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लेख
सेक्स से इतना घबराता क्यों है धर्म? || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
18 मिनट
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प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी! आदि शंकराचार्य के विषय में ये कथानक है कि जब काशी में मंडन मिश्र के साथ उनका एक शास्त्रार्थ होता है, तो उनकी पत्नी काम (सम्भोग) से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछतीं हैं। तो जैसा मुझे पता है कि वो अपने स्थूल शरीर को त्यागकर किसी सम्राट के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और वहाँ से फिर वो उस अनुभव को लेकर आते हैं। तो क्या कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर ऐसा भी कुछ है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, इसका जो उत्तर है वो इतना सीधा, इतना स्पष्ट है कि साधारण बुद्धि भी उसको देख ले, लेकिन धार्मिक बुद्धि उसे नहीं देख पाएगी। क्योंकि जैसे ही धार्मिकता आ जाती है, तो सहजता पर पर्दा पड़ जाता है। ‘धर्म’ जिसको हम कहते हैं वो अधिकांशतः भय पर और वर्जना पर आधारित रहा है, पूरे विश्व में। और भय रहा है, वर्जना रही है इसीलिए अज्ञान और हिंसा उसमें बहुत रहे हैं।

तो धर्म होता तो इसीलिए है कि आपको आत्मा से ही पता चल जाए कि क्या उचित है और क्या अनुचित। यही तो धर्म का अर्थ होता है न? कि आपके स्वयं के अन्दर ही वो बिन्दु आ जाए जो आपको बस प्रेम के नाते सत्य की ओर धकेलता रहे कि “मेरे भीतर ही प्रेम है और मेरा प्रेम ही मुझे सही दिशा में बार-बार प्रेरित-प्रेषित करता रहता है।” पर धर्म ने आत्मा पर, माने ब्रह्म पर, बहुत ही कम ध्यान दिया है। उसकी जगह धर्म ने पूजना शुरू कर दिया, अपनी ही मानसिक कल्पनाओं को।

नतीजा ये कि जब भीतर के बिन्दु की उपेक्षा कर, बाहर के किसी रचयिता को पूजा जाता है, तो वो भीतर का बिन्दु आपके लिए निष्क्रिय हो जाता है। आपको पता चलना बन्द हो जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत।

तो इन्सान फिर क्या करे? और समाज कैसे चले? क्योंकि कुछ तो कहीं से ख़बर आनी चाहिए न, कुछ तो पैमाना होना चाहिए न सही-ग़लत का। भई! सही-ग़लत के निर्णय के बिना न इन्सान चल सकता है और न ही समाज चल सकता है।

अध्यात्म इसीलिए होता है, ठीक से समझिएगा! अध्यात्म इसीलिए होता है ताकि आपके भीतर ही वो बोध आ जाए कि आप स्वयं ही निर्णय कर लें कि क्या सही, क्या ग़लत। फिर आपको बाहरी किसी निर्देश की या नैतिकता की आवश्यकता नहीं रहती है। बाहरी निर्देश और नैतिकता वैसे भी बहुत आधे-अधूरे होते हैं। वो हर स्थिति में आपके काम नहीं आ सकते। किस बिन्दु पर आपको क्या करना है, इसके सही निर्णेता वास्तव में सिर्फ़ आप ही हो सकते हैं। कोई बाहरी नियम-कायदा, परम्परा-कानून इत्यादि थोड़ा-बहुत कामचलाऊ तरीक़े से सहायक हो सकते हैं पर उनसे बात पूरी नहीं बनती है।

तो जब आत्मा की उपेक्षा करी धर्म ने, सत्य की उपेक्षा करी, और सत्य की जगह धर्म ने पूजना शुरू कर दिया, न जाने और कितनी पचास चीज़ों को; ये किस्से, ये कहानियाँ, दुनिया भर में यही हुआ है। ऐसा हुआ था फिर वैसे हुआ था; ये हुआ था फिर वो हुआ था। धर्म में एक ही चीज़ पूजनीय होनी चाहिए, वो है “सत्य।” और भारत में सत्य के लिए नाम रहा है, “ब्रह्म।” और वेदान्त आपको बताता है कि ब्रह्म और आत्मा एक हैं। तो उस सत्य को आप ब्रह्म नाम दे सकते हैं, आत्मा नाम दे सकते हैं, और वही बस धर्म का पूज्य विषय होना चाहिए। उसके अतिरिक्त कुछ और होना नहीं चाहिए।

