आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
शादी ही परम धर्म है, शादी ही जीवन का उद्देश्य है || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं उन अविवाहित महिलाओं के बारे में कुछ चीज़ें आपके साथ साझा करना चाहती हूँ जिन चुनौतियों का उन्हें सामान्यतया समाज में सामना करना पड़ता है। जैसे एक बहुत ही मौलिक चीज़ है कि अगर आप अपने लिए फ़्लैट भी ढूँढने जा रहे हो तो आपको किराये पर आसानी से नहीं मिलेगा अगर आप एक सिंगल महिला हो, वहाँ पर आपको ट्रस्ट इश्यूज़ (शक) आ जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: ये काम समाज का है। देखो कि कुछ तो मदद करके दिखाए। तो ये काम तो समाज को, मकान मालिकों को करना होगा। लेकिन फिर मैं कहूँगा, ‘मान लो आपको बहुत अच्छी नौकरी मिली है किसी शहर में, बैंगलोर में मिली है कहीं, और कहीं भी आप वहाँ नौकरी करने जा रहे हो और वहाँ आपको फ़्लैट ढूँढने में तकलीफ़ हो रही है, क्योंकि लोग आपको इसी वजह से नहीं दे रहे हैं कि आप तो एक सिंगल लेडी (एकल महिला) हो और ‘साहब, हम सिंगल लड़कियों को फ़्लैट नहीं दिया करते।’

हालाँकि ये समस्या सिंगल लड़कों को ज़्यादा आती है सचमुच, सिंगल लड़की को कम आती है, पर मान लो सिंगल लड़की हो, आपको कोई फ़्लैट नहीं दे रहा तो क्या आप अपनी नौकरी और बैंगलोर छोड़कर के वापस अपने घर लौट आओगे? आपका घर है कहीं पर, एक छोटा सा कस्बा है यू.पी., एम.पी. में। क्या आप वहाँ लौट आओगे? और वहाँ सब तैयार बैठे हुए हैं कि आप लौटकर के आओ और हाथ पीले करें और वहाँ जाओ और जल्दी से हमें। ये करोगे क्या? उस चुनौती का सामना करो न।

और मैं बिलकुल मानता हूँ कि ये काम अब समाज का है कि वर्किंग वुमन हॉस्टल (कामकाजी महिलाओं के आवास) तैयार किये जाएँ और मकान मालिकों का है कि वे इस तरह की छोटी सोच न रखें कि अगर लड़की है और अविवाहित है तो उसको हम किराये पर नहीं देंगे।

प्र: जो अक्सर ही मकान मालिक की तरफ़ से तर्क सुनाई देता है, वो ये कि लड़की रहेगी तो रात में कोई-न-कोई आएगा ज़रूर तो वो झंझट हम अपने ऊपर नहीं लेना चाहते।

आचार्य: अगर कोई रात में आ रहा है और उसकी वजह से उपद्रव हो रहा है, शोर-शराबा हो रहा है और ये सब हो रहा है तो फिर तो मकान मालिक की बात कुछ हद तक तो जायज़ है ही न। आप लड़की हैं, हम कह रहे हैं वो मनुष्य ही है। अब वो भी एक इंसान है और रात में उसने एक इंसान और बुला लिया और जिस इंसान को बुला लिया वो भी जानवर जैसा है। ये जो पहला इंसान है, ये भी जानवर। दोनों जानवर मिलकर उपद्रव कर रहे हैं, ज़ोर से म्यूज़िक लगा दिया है, भीतर से चीजें टूटने की आवाज़ें आ रही हैं, कहीं निकलकर के बाहर भाग रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, ये सब हो रहा है। तो फिर पूरी सोसाइटी को तकलीफ़ होती है। तो कुछ तो ये हमें समझना पड़ेगा कि अगर आप औरों के साथ हैं तो उनकी जो मूल सुविधाएँ हैं या उनके जो-जो कम्फ़र्ट्स हैं, उसका थोड़ा ख़याल कर लें। यहाँ पर बात ख़त्म।

इसके आगे की जो बात है, वो ये है कि एक इंसान कब और कैसे किसी दूसरे इंसान से मिल रहा है, इससे समाज का कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। वो लड़की है कि लड़का है, वो जो भी है और वो अपने घर चाहे लड़की को बुलाए, चाहे लड़के को बुलाए अगर वो समाज में शान्ति नहीं भंग कर रहे हैं, शोर-शराबा नहीं कर रहे हैं, किसी के घर में जाकर उपद्रव नहीं कर रहे हैं, किसी दूसरे घर में जाकर तो इट इज़ नोबडीज़ बिज़नेस (इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए) कि कौन अपने घर में क्या कर रहा है।

प्र: इसमें आचार्य जी, एक तर्क ये आता है कि जो बाक़ी परिवार उस सोसाइटी में रह रहे हैं, उस घर के आस-पास लोग रह रहे हैं, उनके बच्चों पर ग़लत प्रभाव पड़ेगा।

आचार्य: उनके बच्चे क्या इंटरनेट में नहीं देख रहे हैं, क्या चल रहा है? स्कूल नहीं जाते उनके बच्चे? कॉलेज नहीं जाते उनके बच्चे? क्या ग़लत प्रभाव पड़ेगा? अभी हमने बात करी थी सिमोन और सार्त्र की। वे दोनों साथ रहते थे और दोनों अविवाहित थे और जीवन-भर साथ रहे। दोनों सत्तर-अस्सी साल के होकर मरे और दोनों दुनिया के उत्कृष्टतम दार्शनिकों में गिने जाते हैं पिछली शताब्दी के। तो उससे समाज पर क्या ग़लत प्रभाव पड़ गया?

ये कहाँ की बात है कि अगर मियाँ-बीवी हैं और दोनों ही बिलकुल भले ही गिरे हुए आदमी हों लेकिन अगर वे शादी-शुदा हैं तो उनसे समाज पर ग़लत प्रभाव नहीं पड़ रहा? एक बुद्धिजीवी लड़की है और उससे मिलने एक क़ाबिल लड़का आ रहा है रात में, चाहे दिन में, कभी भी, इससे समाज का क्या लेना-देना है और इससे समाज पर क्या बुरा प्रभाव पड़ रहा है भाई?

एक शिक्षित लड़की है। उसकी अपनी चेतना, अपनी जाग्रति है; सोच सकती है, देख सकती है। उससे मिलने कोई व्यक्ति आ रहा है। जो मिलने आ रहा है, वो कोई महिला भी हो सकती है, वो कोई पुरुष भी हो सकता है। कोई भी हो सकता है। जवान हो सकता है, बूढ़ा हो सकता है। इससे किसी को क्या लेना-देना? कोई क्यों इस मामले में अपनी टाँग अड़ाने की कोशिश करे?

तो ये तो मूर्खता की बात है कि आप दूसरे के घर में ताक-झाँक कर रहे हो, कह रहे हो, ‘यहाँ लड़की रहती है, लड़का क्यों आता है? लड़का रहता है, लड़की क्यों आती है?’ हाँ, ये लड़का-लड़की अगर शोर-शराबा करेंगे और सामाजिक शान्ति भंग करेंगे, तब ज़रूर इनको रोका जाना चाहिए। लेकिन ये अपने घर में, अपने कमरे में, अपनी बैठक में जो भी कर रहे हैं उसमें किसी का कुछ भी बोलने का कोई हक़ ही नहीं है। आप हो कौन बोलने वाले?

तो ये सामाजिक बदलाव चाहिए। ये आएगा, धीरे-धीरे आएगा और देखो, आ भी रहा है और अगर थोड़ा कम तेज़ी से भी आ रहा है तो भी हम इसलिए थोड़े ही घुटने टेक देंगे कि समाज हमारे प्रतिकूल है। जब भी समाज सुधार की कोशिश की जाती है तो प्रतिकूलता तो झेलनी ही पड़ेगी न। फिर तो कोई समाज सुधार हो ही नहीं सकता, अगर आप कहें कि समाज हमारी बात नहीं सुनता। अरे! समाज गड़बड़ है, तभी तो उसको सुधारने की ज़रूरत है।

और सुधारोगे तो विरोध करेगा। तो समाज सुधार का मतलब ही है समाज के विरोध को झेलना। उसको झेलिए, निर्भीकता के साथ झेलिए। और इसीलिए फिर आपको अष्टावक्र चाहिए, कृष्ण चाहिए, गीता चाहिए। और क्यों चाहिए? इसीलिए तो आपको फिर सन्तों की, दार्शनिकों की राय चाहिए, ताकि आपमें निर्भयता का संचार हो सके। यही सब तो आपको निर्भीक बनाते हैं न। फिर उसी निर्भयता के साथ जो चीज़ मानने लायक़ नहीं है, आप उसको मानने से इनकार कर देंगे। अध्यात्म ही है जो किसी भी मनुष्य को, माने महिला को भी, सच्ची निडरता दे सकता है।

वास्तविक निडरता तो अध्यात्म से ही आती है। तो इसीलिए बार-बार बोला करता हूँ कि अध्यात्म की सबसे ज़्यादा ज़रूरत तो महिलाओं को और ख़ासतौर पर जो युवा लड़कियाँ हैं, उनको है जिनको अभी ज़िन्दगी के बड़े फैसले लेने हैं। क्योंकि उनको ही अब चुनौतियों का सामना करना है और उन लोगों को मुँहतोड़ जवाब देना है जो उनको डराने और दबाने आएँगे और ऐसों को आप मुँहतोड़ जवाब नहीं दे पाओगे अगर आपके पास आत्मबल नहीं है।

आत्मबल आपको गीता देती है, कृष्ण देते हैं, वेदान्त देता है, उपनिषद् देते हैं, कबीर देते हैं, नानक देते हैं। ये आपको आत्मबल देते हैं।

प्र: इसमें, आचार्य जी, एक और जो तर्क रहता है और उसमें कहीं-न-कहीं सच्चाई भी है, वो ये रहता है कि सुरक्षा एक बहुत बड़ा फैक्टर रहता है। कि अगर एक अविवाहित महिला अकेली रहती है, तो वहाँ अगर एक घर हो तो उसमें तो और ज़्यादा मुश्किल है। यहाँ तक कि अगर एक सोसाइटी में फ़्लैट हो तो वहाँ पर भी एक डर बना रहता है हमेशा कि कोई घर में आ सकता है या किसी भी तरीक़े का नुक़सान हो सकता है। तो सुरक्षा एक बड़ा फैक्टर होता है।

आचार्य: आज के ज़माने में क्या करके करोगे सुरक्षा? क्या मल्लयुद्ध करके करोगे? पहलवानी से थोड़ी होती है सुरक्षा आज के समय में! आज के समय में सुरक्षा दो चीज़ों से होती है — पैसे से और टेक्नोलॉजी से, और टेक्नोलॉजी भी पैसे से ही आती है। भाई, आप अपनी सुरक्षा क्या करती हैं? आप ऐसा थोड़े ही है कि ज़्यादा जो मज़बूत होता है पुरुष — घर में चोर घुसा है तो उसके साथ कुश्ती करता है।

आज सुरक्षा करी जाती है सिक्योरिटी गार्ड से। सिक्योरिटी गार्ड आता है पैसे से। तो मैं लड़कियों से कहता हूँ, ‘पैसे कमाओ। पूरी सुरक्षा ख़रीद लोगी। पूरी-की-पूरी तुम दस सिक्योरिटी गार्डों की कतार खड़ी कर दोगी अपने घर के सामने और सुरक्षा आती है, तुम्हें अपनी ख़ुद ही सुरक्षा करनी है तो बन्दूक रखो और बन्दूक भी पैसे से आती है।’

