगर नहीं है, तो फिर क्या होगा? फिर तो क़िस्से चलेंगे और क़िस्से तुम्हारे ही जैसे होंगे, और तुम कौन हो? तुम शक्की हो। देख रहे हो अहंकार को शक़ से कितने लाभ होते हैं?

शक़ करो, फिर कहो, “नहीं, हमें लज्जा आ रही है। इतनी गंदी बात का हमें संदेह हुआ है कि हम पूछ तो सकते नहीं।” अब इतनी ही गंदी बात थी तो या तो उसको समर्थन ना देते। पर अब बात तो तुमने उठा ही ली है, बात का बतंगड़ तो बना ही लिया है, तो फिर अब पूछ ही लो, क्योंकि नहीं पूछोगे तो जवाब बाहर से आने की जगह तुम्हारे ही अंदर से आएगा। और तुम्हारे अंदर से तो जो जवाब आएगा, वो तुम्हारे ही जैसा होगा।

और तुम ये भी नहीं कहोगे कि "मेरा ये जवाब बस एक धारणा है, एक कल्पना है।" तुम कहोगे, "मेरा ये जो जवाब है, ये सच्चाई है।" इससे अच्छा पूछ डालो।

और मैंने कहा, अपने-आपसे भी पूछो, "मुझे इतने शक़ होते क्यों हैं?" संदेह करने वाले पर भी संदेह कर लो थोड़ा। "तू क्यों डरता है इतना आश्वस्ति से?" क्योंकि आश्वस्ति आख़िरी बात होती है। आश्वस्ति का अर्थ होता है अंत। और संदेह का अर्थ होता है कि अभी खोज जारी है।

अगर संदेह ख़त्म हो गया तो मन को ख़त्म होना पड़ेगा, क्योंकि संदेह ख़त्म हुआ मतलब परम आश्वस्ति मिल गई; सब साफ़ हो गया, कोई खटका नहीं बचा। मन का अंत हो गया तो फिर तुम इधर-उधर भटकोगे कैसे? कष्ट में कैसे रहोगे? ये तो बड़े कष्ट की बात है कि सारे कष्ट मिट जाएँगे। तो इसीलिए थोड़ी कोर-कसर बाकी रहनी चाहिए।

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