और जब आत्मा पूज्य विषय होती है न, तो डर नहीं रह जाता। और बहुत ज़्यादा नियम-कायदे बनाने की ज़रूरत बचती नहीं है। और आत्मा जब पूज्य नहीं रहती है, तो छोटी-से-छोटी बात आदमी को समझ में नहीं आती कि, क्या निर्णय लें?, किधर को जाएँ?, जियें कैसे?, क्या अच्छा है, क्या बुरा है? क्या सही, क्या ग़लत? कुछ नहीं पता चलता। तो इसीलिए आप पाते हो कि धार्मिकता जहाँ जितनी ज़्यादा होती है विश्वभर में, वहाँ वर्जनाएँ उतनी ज़्यादा होतीं हैं।

अब बात समझ में आ रही है कुछ? क्योंकि ये जिसको हम धार्मिकता कहते हैं ये बड़ी कच्ची धार्मिकता है, ये असली धार्मिकता नहीं है। इस धार्मिकता में क्या करा जाता है? इस धार्मिकता में आत्मा की उपेक्षा करी जाती है और मान्यताओं और परम्पराओं की पूजा करी जाती है। और जब आत्मा की उपेक्षा करी जाएगी, दोहराकर कह रहा हूँ, तो आपको कुछ पता नहीं चलेगा जीवन में कि क्या सही है, क्या ग़लत।

श्रीमद्भगवद्गीता में यही तो हो रहा है। अर्जुन को नहीं पता चल रहा न, अर्जुन की आप देखिए हालत। किंकर्तव्यविमूढ़ता उसकी देखिए, धर्मसंकट उसका देखिए। धर्मसंकट कहते हैं न उसको, ‘धर्मसंकट।’ नहीं समझ में आ रहा कि, क्या करे, धर्म क्या है। क्योंकि धर्म का स्रोत तो इधर होता है, भीतर अपने केन्द्र में। लेकिन धर्म का स्रोत जब अपने से बाहर किसी प्रणाली को बना दिया जाएगा, मान्यता की किसी व्यवस्था को, किसी बिलीफ सिस्टम को बना दिया जाएगा, तो आदमी के सामने हर क्षण धर्मसंकट ही खड़ा रहेगा। नहीं समझ में आएगा कि क्या करें, क्या न करें। तो तब फिर उसको बहुत सारी वर्जनाएँ देनी पड़ती हैं कि, इतनी-इतनी चीज़ें हैं जो बिलकुल नहीं करनीं हैं और इतनी-इतनी चीज़ें हैं जो बिलकुल करनीं हैं।

अब आपको लग रहा होगा कि आपके सवाल से बात दूर जा रही है। नहीं, दूर नहीं जा रही है। इस पूरी बात को समझेंगे, तभी समझ में आएगा कि उस चीज़ से कैसे सम्बन्ध है।

अब आदमी के भीतर जो एक बड़ी-से-बड़ी वृत्ति होती है, उद्दाम कामना होती है, वो काहे की होती है? सेक्स (कामवासना) की। तो धर्म अकेली चीज़ है, वास्तविक धर्म अकेली चीज़ है जो आपको सेक्स के मसले में, वासना के मसले में, कुछ सहायता दे सकता है। सिर्फ़ वही आपको सचमुच बता पाएगा कि, आप कौन हैं, शरीर कौन है और शरीर में जो तरह-तरह के आवेग उठते हैं, इनका स्थान क्या है जीवन में। और अगर आपके पास वास्तविक धर्म नहीं है माने अगर आपने आत्मा को नहीं जाना है, आत्मज्ञान नहीं रहा है आपकी धार्मिकता में, तो सबसे ज़्यादा आपके कदम लड़खड़ाऍंगे वासना के ही मुद्दे पर।

ये बात समझ में आ रही है?