भाई, अगर आपके घर में कोई मर्द भी होगा तो घर में कोई चोर-लुटेरा कोई घुस रहा होगा, मैं फिर पूछ रहा हूँ कि क्या उससे जाकर के ऐसे (मुक्केबाज़ी का संकेत करते हुए) लड़ता है? तो फिर पुरुष और स्त्री में अन्तर क्या है? अगर बन्दूक चलाने की बात हो तो ट्रिगर (घोड़ा) दबाने भर की ताक़त तो औरत के पास भी होती है। उँगली से ऐसे इतना तो है। उँगली में बल इतना तो कर ही लोगे न।

दिक्क़त ये होती है कि आपके पास पैसा नहीं है तो आपके पास बन्दूक नहीं है। और आपके पास पैसा नहीं है तो आप सही जगह पर घर नहीं ले सकते। और आपके पास पैसा नहीं है तो आप अपने लिए सिक्योरिटी का प्रबन्ध नहीं कर पा रहे हो। तो इसमें कोई ये बात नहीं होती है कि अकेली महिलाएँ तो असुरक्षित हैं। अकेली महिला नहीं असुरक्षित है, अशिक्षित महिला असुरक्षित है। और नहीं भी अकेली है वो। वो रह रही है दस लोगों के संयुक्त परिवार, ज्वाइन्ट फैमिली में। वहाँ जो उसको जलाकर मार देते हैं तब वो असुरक्षित नहीं है? ज़्यादा असुरक्षित वो कहाँ है, दस लोगों के परिवार में या जब वो अकेली रह रही है? सोचकर देखिएगा। ज़्यादा असुरक्षित शायद वो तब है जब दस लोगों के साथ रह रही है।

हमारी एक जगह बातचीत हुई थी तो उसकी रिकॉर्डिंग को हमने शीर्षक दिया था, यूट्यूब पर मौजूद है, "सुरक्षा नहीं मकान में, लड़की रहो उड़ान में।" जानते हो कई बार क्या होता है जब युद्ध चल रहा होता है और दुश्मन आपकी वायुसेना नष्ट करना चाहता है? जैसे जब इकहत्तर का युद्ध शुरू हुआ था भारत-पाकिस्तान में, उससे ठीक कुछ दिन पहले इज़राइल-अरब युद्ध हुआ था। ठीक है? तो उसमें क्या हुआ था इज़रायल-अरब युद्ध में, कि एकदम शुरुआत में जाकर के दुश्मन के जो एयरफ़ील्ड्स थे, उनकी बॉम्बिंग करी गयी थी। वो किसने करी थी? इज़राइल ने करी थी। कि जाकर दुश्मन के जो एयरफ़ील्ड्स हैं उनकी बॉम्बिंग कर दो। तो उससे फ़ायदा भी हुआ था। उससे क्या फ़ायदा हुआ था, कि प्लेन खड़े हुए हैं और खड़े-खड़े ही उनको मार दिया। जो प्लेन खड़े हैं लाइन से, उनको खड़े-खड़े या आपने ऊपर से बॉम्बिंग करके सब प्लेन नीचे ज़मीन पर ही ध्वस्त कर दिये।

तो पाकिस्तान ने भी यही काम किया। वो बोले कि वहाँ ऐसी सीख लेकर इकहत्तर का युद्ध शुरू हुआ — तो जाकर सब जो भारतीय प्लेन हैं, इनको हम खड़े-खड़े ही ध्वस्त कर देंगे। ख़ैर, उसमें पाकिस्तान को कुछ सफलता मिली नहीं। तो उसके बाद से एयर डिफेंस में एक पैराडाइम (मिसाल) ये भी चलता है कि "देयर आर इंस्टेंसेस व्हेन प्लेन इज़ द सेफर इन द स्काई दैन ऑन द ग्राउंड।” (ऐसे भी कई क्षण होते हैं जब विमान ज़मीन की अपेक्षा आकाश में सुरक्षित होता है।)

अगर प्लेन को बचाना है और पता है कि आपका दुश्मन है, वो स्ट्रैटेजी (रणनीति) ही ये अपना रहा है कि आपके एयरफ़ील्ड की कारपेट बॉम्बिंग करेगा — उसको पता है यहीं प्लेन खड़े हैं, उड़े उससे पहले ही उनको उड़ा दो बम से — तो इससे बेहतर ये है कि आप अपने प्लेन सब आसमान में रखिए। वहाँ वे फिर भी सुरक्षित हैं, पर ज़मीन पर तो सिटिंग डक्स हैं। सिटिंग डक्स समझते हो? इसका मतलब है कि कोई चीज़ बैठी हुई है, स्टेबल (स्थिर), उसे वहीं मार दो।

"सुरक्षा नहीं मकान में, लड़की रहो उड़ान में।"

आसमान में हो तो तुम्हारा शिकार नहीं होगा। ज़मीन पर एक जगह बँधकर पड़ी हुई हो तो जहाँ सिटिंग डक्स हो, वहीं ज़्यादा शिकार होने की सम्भावना है।

प्र: इस पर मुझे एक कोट (वक्तव्य) याद आ रहा है 'इराइना डन' का है जो कि एक ऑस्ट्रेलियाई लेखक हैं, वे कहती हैं, "ए वुमन विदाउट ए मैन इज़ लाइक ए फिश विदाउट ए बाइसिकल।"

आचार्य: बहुत सही, बहुत बढ़िया। कोई पूछे, ‘अरे! लड़की अब तो पच्चीस साल की हो रही है, तुझे नहीं लगता कि तुझे किसी मर्द की अब बहुत ज़रूरत है।’ तो उसको यही जवाब देना चाहिए, ‘हाँ, मुझे पुरुष की उतनी ही ज़रूरत है जितनी कि एक मछली को एक साइकिल की होती है।‘ मुझे अपनी ज़िन्दगी में पुरुष की उतनी ही ज़रूरत है जितनी किसी मछली को किसी साइकिल की होती है।

देखो, हम महिला-पुरुष सम्बन्धों को तोड़ने की बात नहीं कर रहे हैं यहाँ पर। हम सिर्फ़ ये कह रहे हैं कि और भी गम हैं ज़माने में; पहले दूसरे काम हैं उनको निपटा लो। ये सब जोड़ीबाज़ी — लड़की लड़के को ढूँढ रही है, लड़का लड़की को ढूँढ रहा है और ये सब है, ये बाद की बात है और भी बहुत-बहुत महत्वपूर्ण चीज़ें हैं ज़िन्दगी में, वो ज़िन्दगी की असली चीज़ें हैं वो करने से पहले ये सब करना शुरू कर दिया कि जोड़ा बनाएँ, ये सब करें तो ये मूर्खता है।

प्र: इस जोड़ीबाज़ी में ईवन दबाव तो दोनों के ऊपर ही रहता है पर उसकी जो तीव्रता है वो लड़की के ऊपर कई गुना ज़्यादा होती है।

आचार्य: देखो, दोनों पर ही होती है। ब्याह होगा तो दोनों का ही होगा। तो ब्याह करने के लिए दोनों पर ही दबाव बनाना पड़ता है न। लड़की को कहना पड़ता है, ‘चल लड़के की ओर’ और लड़के को कहना पड़ता है, ‘चल लड़की की ओर।’

प्र: और फिर भी लड़का लड़की की ओर जाता है उससे पहले कुछ शर्तें होती हैं जो वो पूरी करता है दुनिया में, पर वो मामला लड़की के साथ।

आचार्य: वो भी कोई ज़रूरी नहीं है, देखो। मतलब लड़का बेरोज़गार पड़ा हो, किसी काम का न हो, अभी अशिक्षित हो, कोई उसमें किसी तरह का गुण न विकसित हुआ हो लेकिन फिर भी घरवाले पकड़कर उसको ब्याह देते हैं, वो भी चलता है। इतना ही नहीं होता अभी वो बिलकुल किसी काम का नहीं है, दो धेला नहीं कमाता, उस पर दबाव डालकर बच्चा भी पैदा करवा देते हैं।

कहते हैं, ‘हम हैं न पालने के लिए! हम तुझे घर दे रहे रहने के लिए, हमारे घर में रह! हमारी रसोई में तेरा भी और बहु का भी खाना पक रहा है — और बहु ही पका रही है वो अलग बात है। तो खाना भी तुझे हम दे रहे हैं, कमरा भी तुझे हम दे रहे हैं तो तू जल्दी से हमारे लिए पोता पैदा कर, उसको भी हम ही पाल देंगे।’ ये सब भी भारत में चलता है। ये कितनी ज़्यादा इनडिग्निफाइड, गरिमाहीन बात है!

प्र: एक और जो चुनौती का सामना करती हैं अविवाहित महिलाएँ, वो ये रहता है कि उनके जो अभिभावक होते हैं उनको लगातार प्रश्न किया जाता है कि बेटी का क्या कर रहे हो। अब तो इतनी बड़ी हो गयी है, अट्ठाईस पार हो गयी है या तीस हो गयी है तो वो लगातार वही चीज़ उन्हें सुनायी जाती है और वो दबाव जब अभिभावक पर बनता है तो वो सीधा उसके कंधों पर आता है।

आचार्य: जैसे लड़की को पता होना चाहिए किसकी सुननी है किसकी नहीं। वैसे ही लड़की के माँ-बाप को पता होना चाहिए किसकी सुननी है किसकी नहीं। फ़ालतू के लोगों को कान और ध्यान देते ही क्यों हो? कोई आकर के — ‘तुम्हें क्या मतलब है मेरे घर में मेरी बेटी है, अट्ठाईस की हो गयी, तुम्हें क्या मतलब है? तुम्हें उससे शादी करनी है तो बताओ। तुम कौन हो आकर पूछने वाले कि आपकी लड़की की शादी? पड़ोसी हो, पड़ोसी की तरह रहो, अपने घर में जाओ। तुम्हें क्या लेना-देना है?’

सच तो ये है कि मैं बाप हूँ, मुझे बहुत लेना-देना नहीं है। मैंने लड़की को क़ाबिल बनाया है, मैंने उसको समर्थ, शिक्षित बनाया है, मैंने उसके दिमाग का, उसकी बुद्धि का विकास किया है। वो निडर होकर के होशियारी से अपनी आँखों से ज़िन्दगी को देख रही है, वो अपने निर्णय ख़ुद लेगी न! जब मैं ही उसके मामलों में हस्तक्षेप की कोशिश नहीं करता तो मिस्टर पड़ोसी, तुम कौन हो ये सब पूछने वाले कि आपकी लड़की का ब्याह कब होगा? तुम्हें क्या लेना-देना? भागो।’ ये ही है और इसका कोई जवाब नहीं है।

ऐसे दो-चार पड़ोसियों के साथ कर दो, फिर कोई आएगा ही नहीं। कहीं पर रिश्तेदारों की महफ़िल जमी हो, वहाँ पर कोई एक रिश्तेदार ऐसे पूछ दे उसको हड़का दो बिलकुल तो बाक़ी सबको भी सबक मिल जाएगा। फिर कोई ऐसी कुचेष्टा नहीं करेगा कि फ़ालतू सवाल पूछे। वो आता था न‌ विज्ञापन — "दोबारा मत पूछना।" जिसने पूछा उसको बैठाकर के अच्छे से जवाब दे दो सबके सामने फिर दोबारा कोई नहीं पूछेगा।

प्र: इसमें एक अमेरिकन उपन्यासकार हैं लोविसा मे एलकॉट, उनकी उक्ति है जो कहती है कि "लिबर्टी इज़ ए बेटर हज़बैंड दैन लव टू मैनी ऑफ़ अस" (हममें से बहुतों के लिए मुक्ति प्यार से बेहतर पति है)।