जब आत्मज्ञान नहीं होता तो आदमी सबसे ज़्यादा लड़खड़ाता है, शरीर के सामने। शरीर माने भाव। भावनाएँ उठतीं हैं और आदमी को बहा ले जातीं हैं। ये अधार्मिक चित्त की बड़ी निशानी होती है कि वो भावनाओं के सामने खड़ा नहीं रह पाता उसके पाँव उखड़ जाते हैं बिलकुल। भावनाएँ आऍंगी और वो कभी क्रोध में, कभी शोक में, और कभी वासना में, किधर को भी बह जाएगा, कुछ भी निर्णय ले लेगा। और यही सोचने लगेगा कि भावनाएँ तो बड़ी बात होतीं हैं। और वो भावनाओं को एक प्रकार की पूजनीयता भी दे देगा। भावनाओं को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखने लगेगा कि भावना बड़ी बात होती है। क्योंकि ये वो व्यक्ति है जिसने आत्मा को नहीं जाना। जिसका धर्म बाहरी है।

तो मैं जिसको ‘कच्चा धर्म’ बोल रहा था, थोड़ी देर पहले, उसको आप कह सकते हैं, ‘बाहरी धर्म।’ एक होता है बाहरी धर्म और एक होता है भीतरी धर्म। आप याद करिएगा कल हमने कहा था कि धर्म ऊँची-से-ऊँची चीज़ भी है और नीची-से-नीची चीज़ भी है। अब आप यहाँ पर एक सम्बन्ध बैठा पा रहे होंगे। जिसको मैं कल कह रहा था कि धर्म ऊँचे-से-ऊँचा है वो कौन सा धर्म है?

श्रोता: भीतरी धर्म।

आचार्य: वो सत्य वाला धर्म है, भीतरी धर्म। जिसमें बात आत्मा और ब्रह्म की होती है, वो भीतरी धर्म है उससे ऊॅंचा कुछ नहीं होता और वही धर्म जब बाहरी बन जाता है, जिसमें बात बस मान्यता, धारणा, कल्पना की होती है, तो उससे गड़बड़ कुछ नहीं होता।

समझ में आ रही है बात?

ये जो भीतरी धर्म होता है ये डरता नहीं, घबराता नहीं। क्योंकि ये तो स्पष्टता को और सत्य को ही पूजता है। डरना क्या? घबराना क्या? कोई चीज़ सामने आ रही है जो समझ में नहीं आ रही है तो हम उसे समझना चाहेंगे और अगर कोई चीज़ ऐसी सामने आई है जिससे भीतर डर उठता है या मोह उठता है, विषाद उठता है, शोक उठता है या कुछ भी और है। तो हम जानना चाहेंगे कि, ये जो बाहरी चीज़ आई है, उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया ऐसी क्यों हो रही है?

ये भीतरी धर्म का काम होता है। वो अपनी प्रतिक्रियाओं को महत्व नहीं देता, वो अपनी प्रतिक्रियाओं को ही सच नहीं मान लेता, वो उन्हें समझना चाहता है। ये है भीतरी धर्म का काम है। ये असली धर्म है। और इसीलिए भारत की शान हैं, “वेदान्त।” क्योंकि ये भीतरी धर्म इसे आप संयोग कह लीजिए या जो भी कहना हो कह लीजिये, ये भीतरी धर्म दुनिया में कहीं और पाया ही नहीं गया। मान्यताएँ, कल्पनाएँ, क्रिऐटर (सृष्टिकर्ता), गॉड (भगवान), रचयिता, ये सब चीज़ें तो पूरी दुनिया में पाई गईं। ब्रह्म की बात बस भारत में हुई। तो धर्म का अर्थ ही होता है ब्रह्म और आत्मा। बाकी सब तो ऐसे ही है। बाकी सब से कोई लेना-देना नहीं है।

तो ये जो भीतरी धर्म होता है, इसे झूठ बोलने की ज़रूरत पड़ती नहीं। और बाहरी धर्म को बार-बार झूठ बोलना पड़ता है क्योंकि उसने सत्य को तो महत्व दिया ही नहीं। उसने महत्व किसको दिया है? कहानी को। तो साहब! आप जब सत्य को महत्व नहीं दोगे तो ज़ाहिर सी बात है, आपको किसमें जीना पड़ेगा? झूठ में जीना पड़ेगा। तो बाहरी धर्म में झूठ बहुत चलता है और बड़ी निर्लज्जता से चलता है। वहाँ वो कुछ भी बोल देंगे और कहेंगे ऐसा हुआ था। वो बात बिलकुल साफ़ है कि ऐसा हो नहीं सकता पर वो कहेंगे, 'ऐसा हुआ था!' और जो ये बाहरी धर्म हैं उनको मानने वाले की मुसीबत ये है कि उसको मानना भी पड़ता है कि ऐसा हुआ था। क्यों? क्योंकि वो हमारी किताब में लिखा है कि ऐसा हुआ था।