आचार्य: ये हुई न बात! मजा आ गया! यही बात तो‌ हम अध्यात्म में इतना समझाया करते हैं — “जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।” लिबर्टी इज़ ए बेटर हज़बैंड दैन लव। अगर पति बनाना भी है तो लिबर्टी को बनाओ, मुक्ति को बनाओ और यही आध्यात्मिक आदर्श है, भारत का उच्चतम आदर्श है।

मुक्ति से बड़ी चीज़ कोई नहीं है। तो ‘बेटी, मुक्ति ही तुम्हारा पति है।’ “जाके सिर मोर मुकुट”, वही पति है तुम्हारा। और ये जो इधर-उधर तुम खोज रही हो कि ये लड़का और वो छोरा, ये किसी गत के नहीं हैं, ये किसी लायक़ नहीं हैं। वो तो अभी तुम पर भी जवानी चढ़ी है और वो भी ऐसा ही है अभी तुम्हें लग रहा है कि अरे! उसमें बड़ा हुनर है या वो बड़ा सुन्दर है। दो-ही-चार दिन या दो-चार साल बाद उसकी पोल खुलेगी लेकिन तब तक तुम पाओगी कि अब तुम्हारे पास पीछे हटने का कोई विकल्प बचा नहीं है, फिर फँस जाओगी।

हम ये नहीं कह रहे हैं कि सब महिलाओं को अविवाहित रह जाना चाहिए। हम ये कह रहे हैं कि पहचानो कि जीवन में महत्वपूर्ण और ऊँचा क्या है। वो कर लो पहले, उसके बाद शादी करनी हो तो करते रहना मर्ज़ी है तुम्हारी।

प्र: आचार्य जी, मैं पढ़ रही थी तो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, उन्नीस-सौ-चौदह से उन्नीस-सौ-अठारह तक, एक पूरी पीढ़ी ही थी महिलाओं की जो कि वंचित हो गयी थी पति से या बच्चों से क्योंकि उनकी मृत्यु हो गयी थी। तो तब से ही अविवाहित महिलाओं को या सिंगल महिला को उस तरीक़े से देखा जाने लग गया कि ये तो दुर्भाग्यशाली हैं, इनके साथ कुछ बुरा हो गया है।

आचार्य: ‘अभागी है! बेचारी अभागी है!’ कोई मिल जाए, दिखाई दे परिपक्व उम्र की महिला — हिन्दू महिला विशेष, और मंगलसूत्र न पहने हो, सिन्दूर न डाले हो तो — ‘बेचारी अभागी है! बेचारी अभागी है!’ जिनको लगता है अभागी है उनको लगने दो न। आनन्द के साथ जो शब्द जुड़ा हुआ है वो है रस, उसकी अपनी मस्ती है, उसकी अपनी खुमारी है। आनन्द, आनन्द! तो जीवन आपका है बल का आनन्द लेने के लिए, ज्ञान का आनन्द लेने के लिए। आप उस आनन्द में जियें न।

किसी को लग रहा हो, आप अभागी हैं तो लगता रहे। ‘हाँ, हाँ! मैं अभागी हूँ, भाई! चल मुझे डिस्काउंट दे-दे! मैं तेरी दुकान में कुछ ख़रीदने आयी हूँ, मेरी माँग में सिंदूर है नहीं, तुझे लग रहा है मैं अभागी हूँ, एक काम कर, पचास प्रतिशत डिस्काउंट दे-दे मुझे। हाँ, अच्छी बात है. क्या दिक्क़त है। लग रहा है तो लगे, हम क्या करें? हमें तो ये पता है कि हम आनन्द मग्न हैं। किसी भी मनुष्य की भाँति मेरा भी आनन्द पर अधिकार है और आनन्द तक ही पहुँचना मेरा दायित्व भी है, उसी के लिए जी रही हूँ। तुझे मेरा आनन्द मेरा अभाग लगता है, कोई बात नहीं।

प्र: इसमें, आचार्य जी, रिसर्च कहती है कि जब भी घर में या आसपास शादियाँ होती हैं या कोई त्यौहार रहता है या सेरेमनीज़ (समारोह) रहती हैं किसी-न-किसी तरह की, तो जो अविवाहित महिलाएँ होती हैं, उन्हें और ज़्यादा एंग्जाइटी (तनाव) हो जाती है।

आचार्य: ‘मेरा क्या होगा?’

प्र: एक तो ‘मेरा क्या होगा’, हो सकता है वो कहीं रह रही हो, बैंगलोर में काम कर रही है कहीं और वहाँ पर उसको वो चीज़ इतनी नहीं महसूस होती है, वो अपना काम कर रही है, जी रही है जैसे ही वो अपने रिश्तेदारों के पास जाती है या घर वापस जाती है…

आचार्य: तो वो अपना काम कर रही थी गुड़गाँव, बैंगलोर या हो सकता है भारत से बाहर काम कर ही है कुछ भी और उसको कहा गया, ‘आ जा, घर में तेरी चचेरी बहन की शादी है।‘ और वो बाहर एक इंसान की तरह काम कर रही थी, एक बुद्धिजीवी की तरह काम कर रही थी लेकिन जैसे ही वो घर पहुँचेगी, कोई नहीं पूछेगा कि तेरी कम्पनी क्या काम कर रही है, तेरा प्रमोशन का क्या है, तू रिस्पोंसिबिलिटी के कौनसे पायदान पर पहुँच गयी? कोई ये सब बाते नहीं पूछेगा।

वो कितनी भी ऊँची प्रोफ़ेशनल हो, घर आते ही उससे पूछेंगे, ‘और, तेरी शादी कब होगी, तेरा जोड़ा कब ख़रीदेंगे, अरे! तू मोटी हो रही है, तुझे लड़का पसन्द नहीं करेगा, अरे! तेरे बाल रूखे हो रहे हैं।‘ अब तुम उससे ये नहीं पूछ रहे हो कि तेरे ऑर्गेनाइज़ेशनल स्ट्रक्चर (संस्थागत ढाँचे) में तेरा अब रोल क्या है? तुझे कितने लोग रिपोर्ट कर रहे हैं, तू किसको रिपोर्ट करती है? ये सब बातें आप नहीं पूछोगे।

वो लड़की घर आयी है तो आप उसको पूरा लड़की की तरह ही देखोगे। और लड़की को आमतौर पर घर आप बुलाते ही इन्हीं चक्करों में हो कि आ जा, तेरी चचेरी बहन की शादी है। हाँ, वो अब घर आती है। वो वहीं फँसकर रह जाती है, बिलकुल ऐसा होता है।

तो उसका जवाब एक ही है कि इस तरह का अगर घर हो तो इंटरनेट का ज़माना है, फाइव-जी, सिक्स-जी सारे काम वर्चुअली भी हो सकते हैं। कोई ज़रूरी है कि टिकट मिले‌ ही फ्लाइट का? फ्लाइटें बुक्ड नहीं चलती हैं क्या? कैसी बात कर रहे हो? कैंसिल भी होती हैं सबकुछ। ‘क्या है कि काम बहुत ज़रूरी है, आये हैं एक रात रुकेंगे — शादी की रात, अगले दिन फिर वापस चले जाएँगे।

हाँ, तुम अगर हमसे मिलना चाहते हो तो हमारा प्रेम तुम्हारे साथ है। तुम अगर हमसे मिलना चाहते हो तो पूरा-पूरा स्वागत है। अपने पैसों से आप सबकी फ्लाइट का टिकट कराऊँगी। आपको अपने शहर बुलाऊँगी। आप मेरे घर आओ न, आप मेरी ज़िन्दगी देखो, आप मुझे समझो।

आप मुझे अपने घर नहीं बुला रहे हो, आप मुझे अपनी टेरीटरी (आधिकारिक क्षेत्र) में बुला रहे हो, आप मुझे अपने राज्य में बुला रहे हो, आप मुझे ऐसी जगह बुला रहे हो जहाँ आपका दबदबा चलता है और वहाँ बुलाकर आप मुझे दबाना चाहते हो, भले ही आप ये बात मानो चाहे न मानो।

मैं होऊँगी बहुत पढ़ी-लिखी, मैं बहुत कमाती हूँ, घर में सबसे ज़्यादा कमाती हूँ। लेकिन जब मैं घर पहुँचूँगी तो वहाँ पर आप दस पुरुष बैठ जाओगे और वहाँ आप मुझे खड़ा करके मेरी क्लास लगाओगे। किस नाते? कि आप उम्र में मुझसे बड़े हो जबकि मैं ज्ञान, अनुभव, श्रेष्ठता, क़ाबिलियत हर तरीक़े से मैं आपसे बड़ी हूँ, पैसे में भी मैं आपसे बड़ी हूँ सही बात तो ये है। मेरी जितनी सैलरी भी आपकी किसी की नहीं थी आपकी उम्र में, आज भी नहीं है। सही बात तो ये है।

लेकिन आप दस लोग बैठ जाओगे, उसमें कुछ स्त्रियाँ भी हो सकती हैं जो बैठ गयी हैं और आप सब बैठकर के मेरे ऊपर दबाव बनाओगे तो मुझे ऐसे माहौल में आना ही नहीं है। हाँ, मेरा प्रेम आपके साथ हैं। मैं आपकी टिकट कराकर आपको भेज रही हूँ, आप लोग मेरे पास आओ न। मैं यहाँ पर आपको एक नयी दुनिया दिखाऊँगी। यही उचित है न?

क्योंकि आपकी जो दुनिया है वो तो आप भी जानते हो, मैं भी जानती हूँ। उस दुनिया में कुछ नहीं रखा है, वो बासी पड़ चुकी, पुरानी पड़ चुकी। आइए, मैं आपको नयी दुनिया दिखाऊँ। मैं आपको टिकट भेज रही हूँ, आप मेरे पास आओ। मैं आपके रहने की व्यवस्था करूँगी, मैं आपको पूरा शहर घुमाऊँगी, मैं आपको अपनी कम्पनी में भी ले जाऊँगी। मैं आपको बताऊँगी, नयी दुनिया कैसी होती है। ये है तरीक़ा।

प्र: इसमें आचार्य जी, मैं उन महिलाओं की तरफ़ से भी बात करना चाहूँगी जो अभी आर्थिक रूप से उतनी मज़बूत नहीं हैं या उतना भी नहीं कमाती हैं जिस तरीक़े से हमने अभी पहली महिला के बारे में बात करी।

आचार्य: कि उनको मैं बुला लूँगी घर वालों को फ्लाइट का टिकट देकर। अरे! उनको नहीं बुला सकते तो कम-से-कम ख़ुद तो वहाँ मत जाओ कि, जाओ तो अपना हित देखकर जाओ।

देखो, सुनो, कोई भी रिश्ता कोई भी सम्बन्ध अपनी मुक्ति से बड़ा नहीं होता और किसी का भी रूठ जाना, ज़िन्दगी को बन्धन में डाल देने से बुरा नहीं होता। समझ मे आ रही है? कोई रूठ गया घर वाला, बुरी बात है। नहीं रूठे तो अच्छा है, बेहतर है न रूठे। लेकिन सबसे बुरी बात ये नहीं होती कि कोई रूठ गया, सबसे बुरी बात ये होती है कि ये रूठने-मनाने के चक्कर में तुम बहुत बड़े बन्धन को स्वीकार कर बैठे, वो सबसे बुरी बात होती है।

प्र: भारत में शादी के विषय में हमेशा से यही बताया जाता है कि काफ़ी पवित्र बन्धन है जो कि होती ही है। तो मैं इसमें ये पूछना चाहती हूँ कि अविवाहित महिलाओं के बारे में तो हमने भी बात करी पर शादी जो करती हैं या करते हैं, वो शादी क्या है?

आचार्य: देखो शादी बहुत समय से चला आ रहा है और एक अर्थ में सफल प्रयोग है, ठीक है? शारीरिक वृत्ति और कामवासना स्त्री-पुरुष दोनों में होती है तो इनका एक स्थायी जोड़ा बना दो। ताकि पुरुष पचास स्त्रियों की ओर न भागे और स्त्री पचास पुरुषों की ओर न भागे और समाज में थोड़ी शान्ति बनी रहे। नहीं तो उपद्रव फैल जाएगा न! सब एक-दूसरे के घरों में घुस रहे होंगे, यही चलेगा। और इस व्यवस्था से ये भी होता है कि जो सन्तान पैदा होती है फिर आपको साफ़ पता होता है कि ये उसकी माँ है, ये उसका बाप है वरना यही नहीं पता चलेगा। पुराने समय में तो बिलकुल नहीं पता चलता था। अब तो चलो डीएनए टेस्टिंग वगैरह आ गयी तो अब पता है ये माँ है, ये बाप है और ये उनकी ज़िम्मेदारी है। माँ का तो फिर भी पता चलता है, बाप का तो कुछ नहीं पता चलेगा अगर एक तय व्यवस्था न हो तो।

तो जब शादी से कोई सन्तान पैदा होती है तो फिर बाप पर ज़िम्मेदारी रहती है, ‘तुम्हारा बच्चा है, अब तुम इसका पालन-पोषण करोगे।’ तो ये शादी की व्यवस्था रही है और ये अपनेआप में एक सफल व्यवस्था रही है। और अगर ये जो इन दो व्यक्तियों का एक साथ आना है, उससे पहले इन दोनों व्यक्तियों को जाग्रत होने का पूरा मौक़ा दिया जाए तो ये व्यवस्था अपनेआप में बुरी भी क्यों है! समझ रहे हो?

दो होशमन्द लोग, दो जाग्रत लोग अपने होश में, अपनी स्वेच्छा से एक-दूसरे से गठबन्धन कर लेते हैं इसमें तो कोई बुराई नहीं हो सकती। और ऐसा ही होना चाहिए विवाह भी कि जो स्त्री है वो भी सब जान चुकी है, दुनिया को समझ चुकी है और जो पुरुष है वो भी ज्ञान रखता है, गहराई रखता है, जीवन को जानता है, सम्बन्धों को समझता है। और इसके बाद ये दोनों तय करते हैं कि अब हमें एक साथ रहना है तो विवाह में कोई बुराई नहीं है फिर।

विवाह में बुराई तब आती है जब उसे बेहोशी में किया जाता है, दबाव में किया जाता है। वो विवाह गड़बड़ होता है। और विवाह में दिक्क़त तब आती है जब एक बार आपने जो जोड़ा बना दिया, आप उसको अनुमति ही नहीं देते टूटने की या आप ऐसी व्यवस्था बना देते हो जिसमें जोड़े के टूटने पर स्त्री का जीना मुश्किल हो जाए। जब आप ऐसी व्यवस्था बना देते हो जिसमें स्त्री को दबाव के कारण, परेशानी के कारण और डर के कारण विवाह में और घर में रहना ही पड़ता है जबकि वो जान चुकी है कि वो जो व्यक्ति है, जिसके साथ उसको बाँध दिया है, वो व्यक्ति उसके लिए अच्छा नहीं है तब गड़बड़ होती है। अन्यथा एक स्त्री और एक पुरुष के साथ रहने में कोई बुराई नहीं है।

तो विवाह की व्यवस्था अपनेआप में बुरी नहीं है। दिक्क़त तब होती है जब उस व्यवस्था पर चलने वाले लोग बेहोश हों। अपनेआप में तो कोई चीज़ अच्छी-बुरी होती भी नहीं न। उस चीज़ को जो आदमी कर रहा है अगर वो होश में है तो उसका कर्म बुरा कैसे हो जाएगा? कोई भी काम करने वाला व्यक्ति अगर होश में है तो वो काम बुरा नहीं हो सकता। आप होश में जो भी करें उसी की परिभाषा पुण्य है, वही अच्छा काम है। लेकिन हमारे यहाँ सब बेहोशी में चल रहा है, सब बेहोशी में और पूरी दुनिया में बेहोशी में चल रहा है। पर भारत में स्थिति विशेषकर ख़राब है।

और ये नहीं कि अगर एक आयोजित, अरेंज्ड मैरिज है तो ही उसमें हालत ख़राब है ये जो लव मैरिजेस होती हैं ये भी पूरी-की-पूरी बेहोशी में होती है। कई बार तो तय करना मुश्किल है कि अरेंज्ड मैरिज में ज़्यादा बेहोशी है या लव मैरिज में ज़्यादा बेहोशी है। क्योंकि अरेंज्ड जो मैरिज होती है, आयोजित विवाह, उसमें परिवार वालों की ओर से दबाव है, समाज का खेल चलता है, वो एक प्रकार की बेहोशी है। लेकिन जो प्रेम कथा चलती है लड़के-लड़की की उसमें तो शारीरिक खेल चलता है पूरा, वो अपनेआप में एक और तल की बेहोशी है। अब कुछ पता नहीं है कि दोनों में से ज़्यादा गहरी बेहोशी कौनसी है।

तो इसीलिए जब मैं बात कर रहा हूँ तो मैं ये नहीं बात कर रहा हूँ कि प्रेम-विवाह बढ़ने चाहिए — प्रेम-विवाह। अरे! जिसको आप प्रेम-विवाह कहते हैं उसमें प्रेम तो कहीं होता ही नहीं है। उसमें तो कामवासना होती है बस, प्रेम कहाँ से आ गया? प्रेम और बोध तो साथ-साथ चलते हैं। जब उस लड़के को, उस लड़की को जीवन में अभी बोध ही नहीं है तो प्रेम कहाँ से आ जाएगा? प्रेम कोई इतनी सस्ती चीज़ थोड़े ही होती है कि बीस-पच्चीस साल के हुए और झट से प्रेम हो गया। प्रेम तो सीखना पड़ता है, प्रेम कमाना पड़ता है, प्रेम प्राकृतिक चीज़ नहीं होती है, प्रेम जंगल की बात नहीं है।

जानवरों में एक-दूसरे के प्रति मोह हो सकता है, ममता हो सकती है, आकर्षण हो सकता है पर अगर सच्चाई से पूछोगे तो जानवर एक-दूसरे से प्रेम नहीं कर सकते। गाय अपने बछड़े से ममता कर सकती है, प्रेम नहीं कर सकती। प्रेम कर पाना सिर्फ़ एक ऊँची चेतना के लिए ही सम्भव है। तो जिसको आप प्रेम-विवाह कहते हैं, वास्तव में प्रेम-विवाह नहीं है, वो काम विवाह है।

तो दो तरह के विवाह होते हैं — एक होते हैं आयोजित मैरिज , इसको आप कह दो ‘दबाव विवाह’, और एक होते हैं प्रेम-विवाह, उनको बोल‌ दो ‘काम-विवाह’। अब दोनों में ज़्यादा गड़बड़ कौन है वो आप तय कर लो। पता नहीं कभी ये ज़्यादा गड़बड़, कभी वो ज्यादा गड़बड़ है। मैं कह रहा हूँ, ‘इंसान को इंसान रहने दो और इंसान को उसकी पूरी सम्भावना तक विकसित होने दो। उसके बाद एक पुरुष इंसान और एक स्त्री इंसान अगर ये निर्णय करते हैं कि उन्हें साथ रहना है और साथ रहने में दोनों की बेहतरी है, भलाई है तो ये शुभ विवाह होगा फिर, ये शुभ विवाह होगा।‘

प्र: इसमें आचार्य जी, दो चीज़ें मैं पूछना चाहूँगी कि अध्यात्म बन्धनों को काटता है, आपने भी हमेशा यही सिखाया है। तो कोई भी व्यक्ति या एक आध्यात्मिक व्यक्ति शादी का बन्धन अपने ऊपर क्यों डालेगा? क्यों डालना चाहेगा? दूसरा कि आपने कहा कि अगर एक व्यक्ति जाग्रत है और उसके बाद वो शादी करना चाहता है तो वो बिलकुल कर सकता है।

आचार्य: वो शादी वैसी शादी नहीं होगी न फिर! आप जिसके बारे में सोच रहे हो वो फिर वैसा विवाह नहीं होगा जैसा आपने आज तक देखा है। उसमें ये सब नहीं होगा कि जाकर के समाज की अनुमति लो, धर्म की अनुमति लो और कानून की अनुमति लो। वो एक बहुत सुन्दर मैत्री होगी, जैसे दो मित्र एक साथ रह रहे हों, जैसे दो साधक एकसाथ रह रहे हों, जैसे दो तपस्वी या सूरमा एक साथ रह रहे हों। दो योद्धा एकसाथ रह रहे हैं, आपस में युद्ध करने के लिए नहीं, माया से युद्ध करने के लिए। समझ रहे हो बात को?

जैसे दो बहुत उच्च कोटि के मित्र तय करें कि हाँ भाई, चलो एकसाथ ही रह लेते हैं। और एकसाथ रहने में कोई बन्धन नहीं है। वो तो एक मधुरता की बात है, हमारे-तुम्हारे आपसी आनन्द की बात है। वो जो विवाह होगा उसको ही आप कह सकते हैं शुभ विवाह।

प्र: विवाह और मैरिज एक लीगल टर्म की तरह देखा जाता है कि आप एक लीगल रिलेशनशिप (कानूनी सम्बन्ध) एक-दूसरे के साथ बना रहे हो। तो एक चीज़ आपने कही कि मैत्री है तो दो लोग साथ में रह रहे हैं और दोनों का जो एक तरीक़े से गोल है या परपज़ (उद्देश्य) है वो है कि आप अपने ही बन्धनों को काटो।

आचार्य: अपने बन्धनों को काटो और जीवन की यात्रा में, जीवन में ऊँचाइयाँ पाने में एक-दूसरे के लिए परस्पर सहायक बनो।

प्र: तो फिर साथ में आपने बात कही थी डाइवोर्स की, अगर आपको लगता है कि नहीं, बात बन नहीं रही है...

आचार्य: डाइवोर्स की ज़रूरत तभी पड़ती है जब पहले आपने बन्धन पकड़ लिया होता है। नहीं तो डाइवोर्स जैसी चीज़ होनी ही नहीं चाहिए। आपसी सहमति से साथ रह रहे हो तो डाइवोर्स होगा नहीं फिर। जब आपसी सहमति से साथ रहा जाता है न तो ये लड़ाई, झगड़ा, तलाक ये सब नहीं होता है फिर। अधिक-से-अधिक ये होता है कि ठीक है जिन कारणों से हम तुम्हारा सम्मान करते थे वो कारण अभी भी है, कोई जायज़ वजह थी कि हम तुमसे प्रेम करते थे, वो प्रेम अभी भी है तो डाइवोर्स कैसा!

हाँ, अधिक-से-अधिक ये हो सकता है कि एक ही घर में नहीं रह रहे हैं, एक ही शहर में नहीं रह रहे हैं, जीवन की यात्रा है, दोनों ने अलग-अलग राहें पकड़ ली हैं। हो सकता है कभी दोबारा भी हमारी राहें एक हो जाएँ, दोबारा भी कभी एक घर में रह सकते हैं। एक घर में नहीं भी रह रहे हैं तो भी परस्पर प्रेम भी है, सम्मान भी है, समझ भी है, सब है।

ये डाइवोर्स वगैरह तभी होते हैं जब पहले आपने दो अज्ञानी व्यक्तियों को बहुत ग़लत कारण से ज़बरदस्ती साथ में बाँध दिया होता है। तब फिर उनमें आपस में विस्फोट होता है और विस्फोट होता है, वे छितर जाते हैं, उसको तलाक कहा जाता है। उसमें पूरा परिवार छितर जाता है, उसमें बच्चे छितर जाते हैं और बहुत ख़राब हालत होती है कि अब वो बच्चे हैं उनकी कस्टडी के लिए कानूनी कार्रवाई चल रही है और एक-दूसरे पर जो पति-पत्नी हैं वे फिर चालें खेल रहे हैं, दाँव चले जा रहे हैं, वकीलों को पैसे जा रहे हैं, ये सब काम चल रहा है। उसकी नौबत ही क्यों आए?