तो इसीलिए बाहरी धर्म वालों को बड़ी तकलीफ़ आयी जब ‘गैलीलियो’ ने बताया कि, साहब! पृथ्वी चपटी नहीं है! गोल है! तो ये बाहरी धर्म वाले बिलकुल बिलबिला गए, हुआ कि मार ही दें। फिर हुआ इसको सज़ा दे दें। फिर, चलो ठीक है, माफ़ी माॅंग लो, छोड़ देते हैं। ये सब चर्च (गिरजाघर) ने करा था। ये सब बाहरी धर्म का काम होता है, जहाँ पर सत्य के अन्वेषण जैसी कोई बात नहीं, जहाँ बस ये कह दिया गया है कि, लिखा हुआ है, मानो! और बाहरी धर्म में एक बात और होती है, वहाँ सत्य की खोज-खुदाई की ज़रूरत इसीलिए भी नहीं पड़ती क्योंकि वहाँ सबसे पहले एक मूल-झूठ को मान्यता दे दी जाती है। बताइये वो मूल-झूठ कौन सा है?

श्रोता: द्वैत।

आचार्य: हाँ। ‘मैं हूँ और संसार है और हम दोनों तो सत्य हैं ही।’ ये जो बाहरी धर्म है इसकी आपको पहचान करनी हो तो वहाँ आपको सबसे पहले ये मान्यता मिलेगी कि मैं भी हूँ, दुनिया भी है और उसके बाद वो शुरू हो जाऍंगे, अच्छा दुनिया है तो दुनिया ऐसे बनी थी और दुनिया बनाने वाले ने ये-ये नियम-कायदे दिए हैं और ऐसे दुनिया के बाद किसी और दुनिया में जाते हैं और ये स्वर्ग होता है ये नर्क होता है, मतलब वहाँ पर कभी भी ये बात तो उठेगी ही नहीं कि, साहब! मुझे जानना है। वहाँ कहा जाएगा कि इतना तो हम पहले से ही जानते हैं कि, मैं हूँ और दुनिया है। ठीक है? तो वहाँ पर सच्चाई से बड़ा डर रहता है। वह पर तरह-तरह के झूठ जो है बड़ी आसानी से बोल दिए जाते हैं।

अब ये जो बात है कि मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ हो रहा था तो उनकी पत्नी आ गईं और उन्होंने काम-विषयक कुछ प्रश्न रख दिए, आचार्य शंकर के सामने। अब आपको एक कहानी सुना दी गई है कि उन्होंने कहा कि इस विषय में तो मैं कुछ जानता नहीं। तो फिर वो गए‌‌ और उन्होंने कहा, ‘मैं पता कैसे करूँ?’ और जब मिश्र जी की पत्नी ये प्रश्न पूछ रहीं थी, तो उन्होंने आपत्ति भी जताई कि, ‘तुम ऐसे आदमी से क्यों ये सवाल पूछ रही हो? इन्हें काम का, सेक्स का, कोई अनुभव नहीं है। ये तुम्हारे सवालों का क्या जवाब देंगे?’

तो पत्नी ने कहा कि, ‘अगर हम वाकई शास्त्रार्थ कर रहे हैं तो उसमें तो पूरी दुनिया की बात आनी चाहिए न। जीवन में जो कुछ भी है, हर विषय में मैं तो प्रश्न पूछूँगी और अगर ये इतने ही ज्ञानी हैं तो ये मुझे सेक्स के बारे में भी जवाब देकर दिखाएँ।’ तो कहा जाता है कि आचार्य शंकर बोले, ‘हाँ, बात तो ठीक है। क्योंकि ज्ञान में तो सबकुछ आता है और ये ज्ञान भी होना चाहिए, वो ज्ञान तो है नहीं।

तो फिर कहते हैं कि वो गए, तभी एक राज्य की ताज़ी-ताज़ी मृत्यु हुई थी। राजा का शव पड़ा हुआ था। तो कहते हैं कि आचार्य शंकर उसके शरीर में प्रवेश कर गए और राजा जीवित हो गया और फिर उसने अपनी सब रानियों के साथ सेक्स करा और इसी तरह से आचार्य शंकर को ज्ञान हो गया कि वासना क्या होती है और जो भी प्रश्न पूछे गए होंगे, मंडन मिश्र की पत्नी द्वारा। वो भी एक विदुषी स्त्री थीं। उन्होंने जो भी बातें पूछी थीं, आचार्य शंकर ने उसका उत्तर दे दिया।