दो ऊँचे लोग एक-दूसरे के साथ कभी ऐसा करेंगे क्या कि एक-दूसरे पर मुकदमा कर रहे हैं। उनको शर्म आएगी, कहेंगे, ‘हमने प्रेम करा है इससे, हम सम्मान करते हैं इसका। आज अगर किसी वजह से हम इसके साथ नहीं भी रहना चाहते तो हम बात को कोर्ट में थोड़े ही घसीटेंगे। अलग होना है, हो जाएँगे। हम कहेंगे नमस्कार करके — ‘कुछ दिनों के लिए मुझे अकेलापन चाहिए। मुझे जाने दो, हो सकता है मैं लौट आऊँ, हो सकता है मैं न लौटूँ। मैं नहीं भी लौटूँ तो भी मैं तुम्हारे साथ हूँ।’ समझ में आ रही है बात? ये एक ऊँचे आदमी का तरीक़ा होता है।

और निचले आदमी का तरीक़ा ये होता है कि वो स्त्री पर अत्याचार कर रहा है और वो स्त्री भागी है तो वो फिर पुरुष पर मुकदमे कर रही है। और आजकल तो स्त्रियाँ भी झूठे मुकदमे करती हैं। और वो पुरुष पर और सास पर, ससुर पर, देवर पर, सब पर उत्पीड़न और बलात्कार का आरोप लगा रही है। ये गन्दगी, कीचड़ मच रहा है पूरा। ये कीचड़ मच ही इसीलिए रहा है क्योंकि विवाह ही ग़लत हुआ था। दो ऊँचे लोग अगर सम्बन्ध विच्छेद भी करते हैं तो उसमें कीचड़ नहीं उछलता।

प्र: इसमें मुझे जो मतलब समझ में आ रहा है, जो चीज़ आप कह रहे हैं, कि ये जो फिर सम्बन्ध होगा शायद इसको लीगल नाम देना भी नहीं चाहोगे। बताइएगा अगर कुछ उसमें गैप हो।

आचार्य: मुझे तो ये बात ही बड़ी अश्लील लगती है कि लॉ घुसा हुआ है दो लोगों के रिश्ते में। मैं किसी पुरुष से दोस्ती करता हूँ तो उसका लीगल रजिस्ट्रेशन होता है क्या?

प्र: तो फिर विवाह का मतलब क्या रहा?

आचार्य: विवाह का मतलब साहचर्य। दो लोग एक साथ रह रहे हैं। विवाह का और क्या मतलब है? आप किसी पुरुष से दोस्ती करते हो तो जाकर कहीं पहले सात फेरे लोगे या कोर्ट को बताना पड़ता है — ‘फ़लाना अब मेरा दोस्त है?’ विवाह का मतलब होना चाहिए मैत्री। उसमें कानून को बीच में आना ही नहीं चाहिए। और विवाह का मतलब अगर मैत्री नहीं है तो विवाह फिर बड़ी गन्दी चीज़ है। अगर विवाह का मतलब मैत्री नहीं है तो विवाह का मतलब वासना है फिर, मात्र वासना के लिए दोनों इकट्ठे आये हैं, मैत्री तो कहाँ है?

प्र: जैसे आपने आरम्भ में कहा था कि विवाह जो एक सफल प्रयोग रहा है और उसके कारण ये थे कि दो व्यक्ति साथ में आते हैं तो उनके इर्द-गिर्द एक पूरी व्यवस्था तैयार हो जाती है, जहाँ पर बच्चा भी है, परिवार एक पूरा बन जाता है। पर जब हम बात करते हैं इस तरीक़े से कि ये भी एक तरीक़ा है जीने का तो वहाँ पर लोगों का तर्क ये आता है कि फिर बच्चे का क्या होगा।

आचार्य: बच्चे का क्यों कुछ होगा? मैं एक जाग्रत पुरुष हूँ और उधर कोई जाग्रत स्त्री है और हमारे सम्बन्ध से एक सन्तान पैदा होती है। अगर मैं अच्छा, बढ़िया आदमी हूँ तो मैं उस सन्तान को छोड़कर भाग जाऊँगा क्या? और अगर मैं घटिया आदमी हूँ तो हो सकता है मैं उस सन्तान को छोड़कर न भागूँ लेकिन उस सन्तान की ज़िन्दगी मैं बर्बाद कर दूँगा।

तो सन्तान अच्छे से परवरिश पाये इसके लिए आपको कोई बन्धन नहीं चाहिए इसके लिए आपको एक उत्कृष्ट पिता चाहिए। एक अच्छा इंसान अपने बच्चे को छोड़कर क्यों भागेगा? और एक घटिया इंसान अगर अपने बच्चे को छोड़कर नहीं भी भाग रहा है तो भी तबाह तो कर रहा है घर में।

तो ये कहाँ का तर्क है कि अगर हम फॉर्मलाइज़ नहीं करेंगे इंस्टीट्यूशन को तो सब पिता लोग भाग जाया करेंगे अपने बच्चों को छोड़कर। अगर पिता ऐसा है कि वो बच्चे को छोड़कर भाग सकता है तो उसे भाग ही जाना चाहिए न, ऐसा घटिया पिता अगर परवरिश करेगा अपनी औलाद की तो औलाद का भविष्य ही चौपट करेगा।

इसी तरह बात है कि अरे! विवाह होता है तो आप अपने सास-ससुर का ख़याल रखते हो। आपसे मेरी मित्रता है, आपके परिवार में कुछ हो रहा है, क्या मैं जाकर उनकी मदद नहीं करूँगा? नहीं करूँगा क्या? एक इंसान होने के नाते, एक अच्छा इंसान होने के नाते और आपका मित्र होने के नाते मैं बिलकुल जाऊँगा उनकी मदद करने। या ऐसा है कि जब तक मैं उसको सास-ससुर नहीं बोलूँगा तब तक मैं उसका कुछ ख़याल ही नहीं रखूँगा। और सास-ससुर बोलने से क्या हो जाता है? आधी बहुएँ मन्नत माँग रही होती हैं — सास जल्दी मरे। सास तैयारी कर रही होती हैं कि बहु पर कब कैरोसीन छिड़क दें। यही तो चल रहा है, और क्या है!

अगर प्रत्यक्ष हिंसा नहीं भी हो रही है तो दिल-ही-दिल तो हिंसा सुलगती ही रहती है। ताने मारे जा रहे हैं, व्यंग्य करे जा रहे हैं। ये सब हिंसा नहीं है क्या? तुलना करी जा रही है, कभी नीचा दिखाने की कोशिश की जा रही है, कभी ईर्ष्या सुलगायी जा रही है। ये सब हिंसा नहीं है क्या? तो सिर्फ़ इसलिए कि आप बोल दो कि अरे कानूनी शादी हुई है। इससे शुभता नहीं आ जाती, इससे दैवीयता नहीं आ जाती कि कानूनी शादी हुई है।

मुझे कोई समस्या नहीं है अगर आप किसी पुरुष के साथ रहें और आप उसके लिए लीगल सेंक्शन भी ले लें। ले लीजिए, बेशक ले लीजिए। मैं कह रहा हूँ, ‘वो लेकिन सेंट्रल डिटरमिनेंट नहीं होना चाहिए। वो ये नहीं होना चाहिए कि विवाह वो चीज़ है जिसको कानून ने मान्यता दे दी। विवाह वो चीज़ है जिसको आपके हृदय ने मान्यता दे दी है। उसके बाद आपको लगता है कि आपको जाकर के उसका लीगल रजिस्ट्रेशन कराना है या उसका मन्दिर से आपको कोई प्रमाण लेना है तो आप वो भी ले लीजिए, उसमें मुझे कोई समस्या नहीं है।

मेरी समस्या ये है कि दो बेहोश लोग या तो अपनी कामवासना के कारण या अपने अज्ञान और सामाजिक दबाव के कारण एक-दूसरे से बँध जाते हैं और सन्तान पैदा करने लग जाते हैं और हम इसको कह देते हैं कि ये तो विवाह की हमारी पवित्र संस्था है। ‘इससे देखो क्या खूबसूरत परिवार पैदा हुआ है!’ मैं कह रहा हूँ, ‘जहाँ होश नहीं है, जहाँ समझदारी नहीं है, जहाँ बोध नहीं है, जहाँ अध्यात्म नहीं है वहाँ कुछ भी शुभ हो ही नहीं सकता।’

प्र: इसमें आचार्य जी, एक अविवाहित महिला के आसपास जितनी भी सामाजिक चुनौतियाँ रहती हैं, उनमें से कुछ चुनौतियों को अभी मैंने आपके सामने रखा। अब मैं कुछ बायोलॉजिकल चैलेंजेस (जैविक चुनौतियों) को भी आपके सामने रखना चाहती हूँ जिसमें काफ़ी महत्वपूर्ण विशेषता होती है, जो महिलाओं के साथ जोड़ा जाता है वो ये है कि महिलाएँ इमोशनल (भावुक) होती हैं। तो सामान्यतया महिलाएँ पुरुषों के मुकाबले ज़्यादा भावुक होती हैं। और भावनाएँ कहीं-न-कहीं आपके भीतर कमज़ोरी को बचाए भी रखती हैं। तो मैं आपसे ये समझना चाहती हूँ कि भावनाएँ क्या होती हैं?

आचार्य: पहले तो मुझे ये नहीं समझ में आ रहा कि ये परिभाषा कहाँ से आ गयी, इमोशनल। आज ही मैं गया था, तकलीफ़ में था, मैं शाम को डॉक्टर के पास गया था, वो एक महिला थी। ठीक है? ईएनटी स्पेशलिस्ट। मुझे यहाँ कुछ समस्या थी (अपने चेहरे की ओर इशारा करते हुए) और मैंने जो मेरे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, ये (मस्तिष्क) मैंने उनको सुपुर्द कर दिया था। वो एक महिला बैठी हुई थी। शरीर के बारे में मुझसे कहीं ज़्यादा ज्ञान रखती हैं। शरीर की चिकित्सा भावना से तो नहीं करी जाती होगी न? बोध से करी जाती है, होशियारी से, समझदारी से करी जाती है। उसको वो करना जानती है उन्होंने मेरी चिकित्सा करी। मैं पहले से बेहतर महसूस कर रहा हूँ। तो कौन कह रहा है कि महिला तो बस भावना में चल सकती है?

मेडिकल की पढ़ाई करने में कितना श्रम, अनुशासन लगता है और कितना ज्ञान अर्जित करना पड़ता है, ये आपको समझ में नहीं आता क्या? आप लोग कैसी बातें करते हो कि महिला तो बस इमोशनल हो सकती है। ऐसे भी नहीं वहाँ बैठ गयी थी कि बस एमबीबीएस करा है। वो मेडिकल की दस-बारह साल की पढ़ाई करके बैठी हुई थी, एमबीबीएस के बाद एमडी, फिर ये, फिर वो।

तो इतना आसान है क्या कि आप बोल दो कि महिला तो बस चूल्हा-चौका करती है और भावों में जीती है, वो तो भाव की है, वो तो भाव की है। ये कॉन्स्पिरेसी (षड्यन्त्र) है महिला को इमोशनल घोषित कर देना और कह देना कि तेरे लिए तो ज्ञान है ही नहीं।

अध्यात्म में भी उसको बोल दिया गया है कि तू तो बस भक्ति कर, ये ज्ञान तेरे बस की नहीं है। तुझे बात नहीं समझ में आएगी, तू तो भक्ति कर। ये क्या है?