तो ये हमको कहानी बताई हुई है। अब क्या करें इस कहानी का? (श्रोतागण हँसते हुए) अब क्या करें इस कहानी का? क्या करें? अब हम भी मौजूद तो वहाँ थे नहीं, तो हम भी बता तो कुछ सकते नहीं है कि बिलकुल तथ्य के तौर पर इक्ज़ेक्ट्ली (ठीक-ठीक) क्या हुआ था। लेकिन इतना तो पक्का है कि ये तो नहीं हुआ था।

या तो उन्होंने हाथ जोड़कर क्षमा माॅंग ली होगी कि, ‘देवी, इस विषय में मैं अनाड़ी हूँ। मुझसे कुछ पूछो मत।’

या तो मंडन मिश्र ने ही अपनी पत्नी को समझा दिया होगा कि, ‘देखिए! ये आउट ऑफ सिलेबस (पाठ्यक्रम से बाहर) है, ये सब बातें शास्त्रार्थ के विषय के अंतर्गत आती नहीं हैं। तो ये हमारे ज्ञानी मित्र हैं, आचार्य शंकर जी, इन्हें क्षमा करें।’

या जो तीसरी सम्भावना है वो ये है कि आचार्य शंकर को इस विषय में ज्ञान था पहले से। तो उन्होंने अपना ज्ञान बता दिया और सन्तुष्ट कर दिया देवी जी को।

चौथी सम्भावना ये है कि ज्ञान नहीं था, तो गए कहीं से ज्ञान लेकर के आए। अब जो भी तरीक़ा उन्होंने अपनाया हो ज्ञान लेने का, मैं क्यों कुछ बोलूँ? (श्रोतागण हँसते हुए)

लेकिन ये जो आपको कहानी बताई जाती है अब ये क्या करूँ इस कहानी का? ठीक है। हाँ, इतना ज़रूर है कि ये जो बाहरी धर्म को मानने वाले लोग हैं अगर आप उनसे बोलेंगे कि कहानियाँ झूठीं हैं, तो वो आपका गला पकड़ लेंगे। वो बोलेंगे कि, ऐसा हुआ था।

क्योंकि उनकी समस्या ये है कि उन्होंने शुरुआत ही स्थूल करी है न। तो वो किसी भी कथा के सूक्ष्म अर्थ को जान ही नहीं सकते। वो बेचारे नाकाबिल हो जाते हैं।

स्थूल शुरुआत क्या होती है? ये कहना कि, ये जो स्थूल जगत है, ये तो है ही। और ये जो स्थूल देह है, ये तो है ही।

आचार्य: जब शुरुआत ही स्थूल करी होती है तो फिर स्थूल कहानियों के सूक्ष्म अर्थ निकाल पाने की आपकी जो काबिलियत होती है, क्षमता होती है, वो एकदम शून्य हो जाती है। फिर आपको जो भी कहानी बताई जाती है उसे आप सीधे-सीधे शाब्दिक अर्थ में ले लेते हैं। लिटरल फेस वैल्यू पर ले लेते हैं। आप कहते हैं, जिस तरीक़े से लिखा गया है, बिलकुल यही तो हुआ था, बिलकुल यही हुआ था।

तो अब, इसमें देखिए, हम अगर कुछ दावा करें कि, ऐसा नहीं, वैसा हुआ था, तो हमारा भी वो दावा करना उचित नहीं है क्योंकि न तो हम वहाँ मौजूद थे और न तो वहाँ कोई कैमरा लगा हुआ था, न कोई हमें बहुत विश्वसनीय उल्लेख मिलता है कहीं पर कि वास्तव में क्या, कैसे हुआ होगा। तो हम भी बस अनुमान ही लगा सकते हैं।

लेकिन इतना तो पक्का है कि ये जो बात की गई है कि, मरे हुए राजा की देह में प्रवेश कर गए और उसके बाद उस राजा की रानियों से रति विषयक सम्बन्ध बनाए और इस तरह से उनको पता चला कि ये चीज़ क्या होती है और फिर उन्होंने आकर के देवी जी के प्रश्नों का उत्तर दिया। ये बात जहाँ से मैं देख रहा हूँ, मुझे तो बहुत अविश्वसनीय लगती है।

प्र: सर, विश्वास तो मुझे भी नहीं होता है इस सारी कहानी पर, लेकिन इसके माध्यम से आगे जो वो तर्क देते हैं कि देखिए स्थूल शरीर के मरने के बाद एक कारण शरीर होता है जिसमें कि हमारे सारे संस्कार केरी फॉरवर्ड होते हैं।

आचार्य: संस्कारित होने के लिए कुछ होना चाहिए न जो संस्कारित हो। और जो चीज़ संस्कारित होती है, वो बहुत स्थूल होती है। वो जो स्थूल चीज़ है उसमें तो लग गई आग और वो हो गई राख। तो अब संस्कारित होने को क्या बचा है?

आप जानते हो, जब आपके ऊपर कोई प्रभाव पड़ता है, जब आप किसी अनुभव से गुज़रते हो, तो आपकी स्थूल कोशिकाएँ ही बदल जातीं हैं। सॉफ्टवेयर लिखा जाए इसके लिए पहले हार्डवेयर तो होना चाहिए न? संस्कार माने? साॅफ्टवेयर।

आचार्य: और उसके लिए क्या होना चाहिए?

श्रोता: हार्डवेयर।

आचार्य: और अगर हार्डवेयर ही तोड़-फोड़ दिया तो उसमे जो मेमोरी (याद्दाश्त) थी उसका क्या हुआ? वो गई न? आपका मोबाइल है, आप उसको संस्कारित करते हो, कैसे? पहले आप उसमे स्थूल संस्कार डालते हो, वो होती हैं ऐप्स। मैं एंड्रॉयड की बात कर रहा हूँ। फिर आप उसमें सूक्ष्म संस्कार और डालते हो, वो क्या होता है? ऐप्प के अंदर का डेटा। ये आप संस्कारित कर रहे हो उसको। ठीक है न? अब आपने उसको ही तोड़-फोड़ दिया, तो क्या बचा? कोई डेटा बचता है, जब एक बार आपका मोबाइल टूट जाता है?

आपकी हार्ड डिस्क है क्योंकि मैं मोबाइल बोलूँगा तो कुतर्क आएगा ये कि, वो तो सेंट्रल सर्वर में सेव हो जाता है। आपकी हार्ड डिस्क है, अभी आप मुझसे बात कर रही हैं न, इस बातचीत के कारण आपका शरीर बदल रहा है। आपका शरीर जो है, बदल रहा है। अगर किसी तरीक़े से आपके ब्रेन (दिमाग) की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स (विद्युत चुम्बकीय तरंगें) अभी इस परदे पर दिखाई जा सकतीं, और ऐसा प्रयोग हम कर सकते हैं, तो आपको पता चलेगा कि आप जैसे-जैसे सत्र में गहरे जाते हो, जो आपकी यहाँ(मस्तिष्क की तरफ़ इशारा करते हुए) की तरंगे हैं वो बदलती जातीं हैं, ज़्यादा लयात्मक होती जातीं हैं। और ये सब कोई आज के प्रयोग नहीं है, ये सब बीस-बीस, चालीस-चालीस साल पहले हो चुके हैं और ये सब बहुत आसानी से उपलब्ध भी हैं। आप पढ़ लीजिएगा, आपको मिल जाऍंगे। तो जो भी आपने अनुभव करे होते हैं, वो आपके शरीर में ही जाकर के बैठ गए होते हैं। यही वजह है कि आपके सामने जब कोई क्रूर आदमी आता है, तो दस में से सात-आठ मामलों में आप उसकी शक्ल से ही पहचान लेते हो। कर लेते हो न? दो-तीन दफ़े ग़लती भी होती है पर आप पहचान तो लेते हो कि कुछ तो गड़बड़ चल रही है।

यही वजह है कि अगर जुड़वा बच्चे भी पैदा हुए हों लेकिन अगर वो अलग-अलग अनुभवों से गुज़रें, तो आप पाते हो कि उनकी शक्लें अलग हो जाती हैं। शक्लें अलग ऐसे नहीं हो जाऍंगी कि एक के गाल ज़्यादा चौड़े हो जाऍंगे या कुछ और है पर हो जाता है। समझ में आ रही है बात? आपके जो भी संस्कार थे, वो शरीर में ही तो बैठ गए थे न? और शरीर क्या हो गया?

श्रोता: समाप्त हो गया।

आचार्य: तो संस्कार कहाँ बचे? कौन से संस्कार? कैसे संस्कार?

प्र: जी। धन्यवाद आचार्य जी।

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