प्र: इसमें आचार्य जी, कई बार ये भी पाया जाता है कि अगर कामकाजी महिला है और जहाँ पर भी काम करे — वो डॉक्टर हो सकती है, वो पायलट हो सकती है, वो साइंटिस्ट हो सकती है — वो वहाँ पर तो ऑब्जेक्टिविटी दिखाती है, पर अक्सर ही महिलाएँ अपने रिश्तों में या घरों में ज़्यादा इमोशनल या सब्जेक्टिवली रिलेट करती हैं।

आचार्य: ऐसा नहीं है। आपने उनको इस तरीक़े से संस्कारित कर दिया है कि उनको लगने लगा है कि इमोशनल बिहेवियर (भावनात्मक व्यवहार) ही हमारे लिए उचित है, अच्छा है, सम्माननीय है। कुछ भी नहीं है। जब वो मेरा परीक्षण कर रही थी और डॉक्टरों के औज़ार तो आप जानते ही हो कैसे होते हैं? थोड़े-बहुत ऐसे जैसे कसाई के हों और वो उन सब औज़ारों से कभी मुँह, कभी कान, कभी ये सब अपना देख रही थीं तो उनकी आवाज़ पूरी तरह संयमित थी, हो सकता है मेरी आवाज़ काँप रही हो। तो बताओ इमोशनल कौन हो रहा था? तो किसने कह दिया कि महिला इमोशनल होती है?

और मैं तो मानने को तैयार हूँ — हाँ, मैं हो रहा था इमोशनल, कि ये जो जा रहा है छुरा अन्दर और अब पता नहीं क्या होने वाला है, मैं तो हो रहा था। वो तो अपना बिलकुल सहज खड़ी हुई थी अकम्प, कोई उनकी आवाज़ में सिहरन नहीं, कुछ नहीं और मुझे निर्देश दे रही थी, ‘अब आप ये करिए, ये करिए, ऐसे चलिए; नहीं, हिलिएगा नहीं, बिलकुल।‘ तो कौन कह रहा है इमोशनल होती है महिला?

अब मैं बताता हूँ न आपको, मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे बहुत अच्छी टीचर्स मिली हैं। उनमें से न जाने कितने के नाम, चेहरे जबकि वे कक्षा दो-तीन में उन्होंने मुझे पढ़ाया, मुझे अभी तक याद है। अभी लखनऊ गया था तो मिलकर आया। प्रिंसिपल हो गयी हैं मैम अब। मुझे तो नहीं समझ में आता कि वे इमोशनल कब थीं!

कक्षा तीन से लेकर के और माने तीन साल की कक्षा तीन नहीं, तीन साल की उम्र से लेकर के सत्रह साल की उम्र में मैं आइआइटी गया था तो तीन से लेकर के सत्रह तक स्कूलिंग हुई है चौदह साल। ये चौदह साल मेरी ज़्यादातर जो टीचर्स थीं, वे महिलाएँ ही थीं। और मैंने तो उनको इमोशनल होते नहीं देखा। मैंने तो उनको कई बार पुरुषों से ज़्यादा सख्त देखा, अडिग देखा, अचल देखा। मैंने तो उनको भावना में थरथराते और काँपते नहीं पाया। और उनका एहसान है मेरे ऊपर कि आज मैं कुछ बन पाया हूँ, आपसे कोई बात कर पा रहा हूँ तो उन्हीं की बदौलत।

तो कोई अगर मुझे बोलेगा कि महिलाएँ इमोशनल होती हैं या कि वो जो इमोशन है वो उनकी कमज़ोरी होती है तो ये तो मैं नहीं मानूँगा। तो हर तरह के स्कूल में मैं पढ़ा हूँ। दो साल मैं कॉन्वेंट में भी पढ़ा हूँ — दो साल नहीं, चार साल — तीन, चार, पाँच और छः।

एक मनोरंजक घटना है। ये बातचीत भारी हो रही है, मैंने कहा, सबको सुना देता हूँ, चुटकुले की तरह लेना। तो मैं कॉन्वेन्ट में पढ़ता था तीसरी में, सेंट मैरीज़, बांदा। तो मस्त मेरा तो ऐसा ही था तो मेरे लिए नया पैंट सिलकर आया, हाफ़ पैंट। तो मैं इधर-उधर दौड़ लगा रहा हूँ, ये कर रहा हूँ, वो कर रहा हूँ। तो मैं झुका किसी चीज़ को उठाने को पीछे से उसकी सिलाई खुल गयी, चर्र…। अब लड़कों ने मज़े लेने शुरू कर दिये मेरे। मैं पीछे से वैसे भी काफ़ी विस्तार लिये हुए था। और वो देख रहे हैं कि ये जो है बिलकुल दो फाँक हो गया है मामला। तो सिस्टर आयीं, इन्टरवल में ये सब हुआ था इंटरवल के बाद उनका पीरियड था सिस्टर का। वे आयीं तो मुझको देखा, अब मैं आगे ही बैठा करता था सबसे, टीचर्स का आमतौर पर मैं प्रिय रहता था हालाँकि मुझे सज़ा भी खूब मिलती थी। पर आमतौर पर मैंने यही देखा कि मुझे सब पकड़-पकड़कर सबसे आगे बैठाती थीं।

तो उन्होंने देखा तो मैं ऐसे बैठा हूँ और शायद रो ही रहा हूँ। तो पूछती हैं, ‘क्या है?’ मैं बताऊँ भी नहीं। फिर किसी ने बताया कि इसका तो पैंट फट गया है तो वे मुझको वहाँ से लेकर गयीं और कुछ नहीं उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं। उनकी क्लास चल रही है, अपनी क्लास को बीच में छोड़कर मुझको लेकर गयीं। उनका कमरा था वे उसी कैंपस में रहती थीं स्कूल के, उनका कमरा था वहाँ लेकर गयीं। मुझसे कहा, ‘ये दो।’ मैंने दे दिया अपना उनको निक्कर। उसको उन्होंने सिला, मुश्किल से पाँच-सात मिनट लगे उनको और दिया — ‘पहनो।‘ वे वापस लेकर आयीं और मुझको बैठा दिया।

आप बिलकुल बोल सकते हो कि ये उन्होंने एक भावनात्मक काम करा, इमोशनल काम करा। मैं नहीं समझना चाहता हूँ। मैं ये जानना चाहता हूँ कि इसमें हानि क्या है? अगर आप इसको बिलकुल तटस्थ होकर के ओब्जेक्टिवली देखो तो उन्होंने अपने सबसे अच्छे स्टूडेंट को क्लास में डिस्ट्रैक्ट होने से बचा लिया।

तो ये इमोशन बुरा कैसे है? इमोशन क्या हर स्थिति में बुरा ही होता है? नहीं तो मैं सबसे आगे बैठा हुआ था, मेरे पीछे सब बैठे हुए थे और मुझे देख-देखकर के सब मज़े ले रहे थे और मैं रूआँसा हूँ, पैंट फटा पड़ा है और पूरी क्लास में मज़े आ रहे हैं। न मैं पढ़ रहा था, न क्लास पढ़ रही थी। तो वे मुझे लेकर गयीं और पूरा कार्यक्रम दस मिनट में समाप्त करके ले आयीं। उसके बाद उन्हें जो पढ़ाना था, उन्होंने पढ़ा दिया।

कोई बिलकुल बोल देगा कि ये काम कोई मेल टीचर नहीं करता है। शायद कोई मेल टीचर ये काम नहीं करता, इसके लिए कोई फीमेल टीचर ही चाहिए। लेकिन इस काम में बुराई क्या हो गयी? ये भावुकता बुरी कैसे है? इस भावुकता में तो पूरा-पूरा होश शामिल है न? नहीं तो उस दिन उनकी पूरी क्लास मज़ाक़ बनकर रह जाती अगर वे ये नहीं करती तो कोई सुनता भी नहीं, पढ़ता भी नहीं। वे ये और कर रही होतीं, इसको पनिश करो, उसको पनिश करो; सब मज़ाक उड़ा रहे हैं, ‘चलो, बाहर निकलो।’ कोई फ़ायदा नहीं था उस दिन।

तो इमोशनेलिटी नेसेसरिली (भावुकता आवश्यक रूप से) बुरी हो ऐसी कोई बात नहीं होती है। बहुत कम ऐसा होता है, समझिएगा कि कोई देश ये कर पाये कि किसी दूसरे देश के दो टुकड़े कर दे, बहुत कम ऐसा होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में ऐसा हुआ था जर्मनी के साथ ऐसा किया गया था।

और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जो देश ये कर पाया उसकी अध्यक्षा एक महिला थीं, कि इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने में सहायता करी। मान लीजिए कि स्वयं नहीं करा उनकी मुक्ति वाहनी थी, भारत ने मात्र सहायता करी। तो भी ये बहुत बड़ा काम होता है कोई देश ही दो टुकड़ों में बँट गया, ये काम एक महिला ने करा है। कौन कहता है कि महिला कमज़ोर होती है, भावुक होती है, वो तो कठोर निर्णय नहीं ले सकती है? ये कितना कठोर निर्णय है! ये बड़े-से-बड़ा निर्णय है।

और भारत उस वक़्त अपेक्षतया, आज की अपेक्षा एक कमज़ोर और ग़रीब देश था और अमेरिका प्रेशर भी बना रहा था लगातार। और उसके बाद भी ये काम सफलता पूर्वक किया गया और जब ये काम किया गया उससे बस नौ साल पहले चीन ने भारत को एक ज़बरदस्त हार दी थी। तो ये भी ख़तरा था कि इधर से चीन दबाव बनाएगा, उधर से अमेरिका दबाव बनाएगा तो कैसे काम बनेगा। लेकिन फिर भी एक महिला के नेतृत्व में ये काम हुआ न!

और भी बहुत सारे काम हैं। मैंने तो अपनी सारी ही टीचर्स को फर्म (अटल) देखा, डिसिप्लिंड (अनुशासित) देखा, ऑब्जेक्टिव देखा, तटस्थ देखा। मैंने तो नहीं देखा कि वे भावना में बहकर के उल्टे-पुल्टे निर्णय ले रही हों या उल्टी-पुल्टी सीख दे रही हों। मैंने तो ऐसा होते नहीं देखा।

तो ये डॉक्टर्स, आज भी आधी डॉक्टर्स तो महिलाएँ ही होती हैं न अभी एक डॉक्टर की बात आपने की थी। अगर महिलाएँ भावुक होती हैं तो फिर तो मरीज़ों की जान ख़तरे में है। ऐसा तो नहीं होता कि महिलाएँ सब भावुकता में ही बहती रहती हैं। महिलाओं में थोड़ी भावुकता होती है प्रकृति प्रदत्त, बाक़ी जो उनको अल्ट्रा इमोशनल बनाने का काम है, वो काम समाज करता है। कहता है, ‘तुम महिला हो तुम्हें तो भावुक होना चाहिए न!’ तो जहाँ उसे भावुक नहीं भी होना, उसे भावुक होने का प्रशिक्षण दे दिया जाता है।

आदमी-औरत में अन्तर होते हैं। लड़का-लड़की जब पैदा होते हैं, तभी से उनमें कुछ अन्तर होता है पर वो अन्तर थोड़ा होता है, समाज उस अन्तर को बहुत बड़ा बना देता है। पता है क्यों बड़ा बना देता है? बड़ी अजीब बात है, ताकि और ज़्यादा सेक्शुअल एक्साइटमेंट (यौन उत्तेजना) पैदा हो। औरत जितना ज़्यादा अल्ट्रा औरत बना दी जाएगी, अल्ट्रावुमन, और मैन जितना ज़्यादा अल्ट्रामैन बना दिया जाएगा, उतना दोनों एकदम दूर हो जाएँगे न। और जितना दूर होते हैं उतना उनमें आपस में फिर अट्रैक्शन बढ़ेगा।

प्र: उसका पहनावा उस तरीक़े से कर दिया।

आचार्य: लड़की का पहनावा अलग कर दो, लड़की के बाल अलग कर दो, लड़की का चाल-चलन अलग कर दो, सबकुछ लड़की का अलग कर दो और लड़की-लड़के को कभी आपस में मिलने मत दो। दोनों को इतना अलग कर दो, दोनों में इतनी दूरी बना दो कि दोनों कामवासना में एक-दूसरे के लिए पागल हो जाएँ, दोनों बिलकुल पागल हो जाएँ। इसलिए समाज लड़की को‌ एक अल्ट्रा लड़की बना देता है और लड़के को अल्ट्रा लड़का बना देता है। नहीं तो दोनों में अन्तर होते हैं, पर इतने बड़े अन्तर नहीं होते जितने हमने बना दिये हैं।

आप दोनों को एक साथ उठने-बैठने दो, खेलने दो, सहज, स्वस्थ सम्बन्ध हो। वही एक सहज समाज की निशानी होती है।

प्र: दूसरा, इसमें आचार्य जी, जो एक आन्तरिक चुनौती का सामना अक्सर इन महिलाओं को करना पड़ता है वो रहता है लोनलीनेस (अकेलापन) का और वो लोनलीनेस फिर आप भरना चाहते हो किसी पुरुष के रूप में।

आचार्य: नहीं, वो भी बतायी गयी बात है, वैसी तो लोनलीनेस पुरुष को भी होती है। वो भी सारी शायरी गाते रहते हैं, ‘हाय, मिल जाए तो ज़िन्दगी भर जाए।‘ ये सब करते रहते हैं। आपको ये पता होना चाहिए न, आपको सचमुच क्या चाहिए फिर आप पुरुष भी अपने लिए सही ढूँढ पाओगे। कोई ये थोड़े ही कहा जा रहा है कि ज़िन्दगी में पुरुष होना नहीं चाहिए।

यहाँ पर वो ब्रह्मचर्य की वो पारम्परिक परिभाषा पकड़कर थोड़े ही बैठे हैं कि स्त्री के लिए ब्रह्मचर्य ये है कि पुरुष की छाया से दूर रहो और पुरुष के लिए ब्रह्मचर्य है कि वो स्त्री को देखे भी नहीं। वास्तविक ब्रह्मचर्य होता है कि ब्रह्म को जीवन में सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च स्थान आप दें, ये ब्रह्मचर्य है। सबसे आगे ब्रह्म आएगा। ब्रह्म माने क्या? सच्चाई, ऊँचाई, श्रेष्ठता, उत्कृष्टता, मुक्ति — ये ब्रह्म के नाम हो गये, सबसे आगे ये आएँगे। जिसके जीवन में स्पष्टता का, बोध का सबसे ऊँचा स्थान है वही ब्रह्मचारी है, और नहीं कुछ ब्रह्मचर्य होता है। ठीक है? तो ये सब आप अपने रखिए जीवन में और फिर कोई इन्हीं सब चीज़ों के अनुकूल आपको स्त्री-पुरुष मिलता हो तो आप उसकी बेशक संगत करें उसमें कोई बुराई नहीं है।

प्र: एक और जो इसमें तर्क आता है वो ये रहता है कि आपके जो माता-पिता हैं वे आपके साथ हमेशा नहीं रहेंगे तो इसलिए ज़रूरी है कि आप किसी के साथ एक रिश्ते में बँध जाएँ।

आचार्य: बेकार की बात है, मैं इसमें क्या बोलूँ? मतलब मेरे बोलने का कुछ नहीं है। आपके काम आपका ज्ञान आना है, आपके काम आपका पैसा आना है, आपने ज़िन्दगी में ख़ुद जो कमाया है वही आपके काम आना है। ठीक है? ये उधार की कमाई किसी और का भरोसा बिलकुल काम नहीं आता। और ये मैं किसी आधुनिक दार्शनिक की तरह नहीं बोल रहा हूँ, ये हमारे ऋषियों और सन्तों की बहुत पुरानी सीख है कि कोई साथ न चलेगा तेरे, “उड़ जाएगा हंस अकेला।“ तुम किसके भरोसे बैठे हुए हो? ये तुम्हारे साथ नहीं चलने वाले।

प्र: एक काफ़ी बड़ा कॉन्सेप्चुअल गैप (वैचारिक अन्तर) रहता है कि व्यक्ति को ज़िन्दगी में खुशी चाहिए, सुरक्षा चाहिए, प्रेम चाहिए या ये जितने भी एक तरीक़े से मूल्य होते हैं उसको हम आत्मबोध में नहीं पाते। बजाय इसके लगता है ऐसा कि एक परिवार बन जाएगा या चीज़ें उस तरीक़े से हो जाएँगी तो वहाँ से हमको वो सारी चीज़ें मिल जाएँगी। तो हम वो रास्ता पकड़ते हैं इन चीज़ों को पाने का।

आचार्य: देखो फिर बोलता हूँ न, एक भिखारी है, वो भिखारियों की बस्ती में जाकर भीख माँग रहा है, वो करोड़पति थोड़े ही बन जाएगा। एक भिखारियों की बस्ती है, वहाँ एक नया-नया भिखारी है, उन भिखारियों से ही भीख माँग रहा है। जिनके पास ख़ुद शान्ति नहीं, वो तुम्हें कैसे दे देंगे? सिर्फ़ इसलिए कि तुम उनके परिवार में चले गये!

जिनके पास ख़ुद होश नहीं, बोध नहीं, दुनिया की कोई समझ नहीं, शान्ति नहीं, करुणा नहीं वो तुम्हें ये सब कैसे दे देंगे? सिर्फ़ इसलिए कि तुम विवाहित होकर, बहु बनकर उनके घर में आ गये। जो ख़ुद अभी घोर मनोवैज्ञानिक असुरक्षा में जी रहे हैं, इंटरनल इनसिक्योरिटी है जिनमें, उनके घर में जाकर तुम सिक्योर कैसे फ़ील करने लगोगी?

प्र: एक सवाल, आचार्य जी, भारतीय समाज से सम्बन्धित है कि भारतीय समाज स्वतन्त्र क्यों नहीं है इस परिप्रेक्ष्य में कि संविधान भी आपको समर्थन करता है एक सिंगल महिला के तौर पर, ग्रन्थ भी बात करते हैं स्वतंत्र चेतना की या आत्मा असंग है, हमेशा से आपने ये बताया है, उसके बावजूद समाज में इन दो चीज़ों में जो गैप, दूरी है वो क्यों है और ये कहाँ से आया है? और साथ में इस गैप के साथ क्या एक राष्ट्र प्रगति कर भी सकेगा?

आचार्य: नहीं कर सकता। ये गैप यहाँ से आया है कि हमारे मन में ज्ञानियों, ऋषियों, दार्शनिकों, चिंतकों के लिए कोई सम्मान नहीं है। हमारे मन में सम्मान सिर्फ़ हमारी रूढ़ि, प्रथा और परम्परा के लिए है जिसको हम संस्कृति बोल देते हैं। हम अध्यात्म से कोसों दूर जीने वाले लोग हैं।

और आध्यात्म के विकल्प के तौर पर और अध्यात्म के विरुद्ध हमने एक संस्कृति खड़ी कर ली है। उसको हम बोलते हैं, ‘यही हमारी संस्कृति है जिसमें सिर्फ़ अन्धविश्वास है, पाखंड है और ऐसी प्रथाएँ, परम्पराएँ हैं जिनका अध्यात्म से, सत्य से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं।‘ तो इसलिए भारतीय अध्यात्म उच्चतम है लेकिन भारतीय संस्कृति की बड़ी दुर्दशा है।

प्र: आचार्य जी, जो यहाँ तक कि मैट्रिमोनियल ऐड्स होते हैं, या फिर सामान्यतया भारत में जो पूरी-की-पूरी शादी की व्यवस्था रहती है, उसमें हमेशा ऐसी महिला को प्राथमिकता दी जाती है जो कि ट्रेडीशनल हो या पारम्परिक मूल्य रखती हो। तो एक तरीक़े से महिलाओं को ट्रेडीशन कैरी करने का एक वाहन बना दिया है।

आचार्य: देखो, ट्रेडीशन में कोई दम-दिलासा हो तो बेशक ट्रेडीशन कैरी करो। ट्रेडीशन को ठोक-बजाकर परखकर देख लो न, उसमें कुछ होश की बात हो, सच्चाई की बात हो तो निभाओ परम्परा, कोई दिक्क़त नहीं है। पर उसमें कुछ है ही नहीं, पुराना कचड़ा है उसको आगे हस्तांतरित किया जा रहा है। तो ऐसी परम्परा में कुछ नहीं रखा है। परम्परा का भी निष्पक्ष परीक्षण होना चाहिए कि वो परम्परा आज के समय में कोई मूल्य, कोई लाभ रखती भी है या बस ऐसे ही पुराना अन्धविश्वास है।

प्र: और इसी में, आचार्य जी, जो पारम्परिक मूल्य होते हैं कई सारे, ऐसे समूह समाज में हैं जो कि उनको गौरवान्वित करते हैं। तो उस तरीक़े के विडियोज़ आएँगे कि जहाँ पर एक महिला है वो अगर स्पोर्ट्स भी खेल रही है तो सूट या साड़ी पहनकर कुछ कर रही है।

आचार्य: या कि उसका पति अगर कोई स्पोर्ट खेल रहा है तो महिला साड़ी में जा रही है और पूरे स्टेडियम के सामने वो अपने पतिदेव का…।

प्र: और उसी तरीक़े के विडियोज़ फिर फैलाए जाते हैं कि ये है हमारी भारतीय नारी।

आचार्य: वो कोई सहज रूप से नहीं है, वो सब साजिश है, वो सब सत्ता का और पैसे का खेल है। वो सब करा ही इसलिए जाता है ताकि समाज की एक तरह की कंडीशनिंग करी जा सके। उससे बहुतों को लाभ होते हैं।

प्र: पर उस सबसे पूरा जैसे माहौल सा बनाने की कोशिश की जाती है या थोड़ा-थोड़ा बनता भी है। कि फिर जो महिलाएँ उस चीज़ को नहीं फॉलो करती हैं या उनसे अलग जीवन जीती हैं या थोड़ा सा उनकी नज़र में कह दो रेडिकल ही जीती हैं, उनके लिए बहुत समस्याएँ वो पैदा कर देते हैं।

आचार्य: समस्या तो देखिए, आप मानो तो है, न मानो तो नहीं है। समस्या पैदा करने वाला कुछ नहीं कर सकता अगर आप समस्याग्रस्त होने को तैयार नहीं हो तो। वो क्या कर रहा है? वो कोई आकर के आपको मार तो रहा नही है डंडे से। वो बस आपको कुछ बातें दिखा रहा है, कुछ बातें सुना रहा है। यही तो कर रहा है। न देखो, न सुनो। देख भी लो, सुन भी लो तो कहो, ‘छी! मूरख, हट पगला!’ हँस दो चुटकुला है। ‘तू ये सबकुछ जो कर रहा है मुझे प्रभावित होने के लिए वो मेरे लिए चुटकुला है तो मैं क्यों फिर उसको अपनी समस्या बनाऊँ?’

प्र: जो एक आँकड़ा पहले साझा किया था कि २०११ के जनगणना के अनुसार भारत में आज भी करीबन सात-करोड़ महिलाएँ हैं जो कि सिंगल महिलाएँ हैं। लेकिन इसके बावजूद सरकार की तरफ़ से सिंगल महिलाओं को, विशेषतया उनकी जो आवश्यकताएँ हैं उनको उस तरीक़े से एड्रेस अभी नहीं किया गया है। कम-से-कम भारत में जहाँ पर हम शेल्टर होम्स की बात करते हैं या उस तरीक़े के इंफ्रास्ट्रक्चर्स या कम्युनिटी ग्रुप्स की बात करते हैं। जबकि सिंगल महिलाएँ ज़्यादा ऐसी हैं जो कि वर्कफोर्स में भी योगदान करती हैं।

आज भी ऐसा होता है कि अगर आपको अपनी पहचान का प्रमाण देना है और उससे सम्बन्धित कोई डॉक्यूमेंट है तो वहाँ पर आपको अपने संरक्षक का नाम जो है, पिता का नाम या फिर अपने पति का नाम लिखना पड़ता है। जबकि वो मामला पुरुषों के साथ नहीं होता है उन्हें एक एडल्ट मेन की तरह ही देखा जाता है। तो वहाँ पर किस तरीक़े से बदलाव लाने की ज़रुरत है?

आचार्य: अगर अभी भी ये हालत है कि एक सक्षम, समर्थ महिला है, वर्किंग वुमन है और सरकारी सारे दस्तावेज माँग रहे हैं कि या तो अपने पति का हस्ताक्षर लेकर आओ या अपने पिता का प्रमाण बताओ। तो ये जो सात करोड़ महिलाएँ हैं ये खड़ी क्यों नहीं होती हैं? ये तो बहुत बड़ा वोट बैंक है न, साफ़-साफ़ कह दें कि जो सरकार हमारे हक़ में नीतियाँ बनाएँगी हम उसको वोट देंगे, नहीं तो नहीं देंगे।

क्यों आप लोग उल्टे-पुल्टे मुद्दों पर वोट देते हो? भारत में तो यही मुद्दे चलते हैं जात-पात, धर्म, इन मुद्दों पर आप वोट दे रहे हैं और जो मुद्दे आपके लिए असली है उन पर वोट दो न। आप सरकार से सीधे बोल दो, सारी पार्टियों से बोल दो, आप में से जो लोग हमारे पक्ष में नीति बनाएँगे हम उसको वोट देंगे, बाक़ी बातों से मतलब नहीं। हम देश की अच्छी नागरिक हैं, हम देश के लिए बहुत उपयोगी संसाधन हैं। हम सुशिक्षित हैं, हम देश को कमाकर दे रहे हैं तो आप हमारे अधिकारों के लिए, हमारी सुरक्षा के लिए सही नीतियाँ बनाइए न। ये माँग करनी चाहिए, ये माँग करिए आप।

प्र: आचार्य जी, अभी हमारे पास जो डेटा उपलब्ध है। उसके अनुसार जो महिलाएँ काम करती हैं उनमें विवाहित महिलाएँ कम हैं, अविवाहित ज़्यादा हैं। तो इससे हमें शादियों के बारे में क्या पता चलता है, मैरिजेस के बारे में क्या पता चलता है?

आचार्य: विवाहित महिलाएँ इस हिसाब से कम होंगी कि वर्कफोर्स में उनका प्रपोर्शन (अनुपात) उनकी आबादी के अनुपात में कम होगा। ठीक है? और अनमैरिड विमन का रिप्रेज़ेंटेशन, फीमेल वर्कफोर्स में उनकी संख्या के अनुपात में ज़्यादा होगा। तो इससे क्या पता चलता है?

अगर वर्कफोर्स में ज़्यादा सम्भावना एक अविवाहित लड़की को पाने की है, न कि एक विवाहित महिला को पाने की। तो इससे यही पता चलता है कि जो मैरिज का इंस्टीट्यूशन है वो किसी प्रकार की बाध्यता बनता है कि लड़की बाहर निकलकर काम न कर पाये। तो ये बात जितनी भी लड़कियाँ शादी करने जा रही हैं उनको शादी से पहले सोचनी चाहिए कि कहीं शादी वो पिंजड़ा तो नहीं बन जाएगी जो मुझे एक जगह क़ैद कर दे!

ये एक महत्वपूर्ण डेटा है कि महिलाएँ शादी से पहले तो काम कर रही होती हैं और शादी के बाद वे काम करना छोड़ रही हैं, यही आपके डेटा से साबित होता है। अनमैरिड हैं तो वर्कफोर्स में हैं वो और जब शादी हो जाती है तो उनमें से बहुत सारी वर्कफोर्स को छोड़ देती हैं। कुछ समय के लिए छोड़ना समझ में आता है कि मान लो गर्भ का समय है तो मैटरनिटी लीव (मातृत्व अवकाश) ली हुई है तो साल-दो साल को छोड़ दिया, उतना तो समझ में आता है। पर वो ड्रॉप आउट ही हो गयी है, अब वो कभी अपने वर्क स्टेशन (कार्यस्थल) पर लौटेगी ही नहीं, तो ये तो ख़तरनाक बात है न!

तो आप अगर शादी वगैरह करने की योजना बना रही हैं तो आपको उसमें बहुत अच्छे से देखना चाहिए कि आप जिससे शादी करने जा रही हैं और जो आपका वो परिवार है आपके पति का, वो लोग कहीं आगे आपके करियर, आपके भविष्य, आपकी प्रगति में बाधा तो नहीं बनने वाले! इस चीज़ का आप अच्छे से देख लीजिए।

प्र: आचार्य जी, एक और आँकड़ा कहता है कि २०२१-२२ में कर्नाटक में, २०१७-१८ की तुलना में करीबन तीन-सौ-प्रतिशत चाइल्ड मैरिजेस (बाल-विवाह) बढ़ा है। तो इसमें कई विशेषज्ञों का ये कहना है कि ये विवाह कोरोना वायरस के समय पर काफ़ी ज़्यादा बढ़ गये क्योंकि उस समय लोगों को ये लगा कि महिला को क्योंकि एक लाइबिलिटी (दायित्व) की तरह ही देखा जाता है तो जल्दी-से-जल्दी उनकी शादियाँ करा दें।

क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की बात हम करते हैं या फिर कोरोना वायरस की, वैश्विक महामारी उस समय आयी, बहुत सारे शोध भी बताते हैं कि जब-जब कोई भी इस तरीक़े की परिस्थितियाँ बाहर बनती हैं तो सबसे पहले महिलाओं पर उसका प्रभाव पड़ता है।

आचार्य: नहीं, क्लाइमेट चेंज से अभी तो वैसे मास कैटेस्ट्राफीज़ (वैश्विक तबाही) होनी शुरू नहीं हुई हैं जिससे प्रभाव पड़ेगा, लेकिन हाँ, वॉर्स (युद्धों) में बिलकुल वैसा होगा, अकाल, फेमिन्स में वैसा होगा और ऑब्वियसली (निश्चित रूप से) जो ये आप कोविड की बात कर रही हैं उस समय वैसा होगा, बिलकुल होगा।

जिस चीज़ को आप एक बस लाइबिलिटी की तरह लेते हो जब आपके पास उस लाइबिलिटी को पालने का पैसा नहीं होगा तो जल्दी-जल्दी चाहोगे कि उस लाइबिलिटी को किसी के भी सुपुर्द कर दो। वही किया गया था और कुछ नहीं था।

ये ज़्यादातर ग़रीब लोगों ने किया है कि उनके घर की जो लड़कियाँ थीं कम उम्र की, उन्होंने कहा, ‘अब काम धन्धा है नहीं, पैसा आ नहीं रहा है, कोविड का समय चल रहा है तो इसको जल्दी से किसी के सुपुर्द कर दो ब्याह करके।’ वो सब किया गया है। इससे यही पता चलता है न, देखो कि अगर तुम्हारे पास ज्ञान की, बल की ताक़त नहीं होगी तो तुमको एक लाइबिलिटी माना जाएगा पिता के घर में भी और पति के घर में भी।

तो बेकार में इस भाव में मत रहो कि सबसे बड़ी चीज़ तो प्यार होता है। ये जो दुनिया है न इसमें प्यार को जानने वाले लोग शून्य दशमलव शून्य एक प्रतिशत (०.०१%) भी नहीं है। प्यार इतनी सस्ती चीज़ नहीं होता जैसे फिल्मों में देख लेते हो। बस लड़का-लड़की मिले प्यार हो गया या बाप ने बेटी को जन्म दे दिया तो बाप को बेटी से प्यार है। प्यार ऐसे नहीं होता। मोह, माया, ममता, आसक्ति ये सब होते हैं इस दुनिया में प्रेम नहीं होता है। कई बार हम ममता को या आकर्षण को प्रेम समझ लेते हैं।

प्रेम इस दुनिया में नहीं पाया जाता, प्रेम लाख में से कोई एक आदमी कर पाता है। तो ये दुनिया तो स्वार्थ का खेल है, ये दुनिया स्वार्थ का खेल है। प्रेम तो ऋषियों, सन्तों के हिस्से की चीज़ है। आम आदमी के जीवन में प्रेम जैसा कुछ होता ही नहीं है, वहाँ बस स्वार्थ चलता है।

तो लड़की अगर कमज़ोर है, अशिक्षित है तो उसको बोझ ही माना जाएगा। वो ये न सोचे कि तब भी तो मेरा पिता और मेरा पति मुझसे प्रेम करेगा न, भले ही मैं किसी लायक़ नहीं हूँ। नहीं, कोई प्रेम करेगा, आपको बोझ की तरह ही माना जाएगा और आपसे जो बिलकुल निचले तल के काम हैं, वो सब कराए जाएँगे और आपकी ज़िन्दगी फिर वैसी ही रहेगी एक निम्न श्रेणी के श्रमिक जैसी, वैसे ही आपका रहेगा।

प्रेम इतनी हल्की चीज़ नहीं होती है कि बाबुल के घर पैदा हुई थी तो बाबुल ने तो प्यार मुझसे करा ही होगा न!’ ऐसा नहीं होता, बाबा! या ‘पति के घर गयी हूँ तो अब मुझे नये माता-पिता मिल गये — सास-ससुर, वो तो मुझसे प्रेम करेंगे ही न! ऐसा नहीं होता।

प्र: ट्रांसफ़र ऑफ ओनरशिप (मालकियत का स्थानान्तरण) चलता है।

आचार्य: ट्रांसफर ऑफ ओनरशिप चलेगा, ’एसेट (पूँजी) हो’, ’लाइबिलिटी हो’ — वो सब चलता रहता है। प्रेम तो बहुत विरल चीज़ होती है। सारा अध्यात्म इसलिए है कि आप प्रेम सीख सको। आम आदमी ज़िन्दगी में प्रेम का एक क्षण भी जिये बिना मर जाता है। भले आप सौ बार आइ लव यू, आइ लव यू करते रहो उससे ये नहीं हो जाता कि आपको प्रेम आ गया, प्रेम नहीं है।

फिर से बोल रहा हूँ, प्रेम उनके हिस्से की चीज़ है जो साहस दिखाते हैं जीवन को समझने का, साधना करते हैं मन की गहराइयों में उतरने की, प्रेम बस उनको उपलब्ध हो पाता है बाक़ी पूरी दुनिया स्वार्थ पर चलती है और हर इंसान, हर स्त्री, हर पुरुष को ये बात याद रखनी चाहिए कि ये दुनिया सिर्फ़ स्वार्थ का खेल है, सिर्फ़ स्वार्थ का खेल है। बेकार में कहीं किसी नकली चीज़ को प्रेम मत समझ लेना, बहुत धोखा खाओगे।

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